Saturday, March 8, 2014

विधवाओं की दुर्दशा कब तक?




Dr Sharad Singh
महिला दिवस पर विशेष ......
मित्रो, ‘इंडिया इन साइड’ के March 2014 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
पढ़ें, विचार दें और शेयर करें....
आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......

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 (प्रकाशित लेख...Article Text....)......
                                                                                                    
                                                            - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह


हे र्इश्वर!
तू मुझे अगले जन्म में भी औरत ही बनाना
पर नहीं होने देना विधवा
नहीं भेजना मथुरा, वृन्दावन
नहीं देना अपनों का परायापन
मुझे हर जन्म में औरत होना ही क़बूल है
बस, तू मुझे रखना मनुष्यों के नहीं
मनुष्यता के बीच.....
मुझे हर जन्म में औरत होना ही क़बूल है....

मुझे याद आ रही है 'एक प्रार्थना शीर्षक की अपनी एक कविता। मार्च का महीना है न, और इस मार्च के महीने में 08 मार्च को 'महिला दिवस मनाया जाता है। हम मानने और मनाने में अग्रणी हैं। हम स्त्री को देवी मानते हैं और देवी तो काल्पनिक होती है। किसी भी देवी को किसी ने देखा नहीं है। फिर स्त्री का देवी रूप काल्पनिक ही तो हुआ न!
'एक प्रार्थना कविता में मथुरा या वृन्दावन में रहने वाली विधवा स्त्री की वेदना है। एक विधवा जिसे अपनों ने त्याग दिया और छोड़ दिया कहीं भी जा कर मरने को। ऐसी ही विधवाओं को सहारा मिलता है मथुरा, वृन्दावन के विधवाश्रमों में। चाहे सरकारी संस्थान हों या गैरसरकारी, वहां के सुव्यवस्थाओं और कुव्यवस्थाओं के ब्यौरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। क्यों कि यह किसी से छिपा नहीं है। यदि करोड़ों की राशि खर्च कर के हम 40 साल पुरानी सैन्य-पनडुब्बी को 'अपडेट करते रहने का दम भर सकते हैं तो किसी विधवा-आश्रम में आर्थिक अनियमितता या कुव्यवस्थाएं तो बहुत छोटी बात हैं। ग़रीब आटोरिक्शा चालकों को हर दस साल में विवश किया जाता है कि वे अपने आटोरिक्शा बदल दें ताकि दुर्घटना को न्योता देने वाले पुराने वाहन सड़क से हट जाएं। वहीं चालीस साल पुरानी, छब्बीस साल पुरानी टेक्नालाजी वाली पनडुबिबयों को कैसे 'अपडेट किया जाता रहा? इतने पुराने स्कूटर्स तक के पाटर्स बाज़ार में नहीं मिल पाते हैं। लिहाजा जब देश की सुरक्षा पर भ्रष्टाचार के दांव खेले जा सकते हैं तो बेसहारा विधवाओं के लिए सुव्यवस्था की उम्मीद कैसे की जा सकती है। 
क्या हम कठोर हो गए हैं या हमारे आंसू सूख गए हैं? जबकि बी.बी.सी. के संवाददाता एंथोनी डेंसलोव का दिल रो पड़ा वृन्दावन की विधवाओं की दशा देख कर और उसने एक रिपोर्ट लिखी -'' कृष्ण के वृंदावन में अब गोपियाँ नहीं विधवाएं मिलती हैं। यह रिपोर्ट 25 मार्च 2013 को सामने आर्इ  थी। अपनी रिपोर्ट में एंथोनी डेंसलोव ने लिखा था कि -'' भारत में हर साल हजारों विधवाएं उत्तर प्रदेश के वृंदावन का रुख़ करती हैं. परिवारवालों ने उन्हें छोड़ दिया है और अब इस दुनिया में वे अकेली हैं। इनमें से कुछ तो सैकड़ों मील का सफ़र तय करने के बाद वृंदावन पहुंचती हैं लेकिन कोई नहीं जानता कि वो ऐसा क्यों करती हैं। भारत में मंदिरों और र्धामिक स्थलों की भरमार है। लेकिन यमुना के तट पर सिथत वृंदावन का खास महत्व है क्योंकि ये कृष्ण की नगरी है। वृंदावन में सैकड़ों मंदिर हैं और यहां हर किसी की जुबान पर कृष्ण और उनकी प्रेमिका राधा का ही नाम है। हर साल दुनियाभर से लाखों की संख्या में कृष्ण भक्त यहां पहुंचते हैं। लेकिन इस सबसे दूर वृंदावन का एक स्याह पहलू भी है। इसे विधवाओं के शहर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिरों के बाहर आपको सादी सफेद साड़ियां पहने ये विधवाएं भीख मांगते मिल जाएंगी। इनमें से अधिकांश उम्रदराज होती हैं। भारत में विधवाएं अब सती नहीं होती हैं लेकिन जिंदगी अब भी उनके लिए बदतर है। विधवाओं को अशुभ माना जाता है. तमाम कानूनों के बाद आज भी उन्हें पति की संपतित से बेदखल कर दिया जाता है और वे दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जाती हैं। धार्मिक ज्ञान से भरे लोग हो या समाजशास्त्री इस सवाल का ठोस जवाब किसी के पास नहीं है कि वृंदावन में ऐसा क्या है कि पूरे भारत से खासकर बंगाल से विधवाएं यहां का रुख़ करती हैं। केवल वृंदावन में ही छह हजार विधवाएं हैं और आसपास के इलाक़ों में भी बड़ी संख्या में विधवाओं ने अपना ठिकाना बना रखा है। दूर दूर से विधवाएं वृंदावन में आकर रहती हैं। इनमें से कई तो अपनी बची खुची जिंदगी को राधा कृष्ण की सेवा में लगाने के इरादे से यहां पहुंचती है जबकि बाकी अपने परिजनों की बेरुखी और ज्यादतियों से बचने के लिए वृंदावन का रुख करती हैं। ये भारतीय समाज का ऐसा पहलू है जिसे सरकार दुनिया की नज़रों से छिपाना चाहेगी क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद ये समस्या सुलझाई नहीं जा सकी। 
एंथोनी डेंसलोव आगे लिखते हैं कि ''इनमें से कुछ पश्चिम बंगाल से 100 मील से भी अधिक दूरी तय करके यहां पहुंची हैं. कई बार वे खुद यहां पहुंचती हैं और कई बार उनके परिजन उन्हें यहां छोड़ जाते हैं। सैफ अली दास 60 साल की हैं लेकिन जमाने की मार ने उन्हें वक्त से पहले ही बूढ़ा बना दिया है. उन्होंने कहा कि उनके पति पियक्कड़ थे और 12 साल पहले उनका देहांत हो गया था। उनकी एक बेटी थी जो अस्पताल में चल बसी और बेटे का संपत्ति विवाद में खून हो गया। बेटे की मौत के बाद उनकी दुनिया वीरान हो गई और उन्होंने बाकी का जीवन वृंदावन में बिताने का फैसला किया। वहीं सोंदी 80 साल की हैं. उनके पति का जवानी में ही निधन हो गया था. उनके बच्चे हैं लेकिन जीवन की सांध्य बेला में बहू ने उन्हें बेघर कर दिया। बहुत सी विधवाएं मंदिरों में भजन गाती हैं या फिर भीख मांग कर गुजारा करती हैं। विधवाओं के लिए चार आश्रम संचालित किए जा रहे हैं लेकिन अधिकांश किराए के मकान में रहती हैं और किराया चुकाने के लिए भीख मांगती हैं।’’

संस्कृति के धनी इस भारत देश में लोग अभी भी इतने निर्मम हैं कि जो स्त्री एक परिवार को संवारने के लिए अपने माता-पिता, घर, गांव को छोड़ कर विवाहिता के रूप में आती है। उसे विधवा होते ही लांछन और प्रताड़ना कर शिकार बना देते हैं। उसे घर से धक्के मार कर निकाल देते हैं। भले ही उसके पास जीने, रहने का कोर्इ आसरा न हो। इस 21वीं सदी में भारतीय स्त्री की प्रगति का दंभ करने से पहले एक बार गंभीरतापूर्वक खंगालना खहिए उन कारणों को जो विधवाओं को आश्रमों में शोषित होने के लिए विवश कर रहे हैं। आवश्यकता है इस विषय पर समाज के हर वर्ग को आत्मावलोकन की।
जिस दिन विधवाएं सामाजिक एवं पारिवारिक प्रताड़ना के कारण आश्रमों में तिल-तिल कर मरने को विवश नहीं होंगी और उन्हें अपने समाज तथा परिवार में भरपूर आत्मीयता मिलेगी, सम्मान मिलेगा तभी कोर्इ अर्थ रहेगा 'महिला दिवस उत्सव के रूप में मनाने में। है न! 
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4 comments:

  1. Sushri Sharad Singh ji आपका विचार औरतों को पुरूष प्रधान देश में जीने की नई दिशा देता है...मैं स्वयं व्यक्तिगत रूप से आपके शब्द
    "मुझे रखना मनुष्यों के नहीं मनुष्यता के बीच........." बहुत ही कर्णप्रिय और अंतस को छूने वाले लगे। औरत को जीतने का अर्थ है, संस्कृति को जीतना, सभ्यता को जीतना, औरत को हराने का अर्थ है, मनुष्यता को हराना है I

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  2. सच में मन द्वितीय करने वाली स्थिति।

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  3. मन को कुरेदता आलेख...पढ़ कर लगा अभी भी आदिम युग कायम है...

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  4. एक पुस्तक भी पढ़ी थी इस विषय पर... सोचने को विवश हो जाता है इंसान .

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