- डॉ. शरद सिंह
जागरूकता के अभाव में बीड़ी बनाने वाली महिलाओं और उनके परिवार के सदस्यों पर ज़बर्दस्त खतरा मंडराता रहता है।
मालती बीड़ी बनाती है। जिस समय मालती बीड़ी बनाती है उस समय उसका बेटा उसकी गोद में लेटा हुआ किलकारियां भरता रहता है। उस दौरान नियमित रूप से प्रतिदिन तम्बाकू के बारीक कण मालती और उसके दुधमुंहे बेटे की सांसों में प्रवेश करते रहते हैं। मालती नहीं जानती है कि बीड़ी लपेटने का काम उसे नाक-मुंह पर कपड़ा बांध कर करना चाहिए। मालती नहीं जानती है कि लगातार बैठे-बैठे बीडि़यां लपेटने से उसकी उंगलियों में उठने वाली मरोड़ और कमर में होने वाले दर्द से कैसे बचा जाए? मालती नहीं जानती है कि इस काम ने जिस प्रकार उसकी मंा को अस्थमा का मरीज बनाया उसी तरह उसे या उसके बेटे को किसी भी प्राणघातक बीमारी से जकड़ सकता है। वह तो बस इतना जानती है कि बीडि़यां बना कर वह अपने परिवार को कम से कम एक समय की रोटी तो दे ही सकती है। वह सिर्फ़ इतना जानती है कि यदि बीड़ी न होती तो वह और क्या बनाती? उसे तो और कुछ बनाना आता ही नहीं है। बीड़ी लपेटने का काम मालती के परिवार को जीने का सहारा तो दे रहा है लेकिन उनसे बदले में धीरे-धीरे जीवन ले भी रहा है। यही विडम्बना है इस काम की।
मालती बीड़ी बनाती है। जिस समय मालती बीड़ी बनाती है उस समय उसका बेटा उसकी गोद में लेटा हुआ किलकारियां भरता रहता है। उस दौरान नियमित रूप से प्रतिदिन तम्बाकू के बारीक कण मालती और उसके दुधमुंहे बेटे की सांसों में प्रवेश करते रहते हैं। मालती नहीं जानती है कि बीड़ी लपेटने का काम उसे नाक-मुंह पर कपड़ा बांध कर करना चाहिए। मालती नहीं जानती है कि लगातार बैठे-बैठे बीडि़यां लपेटने से उसकी उंगलियों में उठने वाली मरोड़ और कमर में होने वाले दर्द से कैसे बचा जाए? मालती नहीं जानती है कि इस काम ने जिस प्रकार उसकी मंा को अस्थमा का मरीज बनाया उसी तरह उसे या उसके बेटे को किसी भी प्राणघातक बीमारी से जकड़ सकता है। वह तो बस इतना जानती है कि बीडि़यां बना कर वह अपने परिवार को कम से कम एक समय की रोटी तो दे ही सकती है। वह सिर्फ़ इतना जानती है कि यदि बीड़ी न होती तो वह और क्या बनाती? उसे तो और कुछ बनाना आता ही नहीं है। बीड़ी लपेटने का काम मालती के परिवार को जीने का सहारा तो दे रहा है लेकिन उनसे बदले में धीरे-धीरे जीवन ले भी रहा है। यही विडम्बना है इस काम की।
‘इंडिया इनसाइड’ के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित डॉ शरद सिंह का लेख |
सुहागरानी की कहानी इससे अलग नहीं है। विवाह के साल भर बाद सुहागरानी ने एक बेटे को जन्म दिया। अपनी गोद में अपने बेटे को लिटा कर वह पूरी-पूरी दोपहर बीडि़यां लपेटती रहती। वह अपने बेटे के लिए पैसे जोड़ना चाहती थी। सट्टेदार उसके पति का परिचित था अतः उसकी बनाई बीडि़यों में ‘छट्टा की बीडि़यां’ (ख़राब बनी बीडि़यां) अधिक नहीं निकलती थीं। उसे अमूमन ठीक-ठाक पैसा मिल जाता था। सुहागरानी ने अपने इकलौते बेटे के लिए बीडि़यां बना कर अतिरिक्त पैसे जोड़े किन्तु बदले में अपने बेटे से उसका स्वास्थ्य छीन लिया। सुहागरानी के बेटे को तीन वर्ष की आयु में पहुंचते तक दमा रोग हो गया। सुहागरानी और उसके पति ने अपने बेटे का बहुत इलाज कराया किन्तु विशेष लाभ नहीं हुआ। बीड़ी में भरे जाने वाले ज़र्दा (तम्बाकू) के कण उसके बेटे के फेफड़ों पर अपना असर दिखा चुके थे। दवाओं के कारण इतना अवश्य हुआ कि सुहागरानी का बेटे जीवित है, दमे के रोगी का जीवन जी रहा है। दुर्भाग्यवश, सुहागरानी यह मानने को कभी तैयार नहीं हुई कि उसके बीडि़यां बनाने के दौरान वातावरण में उड़ने वाले ज़र्दे के कण (पार्टीकल्स) के कारण उसके बेटे को दमा हुआ। परिणामतः उसने बीडि़यां लपेटना अनवरत जारी रखा है।
देश में लगभग 50 लाख श्रमिक बीड़ी श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं जिनमें अधिकांश महिला श्रमिक हैं। बीड़ी उद्योग मनुष्य द्वारा तम्बाकू के प्रयोग से जुड़ा एक महत्वपूर्ण उद्योग है। इस उद्योग में बीड़ी लपेटने का काम मुख्य रूप से औरतों द्वारा किया जाता है। ये औरतें प्रमुखतः निम्न आर्थिक वर्ग की रहती हैं। इनकी आर्थिक स्थिति ही इन्हें बीड़ी लपेटने के कार्य के लिए प्रेरित करती है। इसके साथ ही दूसरा प्रेरक कारण होता है इनका सामाजिक बंधन और तीसरा, अशिक्षा।
बीड़ी लपेटने (बीड़ी रोलिंग) का काम करने वाली औरतें उस वर्ग की रहती हैं जिसमें शिक्षा का प्रसार न्यूनतम है। ऐसे लगभग प्रत्येक परिवार की एक ही कथा है कि आमदनी कम और खाने वाले अधिक। जिसके कारण एक अप्रत्यक्ष चक्र चलता रहता है -आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को शिक्षा के बदले काम में लगा देना इस प्रकार के अधिकांश व्यक्ति अकुशल श्रमिक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ठीक यही स्थिति इस प्रकार के समुदाय की औरतों की रहती है। ऐसे परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। ‘लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। इस वर्ग में बालिकाओं का जल्दी से जल्दी विवाह कर देना उचित माना जाता है। ‘आयु अधिक हो जाने पर अच्छे लड़के नहीं मिलेंगे’, जैसे विचार अवयस्क विवाह के कारण बनते हैं। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है।
‘इंडिया इनसाइड’ के जुलाई 2012 |
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुन्देलखण्ड भू-भाग में औरतों को आज भी पूरी तरह से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। गांव और शहरी क्षेत्र, दोनों स्थानों में आर्थिक रूप से निम्न तथा निम्न मध्यम वर्ग के अनेक परिवार ऐसे हैं जिनके घर की स्त्रियां आज भी तीज-त्यौहारों पर ही घर से बाहर निकलती हैं और वह भी घूंघट अथवा सिर पर साड़ी का पल्ला ओढ़ कर। इस परिवेश में बीड़ी लपेटने का काम मुख्य रूप से औरतों द्वारा किया जाना स्वाभाविक है। यह काम ऐसा है जिसे वे अपने घर के किसी कोने में बैठ कर, सिर पर पल्ला या घूंघट ओढ़ कर भी कर सकती हैं। इसीलिए बुन्देलखण्ड में बीड़ी लपेटने के काम में औरतों की संलग्नता सर्वाधिक है।
बीड़ी महिला श्रमिकों द्वारा समय-समय पर अपनी समस्याओं को ले कर प्रदर्शन एवं आंदोलन किए जाते हैं। ‘सेवा’ जैसे अनेक सामाजिक संगठन तथा श्रमिक संगठन उनके इस प्रयास को सहायता एवं समर्थन देते रहते हैं। स्थानीय स्तर पर भी आवाज़ें उठाई जाती हैं। किन्तु जागरूकता का अभाव होने के कारण बीड़ी बनानेवालियों और उनके परिवार के सदस्यों को स्वास्थ्य के प्रति जोखिम से छुटकारा अभी भी नहीं है।
(‘इंडिया इनसाइड’ के जुलाई 2012 अंक में मेरे स्तम्भ ‘वामा’ में प्रकाशित मेरा लेख साभार)
ज्वलंत समस्या किन्तु समाधान को बाट जोहती
ReplyDeletebahut badi samasya hai, lekin iska upay nirakshar logon ko kaun bataye, beedi maalik sirf apna kaam nikalvana jaante hain unhen kisi ke swasthya ki chinta nahin hai
ReplyDeleteइस भयावह मंजर के लिए आखिर जिम्मेदार कौन....क्यों नहीं sarkaren बुराईयों को dur करने में रूचि लेती हैं .....ज्वलंत मुद्दा ....सदर बधाईयाँ जी
ReplyDeleteसमस्या विकट है ...पर समाधान ??? सिर्फ शिक्षा.
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