‘वामा’
- डॉ. शरद सिंह
यह कथा सामाजिक संरचना एवं स्त्री के लिए निर्धारित कठोर बंधनों से मुक्ति का एक रास्ता दिखाती है। इस कथा में बहू के रूप में छल द्वारा छद्म विवाह के बंधन में बांध दी गई स्त्री का बंधन को तोड़ कर अपने अस्तिस्व को स्थापित करने का सफल प्रयास है। इस कथा की नायिका राजपूत काल में कटार से विवाह करा दिए जाने पर कटार के साथ जीवन बिताने तथा कटार के साथ सती हो जाने वाली तथाकथित ‘वीरांगना स्त्री’ नहीं है वरन् विवाहेत्तर पुरुष से संतान उत्पन्न कर के उसे पति के रूप में तथा संतान को वैध संतान के रूप में समाज में स्थान दिलाने वाली दृढ़ स्त्री है। वह जानती है कि इस असंभव कार्य को किस प्रकार संभव किया जा सकता है। यूं भी ‘नियोग’द्वारा संतान उत्पन्न करना प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकार्य था विशेष रूप से उच्च वर्ग में । किन्तु इस कथा में ‘नियोग’ के बदले ‘पीपरदेव ’एवं ‘दसामाता’ के चमत्कारी सहयोग को माध्यम बनाया गया है। इस कथा में ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि यह स्त्री के प्रति बुंदेली समाज के उदार एवं लचीले आचरण की ओर भी संकेत करता है। अन्यथा समाज का कट्टरपंथी कठोर आचरण किसी स्त्री को इस प्रकार पति पाने और उससे उत्पन्न संतान को वैधानिक दर्जा पाने की छूट नहीं देता है। यद्यपि ऐसे उदाहरण समाज में मुक्त रूप से नहीं मिलते हैं क्योंकि कथा का वाचन और श्रवण भले ही बहुलता से किया जाता हो किन्तु कथा के मर्म को यथास्थिति स्वीकार करने का साहस समाज कहीं खो चुका है। फिर भी यह कथा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि खांटी घरेलू स्त्री भी विषम परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने एवं समाज में परिवर्तन लाने का माद्दा रखती है बशर्ते उसे परिवार तथा वह जिस पर विश्वास करती हो उसकी ओर से सहायता मिले, चाहे उसका रूप ‘दसामाता’,‘पीपरदेव’, अथवा सास-ससुर का हो। यह एक कथा तो उदाहरण है वरन अनेक लोककथाएं ऐसी हैं जो स्त्री की शक्ति और उसके अधिकारों की पैरवी करती हैं। बस, आवश्यकता है तो उनकी सही व्याख्या की।
- डॉ. शरद सिंह
आज का समय कितना ‘कंस्ट्रास्ट’ है। एक ओर फिज़ा, गीतिका जैसी स्त्रियों के उदाहरण हैं जिन्होंने
प्रेम और महत्वाकांक्षा मिलीजुली सीढि़यां चढ़ते हुए अपने प्राण गवां दिए और
दूसरी ओर उस स्त्री का उदाहरण है जिसने तीन दशक बाद अपने पुत्र के जैविक पिता को
कटघरे में खड़ा किया और डीएन ए टेस्ट के द्वारा अपने पुत्र को उसका जैविक पिता
‘दिला’ दिया। निःसंदेह, इस तरह से जैविक पिता का मिलना हिन्दी सिनेमा जैसे
बिछुड़े पिता से मिलने जैसा नहीं है। अधिक से अधिक भैतिक लाभ हो सकता है किन्तु पिता-प्रेम तो
मिलने से रहा। फिर भी यह स्त्री और जैविक पिता द्वारा उपेक्षित संतान की विजय तो कही जाएगी। इन
सबसे परे वे स्त्रियां हैं ( और अभी भी बहुसंख्या हैं) जो पति को ‘परमेश्वर’ मानती हैं तथा तमाम व्रत-उपवास रखती हैं। ऐसे
व्रत-उपवास के समय कथाएं बांची और सुनी जाती हैं। दुख की बात यह है कि जो कथाएं स्त्री के अधिकारों
और सम्मान से जुड़ी हैं उनकी भी सही ढंग से व्याख्या नहीं की जाती है। उसे मात्र यही
रटाया जाता है कि उसने व्रत तोड़ दिया इसलिए उसके पति का जहाज डूब गया। यहीं
सबसे बड़ी गड़बड़ है। लोककथाओं और विशेषरूप से धार्मिक लोककथाओं की
व्याख्या करते समय व्याख्याकार उन तथ्यों का अनदेखा कर देते हैं जो
स्त्री को असीमित अधिकार देते हैं। उदाहरण के लिए इस लोककथा पर चिन्तन-मनन किया
जा सकता है जो मध्यप्रदेश से उत्तर प्रदेश तक फैले बुन्देलखण्ड के विस्तृत भू-भाग में बंाची जाती है।
यह लोककथा ‘दसामाता की कथा’
के नाम से जानी जाती है। लोक-आस्था के
अंर्तगत यह व्रत कथा की श्रेणी में भी आती है।
यह कथा इस प्रकार है कि एक सेठ और सेठानी थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। सेठानी लोकाचार के वशीभूत एक बहू लाना चाहती थी। पुत्रके अभाव में यह सम्भव नहीं था। अतः उसने वधू पक्ष से छल करते हुए यह कह दिया कि पुत्रव्यापार के सिलसिले में परदेस गया है तथा शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखते हुए विवाह को टाला नहीं जा सकता है । इस पर एक कटार के साथ वधू का विवाह करा दिया गया। ससुराल आने पर सेठानी की बहू को सच्चाई का पता चला। बहू ने सास की अनुमति से एक कमरे में पीपल की पूजा शुरू कर दी । प्रतिदिन उस बंद कमरे में पूजा के बाद एक सुंदर पुरुष पीपल से निकलता और चैपड़ खेल कर पीपल में समा जाता। इस बीच बहू और उस पुरुष के बीच शारीरिक संबंध बन गए और पुरुष के संसर्ग से बहू गर्भवती हो गई। इससे सेठ-सेठानी घबरा गए किन्तु बहू ने उन्हें ढाढस बंधाते हुए सभी परिचितों को निमंत्रित करने के लिए कहा सेठ-सेठानी ने ऐसा ही किया। सभी परिचितों के आ जाने पर बहू ने पीपल की पूजा प्रारम्भ की। पूजा समाप्त होते ही दसामाता एवं पीपरदेव की कृपा से पीपल से वह पुरुष प्रकट हो गया जो प्रतिदिन पूजा के उपरांत सामने आया करता था। सब के सामने प्रकट होने से वह पुरुष शापमुक्त हो कर सदा के लिए सेठ-सेठानी के घर पर रह गया तथा बहू ने अपना पति एवं अपने होने वाले बच्चे का पिता पा लिया।
यह कथा इस प्रकार है कि एक सेठ और सेठानी थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। सेठानी लोकाचार के वशीभूत एक बहू लाना चाहती थी। पुत्रके अभाव में यह सम्भव नहीं था। अतः उसने वधू पक्ष से छल करते हुए यह कह दिया कि पुत्रव्यापार के सिलसिले में परदेस गया है तथा शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखते हुए विवाह को टाला नहीं जा सकता है । इस पर एक कटार के साथ वधू का विवाह करा दिया गया। ससुराल आने पर सेठानी की बहू को सच्चाई का पता चला। बहू ने सास की अनुमति से एक कमरे में पीपल की पूजा शुरू कर दी । प्रतिदिन उस बंद कमरे में पूजा के बाद एक सुंदर पुरुष पीपल से निकलता और चैपड़ खेल कर पीपल में समा जाता। इस बीच बहू और उस पुरुष के बीच शारीरिक संबंध बन गए और पुरुष के संसर्ग से बहू गर्भवती हो गई। इससे सेठ-सेठानी घबरा गए किन्तु बहू ने उन्हें ढाढस बंधाते हुए सभी परिचितों को निमंत्रित करने के लिए कहा सेठ-सेठानी ने ऐसा ही किया। सभी परिचितों के आ जाने पर बहू ने पीपल की पूजा प्रारम्भ की। पूजा समाप्त होते ही दसामाता एवं पीपरदेव की कृपा से पीपल से वह पुरुष प्रकट हो गया जो प्रतिदिन पूजा के उपरांत सामने आया करता था। सब के सामने प्रकट होने से वह पुरुष शापमुक्त हो कर सदा के लिए सेठ-सेठानी के घर पर रह गया तथा बहू ने अपना पति एवं अपने होने वाले बच्चे का पिता पा लिया।
यह कथा सामाजिक संरचना एवं स्त्री के लिए निर्धारित कठोर बंधनों से मुक्ति का एक रास्ता दिखाती है। इस कथा में बहू के रूप में छल द्वारा छद्म विवाह के बंधन में बांध दी गई स्त्री का बंधन को तोड़ कर अपने अस्तिस्व को स्थापित करने का सफल प्रयास है। इस कथा की नायिका राजपूत काल में कटार से विवाह करा दिए जाने पर कटार के साथ जीवन बिताने तथा कटार के साथ सती हो जाने वाली तथाकथित ‘वीरांगना स्त्री’ नहीं है वरन् विवाहेत्तर पुरुष से संतान उत्पन्न कर के उसे पति के रूप में तथा संतान को वैध संतान के रूप में समाज में स्थान दिलाने वाली दृढ़ स्त्री है। वह जानती है कि इस असंभव कार्य को किस प्रकार संभव किया जा सकता है। यूं भी ‘नियोग’द्वारा संतान उत्पन्न करना प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकार्य था विशेष रूप से उच्च वर्ग में । किन्तु इस कथा में ‘नियोग’ के बदले ‘पीपरदेव ’एवं ‘दसामाता’ के चमत्कारी सहयोग को माध्यम बनाया गया है। इस कथा में ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि यह स्त्री के प्रति बुंदेली समाज के उदार एवं लचीले आचरण की ओर भी संकेत करता है। अन्यथा समाज का कट्टरपंथी कठोर आचरण किसी स्त्री को इस प्रकार पति पाने और उससे उत्पन्न संतान को वैधानिक दर्जा पाने की छूट नहीं देता है। यद्यपि ऐसे उदाहरण समाज में मुक्त रूप से नहीं मिलते हैं क्योंकि कथा का वाचन और श्रवण भले ही बहुलता से किया जाता हो किन्तु कथा के मर्म को यथास्थिति स्वीकार करने का साहस समाज कहीं खो चुका है। फिर भी यह कथा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि खांटी घरेलू स्त्री भी विषम परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने एवं समाज में परिवर्तन लाने का माद्दा रखती है बशर्ते उसे परिवार तथा वह जिस पर विश्वास करती हो उसकी ओर से सहायता मिले, चाहे उसका रूप ‘दसामाता’,‘पीपरदेव’, अथवा सास-ससुर का हो। यह एक कथा तो उदाहरण है वरन अनेक लोककथाएं ऐसी हैं जो स्त्री की शक्ति और उसके अधिकारों की पैरवी करती हैं। बस, आवश्यकता है तो उनकी सही व्याख्या की।
(‘इंडिया इनसाइड’ के सितम्बर 2012 अंक में मेरे स्तम्भ ‘वामा’ में प्रकाशित मेरा लेख
साभार)
बहुत आभार इस कहानी को यहाँ बताने का .वाकई हम व्रत त्योहारों के नाम पर एक तरह का अंधविश्वास ही ढो रहे होते हैं. उनके छिपे तथ्य को न जानते हैं न समझते हैं.
ReplyDeleteऐसा स्पष्टीकरण ही हमारी स्त्रियों में साहस भर सकता है । आपका आभार ।
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