Sunday, May 18, 2014

शोध से निकलती हैं कहानियां.....Stories emerge from research


Dr. Sharad Singh
 Dear Friends,
A Good News ! My Interview is published in today's Dainik Jagran (in Jhankar Supplement). My this interview took by Ms Smita ji. So, I'm thankful to Dainik Jagran and Ms Smita ji.
So, Dear Friends ....Plz read it and share ...

http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/18-may-2014-edition-Jhansi-page_22-4244-2248-266.html

http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/18-may-2014-edition-Delhi-City-page_30-7216-5471-4.html

शोध से  निकलती हैं कहानियां ....... Stories emerge from research

Jhankar, Dainik Jagran -18. 05. 2014.

Wednesday, May 14, 2014

बहुजन साहित्य की संकल्पना अधिक हितकर ...


'फारवर्ड प्रेस' पत्रिका के 'बहुजन साहित्यिक वार्षिकी' (May 2014)में बहुजन साहित्य की अवधारणा पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिचर्चा आयोजित की गई जिसमें पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, सुरेन्र्द स्निग्ध, जयप्रकाश कर्दम, विजय बहादुर सिंह, प्रेमपाल शर्मा, मूलचंद सोनकर, डॉ.रामचंद्र, कृष्णा अग्निहोत्री, रामधारी सिंह दिवाकर, अनिता भारती, राणा प्रताप, गिरिजेश्वर प्रसाद, पुंज प्रकाश सहित मेरे विचार भी शामिल हैं। यूं तो ये पूरा विशेषांक पठनीय है पर मैं बहुजन साहित्य पर प्रकाशित अपने विचार यहां शेयर कर रही हूं-
Dr Sharad Singh's view on Bahujan literature published in spacial issue of  'Forward Press' Magazine, May 2014 

Sunday, May 4, 2014

संस्कार, संस्कृति और समाज का आकलन करती पुस्तक ...कैलाश चन्द्र पंत की पुस्तक पर समीक्षात्मक लेख


Dr Sharad Singh
 ‘संस्कार, संस्कृति और समाज’-लेखकः कैलाश चन्द्र पंत
संस्कार, संस्कृति और समाज का आकलन करती पुस्तक
                                           - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

संस्कार, संस्कृति और समाज - ये तीनों तत्व परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज मनुष्यों के समूह से बनता है और मनुष्य में पाए जाने वाले गुणों से उपजे आचरण संस्कार का निर्माण हैं। जबकि संस्कार वह सांचा है जो संस्कृति को आकृति प्रदान करती है। यदि संस्कार उत्तम होंगे तो संस्कृति का स्वरूप भी सुसंस्कृति का होगा किन्तु यदि संस्कार में खोट होगा तो अपसंस्कृति का जन्म होगा। वरिष्ठ एवं वयोवृद्ध लेखक कैलाश चन्द्र पंत की पुस्तक संस्कार, संस्कृति और समाजइसी तथ्य का आकलन करती है। 26 अप्रैल 1936 को मध्यप्रदेश के महू में जन्में श्री कैलाश चन्द्र पंत का एक लम्बा जीवन-अनुभव है और समाज के प्रति उनकी एक विशिष्ट दृष्टि है।
पुस्तक में समाज और संस्कृति के साथ ही संस्कारों की विवेचना करते हुए उनके बारह लेख संग्रहीत हैं। अपने पहले लेख संस्कार, संस्कृति और समाजमें पंत जी लिखते हैं कि जिन भारतीय संस्कारों की प्रशंसा विदेशी विद्वान भी किया करते थे, उन संस्कारों का आज क्षरण होता जा रहा है। वे क्षरण का कारण ढूंढते हुए वेद व्यास, जयशंकर प्रसाद एवं महात्मा गांधी के संबंध में फ्रेड्रिक फिशर का उद्धरण देते हैं। फ्रेड्रिक फिशर ने अपनी पुस्तक दैट स्ट्रैंज लिटिल ब्राउन मैनमें महात्मा गांधी के संबंध में लिखा था कि यदि महात्मा गांधी ने सत्याग्रह और अहिंसा से साम्राज्यवाद से मुक्ति की बात किसी योरोपीय देश में लोगों से कही होती तो वे उसे पागल करार देकर उसकी बात अनसुनी कर देते।पंत जी लिखते हैं कि फ्रेड्रिक फिशर भी यह मानते थे कि यदि भारत की जनता ने प्रतिरोध के शस्त्र के रूप में महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग को स्वीकार किया तो यह जनता के भीतर मौजूद संस्कारों का प्रतिफल था। संस्कारों को परिभाषित करते हुए लेखक ने (पृ. 15 में) लिखा है कि अंग्रेजी में कहावत है कि मेन इज़ ए सोशल एनिमलकिन्तु भारतीय संस्कृति में मेनअर्थात् मनुष्य को सामाजिक प्राणी माना जाता है, सामाजिक पशुनहीं।
Dr Sharad Singh in Pathak Manch, Sagar, MP - 30.04.2014

वर्तमान समाज में संस्कारों में आती जा रही गिरावट के कारण के संदर्भ में लेखक ने बल पूर्वक अपनी बात रखते हुए कहा है कि ‘‘वर्तमान का जो परिदृष्य है उसने अर्थ केन्द्रित चिन्तन को जन्म दिया है। अर्थ जब जीवन का मुख्य उदेश्य हो जाए तो लोभ, मद, ईष्र्या उसके अनुवर्ती भाव हो जाते हैं।’’ (पृ. 21)
दूसरा लेख है साहित्य, संस्कृति और शिक्षा। इसमें पंत जी लिखते हैं कि साहित्य, संस्कृति और शिक्षा का परस्पर संबंध बहुत गहरा और आपस में निर्भर है।वे आगे लिखते हैं कि विद्या का अर्थ ही चेतना को मुक्त करने वाली कहा गया है। मुक्त चेतना से ही विवेक विकसित होता है, चिन्तन का मार्ग खुलता है। तभी मानव चेतना उन शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा कर पाती है जिनको स्वीकृत कर किसी विशिष्ट समूह द्वारा उनका अनुपालन करने से एक राष्ट्र का निर्माण होता है।’’ (पृ. 29)
पंत जी के इस चिन्तन के संदर्भ में श्रीमद् भगवतगीताका वह श्लोक याद आता है कि -
क्रोधाम्दवति सम्मोहह, सम्मोहास्मृति विभ्रमः
स्मृति भ्रंशाद बुद्धि नाशो, बुद्धि नाशा प्रणश्यति।।
अर्थात् विवेक का नाश करने वाला क्रोध व्यक्ति को इस तरह सम्मोहित कर लेता है  कि वह क्रोध के वशीभूत हो कर काम करने लगता है। इस तरह क्रोध विवेक को नष्ट कर के भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर देता है। भ्रम से बुद्धि अर्थात् सच और झूठ को परखने की क्षमता का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होना प्राणों के नाश होने का कारण बनता है।
अतः शिक्षा भले-बुरे की परख करने की क्षमता का विकास करती है जिससे सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण होता है और साहित्य सांस्कृति मूल्यों और शिक्षा के मध्य सेतु का काम करती है।
पुस्तक में प्रत्येक लेख किसी न किसी बिन्दु पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। जैसे ‘‘जड़ों से उच्छेदित करती शिक्षामें वर्तमान शिक्षा पद्धति एवं पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित वर्तमान लोकाचार की विवेचना की गई है। ‘‘विकृति इतिहास के दुष्प्रभाव’’ शीर्षक लेख में इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। इस लेख में लेखक ने महात्मा गांधी द्वारा नई शिक्षा प्रणाली के संदर्भ में दिए गए अंग्रेज विद्वान हक्सले के उद्धरण को सामने रखा है। गांधी जी ने हक्सले के बारे में लिखा था कि -उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गई है कि वह उसके बस में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा गया काम करता है।‘ (पृ.40)
मैं यहां संदर्भगत बता दूं कि अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं आलोचक आल्ड्स  हक्सले  का जन्म 26 जुलाई 1894 को लन्दन के निकट स्थित, उपनगर सरे के एक उच्च माध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। हक्सले के पिता लियोनार्ड हक्सले स्वयं भी एक कवि, संपादक एवं जीवनीकार थे। हक्सले की शिक्षा-दीक्षा ईटन कॉलेज बर्कशायर में हुई। 1908 से लेकर 1913 तक हक्सले  बर्कशायर  में रहे। इस बीच हक्सले की माँ का देहांत हो गया। हक्सले जब 16 वर्ष के थे तभी उन्हें आंखों की गंभीर बीमारी हो गई। जिसके कारण हक्सले पूरी तरह से अंधे हो गए। लगभग 18 महीने की गहन चिकित्सा के बाद उनकी आंखों में मात्र इतनी रौशनी लौटी की वे प्रयास करके कुछ पढ़-लिख सकें। इसी बीच उन्होंने ब्रेल लिपि भी सीखी। कमजोर दृष्टि होते हुए भी हक्सले ने सन् 1913 से 15 के वर्षों में आक्सफोर्ड से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। आड्ल्स हक्सले साहित्यकार और वैज्ञानिक की वंश परम्परा में जन्मे अपनी तरह के बौद्धिक थे , जिनमें  एक वैज्ञानिक , सत्यान्वेषी चिन्तक के गुण मौजूद थे। वे कविमना भी थे। सन् 1916 में उनकी पहली कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होंने विविध विषयों पर कई पुस्तकें लिखीं। उनकी मृत्यु 22 नवम्बर सन् 1063 में हुई। महात्मा गांधी आल्ड्स  हक्सले के जीवन से बहुत प्रभावित रहे।
महात्मा गांधी मानते थे कि शिक्षा वही दी जानी चाहिए जो व्यक्ति को सत्य से परिचित करा सके। इसी बात को आधार बनाते हुए पंत जी ने आग्रह किया है कि भारतीय इतिहास जो कि पश्चिमी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर लिखा गया है, उसे पुनः लिखा जाना चाहिए। पंत जी लिखते हैं कि ‘‘गांधीवादी विचारक धर्मपाल ने अंग्रेजों के द्वारा फैलाए गए इस झूठ की पोल खोल दी कि - (1) अंग्रजों से आने के पूर्व भारत में शिक्षा व्यवस्था नहीं थी। (2) लड़कियों और षूद्रों को पढ़ने की अनुमति नहीं थी, (3) भारत में औद्योगिक उत्पादन नहीं होता था, (4) भारत एक असम्य और आदिमयुग में जीने वाला देश था।’’ (पृ.49,.50)
पंत जी आगे लिखते हैं कि ‘‘भारत को अपनी अस्मिता का बोध तभी होगा जब भारतीय मेधा मौलिक शोध विश्व के समक्ष रखेगी।’’ (पृ.50)
यहां भी संदर्भगत् मैं विचारक धर्मपाल के बारे में संक्षिप्त जानकारी देना चाहूंगी कि गांधी की भारत में की गई स्वराज साधना के बाद जिनका भी जन्म हुआ उसने गांधी के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष संवाद अवश्य बनाया। देश के प्रमुख गांधीवादी विचारकों में पहला नाम विनोबा का है तो दूसरा लोहिया का, तीसरा एन. के. बोस का और चैथा जे.पी.एस. ओबेराय का। इसी कड़ी में पांचवा नाम धर्मपाल का है। धर्मपाल का जन्म सन् 1922 में उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुआ था। उनका निधन सन् 2006 में हुआ। सन् 1949 में एक अंग्रेज महिला फिलिप से उनका विवाह हुआ था।
धर्मपाल ने भारत के सनातन मूल्यों को समझने के लिए महात्मा गांधी के विचारों को माध्यम के रूप में चुना। सन् 1942 से 1966 तक धर्मपाल गांधीवादी रचनात्मक कार्य में लगे रहे। फिर सन् 1966 से 1986 तक उनका अधिकांश समय शोध एवं लेखन को समर्पित रहा। धर्मपाल ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। जिनमें से सन् 1971 में सिविल डिसओबीडियेन्स इन इंडियन ट्रेडिशन विद् सम अर्ली नाईन्टीन्थ सेन्चुरी डाक्युमेंट्सका प्रकाशन हुआ। सन् 1971 में ही उनकी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक इंडियन साइंस एण्ड टेक्नालाजी इन दि एटीन्थ सेन्चुरी: सम कन्टेम्पररी एकाउन्ट्सप्रकाशित हुई। सन् 1972 में उनकी तीसरी पुस्तक आई दि मद्रास पंचायत सिस्टम: ए जनरल ऐसेसमेंट।  उनकी सभी पुस्तकों में दि ब्यूटीफुल ट्रीनामक पुस्तक का विशेष महत्व है।
कैलाश चन्द्र पंत की पुस्तक संस्कार, संस्कृति और समाजके अन्य लेख भी अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। स्वदेशी भावना प्रेम’, ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन होने का अर्थ’, ‘भारतीयता की प्रतिनिधि भाषा’, ‘धर्म की भ्रामक धारणा’, ‘धर्मान्तरणः राष्ट्र के विखंडन का खतरा’, ‘संस्कारों के रोपण की भारतीय शैली’, ‘जड़ों की पहचानऔर संस्कृति का व्यापक फलकवे लेख हैं जिनमें कैलाश चंद्र पंत जी ने संस्कृति एवं सांस्कृतिक मूल्यों की भारतीय अवधारणा को वर्तमान परिदृष्य में जांचा-परखा है। वे स्वदेशी भावना प्रेमऔर विश्व हिन्दी सम्मेलन होने का अर्थलेखों में मातृभाषा एवं संवाद भाषा के रूप में हिन्दी की महत्ता को खंगालते हैं। पंत जी लिखते हैं कि आज जो ग्लोबल विलेजका संदेश दिया जा रहा है, वह वस्तुतः भारतीय संस्कृति का वसुधैव कुटुम्बकमही तो है।
संस्कारों के रोपण की भारतीय शैलीलेख में लेखक ने सर्वे भवन्तु सुखिनःको भारतीय संस्कारों का मूलमंत्र कहा है। इसी तारतम्य में जड़ों की पहचानलेख में लेखक ने तुलसीदास जी के रामराज्य की अवधारणा का उल्लेख किया है -
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज्य नहिं काहुहि व्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।। 
पंत जी लिखते है कि भारत में मूलतः राज्य की अवधारणा का यही सिद्धांत रहा है। इसे आज के भौतिक युग में यूटोपिया (अति आदर्शवादी) कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। (पृ.94)
संस्कार, संस्कृति और समाजएक ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय संस्कृति के मूल्यों को आधार बना कर वर्तमान में दिखाई पड़ने वाले सांस्कृतिक विचलन को बखूबी परखा गया है। आयु की परिपक्वता एवं अनुभवों की सघनता प्रतयेक व्यक्ति को एक निष्चित विचारधारा को अपनाने को प्रेरित करती है, यह तथ्य इस पुस्तक के लेखों स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है जो कि लेखक की वैचारिक स्पष्टता का द्योतक है और पुस्तक में संग्रहीत लेखों के विषयों के प्रति चिन्तन-मनन करने को प्रेरित करता है। यह पुस्तक सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से आत्मावलोकन एवं आत्ममंथन के लिए भी प्रेरित करती है इस संदर्भ में पुस्तक के कलेवर की गुणवत्ता को स्वीकार किया जा सकता है।

                                                        --------------- 
  दिनांक 30.04.2014 को पाठकमंच, सागर इकाई में मेरे द्वारा पढ़ा गया कैलाश चन्द्र पंत की पुस्तक  ‘संस्कारसंस्कृति और समाज’ पर समीक्षात्मक लेख 

Thursday, May 1, 2014

भीड़ में स्त्री को छूने मचलते गंदे हाथ ...


प्रिय मित्रो,
समाचार पत्र नई दुनिया की पत्रिका नायिका में मेरा आलेख प्रकाशित हुआ था आपसे साझा कर रही हूं ...
इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं ...

http://naiduniaepape...r.jagran.com/epapermain.aspx