Thursday, June 9, 2016

चर्चा प्लस ….. हरियाली ही बचा सकती है हमें ….. डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (08. 06. 2016) .....
 
My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....
 
चर्चा प्लस …..
हरियाली ही बचा सकती है हमें
- डॉ. शरद सिंह

हमने शहर बसाए और उनका निरंतर विस्तार किया किन्तु पेड़ों और जंगलों से इतने दूर होते चले गए कि आज महानगर की श्रेणी में जा पहुंचे शहर ऑक्सीजन की कमी को झेलने लगे हैं। गमलों की छोटी-सी हरियाली इतनी सक्षम नहीं है कि वह हवा का जहरीलापन कम कर सके, उसके वेग को नियंत्रित कर सके, पानी को रोककर रख सके, तापमान को प्राणियों के अनुकूल बनाए रख सके और ध्वनि को संतुलित कर सके। इन सबके लिए हमें अपने गमले को इतना बड़ा करना होगा कि वह एक पूरे शहर में बदल जाए। हमें ‘शहर वानिकी को अपनाना होगा। यह हमारे के भविष्य के लिए जरूरी है।

हमारे छोटे से घर में सजे हुए छोटे से गमले में जब कोई फूल खिलता है तो हमारा मन उसकी सुंदरता देखकर खिल उठता है। हमारी सांसें उनकी सुगंध से सुगंधित हो उठती हैं। एक गमले में खिला एक फूल हमारे जीवन के उस दिन को एक नई ऊर्जा से भर देता है। उदास दिखने वाली दुनिया के चेहरे पर हमें मुस्कुराहट दिखाई पड़ने लगती है। लेकिन यह सब कुछ एक गमले और एक दिन के लिए ही सीमित रहता है। दूसरे दिन जब फूल मुरझा चुका होता है और गमला सूना-सूना हो जाता है, तब हमें दुनिया फिर एक बार उदास दिखने लगती है, रूखी-रूखी-सी। हम कभी यह क्यों नहीं सोच पाते हैं कि इस खुशी को हमेशा समेटे रखा जा सकता है, घर छोटा-सा भले ही रहे लेकिन असंख्य पेड़-पौधे और अनगिनत फूलों के बीच हम रह सकते हैं। यदि हम अपने विचारों और इच्छाओं का आंगन थोड़ा-सा लंबा-चौड़ा कर लें तो उसमें भांति-भांति की वनस्पतियों के रंग भरकर अपने गमले की सीमाओं को भी बढ़ा सकते हैं। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

हमने शहर बसाए और उनका निरंतर विस्तार किया किन्तु पेड़ों और जंगलों से इतने दूर होते चले गए कि आज महानगर की श्रेणी में जा पहुंचे शहर ऑक्सीजन की कमी को झेलने लगे हैं। गमलों की छोटी-सी हरियाली इतनी सक्षम नहीं है कि वह हवा का जहरीलापन कम कर सके, उसके वेग को नियंत्रित कर सके, पानी को रोककर रख सके, तापमान को प्राणियों के अनुकूल बनाए रख सके और ध्वनि को संतुलित कर सके। इन सबके लिए हमें अपने गमले को इतना बड़ा करना होगा कि वह एक पूरे शहर में बदल जाए। हमें ‘शहरी वानिकी को अपनाना ही होगा। यह हमारे भविष्य के लिए जरूरी है। 
आज विश्व की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। भारत की जनसंख्या में बढ़ोतरी ही नहीं बल्कि शहरों की संख्या में बढ़त होती जा रही है। सन् 1901 में मात्र 11 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में रहती थी। सन् 1981 तक यह संख्या 23 प्रतिशत तक जा पहुंची। सन् 1981 के बाद शहरीकरण में और तेजी से वृद्धि हुई है। पुराने शहर फैलकर आस-पास के गांवों से जा जुड़े हैं। उनके बीच का वनक्षेत्र लुप्त हो गया है। शहर कांक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे हैं और उनमें लगभग असंवेदी, पथरीले प्राणियों की भाँति मानव का निवास सघन से सघनतम होता जा रहा है।
शहरों का विस्तार आज जितना लम्बाई में हो रहा है उतना ही ऊंचाई में भी में हो रहा है। बहुमंजिला इमारतें एक आवश्यकता के रूप में खड़ी हो गई हैं। गोया हमने न तो अपनी बांहें फैलाने की जगह के बारे में सोचा है और न सिर उठाने की जगह के बारे में। शहरों की बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले न जाने कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास अपने घर तो हैं लेकिन न तो जमीन अपनी है और न आसमान अपना।
मध्यतल के ये निवासी अपनी बीच की दुनिया में सिमट-सिकुड़ गए हैं। उनकी ऊर्जा का यदि कोई स्रोत है तो चंद छोटे-छोटे गमले। शहर के पार्कों में उपस्थित रहने वाली भीड़ साक्षी है। इस बात की कि लोग अपने गमलों को पर्याप्त नहीं समझते हैं। वे जानते हैं कि उनके गमले उन्हें भरपूर ऑक्सीजन नहीं दे सकते हैं। फिर भी न जाने क्यों वे अपने गमलों को शहर में बदल डालने की नहीं सोच पाते हैं लेकिन अब तो सोचना ही होगा। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आ जाएगा जब हवा, पानी और ऊर्जा हमारा साथ छोड़ देगी।
हर शहर की लगभग एक-सी समस्या है- निवासियों का घनत्व और प्रदूषण। झुग्गी-झोपड़ियों की सघन बसाहट हर शहर, हर रेलवे लाइन के किनारे मौजूद है। इनमें रहने वालों के पास दैनिक-निस्तार के लिए साधन नहीं हैं। उन्हें इसकी परवाह भी नहीं है। वे रेलवे लाइनों और आस-पास के खाली स्थानों को अपने दैनिक-निस्तार के लिए काम में लाते हैं, फिर चाहे प्लेग फैले या डेंगू बुखार। सुलभ-शौचालयों की आदत सभी को नहीं है। वे वातावरण के बारे में सोच ही नहीं पाते हैं। वैसे सोच तो वे भी नहीं पाते हैं जो अपनी गाड़ियों को सड़कों पर अनावश्यक दौड़ाते रहते हैं। वे लोग भी कुछ नहीं सोचते हैं, जो मात्र इसलिए हर पल अपनी गाड़ी का हॉर्न बजाते रहते हैं कि उन्होंने कोई ‘स्पेशल हॉर्न लगवाया हुआ है। उनकी गाड़ी का हॉर्न कितने डेसीबल की ध्वनि लोगों की कोमल श्रवणेन्द्रिय पर मार रहा है, इसकी भी उन्हें न तो जानकारी होती है और न परवाह। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक वाहनों की संख्या चालीस गुना हो चुकी है। उनमें ऐसे वाहनों की संख्या साठ से सत्तर गुनी हो चुकी है, जो काले धुएं का गुबार उड़ेलते रहते हैं। ‘पूल बनाकर चलना हमने अभी तक नहीं सीखा है। एक व्यक्ति दो से छः सीटों वाला वाहन लेकर अकेले दौड़ता रहता है और हवा को कॉर्बन मोनोऑक्साइड से भरता रहता है। हवा का दम घुट रहा है।
देश में नदी हैं, झीलें हैं, जल के अनेक स्रोत हैं, मगर शुद्ध जल मात्र 20 प्रतिशत लोगों के पास ही उपलब्ध है। शहरों की तमाम नालियां जल स्रोतों में ही तो जाकर खुलती हैं। ये जल स्रोत अपनी वहन क्षमता से कहीं अधिक गंदगी ढो रहे हैं। गंगा, यमुना, नर्मदा से लेकर घरों के आँगन में बने नलकूप भी मल-जल से प्रभावित हैं। कारखानों का मैला पानी नदियों को काला कर रहा है। बड़े जल स्रोतों में हमने छोटे छेद करके उन्हें कमजोर बना दिया है। कल्पना कीजिए कि एक बड़ी पाइप है, जो एक बड़े बरतन में पानी पहुंचाने का काम करती है। उसमें यदि हर दो इंच पर एक छेद कर दिया जाए तो उस बरतन में पानी कैसे और कितना पहुंच पाएगा, हमने भूमिगत स्रोतों में अपने नलकूपों के रूप में हर फुट-दो फुट पर छेद ही तो किए हैं। अब हमारे तालाब और कुएं अपना जल-स्तर नहीं खोएंगे तो और क्या होगा, दरअसल, हमें पानी सहेजना चाहिए। लेकिन कैसे, बारिश के पानी को सहेजने के सारे तरीके भी तभी कारगर हो सकते हैं जब पेड़ लगाए जाएं। शहरों में पेड़ लगाए जाने की संकल्पना को ‘शहरी वानिकी नाम दिया गया है। पेड़, पौधे, वृक्ष अर्थात सभी छोटी-बड़ी वनस्पतियां हमारी मित्र हैं। वे हमें हर प्रकार का संरक्षण प्रदान करती हैं।
पेड़-पौधों वाले गांवों की अपेक्षा शहरों का तापमान अधिक रहता है। इस बढ़े हुए तापमान को नियंत्रित करने की क्षमता यदि किसी में है तो वह पेड़-पौधों में। एक अकेला वृक्ष अनुकूल परिस्थितियों में 400 लीटर पानी प्रतिदिन वाष्पित करता है जो लगभग पांच वातानुकूलित मशीनों के बराबर है। वृक्षों के कारण दिन और रात के तापमान में भी धीरे-धीरे परिवर्तन होता है। वृक्षों की अधिकता वाले स्थानों में न तो रात तेजी से अधिक ठंडी होती है और न दिन तेजी से अधिक गर्म। ऐसा प्राकृतिक वातानुकूलन वृक्षों के सिवा भला और कौन कर सकता है।
शहरों में कांक्रीट की बहुमंजिला इमारतें तो खड़ी हो ही रही हैं साथ ही उनमें बड़े-बड़े शीशे लगाए जाने का भी प्रचलन बढ़ा है। शीशे सुंदर दिखते हैं। ये भीतर बैठे व्यक्ति को बाहर के परिदृश्य से जोड़े रखते हैं। लेकिन यदि बाहर इन शीशों से निश्चित दूरी पर हरे-भरे वृक्ष नहीं हैं तो ये शीशे सूरज की गर्मी और रोशनी को परावर्तित करके आँखों तथा त्वचा के लिए कष्टप्रद साबित हो सकते हैं। ये शीशे अंदर बैठे लोगों को भले ही सूरज की तपती किरणों से बचाते हैं लेकिन बाहर मौजूद लोगों पर किरणें परावर्तित करके उष्मा और तीखी रोशनी फेंकते रहते हैं। यदि आस-पास वृक्ष हों तो वे परावर्तित उष्मा और किरणों को एक बड़े प्रतिशत में अवशोषित कर सकते हैं। इसीलिए शीशों की सुंदर दुनिया के साथ हरियाली को जोड़े रखना उतना ही आवश्यक है जितना कि खुली हवा में सांस लेना।
वायु में घुलने वाली विषाक्त गैसों से वृक्ष हमें बचाते ही हैं लेकिन इसके साथ ही ध्वनि की घातक तीव्रता से भी हमारी रक्षा करते हैं। मोटे छाल वाले वृक्ष ध्वनि-तरंगों में से कुछ अवशोषित कर लेते हैं तथा कुछ परावर्तित कर देते हैं। जरा सोचिए कि क्या एक छोटे-से गमले में लगा एक नन्हा-सा पौधा ध्वनि की तीव्रता से हमारे कानों को बचा सकता है, फिर क्यों न हम अपने गमले के शौक को एक पूरे शहर में बदल डालें। शहर में सड़कों के किनारे फूलों से लदे पेड़ हों, घरों के आस-पास छायादार वृक्ष हों और हर कॉलोनी में विविध वनस्पतियों से भरा हुआ एक सुंदर पार्क हो तो हमारा शहर किसी गमले के पौधे से कम खूबसूरत नहीं लगेगा। फिर अपने वनस्पति प्रेम को अपने गमले में समेटकर रखने के बदले उसे अपने शहर तक विस्तृत कर देना चाहिए ताकि हम आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ पर्यावरण उपहार में दे जाएं।
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