Thursday, October 13, 2016

चर्चा प्लस ... रावणों पर विजय पाती आज की स्त्री .... डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
 
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (05.10. 2016) .....
 
My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
  
 
 
रावणों पर विजय पाती आज की स्त्री
- डॉ. शरद सिंह
 
रावण कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु पुरुष प्रधान समाज में मौजूद वह आसुरी प्रवृत्तियां हैं जो स्त्री को सदा दोयम दर्जे पर देखना चाहती हैं, उन्हें दलित बनाए रखना चाहती हैं। किन्तु सुखद पक्ष यह भी है कि इन आसुरी प्रवृत्तियों से जूझती हुई लड़कियां आईटी क्षेत्र और अनुसंधान क्षेत्र में भी तेजी से आगे आई हैं। वे अब पढ़ने की खातिर अकेली दूसरे शहरों में रहने का साहस रखती हैं। वे उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक काम कर रही हैं जिन्हें पहले लड़कियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। दरअसल, समाज में विभिन्न रूपों में मौजूद बाधाओं रूपी रावणों पर स्त्रियां विजय पाती जा रही हैं। सतयुग में सीता रावण के छल का शिकार बनी। राम स्वर्णमृग को पकड़ने चल दिए। राम की पुकार समझ कर लक्ष्मण द्वार पर रेखा खींच कर राम की ओर चल पड़े। लक्ष्मण जाते-जाते सीता को समझा गए कि उनके द्वारा खींची गई रेखा को वे न लांघें। यह कथा सर्वविदित है कि लक्ष्मण के जाते ही रावण साधुवेश में आया और दान-धर्म का वास्ता दे कर सीता को विवश कर दिया कि वह लक्ष्मण-रेखा को लांघ जाएं। रेखा लांघते ही रावण ने सीता का हरण कर लिया। तब से यह कहावत चल पड़ी कि स्त्रियों को लक्ष्मण-रेखा नहीं लांघनी चाहिए। इसी कथा का दूसरा पहलू देखा जाए तो कहावत यह भी होनी चाहिए कि स्त्रियों को किसी भी अपरिचित पुरुष का विश्वास नहीं करना चाहिए। न जाने किस पुरुष रूप में रावण मौजूद हो? किन्तु स्त्री न तो सतयुग में डरी और न कलियुग में भयभीत है। भले ही जन्म से मृत्यु तक उसे भिन्न-भिन्न रूप में रावण का सामना करना पड़ता है।
भारतीय स्त्री के सामाजिक विकास की कथा यदि लिखी जाए तो उसमें आए उतार-चढ़ावों से स्त्री के संघर्ष की कथा बखूबी उभर कर सामने आ जाएगी। दिलचस्प बात है कि मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं का वास्ता दे कर पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह जैसी कुप्रथाओं को हर बार परिस्थितिजन्य ‘बेचारगी’ कह दिया जाता है। जबकि इन्हीं कारणों एवं परिस्थितियों के बारे में दूसरे पक्ष से विचार करें तो समाज की और विशेष रूप से पुरुषों की वह कमजोरी साफ-साफ दिखाई देती है जिसमें वे हाथ में तलवार धारण कर के भी अपनी स्त्रियों को बचाने में सक्षम साबित नहीं होते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि -‘हम तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते हैं इसलिए या तो तुम पर्दे के पीछे छिपी रहो या फिर आग में, पानी में कहीं भी कूद कर अपने प्राण दे दो।’ जो स्त्रियां भयभीत हो गईं या जिनमें परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढालने का साहस नहीं था, उन्होंने अपने पुरुषों की बात मान ली। लेकिन जिनमें संकटों से जूझने का साहस था वे जीवित रहीं और उनके जीवित रहने से ही सामाजिक पीढ़ियों का सतत प्रवाह जारी रह सका।


Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

दस नहीं अनेक सिर

सतयुग में रावण के दस सिर थे लेकिन आज स्त्री के विरूद्ध़ खड़े संकट रूपी रावण के दस नहीं अनेक सिंर हैं। जन्मपूर्व से मृत्यु तक जिनसे जूझना उसकी नियति बन चुकी है। स्त्री के जन्म से भी पहले अर्थात् कन्या भ्रूण को इस दुनिया में आने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उसका जन्म मां की दृढ़ता और पिता की सकारात्मक सोच पर निर्भर रहता है। जन्म के बाद भाइयों की अपेक्षा उपेक्षा का सामना उसकी नियति बन जाती है यदि परिवार दकियानूसी परिपाटी पर जी रहा हो तो। बेटी के लिए पढ़ाई, पौष्टिक खाना, खेल-कूद नहीं अपितु घर-गृहस्थी की चक्की के पाट तैयार रहते हैं। इसी चक्की को चलाने और उसमें स्वयं पिसने की शिक्षा उसे दी जाती है। यदि लड़की स्कूल-कॉलेज में पढ़ने जाती है तो उस पर हाजार पाबंदियां ठोंक दी जाती हैं। वह क्या पहने, क्या नहीं? वह क्या पढ़े, क्या नहीं? वह मोबाईल फोन रखे या नहीं? आदि-आदि। उस पर छेड़खानी करने वाले मजनुओं का सामना, शारीरिक क्षति पहुंचाने की धमकी का सामना, दोस्त बन कर अश्लील एम.एम.एस. बना कर ब्लैकमेल करने वालों का सामना।
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के अलावलपुर गांव में छह महिलाओं को खरीदने के वास्ते एक दर्जन से ज्यादा लोग जमा थे। महिलाओं को बेचने वाले उनकी ओर इशारा करके बोली लगा रहे थे। बिहार में गरीबी का दंश झेल रहीं इन महिलाओं को यह ख्वाब दिखाकर लाया गया था कि उत्तर प्रदेश में उनकी शादी कराई जाएगी और वहां आराम से अपना घर बसाकर रहेंगी। बागपत की तरह सहारनपुर के घाटमपुर गांव में पंचायत ने बाजार में महिलाओं की खरीदारी पर रोक लगा दी गई थी। महिलाएं खरीदारी के लिए बाजार में नहीं जाएंगी। महिलाएं घर के बाहर नल पर पानी नहीं भर सकेंगी। पंचायत ने पांच-पांच व्यक्तियों की छह टीमें बनाई गईं, जो गांव में घूमकर निगरानी करती थी और दोषी से निर्धारित जुर्माना वसूलती थीं। विरोध करने पर दोगुना जुर्माना लगता था। भला ऐसे गांवों-कस्बों की बेटियां सानिया मिर्जा, कण्णेश्वरी देवी, इंदिरा नूयी, सुनिता विलियम्स, साक्षी अथवा सायना नेहवाल बन सकना क्या संभव है?


चुनौती स्वीकार है उसे

इन सारी विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय स्त्री प्रतिदिन स्वयं को साबित करती जा रही है। उसे हर चुनौती स्वीकार है। जब कोई औरत कुछ करने की ठान लेती है तो उसके इरादे किसी चट्टान की भांति अडिग और मजबूत सिद्ध होते हैं। मणिपुर की इरोम चानू शर्मीला इसका एक जीता-जागता उदाहरण हैं। कुछ लोगों को लगा था कि यह आम-सी युवती शीघ्र ही वह अपना हठ छोड़ कर सामान्य ज़िन्दगी में लौट जाएगी। वह भूल जाएगी कि मणिपुर में सेना के कुछ लोगों द्वारा स्त्रियों को किस प्रकार अपमानित किया गया। किन्तु 28 वर्षीया इरोम शर्मीला ने ने संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा। वे न्याय की मांग को लेकर संघर्ष के रास्ते पर जो एक बार चलीं तो उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह स्त्री का वह जुझारूपन है जो उसकी कोमलता के भीतर मौजूद ऊर्जस्विता से परिचित कराता है।
धनगढ़ (गड़रिया) परिवार में जन्मीं सम्पत देवी पाल उत्तरप्रदेश के बांदा जिले में कई वर्ष से कार्यरत हैं। सम्पत देवी पाल के दल का नाम है ‘गुलाबी गैंग’। सम्पत पाल के गुलाबी दल की औरतें निपट ग्रामीण परिवेश की हैं। वे सीधे पल्ले की साड़ी पहनती हैं, सिर और माथा पल्ले से ढंका रहता है किन्तु उनके भीतर अदम्य साहस जाग चुका है। सम्पत पाल के अनुसार ‘‘जब पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी हमारी मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं तब विवश हो कर हमें कानून अपने हाथ में लेना पड़ता है। यह गैरकानूनी गैंग नहीं है, यह गैंग फॉर जस्टिस है।’’
इसी तरह अनेक स्त्रियां शहरों में, गांवों में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। मुंबई की स्लम बस्ती धारावी में पिछले पंद्रह साल से जूझ रही मधु सर्वटे अपने लिए नहीं लड़ती हैं, वे लड़ती हैं उन औरतों को न्याय दिलाने के लिए जो दैहिक शोषण का शिकार हैं और जिनके पास न्याय पाने का न तो हौसला है और न क्षमता। पुरानी दिल्ली की गंदी बस्ती में लड़कियों की शिक्षा के लिए प्रयासरत शिवा मुरलीधरन एक आम औरत की तरह ही हैं लेकिन उनकी आकांक्षा, उनके प्रयास उन्हें औरों से अलग बनाते हैं। ये दोनों औरतों ने जब स्लम बस्तियों की ओर कदम बढ़ाया तो सबसे पहले उन्हें अपने परिवार से ही विरोध झेलना पड़ा लेकिन उनके आत्मविश्वास ने उनका साथ दिया। देखा जाए तो समाज के हर स्तर पर स्त्रियां चुनौतियों का सामना डट कर कर रही हैं। इनमें से कुछ सुर्खियों में जगह पा जाती हैं तो कुछ खामोशी से अपना काम करती रहती हैं।
दहेज के लिए जलाया जाना, इकतरफा प्रेम में मौत के घाट उतार दिया जाना, तेजाब का शिकार बनाया जाना और इन सबके साथ सैकड़ों बंदिशों का बोझ उनकी ज़िन्दगी पर लाद दिया जाना रावणी ताकतों से भी बढ़ कर त्रासद हैं। फिर भी स्त्रियों ने न केवल ‘सर्वाइव’ किया है बल्कि स्वयं की क्षमताओं को साबित किया है।
  विजय सुनिश्चित है

आज की स्त्री सम्हल कर चलना सीख गई है। सत्तर-अस्सी के दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बाद की स्त्री में बहुत अंतर आ चुका है। उसने ‘देवी’ और ‘दासी’ इन दोनों छवियों के बीच का रासता ढूंढ लिया है, ठीक मध्यममार्ग की तरह। यह न तो शोषित है और न ही विद्रोही। मानो वह घोषणा कर रही हो कि ‘मेरी क्षमता देखो और तय करो कि तुम मुझे दोनों में से किस पाले में रखना चाहते हो? यदि दोनों में नहीं तो मुझे अपने लिए स्वयं रास्ता बनाने दो और आगे बढ़ने दो, बस तुम मेरे साथ-साथ चलो, न आगे-आगे और न पीछे-पीछे।’ उसे अब रावणों को पहचानना और उनसे निपटना आता जा रहा है। रावण कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु पुरुष प्रधान समाज में मौजूद वह आसुरी प्रवृत्तियां हैं जो स्त्री को सदा दोयम दर्जे पर देखना चाहती हैं, उन्हें दलित बनाए रखना चाहती हैं। किन्तु सुखद पक्ष यह भी है कि इन आसुरी प्रवृत्तियों से जूझती हुई लड़कियां आईटी क्षेत्र और अनुसंधान क्षेत्र में भी तेजी से आगे आई हैं। वे अब पढ़ने की खातिर अकेली दूसरे शहरों में रहने का साहस रखती हैं। वे उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक काम कर रही हैं जिन्हें पहले लड़कियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। दरअसल, समाज में विभिन्न रूपों में मौजूद बाधाओं रूपी रावणों पर स्त्रियां विजय पाती जा रही हैं। स्त्री के पक्ष में अब यह विजय सुनिश्चित है क्यों कि पुरुष भी स्त्रियों की क्षमता को स्वीकार करने लगे हैं।
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Thursday, October 6, 2016

चर्चा प्लस ... कचरे के ढेर में पड़े नवजात शिशु .... डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (05.10. 2016) .....
 
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कचरे के ढेर में पड़े नवजात शिशु
- डॉ. शरद सिंह
 
जब कोई नवजात शिशु किसी कचरे के ढेर में पड़ा हुआ मिलता है तो उसकी ख़बर के शीर्षक में होती है केवल ‘निर्दयी मां’। क्या सिर्फ़ स्त्री जिम्मेदार होती है किसी शिशु के जन्म के लिए अथवा उसके कचरे के ढेर में फेंके जाने के लिए? क्या यह जरूरी नहीं है कि कटघरे में उन सबको खड़ा किया जाए जो नवजात शिशु को मरने के लिए छोड़ देते हैं। यदि नवजात को बचाना है तो जरूरत है उस उस मानसिकता को बदलने की जो ऐसा घिनौना क़दम उठाने को बाध्य करती है। 

03 अक्टूबर 2016 की घटना। सागर जिले के बंडा में तालाब के किनारे झाड़ियों में उलझा हुआ था एक नवजात शिशु। शरीर पर चीटियां रेंग रही थीं। सिर में पत्थर से टकराने की चोट भी थी। दो किशोर जो नवरात्रि के चलते देवी मां के मंदिर में जल अर्पित करने जा रहे थे, उस शिशु के रोने की आवाज़ सुनी। युवक आकाश यादव ने उस शिशु को सबसे पहले देखा। फिर दोनों युवकों ने देवीजी को अर्पित करने के लिए ले जाने वाले जल से ही शिशु के शरीर को धोया और पुलिस के आते ही उसे सौंप दिया। शिशु समय रहते अस्पताल पहुंचा दिया गया। यह समाचार विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ जिसमें ‘निर्दयी मां’ को जी भर कर धिक्कारा गया था।
लगभग छः माह पहले सागर जिले के ही खजुरिया गांव में चर्च के पास एक स्वस्थ बालिका मिली थी। पुलिस ने 3 महीने बताया था कि ये बच्ची अवैध संबंधों के चलते हुई थी। इसी तरह शहर के मध्यस्थल (परकोटा) पर मिली बच्ची के मां-बाप तक भी पुलिस ही खुद पहुंची। पु़लिस का मानना है कि लावारिस बच्चों के अधिकांश प्रकरण अवैध संबंधों के चलते सामने आते हैं। कुछ प्रकरणों में लिंग भेद के चलते बच्चों को लावारिस छोड़ा जाता है। यही सच भी है। फिर अकेली मां ही निर्दयी क्यों करार दी जाती है?


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16 मई 2016 को अंबाला के सिटी रोडवेज वर्कशॉप के पीछे एक शिशु लावारिस हालत में पड़ा मिला था जिसे कुत्ते नोच रहे थे। 20 मई 2016 पटना शहर में एक नवजात बरामद हुआ जो पॉलीथिन में लपेट कर फेंक दिया गया था। 27 मई 2016 रायपुर के जिला अस्पताल के पास एक शिशु का शव मिलास जो जानवरों द्वारा अधखाया हुआ था। ये कुछ उदाहरण शहरों अथवा इन घटनाओं की संख्या की दृष्टि से नहीं गिना रही हूं। ये उदाहरण उस बीमार मानसिकता के हैं जो भारत के किसी भी राज्य में किसी भी शहर में, किसी भी गांव में आए दिन सामने आते रहते हैं।

घिनौने अपराध के जिम्मेदार

नवजात शिशु को मरने के लिए किसी कचरे के ढेर पर फेंक आने से बढ़ कर घिनौना अपराध और कोई हो ही नहीं सकता है। यह सच है कि एक शिशु के लिए उसकी मां से बढ़ कर संरक्षक और कोई हो ही नहीं सकती है लेकिन उतना ही सच यह भी है कि हमारे समाज ने स्त्री को जिन लांछनों से जकड़ रखा है उनके रहते एक मां के रूप में स्त्री इस हद तक विवश हो जाती है कि उसे अपने शिशु के त्याग में चाहे-अनचाहे भागीदार बनना ही पड़ता है। इसका उदाहरण हमारे ‘महाभारत‘ महाकाव्य में भी मिलता है। वह सामाजिक लांछन का भय ही था जिसके कारण कुंती ने कर्ण को नदी में बहा दिया था। जो मां अपने पांच पुत्रों को ममता दे सकती थी, उनके साथ ठोकरें खा सकती थी, क्या वह एक और पुत्र को पाल नहीं सकती थी? लेकिन यदि वह कर्ण को पालती और विवाह पूर्व की संतान के रूप में उजागर करती तो क्या समाज उसे चैन से जीने देता? महल की दीवारों के भीतर कर्ण को शैशवावस्था में ही मार दिया जाता। उसकी जीवन रक्षा के लिए भाग्य भरोसे उसे नदी में बहाना ही कुंती के पास विकल्प था, क्यों कि समाज से टकराने की हिम्मत उसमें नहीं थी। अब कुंती को ‘निर्दयी’ कहा जाए अथवा ‘कमजोर स्त्री’ लेकिन कर्ण रूपी शिशु ने जो परित्याग झेला उसके लिए सामाजिक दबाव सबसे बड़ा जिम्मदार था। आज भी हज़ारों कुंती अपने-अपने कर्ण को मरने के लिए छोड़ने को विवश हैं क्यों कि महाभारत काल से अब तक समाज के सोच में कोई विशेष अंतर नहीं आया है। आज भी अविवाहित मां प्रताड़ना की शिकार होती है। अविवाहित मां को प्रताड़ित करने वाले गोया भूल जाते हैं कि किसी भी संतान की उत्पत्ति की बायोलॉजिकल जिम्मेदार सिर्फ़ मां नहीं होती, पिता भी उतना ही जिम्मेदार होता है, फिर चाहे वह वैवाहिक पिता हो या न हो।
अविवाहित माता-पिता अपनी संतान को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं दिला पाते हैं और स्वयं भी उनकी प्रतिष्ठा और ज़िन्दगी खतरे में पड़ जाती है। जिसके लिए जिम्मदार होती है वह सोच जो अविवाहित मां को ‘कुलटा’, ‘पापिन’ आदि-आदि तानों से नवाज़ती है। यह बीमार सोच ही है जो ऐसे माता-पिता को अपनी गलती सुधारने का मौका ही नहीं देती है। जिसका परिणाम भुगतता है निर्दोष शिशु।


मीडिया का दायित्व

‘निर्दयी मां’ कह कर सिर्फ़ स्त्री पर उंगली उठाने वाले मीडिया को भी अपने अपने दायित्व को सही ढंग ये निभाना चाहिए। यदि मीडिया दोषियों को बेनकाब करना चाहता है तो उन सभी दोषियों पर उंगली उठाए जो नवजात को त्यागने के लिए जिम्मेदार हैं, न कि सिर्फ़ मां पर उंगली उठा कर रह जाएं। संचार माध्यमों में काम करने वाले भी इसी समाज में पले-बढ़े होते हैं, उन्हें भी सामाजिक दबावों का बखूबी पता होता है। उन्हें तो बल्कि दबावों को दूर करने के रास्ते दिखाने चाहिए न कि सदियों से चली आ रही दूषित टिप्पणियों को दुहराते रहें। मीडिया इतना सशक्त माध्यम होता है कि वह आसानी से समाज की सोच बदल सकता है। मीडिया को सिर्फ़ एक समाचार परोस कर नहीं रूक जाना चाहिए कि ‘निर्दयी मां ने शिशु को छोड़ा’, बल्कि यदि वह इसके आगे बढ़ कर शिशु के त्यागे जाने के असली कारणों और असली जिम्मेदारों के चेहरों को सामने लाए तो लोग नवजात शिशुओं के प्रति ऐसा घृणित अपराध करने से पहले एक बार सोचेंगे जरूर।
दिलचस्प बात यह है कि संचार माध्यमों से कहीं अधिक सोच में बदलाव आया है फिल्मी दुनिया में। पुरानी भारतीय फिल्मों में अविवाहित गर्भवती पात्र के मुंह से यही कहलाया जाता था कि ‘‘मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रही। मुझे मर जाना चाहिए’’। ऐसे पात्र के द्वारा अकसर आत्महत्या करना दिखाया जाता था। नायिका जरूर किसी ‘दयालु’ के द्वारा बचा ली जाती थी। फिर तीन घंटे की पूरी फिल्म में उस अविवाहित मां के कष्टों का लेखा-जोखा रहता था। न उसे मां-बाप का सहारा मिलता था और न उस व्यक्ति का जो उसके गर्भवती होने के लिए जिम्मेदार होता था। दशकों तक इसी परिपाटी पर चलते हुए भारतीय फिल्म जगत ने करवट ली और फिर आई ‘क्या कहने’ जैसी फिल्म। इस फिल्म में नायिका अविवाहित मातृत्व को समाज से स्वीकृति दिलाने के लिए जूझती है और फिल्म के अंत में अपने शिशु को सामाजिक स्वीकृति दिला कर मानती है। दुर्भाग्य से इस कथानक के तेवर समाचार संचार माध्यमों से अभी भी दूर हैं।


समाज स्वयं को बदले अब

यदि हम चाहते हैं कि अब और शिशु कचरे के ढेर पर न फेंके जाएं तो जरूरी है कि समाज स्वयं को बदले। यह सभी जानते हैं कि युवावस्था में लापरवाहियां हो जाती हैं। ऐसी दशा में किसी भी लड़की या लड़के को इतना तो विश्वास हो कि जब वे अपनी समस्या अपने परिवार को बताएंगे तो वे उन्हें सिर्फ़ धिक्कारने के बजाए उनकी मदद करेंगे। कानून भी अवांछित गर्भ को गिराने की अनुमति देता है। शिशु को जन्म दे कर उसे जानवरों के बीच जीवित डाल देने से बेहतर तो सुरक्षित और वैधानिक गर्भपात का रास्ता है। लेकिन यह तभी संभव है जब परिवार और समाज इसे सहज भाव से ले और उन युवाओं को सम्हलने का एक अवसर दे। निर्ममता से फेंका गया नवजात शिशु यदि कन्या है तो जाहिर है कि लिंग भेद के चलते यह अपराध किया गया है। बेटी और बेटे में भेद करने वाले अकसर बेटी के जन्म लेते ही बौखला जाते हैं और कन्या शिशु से छुटकारा पाने के लिए उसे मरने को कहीं भी छोड़ आते हैं। इसी कारण सरकार ने डॉक्टरी आवश्यकता के बिना भ्रूण का लिंग परीक्षण अपराध घोषित किया हुआ है। कोख में कन्या भ्रूण को मारे जाने तो कमी आई है लेकिन नवजात कन्या को त्यागने का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। जबकि सरकार ‘लाड़ली लक्ष्मी’ जैसी अनेक योजनाएं चला रही है।
सच तो यह है कि नवजात शिशुओं का परित्याग तभी थम सकता है जब समाज स्वंय में बदलाव लाए और अविवाहित मातृत्व तथा कन्या शिशु के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाए। समाज को बदलने के लिए मीडिया को भी स्त्री को लंछित करने वाले अपने शीर्षकों से बाहर आना होगा। उसे समझना होगा कि मां ‘निर्दयी’ नहीं विवश होती है। एक मां को शिशु पालने के लिए समाजिक सहारे और समर्थन की आवश्यकता होती है। मां की कोख में नौ महीने सांसें लेने के बाद जब शिशु पहली बार इस दुनिया में अपनी अांखें खोलता है तो सबसे अधिक खुशी मां को ही होती है। एक मां से यह खुशी न छिने और शिशु से ममता की छांव न छीनी जाए ऐसे माहौल की जरूरत है।
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