Wednesday, August 31, 2016

चर्चा प्लस ... ब्रिक्स के खजुराहो सम्मेलन से आशाएं .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (31. 08. 2016) .....
 
My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
  
ब्रिक्स के खजुराहो सम्मेलन से आशाएं
- डॉ. शरद सिंह
1 सितम्बर 2016 को खजुराहो में होने जा रहे दो दिवसीय ब्रिक्स सम्मेलन की मेजबानी करने का सुअवसर मिला है मध्यप्रदेश को। खजुराहो में होने वाले इस आठवें ब्रिक्स सम्मेलन की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। इसमें ब्रिक्स शिखर समूह के सभी देश भारत, चीन, रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका शामिल हो रहे हैं। यह समूह विश्व अर्थव्यवस्था की संवृद्धि में विविधता लाने की दिशा में प्रयासरत है। इसलिए ब्रिक्स के इस खजुराहो सम्मेलन से आर्थिक दिशा में अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है। उम्मीद तो यह भी है कि भारत के हित में यह सम्मेलन सार्थक सिद्ध होगा।

21 वीं सदी में किसी भी देश के लिए पर्यटन व्यवसाय एक मजबूत आर्थिक स्रोत के रूप में उभरा है। आतंकवादी गतिविधियां भले ही इस व्यवसाय के मार्ग में रोड़ा बन कर खड़ी हो जाती हैं फिर भी यह व्यवसाय उद्योगजगत और पर्यटन प्रेमियों दोनों को समान रूप से लुभता रहता है। पर्यटन के क्षेत्र में और अधिक संभावनाओं की तलाश खजुराहो में होने जा रहे ब्रिक्स सम्मेलन की बुनियादी चर्चा का विषय रहेगा। सम्मेलन में पांच देशों के पर्यटन मंत्रियों के साथ कुल 25 सदस्य होंगे। इसमें धरोहरों के संरक्षण, संवर्धन और सुरक्षा पर मंथन होगा। चंदेल राजाओं द्वारा बसाए गए ऐतिहासिक महत्व के कलातीर्थ खजुराहो में पयर्टन पर अंतराष्ट्रीय स्तर का मंथन होना अपने-आप में महत्वपूर्ण रहेगा। सम्मेलन में भारत समेत ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका के पर्यटन मंत्री शामिल होने जा रहे हैं।
विगत 22 मार्च को भारत में ब्रिक्स सम्मेलन श्रृंखला के लिए ब्रिक्स लोगो और ब्रिक्स वेबसाइट का विदेश मंत्री द्वारा औपचारिक शुभारंभ किया गया था। ब्रिक्स के लोगो को संदीप गांधी ने डिजाइन किया है। इस लोगो में भारत के राष्ट्रीय फूल का प्रतीक और ब्रिक्स देशों के रंग हैं। 

क्या है ब्रिक्स

ब्रिक्स पांच प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों का समूह है जहां विश्वभर की लगभग 43 प्रतिशत आबादी रहती है। इसके सदस्य राष्ट्र ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका हैं। इन्ही देशों के अंग्रेजी में नाम के प्रथमाक्षरों से मिलकर इस समूह का यह नामकरण हुआ है। इन देशों में विश्व का सकल घरेलू उत्पाद लगभग 37 प्रतिशत है और विश्व व्यापार में इसकी लगभग 17 प्रतिशत हिस्सेदारी है। 21 वीं शताब्दी के पहले दशक में जहां परम्परागत देश दशक के अन्त तक वैश्विक वित्तीय संकट से ग्रस्त हो गए, वहीं विश्व के कतिपय विकासशील देशों ने इस दशक में उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति दर्ज की। वर्ष 2009 में ऐसे ही चार देशों-ब्राजील, रूस, भारत व चीन ने एक नए आर्थिक संगठन ‘ब्रिक’ की स्थापना की। ब्रिक की स्थापना इन चार देशों के प्रथम शिखर सम्मेलन का परिणाम थी। इनका प्रथम शिखर सम्मेलन 16 जून 2009 को रूस के शहर येकेतरिनबर्ग में सम्पन्न हुआ था। इस सम्मेलन में इन चारों देशों ने अमरीका व उसके यूरोपीय सहयोगियों के प्रभुत्व वाली वर्तमान वैश्विक व्यवस्था के स्थान पर बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था के पक्ष में आवाज उठाई। इनका मानना था कि बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था विकासशील देशों की आर्थिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकती है।
 
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ब्रिक्स सम्मेलनों का क्रम

भारत में आठवां ब्रिक्स सम्मेलन होने वाला है। ब्रिक्स का प्रथम शिखर सम्मेलन 16 जून 2009 को रूस के शहर येकेतरिनबर्ग में हुआ था। इसके परिणामों में उत्साहित हो कर दूसरा ब्रिक सम्मेलन 15 अप्रैल, 2010 को ब्राजील के शहर ब्राजीलिया में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में भी ब्रिक देशों ने बहुध्रुवीय समतापूर्ण व प्रजातांत्रिक विश्व व्यवस्था की मांग उठाई थी। उल्लेखनीय है कि ये चारों देश जी-20 समूह के भी सदस्य हैं । अतः इन्होंने यह मांग की कि जी-8 के स्थान पर जी- 20 को विश्व अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन में महत्वपूर्ण भूमिका प्राप्त होनी चाहिए। ब्रिक्स अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सुधार का पक्षधर है। दूसरे शिखर सम्मेलन में इन देशों ने यह भी निर्णय लिया था कि दक्षिण अफ्रीका को ब्रिक की सदस्यता प्रदान की जाए । चूंकि ‘ब्रिक’ का नामकरण इसके सदस्य देशों के नाम के पहले अक्षर से हुआ है । अतः दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने के बाद इसका नाम ‘ब्रिक्स’ (ब्राजील, रूस, इंडिया, चाइना और साउथ आफ्रिका) हो गया।
ब्रिक्स का तीसरा शिखर सम्मेलन चीन के शहर सान्या में 14 अप्रैल 2011 को हुआ। दक्षिण अफ्रीका ने पहली बार इस सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में पांचों देशों ने पहली बार एक कार्यवाही योजना को स्वीकृति प्रदान की। इस कार्यवाही योजना में जहां एक ओर इन देशों में चल रहे सहयोगात्मक कार्यक्रमों की समीक्षा की गई, वहीं सहयोग की नई गतिविधियों पर प्रकाश डाला गया। इस कार्यवाही योजना में सुरक्षा सम्बन्धी मामलों, खाद्य सुरक्षा, तकनीकी शोध, बैंकिंग संस्थाओं में सहयोग तथा व्यावसायिक संगठनों में सहयोग को प्राथमिकता दी गई। कार्यवाही योजना में चार नए क्षेत्रों को भविष्य में सहयोग हेतु चिन्हित किया गया। ये क्षेत्र थे - सदस्य देशों के नगर निगमों के मंच का आयोजन, व्यापार तथा सम्बन्धित क्षेत्रें में शोध को बढ़ावा, स्वास्थ्य मंत्रियों के सम्मेलन का आयोजन तथा इस क्षेत्र में सहयोग, इन देशों की बिबलियोग्राफी को समुन्नत बनाना। ब्रिक्स का चैथा सम्मेलन सन् 2012 में भारत की राजधानी नई दिल्ली में हुआ। पांचवां सम्मेलन सन् 2013 में दक्षिण अफ्रीका के डरबन में, छठां सम्मेलन सन् 2014 ब्राजील के फोर्टलीजा शहर में तथा सातवां सम्मेलन रूस के ऊफा शहर में आयोजित किया गया था। दक्षिण अफ्रीका के डरबन में मार्च, 2013 में ब्रिक्स शिखर सम्मेसलन के दौरान जारी किए गए घोषणापत्र के अनुरूप, आर्थिक मुद्दों के अतिरिक्त, मादक द्रव्य के मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए सदस्य देशों के बीच सहयोग के विभिन्न नए क्षेत्रों की खोज करने का फैसला किया गया। फैसला किया गया कि ब्रिक्सस मादक द्रव्य् रोधी कार्य समूह बैठक के तत्वागधान में पांच सदस्य देशों की मादकद्रव्य रोधी एजेंसियों के प्रमुखों की नियमित अंतराल पर बैठक आयोजित की जाए। इस घोषणापत्र की भावना के अनुरूप, ब्रिक्स देशों की मादक द्रव्य रोधी कार्यसमूह की प्रथम बैठक नवंबर, 2015 में रूस के मास्को में आयोजित की गई थी। इससे पूर्व सन् 2014 में ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में भारत की पहल पर सौ अरब डॉलर से ब्रिक्स विकास बैंक की स्थापना का फैसला लिया गया था। अब भारत में होने वाले आठवें सम्मेलन में आर्थिक उन्नति से लेकर अंतरराष्ट्रीय आंतकवाद और पर्यावरण, पर्यटन सहित अन्य मुद्दों पर चर्चा होगी। आठवें सम्मेलन की मेजबानी का जिम्मा भारत को मिला है। खजुराहो में होने जा रहा सम्मेलन पहले गोवा में होना था, लेकिन विदेश मंत्रालय को भारतीय परंपरा व संस्कृति की झलक दिखाने की दृष्टि से खजुराहो का चयन किया गया और गोवा के स्थान पर खजुराहो को यह मौका दिया गया। खजुराहो उम्मेलन के दौरान मध्यप्रदेश सहित दूसरे राज्य भारतीय कला व संस्कृति की प्रस्तुति भी सदस्य देशों के प्रतिनिधियों के मन को लुभाएगी। इसके बाद नई दिल्ली के सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में 2 सितंबर, 2016 से 6 सितंबर, 2016 तक ब्रिक्स फिल्म महोत्सव आयोजित किया जाएगा। फिल्मों के साथ ही मंच कला का भी प्रदर्शन होगा। लेकिन फिलहाल खजुराहो सम्मेलन पर सबकी दृष्टि रहेगी।

सार्थक संभावनाएं

ब्रिक्स देश विश्व की सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं हैं। ब्रिक्स संगठन सदस्य देशों के बीच अर्थव्यवस्थाओं के परस्पर सहयोग पर बल देता है। दरअसल, ब्रिक्स के सदस्य देशों की अनेक अर्थों में समान स्थितियां हैं। वे विकास की समान अवस्था में हैं। वे आर्थिक रूप् से अभी विकासशील हैं और अपनी आर्थिक मजबूती के लिए संघर्षशील हैं। उनके सामने अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ जनता के कल्याण की भी जिम्मेदारी है। पांचों सदस्य अपनी अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन, स्वस्थ एवं टिकाऊ संवृद्धि और समावेशी, न्यायसंगत एवं स्वच्छ विकास के संदर्भ में समान चुनौतियों और समस्याओं का सामना कर रहे हैं। ब्रिक्स ने पांचों देशों को विकास सम्बन्धी अनुभवों को साझा करने का महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया है। इन देशों के लिए ब्रिक्स वी प्लेटफार्म है जिस पर एक साथ खड़े हो कर ये अपने विकास के अनुभव साझा कर सकते हैं तथा परस्पर एक-दूसरे के अनुभवों से सीख कर आगे की योजनाएं बना सकते हैं। मात्र संभावनाओं की तलाश नहीं वरन् ब्रिक्स देशों को वैश्विक आर्थिक शासन और संबद्ध संस्थानों में सुधार की भी चिंता है। वे अपने खुद के हितों के साथ-साथ समूचे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के हित साधने के सम्मलित उपाय ढूंढ रहे हैं। ब्रिक्स देश एक साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र जी-20 जैसे मंचों पर काम कर रहे हैं और खाद्य, ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के सुधार, नागरिकों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर एकजुट हैं। वस्तुतः ब्रिक्स विकसित और विकासशील देशों के बीच संवाद स्थापित करने में सेतु की भूमिका भी निभा रहा है ।
1 सितम्बर 2016 को खजुराहो में होने जा रहे दो दिवसीय ब्रिक्स सम्मेलन की मेजबानी करने का सुअवसर मिला है मध्यप्रदेश को। खजुराहो में होने वाले इस आठवें ब्रिक्स सम्मेलन की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। इसमें ब्रिक्स शिखर समूह के सभी देश भारत, चीन, रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका शामिल हो रहे हैं। यह समूह विश्व अर्थव्यवस्था की संवृद्धि में विविधता लाने की दिशा में प्रयासरत है। इसलिए ब्रिक्स के इस खजुराहो सम्मेलन से पर्यटन को लेकर आर्थिक दिशा में अच्छे अनुबंधों एवं योजनाओं की आशा की जा सकती है। इस सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलने की भी संभावना है। उम्मीद तो यह भी है कि भारत के हित में यह सम्मेलन सार्थक सिद्ध होगा।
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चर्चा प्लस ... लेना होगा रियो ओलम्पिक से सबक .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस"‬ "दैनिक सागर दिनकर" में (24. 08. 2016) .....


 


My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
लेना होगा  रियो ओलम्पिक से सबक
- डॉ. शरद सिंह
        सवा सौ करोड़ की जनसंख्या की ओर से 119 खिलाड़ी रियो ओलम्पिक में शामिल हुए। इन 119 खिलाड़ियों में से मात्र दो खिलाड़ियों ने पदक जीते। वह भी कांस्य और रजत। पदकों के अकाल के बीच छाई घनी अंधियारी में दो महिला खिलाड़ियों ने भारत की लाज बचाई और भारत की खाली झोली में दो पदक डाले। पी. वी. सिंधु ने रजत पदक और साक्षी मलिक ने कांस्य पदक जीता। लेकिन खुश होने के लिए दो पदक प्र्याप्त नहीं हैं। हमें पदकों का यह अकाल क्यों झेलना पड़ा इसकी समीक्षा भी जरूरी है। लेना होगा रियो ओलम्पिक से सबक तभी टोक्यो में कुछ हासिल कर पाएंगे।
  चार साल की तैयारी के दौरान देशवासियों को बड़ी आशा थी कि इस बार देश को पदक तालिका में सम्मानजनक स्थान मिलेगा। भारत ने 2012 में पिछले लंदन ओलंपिक में दो रजत और चार कांस्य सहित छह पदक जीते थे जबकि 2008 के बीजिंग ओलंपिक में भारत ने एक स्वर्ण और दो कांस्य सहित तीन पदक जीते। इस बार भारत के लिये भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) ने दस से 15 पदक का दावा किया था लेकिन परिणाम रहा दो पदकों में सिमटा हुआ। वह तो गनीमत है कि सिंधू और साक्षी ने 24 घंटे के अंतराल में दो पदक जीतकर देश के सम्मान को सहारा दिया। अन्यथा 12 दिनों का खेल हो जाने पर भी भारत का खाता न खुल पाने पर यही लगने लगा था कि पदक तालिका में देश को जगह मिल ही नहीं पाएगी। जनसंख्या के हिसाब से विश्व के दूसरे नंबर का देश होने पर भी पदक तालिका में शून्य रहना भारत के लिए सबसे शर्मनाक बात होती। लेकिन दो बैसाखियों के सहारे पदक तालिका में पहुंच ही गए। पहले हरियाणा की साक्षी ने ऐतिहासिक कांस्य पदक जीता और फिर हैदराबाद की सिंधू ने ऐतिहासिक रजत पदक जीत लिया। सवा सौ करोड़ की जनसंख्या की ओर से 119 खिलाड़ी रियो ओलम्पिक में शामिल हुए। इन 119 खिलाड़ियों में से मात्र दो खिलाड़ियों ने पदक जीते। वह भी कांस्य और रजत। पदकों के अकाल के बीच छाई घनी अंधियारी में दो महिला खिलाड़ियों ने भारत की लाज बचाई। लेकिन खुश होने के लिए दो पदक प्र्याप्त नहीं हैं। हमें पदकों का यह अकाल क्यों झेलना पड़ा इसकी समीक्षा भी जरूरी है।
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जीते नहीं पर उल्लेखनीय रहे 


साक्षी और सिंधु ने न केवल अच्छा प्रदर्शन किया बल्कि पदक भी जीत कर दिखाया लेकिन कुछ खिलाड़ी ऐसे भी रहे जो पदक तो नहीं जीत सके लेकिन उनके प्रदर्शन को इस उम्मी में अच्छा माना जा सकता है कि ये चार साल बाद टोक्यों ओलम्पिक में पदकों की कमी को दूर कर दिखाएंगे। महिला जिमनास्ट दीपा करमाकर का वॉल्ट फाइनल में चैथा स्थान हासिल करना, निशानेबाज अभिनव बिंद्रा का दस मीटर एयर राइफल स्पर्धा में चैथे स्थान पर रहना, एथलीट ललिता बाबर का 3000 मीटर स्टीपलचेका में दसवें नंबर पर रहना, सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना का कांस्य पदक मुकाबले में हारना, किदांबी श्रीकांत का बैडमिंटन के पुरुष क्वार्टरफाइनल में हारना, पुरुष तीरंदाज अतानु दास का क्वार्टरफाइनल तक पहुंचना, मुक्केबाज विकास कृष्णन यादव का भी क्वार्टरफाइनल में पहुंचना, 18 वर्षीय महिला गोल्फर अदिति अशोक का 41वां स्थान हासिल करना और युवा निशानेबाज जीतू राय का 10 मीटर एयर पिस्टल में आठवें स्थान पर रहना इस निराशाजनक अभियान के बीच कुछ उल्लेखनीय प्रदर्शन रहे। 

जिनसे बहुत उम्मीदें थीं

यूं तो जितने भी खिलाड़ी ओलम्पिक में भेजे जाते हैं उनसे बड़ी उम्मीदें रहती हैं। क्योंकि वे अच्छे खिलाड़ी ही होते हैं जिनका ओलम्पिक के लिए देश के भीतर चयन किया जाता है फिर चार साल का विशेष अभ्यास और उसके बाद क्वालीफाईंग प्रदर्शन के बाद ही कोई खिलाड़ी ओलम्पिक के मैदान पर उतर पाता है। फिर भी कई दिग्गजों के सुपर फ्लॉप प्रदर्शन के बीच भारत का रियो ओलंपिक में अभियान रिकॉर्ड 119 सदस्यीय दल उतारने के बावजूद मात्र दो पदकों के साथ समाप्त हो गया। टेनिस में सानिया मिर्जा और बैडमिंटन में सायना नेहवाल से बहुत आशाएं थीं। ओलम्पिक से बाहर इनका प्रदर्शन सदैव अच्छा रहा है। भारत को 31वें ओलम्पिक खेलों में पुरुष खिलाड़ियों ने सर्वाधिक निराश किया। बीजिंग ओलम्पिक 2008 में स्वर्ण पदक जीतने बाले निशानेबाज अभिनव बिंद्रा कांस्य पदक के बिल्कुल नजदीक पहुंचकर लड़खड़ा गए। उनसे भी एक बार फिर इतिहास दोहराए जाने की आशा थी। भारोत्तोलकों और धावकों ने भी खासा निराश किया। कुश्तीमें भारत के पदक की उम्मीद योगेश्वर दत्त क्वालिफिकेशन राउंड में ही हार गए। योगेश्वर वल्र्ड नंबर 6 गांजोरिग के खिलाफ कोई दांव नहीं लगा पाए। एक बार अटैक की कोशिश भी की, लेकिन खुद ही पटकनी खा गए। मैराथन में टी गोपी 39वें, खेता राम 52वें और नितेंद्र सिंह 93वें स्थान पर रह गए। योगी की हार के साथ ही 31वें ओलिंपिक में भारत का अभियान खत्म हो गया। भारत ने रियो में सिर्फ दो मेडल जीते। पीवी सिंधु ने सिल्वर और साक्षी ने ब्रॉन्ज जीता। यह पिछले तीन ओलिंपिक यानी आठ साल में भारत का सबसे कमजोर प्रदर्शन है। भारत ने बीजिंग में तीन और लंदन में छह मेडल जीते थे। अमेरिका 45 गोल्ड समेत 120 पदक के साथ मेडल टैली में टॉप पर रहा। यह दूसरा अवसर है जब हमारी सिर्फ महिला खिलाड़ी मेडल जीत सकीं। इससे पहले 2000 में सिडनी ओलिंपिक में एकमात्र मेडल कर्णम मल्लेश्वरी ने दिलाया था। पिछले 12 साल में यह पहला मौका है जब हमारा कोई भी पुरुष खिलाड़ी मेडल नहीं जीत पाया। अब तक का अपना सबसे बड़ा ओलम्पिक दल भेजने के बावजूद भारत पिछले प्रदर्शन से भी फिसड्डी रहा।
विनेश चोटिल होकर बाहर, तीरंदाजी में अतानु,दीपिका, बोंबायला प्री क्वार्टर में हारे। महिला टीम क्वार्टर फाइनल शूटआॅफ में हारी, एथलेटिक्समें पुरुष एथलीट पहले राउंड से आगे नहीं बढ़ पाए। ललिता फाइनल खेलने वाली एकमात्र एथलीट रहीं। बॉक्सिंग में विकासक्वार्टर, मनोज प्री क्वार्टर और शिवा थापा पहला मैच ही हारे। हॉकी में पुरुषटीम क्वार्टर में हारी। महिला टीम आखिरी स्थान पर रही। गोल्फ में एसएसपीचैरसिया 50वें, अनिर्बाण 57वें और अदिति 41वें स्थान पर रहीं। जिम्नास्टि में दीपावॉल्ट में 0.15 अंक से ब्रॉन्ज चूकीं। जूडो में अवतारपहले राउंड में रिफ्यूजी खिलाड़ी से हारे। रोइंग में दत्तू क्वार्टर में हारे। शूटिंग में सिर्फअभिनव बिंद्रा और जीतू राय ही फाइनल में पहुंचे।स्वीमिंग में साजन और शिवानी हीट से आगे नहीं बढ़े। टेनिस में मिक्स्डडबल्स में ब्रॉन्ज मेडल मैच में हारी सानिया-बोपन्ना की जोड़ी। वेटलिफ्टिंग में एससतीश और चानू फाइनल में ही प्रवेश नहीं कर पाए। 


सुविधाओं की कमी का रोना

5 से 21 अगस्त 2016 तक चलने वाले रियो ओलम्पिक में खराब प्रदर्शन के बाद कई खिलाड़ियों ने सुविधाओं की कमी का रोना रोया। यदि सुविधाओं में सचमुच बहुत कमी थी तो साक्षी और सिंधू को वह कमी क्यों नहीं रोक पाई? या फिर हमारे खिलाड़ी भी अधिक सुविधाभोगी और पैसों के पीछे भागने वाले बनते जा रहे हैं। सुविधा में कमी का रोना रोने वाले खिलाड़ी और उनके समर्थक अकसर क्रिकेट का उदाहरण देते हैं और तर्क देते हैं कि क्रिकेटरों की भांति उन पर भी पैसों की बरसात क्यों नहीं होती है? उस समय वे भूल जाते हैं कि 20-20 खेलने वाले खिलाड़ी ‘निजी मालिकों’ की ‘सम्पत्ति’ बन कर खेलते हैं जो पैसों की दृष्टि से बेहतर होता है लेकिन सम्मान की दृष्टि से देश का प्रतिनिधि बन कर खेलना कहीं अधिक सम्मानजनक होता है। ओलम्पिक जैसे वैश्विक खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करने से मिलने वाले सम्मान को पैसों में नहीं तौला जा सकता है। जहां तक सुविधाओं का सवाल है तो बहुत से आफ्रिकी देश जिनके खिलाड़ियों ने ओलम्पिक में भाग लिया, बुनियादी सुविधाओं के अभाव से गुज़र रहे हैं। वहां के खिलाड़ियों को न तो भरपेट पौष्टिक भोजन मिलता है और ने बेहतरीन जूते। फिर भी वे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। टर्की जैसा देश अपनी आंतरिक अस्थिरता और तख़्तापलट से बाल-बाल बचा। फिर भी वहां के खिलाड़ियों ने बेहतर प्रदर्शन किया।
भारतीय खिलाड़ियों को और कितनी और कैसी सुविधाएं चाहिए इस पर उनसे खुल कर राय मंगाई जानी जरूरी है। लेकिन क्या सुविधाओं के बदले वे यह आश्वासन दे सकेंगे कि वे देश के लिए पदक ला कर ही रहेंगे? जब मुकाबला विश्वस्तर का हो तो सुविधाओं से कहीं अधिक लगन और आत्मबल की आवश्यकता होती है। इस बात को सिंधु और साक्षी ने साबित भी कर दिया है। 


टोक्यो ओलम्पिक के लिए मंथन जरूरी

जो हुआ सो हुआ। रियो ओलम्पिक के परिणाम बदले नहीं जा सकते हैं। ओलम्पिक के इतिहास में भारत दो पदकों के साथ अंकित हो गया है और रियो ओलम्पिक का नाम आते ही ये दो पदक ही आंसू पोंछने का रूमाल बनेंगे। लेकिन कहा गया है न कि ‘‘बीती बात बिसारिए, आगे की सुध लेय’’, तो अब आगे टोक्यो ओलम्पिक के लिए हमें उन स्थितियों की समीक्षा करनी ही होगी जिनके कारण हम रियो में पदक पाने से वंचित रह गए। खिलाड़ियों के चयन से ले कर उनकी सुविधाओं तक ध्यान देते हुए खिलाड़ियों को भी इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वे अपने प्रदर्शन को व्यक्तिगत प्रदर्शन नहीं बल्कि देश का प्रदर्शन मान कर अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए तत्पर रहें। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते हैं तो ईमानदारी से पीछे हट जाएं और दूसरे खिलाड़ियों को मौका दें, जो उनसे बेहतर खेल सकते हों। अब टोक्यो ओलम्पिक में कुछ कर दिखाना है तो रियो में मिली असफलताओं का मंथन करना ही होगा।
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Wednesday, August 17, 2016

चर्चा प्लस ... स्वतंत्रता, स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्त्री .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (17. 08. 2016) .....
 
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  स्वतंत्रता, स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्त्री
- डॉ शरद सिंह
समाज की भांति हिन्दी व्याकरण भी पुरुष प्रधान है। अंग्रेजी में व्यक्तिवाचक संज्ञा के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय के साथ ‘पर्सन’ अर्थात् ‘व्यक्ति’ जुड़ा होता है। यह ‘पर्सन’ (व्यक्ति) पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी किन्तु, हिन्दी भाषा के व्याकरण में मानो स्त्री न तो कोई व्यक्ति है और न व्यक्तिवाचक संज्ञा। प्रथम है तो पुरुष, द्वितीय है तो पुरुष और तृतीय है तो पुरुष, फिर स्त्री के लिए जगह कहां हैं? क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र लिंग तक सीमित हैं? मैं न तो व्याकारण की आधिकारिक ज्ञाता हूं और न आधिकारित व्याख्याकार, लेकिन एक स्त्री होने के नाते यह बात मुझे सदैव चुभती है।
स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं, असीमित संभावनाओं एवं असीमित सकारात्मकता के द्वार की चाबी है। इस चाबी से देष के बहुमुखी विकास का द्वार तो खुला ही, स्त्री के अधिकारों का द्वार भी खुला। सन् 1947 से सन् 2016 तक के लम्बे सफर में स्त्री ने प्रगति के अनेक सोपान चढ़े हैं। फिर भी बहुत कुछ बुनियादी स्तर पर छूटा हुआ है। विषेष रूप से मध्यमवर्गीय और ग्रामीण अंचलों में तस्वीर अभी श्वेत-ष्याम दिखाई देती है। इन तबकों में बेटे की ललक स्त्री को आज भी बाध्य करता है कि वह बेटी पैदा करने के बारे में सोचे भी नहीं। विवाह के समय बहू के साथ ढेर सारा दहेज मिले। स्त्री परिवार की सदस्य तो रहे किन्तु मुखिया बनने का स्वप्न न देखे। अर्थात् स्त्री परिवार की अनुमति के बिना न तो कमाने की सोचे और न खर्च करने के बारे में विचार करे, परिवार से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय भी लेने के बारे में न सोचे। आज भी यह कटुसत्य स्त्रीप्रगति की तस्वीर को मुंहचिढ़ाता रहता है। स्त्री के विरुद्ध होने वाले अपराधों के आंकड़े भी घटने का नाम नहीं ले रहे हैं। जिस तरह महाभारत काल में भरे दरबार में दुश्शासन ने द्रौपदी का चीर हरण करने का दुस्साहस किया था, वैसा दुस्साहस आजकल बलात्कार के रूप में समाचारों की सुर्खियां बनता रहता है। उस जमाने में कृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा की थी लेकिन इस जमाने में दुश्शासन तो बहुतेरे हैं लेकिन कृष्ण जैसे साहस का अभाव है।

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 स्वास्थ्य की बुनियाद
स्त्री बुनियाद है परिवार की। वह बच्चों को जन्म देती है और उनकी परवरिष करती है। लेकिन इसी स्त्री की षिक्षा और स्वास्थ्य के बारे में आंकड़े अधिक बोलते हैं, सच्चाई कम। राजनीतिक हलकों अथवा सरकारों को स्त्री-स्वास्थ्य जच्चा-बच्चा के टीकाकरण तक ही सीमित दिखाई देता रहा है। पहली बार मध्यप्रदेष सरकार ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की कि छात्राओं को सैनेटरी पेड्स मुफ़्त उपलब्ध कराए जाएंगे। स्त्री-जीवन के जिस सबसे महत्वपूर्ण पक्ष की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया उस ओर ध्यान दिया जाना इस बात का द्योतक कहा जा सकता है कि स्त्री के स्वास्थ्य के प्रति एक राज्य-सरकार का ध्यान आकृष्ट तो हुआ। बाकी राज्य सरकारों को भी बिना किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह के इस कदम को अपनाना चाहिए। क्योंकि जो परिवार गरीबीरेखा ने नीचे जी रहे हैं अथवा जिनमें स्त्री-स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता नहीं है, उन परिवारों की बेटियों को मासिकधर्म के समय स्वच्छ साधन उपलब्ध हो सके। मासिकधर्म वह प्रक्रिया है जो स्त्री के जननी बनने में अहम भूमिका निभाती है।
नई दिल्ली लोधी रोड स्थित सभागार में 15 फरवरी, 2012 को केन्द्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय द्वारा ग्रामीण स्वच्छता प्रवर्द्धन हेतु राष्ट्रीय परामर्श का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा शौचालय था। चर्चा में हिस्सा लेने वाले प्रमुख गैर-सरकारी संगठनों ने बहुत विस्तार से इस मुद्दे पर बातचीत की कि भारत की निरन्तर बढ़ती मलिन बस्तियों और ताल-तलैयों में बैक्टीरिया के बढ़ने से अनेक बीमारियां पैदा होती हैं और देशभर में ग्रामीण इलाके के लोग उससे प्रभावित होते हैं।
02 अक्टूबर 2014 को मोदी सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के अंतर्गत ख्ुाले में शौच से मुक्ति की ओर कदम बढ़ाने का खुला आह्वान किया। स्त्री-जीवन की सुऱक्षात्मक प्रगति के पक्ष में ‘‘सोच से शौचालय तक’’ का यह कदम स्वागत योग्य रहा है। किन्तु इसके लिए जनजागरूकता सबसे अधिक जरूरी है। यह तो आमजनता को ही समझना पड़ेगा न कि एक स्वस्थ औरत ही स्वस्थ पीढ़ी को जन्म दे सकती है और एक स्वस्थ औरत ही बहुमुखी प्रगति कर सकती है। 

सुरक्षा का प्रश्न
एक और बुनियादी समस्या जिसके बारे में लगभग दस वर्ष से भी पहले मैंने एक कहानी लिखी थी ‘मरद’। कहानी का सार यही था कि सुंदरा नाम की एक नवयुवती विवाह के उपरान्त अपने ससुराल आती है, जहां उसे खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। जब तक उसकी सास या उसकी सहेलियां उसके साथ जाती हैं तब तक वह सरपंच की कुदुष्टि से बची रहती है। लेकिन एक दिन अकेले जाने पर सुंदरा सरपंच की हवस की षिकार हो जाती है। वह पुलिस के पास जाना चाहती है लेकिन उसकी सास उसे चुप रहने को मना लेती है, उसका पति भी उसे चुप रहने को कहता है। कुछ वर्ष बाद जब कुदृष्टि के काले साए सुंदरा की अवयस्क बेटी चमेली पर मंडराने लगते हैं तो वह चुप न बैठ कर रौद्र रूप धारण कर लेती है और अपने दम पर शौचालय बनवाने की घोषणा करती हुई ललकार कर अपने पति से कहती है -‘‘‘‘तू बैठ के सोच! आ के देखे तो साला सरपंच, गाड़ दूंगी उसे खुड्डी में...अब मैं वो सुंदरा नहीं कि तेरे कहे से चुप बैठूं, अब मैं मंा हूं चमेली की! समझे!’’
यह सभी जानते हैं कि सारे के सारे अपराध पुलिस के रोजनामचे तक नहीं पहुंच पाते हैं, कुछ पहुचते हैं तो दर्ज़ नहीं हो पाते हैं और कुछ दर्ज़ होते भी हैं तो वे या तो वापस ले लिए जाते हैं अथवा प्रताड़ित को लांछन की असीम वेदना सहते हुए दम तोड़ देना पड़ता है। एक ओर देश की आजादी का उत्सव और दूसरी ओर यह अप्रिय लगने वाला दुखद प्रसंग। लेकिन सच तो सच ही रहेगा कि जिस घड़ी कल्पना चावला अंतरिक्ष में उड़ान भर रही थी, ठीक उसी समय देष के किसी दूर-दराज़ ग्रामीण क्षेत्र में शौच के लिए जाती स्त्री बलात्कार की षिकार हो रही थी। कल्पना चावला के रूप में स्त्री की वैष्विक प्रगति को सबने देखा किन्तु उस बलत्कृत स्त्री की तो रिपोर्ट भी दर्ज़ नहीं हो पाई। भारतीय स्त्री के जीवन का यह स्याह पक्ष एक धब्बा है देश की तमाम प्रगति पर। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता। लिहाजा प्रश्न उठता है कि महिला एवं बालविकास मंत्रालय कार्य कर रहा है, राष्ट्रीय महिला आयोग दायित्व निभा रहा है तथा स्वयंसेवी संस्थाएं समर्पित भाव से काम कर रही हैं तो फिर विगत 53 वर्ष में देश की समस्त महिलाओं का विकास क्यों नहीं हो पाया? कहीं कोई कमी तो है जो स्त्रियों के समुचित विकास के मार्ग में बाधा बन रही है। जाहिर है कि यह कमी स्त्री के प्रति सुरक्षा में कमी की है। 

वास्तविक अधिकारों की जरूरत
राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों की संख्या के आंकड़ों पर अकसर विवाद होता रहता है। फलां राजनीतिक दल महिलाओं को उतना स्थान नहीं देता, जितना कि हम देते हैं, जैसे दावे हास्यास्पद ढंग से जब तक उछलते रहते हैं। कम से कम हिन्दी पट्टी में तो यह आम दृष्य है कि महिला सरपंच के सारे संवैधानिक निर्णय उसका पति अर्थात् ‘सरपंच पति’ लेता है। उत्तर प्रदेष में ‘प्रधानपति’ का पद इसी हेतु है कि ‘प्रधान’ के पति महोदय प्रधान को निर्णय लेने में मदद कर सके। अब यदि पुरुष-बैसाखियों के सहारे स्त्री की प्रगति खड़ी है तो यह काहे की प्रगति? स्वनिर्णय लेने के अधिकार से बढ़ कर और कोई अधिकार नहीं होता है। यह अधिकार अभी भी स्त्री से कोसों दूर है।
अंत में मैं उस तथ्य को एक बार फिर दोहराना चाहूंगी जिसे मैंने अपने उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ की भूमिका में सामने रखा था कि समाज की भांति हिन्दी व्याकरण भी पुरुष प्रधान है। अंग्रेजी में व्यक्तिवाचक संज्ञा के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय के साथ ‘पर्सन’ अर्थात् ‘व्यक्ति’ जुड़ा होता है। यह ‘पर्सन’ (व्यक्ति) पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी किन्तु, हिन्दी भाषा के व्याकरण में मानो स्त्री न तो कोई व्यक्ति है और न व्यक्तिवाचक संज्ञा। प्रथम है तो पुरुष, द्वितीय है तो पुरुष और तृतीय है तो पुरुष, फिर स्त्री के लिए जगह कहां हैं? क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र लिंग तक सीमित हैं? मैं न तो व्याकारण की आधिकारिक ज्ञाता हूं और न आधिकारित व्याख्याकार, लेकिन एक स्त्री होने के नाते यह बात मुझे सदैव चुभती है।’
अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्री और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।
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Wednesday, August 10, 2016

चर्चा प्लस ... गाय पर राजनीति .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (10. 08. 2016) .....
 

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गाय पर राजनीति
- डॉ शरद सिंह

प्रधानमंत्री मोदी के कथन और विपक्षी दलों के आरोपों के बीच पशुपालकों के दायित्वों पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है। गाय कोई आवारा पशु तो है नहीं, फिर पचासों गायें सड़कों और सब्जीमंडियों में घूमती, मार खाती दिखाई पड़ती हैं। इन गायों को आवारा पशुओं के समान कौन छोड़ देता है? इसका पता लगाया जाना भी जरूरी है। एक ओर गाय को माता का दर्जा देना और दूसरी ओर उसे डंडे, गालियां खाने और भूख से जूझने के लिए आवारा पशु के समान छोड़ देना किसी अपराध से कम नहीं है। सबसे पहले तो ऐसे गायपालकों को चिन्हित कर दंण्डित किया जाना चाहिए।

‘‘काऊ इज़ ए फोर फुटेड एनिमल। शी हेज़ टू हार्न एंड वन लांग टेल ...।’’ लगभग हर व्यक्ति ने जिसने कभी न कभी, किसी न किसी कक्षा में अंग्रेजी पढ़ी हो, ‘काऊ’ पर निबंध जरूर लिखा होगा। अंग्रेजी भाषा में निबंध लिखने के अभ्यास का यह सबसे लोकप्रिय निबंध माना जाता है। इसकी लोकप्रियता का मूल कारण है गाय का बच्चों का चिरपरिचित होना। भारतीय बच्चे गाय को बखूबी जानते, पहचानते हैं। उन्हें पता है कि गाय दूध देती हैं वह दूध उन्हें पीने को मिलता है और उस दूध से चाय भी बनती है। वे यह भी जानते हैं कि गाय को ‘‘माता’’ कहा जाता है। बच्चों को तो आज भी गाय माता ही लगती है लेकिन शायद बड़े भूलते जा रहा कि गाय से उनका क्या रिश्ता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शनिवार को अपने ‘टाउनहॉल’ कार्यक्रम में बोलते हुए अधिकांश गौरक्षकों को गोरखधंधे में लिप्त बताया। उन्होंने कहा, ‘‘कुछ लोग गौरक्षक के नाम पर दुकान खोलकर बैठ गए हैं। मुझे इस पर बहुत गुस्सा आता है। कुछ लोग पूरी रात असमाजिक कार्यों में लिप्त रहते हैं और दिन में गौरक्षक का चोला पहन लेते हैं. मैं राज्य सरकार से कहता हूं कि वे ऐसे लोगों का डोजियर बनाएं। ऐसे गौरक्षक में से 80 फीसदी लोग गोरखधंधे में लिप्त हैं।’’ उन्होंने गौरक्षकों से अपील की है कि वे गाय को प्लास्टिक खाने से बचाएं, ये बड़ी सेवा होगी।
प्रधानमंत्री मोदी के इस कथन से पहले ही गाय पर राजनीति गरमाने लगी थी। जुलाई 2016 में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के अध्यक्ष लालू प्रसाद ने गुजरात में हो रही ‘सामाजिक क्रांति’ का समर्थन करते हुए कहा था कि गौ रक्षा के नाम पर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। बिना किसी राजनीतिक दल का नाम लिए लालू ने ट्वीट किया, ‘‘गुजरात में हो रही सामाजिक क्रांति को समर्थन। ऐसे लोगों का आर्थिक व सामाजिक बहिष्कार किया जाए, जो गौमाता के नाम पर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ते हैं।’’ उन्होंने लिखा, ‘‘जो व्यक्ति, पार्टी और सरकार इंसान की महत्ता एवं कीमत नहीं जानते, वह जानवरों की क्या जानेंगे? इंसान मरे या जानवर, वो अपना घिनौना खेल ही खेलेंगे।’’
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

आरजेडी अध्यक्ष ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी द्वारा विभिन्न अखबारों में ‘बीफ’ खाने के संबंध में दिए गए बयानों से संबंधित प्रकाशित कराए गए विज्ञापन को पोस्ट करते हुए लिखा, श्बिहार में उन्होंने गाय के नाम पर विज्ञापन निकाला। विज्ञापन में लालू, आरजेडी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह तथा कांग्रेस नेता सिद्धारमैया के ‘बीफ’ को लेकर दिए गए बयानों को जिक्र किया गया था और गाय को गले लगाते एक युवती की तस्वीर थी। विज्ञापन में कहा गया था, ‘‘वोट बैंक की राजनीति बंद कीजिए और जवाब दीजिए, क्या आप अपने साथियों के इन बयानों से सहमत हैं। जवाब नहीं तो वोट नहीं। बदलिए सरकार-बदलिए बिहार।’’
विभिन्न राज्यों के चुनावों और आगामी आमचुनाव को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक राजनीतिक दल गाय पर अपनी-अपनी कमर कस चुका है। इनमें से अधिकांश को गायों की दुर्दशा से अधि इस मुद्दे को अधिक से अधिक भुनाने की कोशिश होने लगी है।

घटनाओं की कड़ियां

मार्च 2016 में गुजरात के राजकोट में गौ रक्षक समिति नाम के एक संगठन ने गाय को ‘राष्ट्रमाता’ घोषित करने और गोमांस पर पूरे देश में प्रतिबंध लगाने की मांग करते कलेक्टर के सामने प्रदर्शन किया। इस दौरान आठ गौ संरक्षण कार्यकर्ताओं ने कथित रूप से कीटनाशक खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया, जिसमें एक व्यक्ति की जान चली गई, जबकि तीन की हालत नाजुक बनी हुई है। पुलिस का कहना है कि गऊ रक्षक समिति के आठ सदस्य हाथों में कीटनाशक की बोतल लिए कलेक्टर के ऑफिस पहुंचे थे। पुलिस के मुताबिक, इससे पहले कि पुलिस उन्हें रोक पाती, उन्होंने कीटनाशक पी लिया। इस घटना के बाद गऊ रक्षक समिति के सदस्य बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आए। राजकोट से पूर्व कांग्रेस सांसद कुनवारजी बावलिया एवं गौसेवा आयोग के अध्यक्ष वल्लभाई कठीरिया घटना के बाद अस्पताल पहुंचे तो प्रदर्शनकारियों ने उन्हें अस्पताल परिसर में जाने से रोक दिया। घटना के विरोध में गौ रक्षक समिति ने गुजरात बंद का आह्वान किया।
जुलाई 2016 में दलित युवकों के कपड़े उतार कर बेरहमी से पिटाई के चलते सात दलितों ने गुजरात में आत्महत्या करने की कोशिश की। विरोध प्रदर्शन के बीच बसों में आग लगा दी गई। अहमदाबाद से करीब 360 किलोमीटर दूर उना में गो हत्या के आरोप में दलित युवकों कथित तौर पर गो-रक्षकों ने अर्धनग्न कर बुरी तरह मारा पीटा। विभिन्न जगहों पर हुई रैली में कथित तौर पर सात लोगों ने जहर खाकर जान देने की कोशिश की। इस मसले को यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री और बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कल संसद में जोरशोर से उठाया। इसके बाद संसद में काफी हंगामा हुआ और राज्यसभा स्थगित कर दी गई। राजकोट में स्टेट ट्रांसपोर्ट की दो बसें जला दी गईं और एक जामनगर में जला दी गई।
चमड़े के कारखानों में काम करने वाले चार लोगों एक एसयूवी से बांधकर लाठियों से मारा गया। उनके कपड़े भी उतारे हुए थे। इन्हें मारे वाले खुद को गौ रक्षक बता रहे थे। बाद में खुद उन्होंने ही इस वीडियो को ऑनलाइन डाल दिया जो खूब वायरल हुआ। पीड़ित दलितों ने हमलावरों को बताया भी था कि वे केवल मरी हुआ गायों पर से चमड़ा निकाल रहे थे लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गई। पीटे गए दलित बुरी तरह जख्मी हुए और उन्हें हफ्ते भर हॉस्पिटल में भर्ती रखना पड़ा। तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने दलित समुदाय के सदस्यों की कथित पिटाई की घटना की सीआईडी जांच का सोमवार को आदेश दिया। साथ ही, उन्होंने मामले की त्वरित सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत गठित किए जाने की भी घोषणा की। पीड़ितों के इलाज के लिए सरकार द्वारा प्रति व्यक्ति एक लाख रुपए सेंक्शन भी कर दिए गए।

प्रधानमंत्री के बयान और गौ रक्षक

नरेंद्र मोदी के गौरक्षकों को लेकर दिए बयान के बाद पंजाब में करीब 20 गौ रक्षकों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। पीएम मोदी ने इन गौ रक्षकों के खिलाफ राज्य सरकारों से कार्रवाई करने की अपील की थी। इन पर 382, 384, 342, 341, 323, 148, 149 के तहत केस दर्ज किया गया। जयपुर में बनी हिंगोनिया गौशाला में पिछले दिनों 500 से ज्यादा गायें मर चुकी हैं। जो जिंदा हैं, वो भी बहुत खराब हालत में थीं। उन्हें ना तो समय पर चारा मिल रहा था। ना ही उनकी कोई देखभाल हो रही थी। गाय के नाम पर हो रही राजनीति के बाद राजस्थान सरकार सक्रिय हुई। राजस्थान के राज्य मंत्री गौशाला पहुंचे और गायों के लिए चारे पानी का इंतजाम कराया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान से ब्रज के गौ रक्षक परेशान हो उठे। गौ रक्षकों का कहना है कि जैसा प्रधानमंत्री ने कहा है कि गौ रक्षक गायों को पालीथिन खाने से बचाएं, यह ठीक है, लेकिन इसके विपरीत जब कंटेनर गायों से लदा पकड़ा जाता है। इसमें दम घुटने से काफी गायें मृत मिलती हैं। मान मंदिर की माताजी गौशाला के सचिव सुनील के अनुसार, ‘‘पिछले दिनों गायों से भरे कंटेनर को पकड़ कर 32 गायों की जान बचाई थी। कॉल करने पर बरसाना पुलिस गांव हाथिया आने से एक बार इन्कार दिया था। बाद में आई थी। तीन गाय दम घुटने से मर चुकी थीं। मेवात के आसपास का 50 किमी का क्षेत्र भी गायों की तस्करी के लिए भी बदनाम है। गौ रक्षक हर महीने 500-700 गायों का जीवन बचा रहे हैं। ऐसे में पुलिस ने किसी गौ रक्षक का डोजियर बनाना शुरू कर दिया तो गौ रक्षा की मुहिम कमजोर पड़ सकती है।’’

सड़कों पर भटकती गऊ माताएं

प्रधानमंत्री मोदी के कथन और विपक्षी दलों के आरोपों के बीच पशुपालकों के दायित्वों पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है। गाय कोई आवारा पशु तो है नहीं, फिर पचासों गायें सड़कों और सब्जीमंडियों में घूमती, मार खाती दिखाई पड़ती हैं। इन गायों को आवारा पशुओं के समान कौन छोड़ देता है? इसका पता लगाया जाना भी जरूरी है। एक ओर गाय को माता का दर्जा देना और दूसरी ओर उसे डंडे, गालियां खाने और भूख से जूझने के लिए आवारा पशु के समान छोड़ देना किसी अपराध से कम नहीं है। सबसे पहले तो ऐसे गायपालकों को चिन्हित कर दंण्डित किया जाना चाहिए। गायों को प्लास्टिक खाने से रोकना है तो उन्हें उनकी वास्तविक गौशाला दिलानी होगी। गायों की दुर्दशा पर सिर्फ़ आंसू बहाने अथवा किसी दल या जाति विशेष के सिर पर ठीकरा फोड़ने से कुछ नहीं होगा, यदि गायों के प्रति सचमुच हमदर्दी है तो उन मूक पशुओं की पीड़ा को समझना होगा उन्हें सड़कों भटकने से रोकने के उपाय करने होंगे।
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Wednesday, August 3, 2016

चर्चा प्लस ... इरोम के संघर्ष का दूसरा अध्याय ..... डाॅ. शरद सिंह


Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (03. 08. 2016) .....

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जब कोई औरत कुछ कर गुज़रने की ठान लेती है तो उसके इरादे किसी चट्टान की भांति अडिग और मजबूत सिद्ध होते हैं। इरोम जैसी सोलह साल लम्बी भूख हड़ताल का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। वे अपना जीवन दांव पर लगा कर निरन्तर संघर्ष करती रही हैं। और अब वे राजनीति में सक्रिय हो कर अफस्पा कानून का विरोध करने जा रही हैं। इरोम के संघर्ष और उनके जीवन के दूसरे अध्याय का भी स्वागत किया जाना चाहिए।

अपना 16 साल पुराना अनशन अगले माह समाप्त करने की घोषणा कर लोगों को चैंका देने वाली मणिपुर की ‘लौह महिला’ इरोम चानू शर्मिला ने कहा कि अपने आंदोलन के प्रति आम लोगों की बेरूखी ने उन्हें यह फैसला करने के लिए बाध्य कर दिया। इरोम ने मीडिया से कहा कि वह सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (आफ्सपा) हटाने की उनकी अपील पर सरकार की तरफ से कोई ध्यान नहीं देने और आम नागरिकों की बेरूखी से मायूस हुई हैं जिन्होंने उनके संघर्ष को ज्यादा समर्थन नहीं दिया। उन्होंने राज्य में इनर लाइन परमिट सिस्टम के क्रियान्वयन के लिए चले आंदोलन में स्कूली छात्रों के इस्तेमाल की आलोचना की। इरोम सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा) को हटाने की मांग को लेकर 16 साल से अनशन कर रहीं मणिपुर की ‘आयरन लेडी’ इरोम चानू शर्मिला ने घोषणा की कि वह नौ अगस्त 2016 को अपना अनशन समाप्त कर देंगी और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राज्य विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी।
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कौन हैं इरोम चानू शर्मिला

इरोम चानू शर्मिला का जन्म 14 मार्च 1972 को इम्फाल के पास एक गांव में हुआ । इरोम शर्मिला 5 भाई और 3 बहनों में सबसे छोटी हैं। एक साधारण परिवार की इरोम की माता घरेलू महिला और पिता सरकारी पशु चिकित्सा विभाग में नौकरी रहे हैं। सितंबर 2000 में इरोम ह्यूमन राइट्स अलर्ट नामक संस्था से जुड़ी और उसके साथ ही आर्म्ड़ फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के प्रभावों की छानबीन करने के लिए गठित पीपुल्स इंक्वायरी कमीशन के साथ भी इरोम ने काम किया। इरोम शर्मीला ने मात्र 28 वर्ष की आयु में अपनी भूख हड़ताल आरम्भ की थी। उस समय कुछ लोगों को लगा था कि यह एक युवा स्त्री द्वारा भावुकता में उठाया गया कदम है और शीघ्र ही वह अपना हठ छोड़ कर सामान्य ज़िन्दगी में लौट जाएगी। वह भूल जाएगी कि मणिपुर में सेना के कुछ लोगों द्वारा स्त्रियों को किस प्रकार अपमानित किया गया। किन्तु 28 वर्षीया इरोम शर्मीला ने न तो अपना संघर्ष छोड़ा और न आम ज़िन्दगी का रास्ता चुना। वे न्याय की मांग को लेकर संघर्ष के रास्ते पर जो एक बार चलीं तो उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह स्त्री का वह जुझारूपन है जो उसकी कोमलता के भीतर मौजूद ऊर्जस्विता से परिचित कराता है।

इरोम ने क्यों चुना यह रास्ता

शर्मीला ने यह रास्ता क्यों चुना इसे जानने के लिए सन् 2000 के पन्ने पलटने होंगे। सन् 2000 के 02 नवम्बर को मणिपुर की राजधानी इम्फाल के समीप मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मीला एक बैठक कर रही थीं। उसी समय मलोम बस स्टैण्ड पर सैनिक बलों द्वारा अंधाधुंध गोलियां चलाई गईं। जिसमें करीब दस लोग मारे गए। इन मारे गए लोगों में 62 वर्षीया लेसंगबम इबेतोमी तथा बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि भी शामिल थीं। एक ऐसी महिला जिसे बहादुरी के लिए सम्मानित किया गया और एक ऐसी स्त्री जो ‘सीनियर सिटिजन’ की आयु सीमा में आ चुकी थी, इन दोनों महिलाओं पर गोलियां बरसाने वालों को तनिक भी हिचक नहीं हुई? इस नृशंसता ने शर्मीला के अंतर्मन को हिला दिया। इससे पहले भी अनेक ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं जिसमें सुरक्षाबल के सैनिकों द्वारा निरपराध और निहत्थे नागरिकों पर गोलियां चलाई गई थीं। शर्मीला ने इस घटना की तह में पहुंच कर मनन किया और पाया कि यह सेना को मिले ‘अफस्पा’ रूपी विशेषाधिकार का दुष्परिणाम है। इस कानून के अंतर्गत सेना को वह विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके तहत वह सन्देह के आधार पर बिना वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है, किसी को गिरफ्तार कर सकती है तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। 
इस घटना के बाद इरोम ने निश्चय किया कि वे इस दमनचक्र का विरोध कर के रहेंगी चाहे कोई उनका साथ दे अथवा न दे। इरोम शर्मीला ने भूख हड़ताल में बैठने की घोषणा की और मणिपुर में लागू कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटाए जाने की मंाग रखी। इस एक सूत्रीय मांग को लेकर उन्होंने अपनी भूख हड़ताल आरम्भ कर दी। शर्मीला ने 03 नवम्बर 2000 की रात में आखिर बार अन्न ग्रहण किया और 04 नवम्बर 2000 की सुबह से उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी। इस भूख हड़ताल के तीसरे दिन सरकार के आदेश पर इरोम शर्मीला को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आत्महत्या करने का आरोप लगाते हुए धारा 309 के तहत कार्रवाई की गई और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। उल्लेखनीय है कि धारा 309 के तहत इरोम शर्मीला को एक साल से ज्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता था इसलिए एक साल पूरा होते ही कथिततौर पर उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहां उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया। वहीं उनकी नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जाता रहा।

क्या है ‘अफस्पा’ कानून

अफस्पा कानून एक तरह से आपातकालीन स्थिति लागू करने जैसा ही है। इस कानून के मुख्य बिन्दु हैं - 1-केन्द्र और राज्य सरकार किसी क्षेत्र को गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित करती है यानी डिस्टब्र्ड एरिया घोषित होने के बाद अफस्पा लगाया जा सकता है। 2-सेना को बिना वारंट तलाशी, गिरफ्तारी तथा जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल करने की इजाजत है। इतना ही नहीं, सेना संदिग्ध व्यक्ति को गोली से उड़ा भी सकती है। 3-सेना गिरफ्तार व्यक्ति को जल्दी से जल्दी स्थानीय पुलिस को सौंपने को बाध्य है। लेकिन जल्द से जल्द की कोई व्याख्या नहीं की गई है और न ही कोई समय सीमा तय है। इसकी आड़ में सेना असीमित समय तक किसी भी व्यक्ति को अपने कब्जे में रख सकती है। 4-इस कानून के दायरे में काम करने वाले सैनिकों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है। मानवाधिकार उल्लंघन या कानून की आड़ में ज्यादती किए जाने का आरोपी सैनिक पर, केन्द्र की अनुमति से ही मुकदमा चलाया जा सकता है या सजा दी जा सकती है।
इस प्रकार यह कानूनी सुरक्षा के नाम संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक मौलिक अधिकारों का पूर्णतः हनन है । इसके चलते कई बार मानव अधिकार कमीशन के दबाव में इस कानून को लेकर मंथन हुआ जिसके तहत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2004 में इस कानून में सुधार की संभावना तलाशने के लिए जस्टिस बी.पी.जीवन रेड्डी कमेटी गठित की लेकिन नतीजा कुछ निकला कर नहीं आया और आज भी यह कानून यथावत है । 
‘अफस्पा’ शासन के 53 वर्षों में 2004 का वर्ष मणिपुर की महिलाओं द्वारा किए गए एक और संघर्ष के लिए चर्चित रहा। असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजम मनोरमा के साथ किये बलात्कार और हत्या के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने कांगला फोर्ट के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उसमें लिखा था ‘भारतीय सेना आओ, हमारा बलात्कार करो’। इस प्रदर्शन पर बहुत हंगामा हुआ। मीडिया ने इसे भरपूर समर्थन दिया तथा दुनिया के सभी देशों का ध्यान मणिपुर की स्थिति की ओर आकर्षित हुआ।

अचानक लिया निर्णय नहीं है यह

सन् 2014 में अपने एक साक्षात्कार में इरोम ने कहा था कि ‘‘मैं अब शादी करना चाहती हूं। एक बार मेरा मकसद हासिल हो जाए, तो मैं डेसमंड के साथ पति-पत्नी के रिश्ते में रहना चाहती हूं। मैं वोट भी डालना चाहती हूं।’’ उल्लेखनीय है कि भारत में हिरासत में रखे गए लोगों को वोट डालने का अधिकार नहीं है। यद्यपि ऐसे उदाहरण भी हैं जब जे़ल में सज़्ा काट रहे लोगों ने चुनाव लड़े और चुनाव जीता भी है।
अब अपने अनशन के सोलहवें वर्ष में इरोम ने अदालत में कहा कि ‘‘किसी भी राजनीतिक दल ने मेरे लोगों की आफ्सपा हटाने की मांग को नहीं उठाया। इसीलिए मैंने ये विरोध खत्म करने और 2017 के असेंबली चुनावों की तैयारी करने का फैसला किया है। मैं 9 अगस्त 2016 को अदालत में अपनी अगली पेशी के समय भूख हड़ताल खत्म कर दूंगी।’’ इरोम के इस निर्णय से उनके कुछ समर्थकों को निराशा हुई। लेकिन प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन के लिए अपने ढंग से निर्णय लेने का अधिकार होता है, इरोम को भी है। अतः उनके इस निर्णय का सभी को स्वागत करना चाहिए। वे अपने उद्देश्य से नहीं हट रही हैं, वे सिर्फ रास्ता बदल रही हैं। यूं भी जब सोलह साल में देश की जनता उनके समर्थन में सरकार को राजी नहीं कर सकी तो उसे इरोम के इस निर्णय का समर्थन करना ही चाहिए। अब वे राजनीति में सक्रिय हो कर अफस्पा कानून का विरोध करने जा रही हैं। इरोम के संघर्ष और उनके जीवन के दूसरे अध्याय का भी स्वागत किया जाना चाहिए।

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Memories of Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

In the occasion I had lecture on the topic of "Social presence of Third Gender in Hindi Novels" - Dr Sharad Singh
Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India with Neerja Madhav and Suryabala

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India with Dinesh Prabhat

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India with Suryabala

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India with Rajkumar Tiwari Sumitra and Acharya Bhagavat Dubey

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India with Pro. Pushpesh Pant

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India with Neerja Madhav and Kumud Sharma

Dr ( Miss) Sharad Singh at  Pavas Vyakhyanmala 2016, 23-24 July, Bhopal (MP) India