Sunday, September 30, 2012

ज़रूरत है गांधी के स्त्रीविमर्श को समझने की


- डॉ. शरद सिंह

इसमें कोई दो मत नहीं कि महात्मा गांधी के विचार कालजयी हैं। दुख तो तब होता है कि गांधी के देश में कोई डी आई जी पद का अधिकारी कहता है कि यदि मेरी बहन अपने प्रेमी के साथ घर से भागती तो मैं उसे गोली मार देता। उस समय पीड़ा होती है जब न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति कहता है कि पत्नी को पति के हाथों मार खाने से मना नहीं करना चाहिए। कई बार यह हुआ है कि जब महात्मा गांधी के स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण का विषय उठता है तो कस्तूरबा के प्रति उनके कठोर व्यवहार पर जा ठहरा है। चूंकि ऐसे समय में गांधी के व्यक्तिगत जीवन के समक्ष उनके सर्ववादी विचारों को अनदेखा किया गया। महिलाओं को सशक्त बनाने की कोशिश ही गांधी के नारी आंदोलन की बुनियाद थी। गांधी मानते थे कि स्त्रियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष सशक्त होना चाहिए। वे राजनीति में महिलाओं की सहभागिता के पक्षधर थे। वस्तुतः गांधी का अहिंसावादी आंदोलन स्त्रियों की उपस्थिति के कारण अधिक सार्थक परिणाम दे सका। इस तथ्य को गांधी जी ने स्वीकार करते हुए एक बार कहा था कि ‘‘स्त्रियां प्रकृति से ही अहिंसावादी होती हैं। स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील और सहृदय होती हैं अतः स्त्रियों की उपस्थिति से अहिंसावादी आन्दोलन एवं सत्याग्रह अधिक कारगर हो सकते हैं।’’

महात्मा गांधी स्त्रियों को अबला कहने के विरोधी थे। वे मानते थे कि स्त्री पुरुषों की भांति सबल और शक्ति सम्पन्न है। जिस प्रकार एक सशस्त्र पुरुष के सामने निःशस्त्र पुरुष कमजोर प्रतीत होता है, ठीक उसी तरह सर्वअधिकार प्राप्त पुरुषों के सामने स्त्री अबला प्रतीत होती है जो कि वस्तुतः अबला नहीं है। उनका कहना था कि उन्हें अबला पुकारना महिलाओं की आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें उनकी वीरता की कई मिसालें मिलेंगी। यदि महिलाएं देश की गरिमा बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के बल पर देश का रूप बदल सकती हैं।’’

गांधी जी मानते थे कि स्त्रियों की उपस्थिति पुरुषों को भी आचरण की सीमाओं में बांधे रखती है। यही कारण है कि उन्होंने कांग्रेस में महिलाओं को नेतृत्व का पूरा अवसर दिया। विभिन्न आंदोलनों में स्त्रियों को भरपूर अवसर दिया। उन्होंने कांग्रेस के अंतर्गत स्त्रियों के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के कार्यक्रम भी चलाए। वे स्त्रियों को एक स्त्री के रूप में न देख कर एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में देखते थे। वे स्त्रियों को सम्पत्ति पर पुरुषों के बराबर स्वामित्व दिए जाने के भी पक्षधर थे।
इससे भी बढ़ कर गांधी ने उस विचार का समर्थन किया जिस पर आज भी वाद-विवाद चलता रहता है। गांधी का मानना था कि विवाह के बाद भी स्त्री को अपने शरीर पर पूरा अधिकार रहता है। इसलिए उसकी अनुमति के बिना उसकी देह को स्पर्श करने का किसी भी पुरुष को अधिकार नहीं है, वह पुरुष भले ही उसका पति ही क्यों न हो। यह एक ऐसा विचार था जो स्त्री को एक व्यक्ति का दर्जा देने के साथ ही उसके अधिकारों की पूर्णता पर भी मुहर लगाता है। पुरुषसत्तात्मक सामंती सामाजिक व्यवस्था ने गांधी के इस विचार को गहरे दबा दिया और सोलहवीं शताब्दी की उसी परिपाटी को जिलाए रखा कि मां, बहन, पत्नी के रूप में स्त्री पुरुष की सम्पत्ति होती है। वह न अपनी इच्छा से जीवन साथी चुन सकती है, न तो अपने ढंग से अपना जीवन जी सकती है और अब तो एक बार फिर यह तय किया जाने लगा है कि स्त्रियां क्या पहनें, क्या नहीं या फिर वे बाज़ार-हाट जाएं या नहीं। उस पर एक विज्ञापन ने तो हद कर दी है कि छेड़छाड़ से बचना है तो फोन कर के घर पर सामान मंगवा लें।  

कई बार इस बात पर भी उंगली उठाई गई कि गांधी जी युवतियों के कंधे पर हाथ रख कर चलते थे। इस तथ्य का दूसरा पहलू देखें तो कि गांधी स्त्रियों और पुरुषों के आपसी व्यवहार को सहज भाव से ले कर चलने का संदेश देना चाहते थे। आज तो स्थिति इसके ठीक विपरीत है। आज भाई भी अपनी बहन को अपने साथ ले कर चलने में हिचकता है कि कहीं लोग भाई-बहन को प्रेमी-प्रेमिका न समझ बैठें। यही तो सोच का अन्तर है। गांधी इसी सोच को बदलना चाहते थे। वे स्वयं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। इतना कठोर पालन कि उन्होंने कस्तूरबा से भी संतानोत्पत्ति तक ही दैहिक संबंध रखा। वे संभवतः सिद्ध करना चाहते थे कि पुरुषों में भी इच्छाओं पर लगाम लगाने की क्षमता होती है, वह भी स्त्रियों के स्पर्श एवं उपस्थिति होते हुए भी। वे योगियों अथवा साधुओं वाले ब्रह्मचर्य को नहीं अपितु एक सामान्य पुरुष के आत्म संयम के ब्रह्मचर्य को सामने रखना चाहते थे। यदि गांधी के ब्रह्मचर्य की सही व्याख्या समाज के सामने समय रहते आई होती आज सामाजिक परिदृश्य कुछ और होता। आज स्त्रियों को खाप-पंचायतों के तानाशाही फरमान नहीं सुनने पड़ते और न ही महानगरों के भीड़ भरे चौराहे पर आवारा शोहदों के हाथों प्रताडि़त होना पड़ता।
महात्मा गांधी मानते थे कि सामाजिक व्यवस्था ने स्त्रियों को संयमित रहने का पाठ हमेशा पढ़ाया है किन्तु पुरुषों को भी इस संयम के पाठ की आवश्यकता है। वस्तुतः महात्मा गांधी के स्त्री विमर्श को गहराई से समझने आवश्यकता आज भी है।  
(साभार- दैनिक नेशनल दुनियामें 30.09.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)   

Monday, September 17, 2012

एक व्रतकथा स्त्री के अधिकारों की

वामा
                                                    
   - डॉ. शरद सिंह


आज का समय कितना कंस्ट्रास्टहै। एक ओर फिज़ा, गीतिका जैसी स्त्रियों के उदाहरण हैं जिन्होंने प्रेम और महत्वाकांक्षा मिलीजुली सीढि़यां चढ़ते हुए अपने प्राण गवां दिए और दूसरी ओर उस स्त्री का उदाहरण है जिसने तीन दशक बाद अपने पुत्र के जैविक पिता को कटघरे में खड़ा किया और डीएन ए टेस्ट के द्वारा अपने पुत्र को उसका जैविक पिता दिलादिया। निःसंदेह, इस तरह से जैविक पिता का मिलना हिन्दी सिनेमा जैसे बिछुड़े पिता से मिलने जैसा नहीं है। अधिक से अधिक भैतिक लाभ हो सकता है किन्तु पिता-प्रेम तो मिलने से रहा। फिर भी यह स्त्री और जैविक पिता द्वारा उपेक्षित संतान की विजय तो कही जाएगी। इन सबसे परे वे स्त्रियां हैं ( और अभी भी बहुसंख्या हैं) जो पति को परमेश्वरमानती हैं तथा तमाम व्रत-उपवास रखती हैं। ऐसे व्रत-उपवास के समय कथाएं बांची और सुनी जाती हैं। दुख की बात यह है कि जो कथाएं स्त्री के अधिकारों और सम्मान से जुड़ी हैं उनकी भी सही ढंग से व्याख्या नहीं की जाती है। उसे मात्र यही रटाया जाता है कि उसने व्रत तोड़ दिया इसलिए उसके पति का जहाज डूब गया। यहीं सबसे बड़ी गड़बड़ है। लोककथाओं और विशेषरूप से धार्मिक लोककथाओं की व्याख्या करते समय व्याख्याकार उन तथ्यों का अनदेखा कर देते हैं जो स्त्री को असीमित अधिकार देते हैं। उदाहरण के लिए इस लोककथा पर चिन्तन-मनन किया जा सकता है जो मध्यप्रदेश से उत्तर प्रदेश तक फैले बुन्देलखण्ड के विस्तृत भू-भाग में बंाची जाती है। यह लोककथा दसामाता की कथाके नाम से जानी जाती है। लोक-आस्था के अंर्तगत यह व्रत कथा की श्रेणी में भी आती है। 
       यह कथा इस प्रकार है कि एक सेठ और सेठानी थे जिनकी कोई संतान नहीं थी।
सेठानी लोकाचार के वशीभूत एक बहू लाना चाहती थी। पुत्रके अभाव में यह सम्भव नहीं था। अतः उसने वधू पक्ष से छल करते हुए यह कह दिया कि पुत्रव्यापार के सिलसिले में परदेस गया है तथा शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखते हुए विवाह को टाला नहीं जा सकता है । इस पर एक कटार के साथ वधू का विवाह करा दिया गया। ससुराल आने पर सेठानी की  बहू  को सच्चाई का पता चला। बहू ने सास की अनुमति से एक कमरे में पीपल की पूजा शुरू कर दी । प्रतिदिन उस बंद कमरे में पूजा के बाद एक सुंदर पुरुष पीपल से निकलता और चैपड़ खेल कर पीपल में समा जाता। इस बीच बहू और उस पुरुष के बीच शारीरिक संबंध बन गए और पुरुष के संसर्ग से बहू गर्भवती हो गई। इससे सेठ-सेठानी घबरा गए किन्तु बहू ने उन्हें ढाढस बंधाते हुए सभी परिचितों को निमंत्रित करने के लिए कहा सेठ-सेठानी ने ऐसा ही किया। सभी परिचितों के आ जाने पर बहू ने पीपल की पूजा प्रारम्भ की।  पूजा समाप्त होते ही दसामाता एवं पीपरदेव की कृपा से पीपल से वह पुरुष प्रकट हो गया जो प्रतिदिन पूजा के उपरांत सामने आया करता था। सब के सामने प्रकट होने से वह पुरुष शापमुक्त हो कर सदा के लिए सेठ-सेठानी के घर पर रह गया तथा बहू ने अपना पति एवं अपने होने वाले बच्चे का पिता पा लिया।
 
           यह कथा सामाजिक संरचना एवं स्त्री के लिए निर्धारित कठोर बंधनों से मुक्ति का एक रास्ता दिखाती है। इस कथा में बहू के रूप में छल द्वारा छद्म विवाह के बंधन में बांध दी गई स्त्री का बंधन को तोड़ कर अपने अस्तिस्व को स्थापित करने का सफल प्रयास है। इस कथा की नायिका  राजपूत काल में कटार से विवाह करा दिए जाने पर कटार के साथ जीवन बिताने तथा कटार के साथ सती हो जाने वाली तथाकथित वीरांगना स्त्रीनहीं है वरन् विवाहेत्तर पुरुष से संतान उत्पन्न कर के उसे पति के रूप में तथा संतान को वैध संतान के रूप में समाज में स्थान दिलाने वाली दृढ़ स्त्री है। वह जानती है कि इस असंभव कार्य को किस प्रकार संभव किया जा सकता है। यूं भी नियोगद्वारा संतान उत्पन्न करना प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकार्य था विशेष रूप से उच्च वर्ग में । किन्तु इस कथा में नियोगके बदले पीपरदेव एवं दसामाताके चमत्कारी सहयोग को माध्यम बनाया गया है। इस कथा में ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि यह स्त्री के प्रति बुंदेली समाज के उदार एवं लचीले आचरण की ओर भी संकेत करता है। अन्यथा समाज का कट्टरपंथी कठोर आचरण किसी स्त्री को इस प्रकार पति पाने और उससे उत्पन्न संतान को वैधानिक दर्जा पाने की छूट नहीं देता है। यद्यपि ऐसे उदाहरण समाज में मुक्त रूप से नहीं मिलते हैं क्योंकि कथा का वाचन और श्रवण भले ही बहुलता से किया जाता हो किन्तु कथा के मर्म को यथास्थिति स्वीकार करने का साहस समाज कहीं खो चुका है। फिर भी यह कथा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि खांटी घरेलू
स्त्री भी विषम परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने एवं समाज में परिवर्तन लाने का माद्दा रखती है बशर्ते उसे परिवार तथा वह जिस पर विश्वास करती हो उसकी ओर से सहायता मिले, चाहे उसका रूप दसामाता’,‘पीपरदेव’, अथवा सास-ससुर का हो। यह एक कथा तो उदाहरण है वरन अनेक लोककथाएं ऐसी हैं जो स्त्री की शक्ति और उसके अधिकारों की पैरवी करती हैं। बस, आवश्यकता है तो उनकी सही व्याख्या की।

(‘इंडिया इनसाइडके सितम्बर 2012 अंक में मेरे स्तम्भ वामामें प्रकाशित मेरा लेख साभार)