Wednesday, July 26, 2017

चर्चा प्लस ... लिपस्टिक के बहाने स्त्रीपक्ष में बहस ... डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
हाल ही में रिलीज़ "लिपस्टिक अंडर माई बुर्का" पर आज (26.07.2017) मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस दैनिक "सागर दिनकर" में पढ़िए ...."अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ ने इस बात को साबित कर दिया है कि आज की महिला फिल्म निर्देशक घाटे के जोखिम से निपटना बखूबी जानती है। स्त्री यौनिकता का संवेदनशील विषय को सामने रख कर वह स्त्री की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करती है और साथ ही अपने आर्थिक घाटे की संभावना को भी चतुराई से बचा ले जाती है।"

चर्चा प्लस
लिपस्टिक के बहाने स्त्रीपक्ष में बहस
- डॉ. शरद सिंह 

किसी स्त्री की स्वतंत्रता का अर्थ क्या हो चाहिए? आर्थिक स्वतंत्रता या यौनिक स्वतंत्रता अथवा दोनों या दोनों नहीं। प्रश्न पेंचीदा हैं। तय स्वयं स्त्री को करना है कि वह किस सीमा तक और कैसी स्वतंत्रता चाहती है। निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित स्त्री के पक्ष में महत्वाकांक्षी फिल्म ’लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ इस प्रश्न को बड़ी शिद्दत से उठाती है और एक बहस छोड़ जाती है दर्शकों के मन-मस्तिष्क में। लिपस्टिक स्त्री के श्रृंगार का एक हिस्सा ही नहीं वरन् उसके अधिकार का प्रतीक है जिसे वह समाज के सामने लाना चाहती है पूरी खूबसूरती के साथ। फिर भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं जो एक बार फिर बहस का आग्रह करते दिखाई देते हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

स्त्री अधिकारों के पक्ष में फिल्म जगत ने यू ंतो हमेशा पहल की है लेकिन जब ये स्त्री निर्देशकों और निर्माताओं ने इस क्षेत्र में क़दम रखा तब से एक अलग ही रंग इस तरह की फिल्मों में दिखाई देने लगा। यह अलग रंग बॉक्स ऑफिस का जोखिम माना जाता रहा है। भारतीय सिने जगत में अल्पसंख्यक होते हुए भी महिला निर्देषकों ने साहस के साथ इस जोखिम को बार-बार उठाया लिया। अपने परिवार के लिए एक-एक पैसे जोड़ने पर विष्वास रखने वाली महिलाएं जब सिने जगत में निर्देषक के रूप में प्रविष्ट हुईं तो उनमें से अधिकांष ने फिल्म के माध्यम से पैसे कमाने का उद्देष्य त्याग कर सामाजिक, पारिवारिक एवं वैष्विक मुद्दों पर फिल्में बनाईं, वह भी बिना किसी ‘फिल्मी-मसाले’ के।
जब प्रश्न भारतीय सिनेमा का उठता है तो आमतौर पर महिलाओं की विस्तृत भूमिका अभिनय और संगीत तक सिमटी दिखाई देती है। नायिका, खलनायिका, चरित्र अभिनेत्री अथवा पार्श्व गायिका पर जा कर स्त्री का अस्तित्व सिमटता दिखता है। भारतीय सिने जगत में महिला गीतकारों को भी उंगलियों पर गिना जा सकता है और निर्देशकों को भी। यद्यपि भारतीय सिनेमा में महिला निर्देशकों की शुरूआत बहुत पहले हो गई थी जब अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री फातिमा बेगम ने सन् 1926 में मूक फिल्म ‘बुलबुल ए परिस्तान’ का निर्देशन किया था। इसके लगभग 10 साल बाद सन् 1936 में अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई ने फिल्म ‘मैडम फैशन’ का निर्देशन किया था। यह फिल्म हिट रही और इसके बाद उन्होंने ‘मोती का हार’ और ‘जीवन स्वप्न’ नामक फिल्मों का भी निर्देशन किया। इसके बाद शोभना समर्थ ने भी अभिनय के साथ ही फिल्म का निर्देशन का काम किया । फिर भी महिला फिल्म निर्देशक स्थायी रूप से अपनी उपस्थिति नहीं बनाए रख सकीं। कई अभिनेत्रियां ऐसी आई जिन्होंने अभिनय के साथ-साथ निर्देशन में भी हाथ आजमाया। इनमें थीं- शोभना समर्थ, साधना, तबस्सुम, हेमामालिनी, नीलिमा अजीम, सोनी राजदान, नंदिता दास और पूजा भट्ट। इन सभी अभिनेत्रियों ने निर्देशन के लिए या तो अभिनय क्षेत्र को त्याग दिया या फिर दोनों ही काम को बराबर करती रहीं। भारतीय सिनेमा में सिर्फ 9.1 फीसदी महिला निर्देशक हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय मानक से थोड़ा ही ज्यादा है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म उद्योग में फिल्में लिखने वाली महिलाएं ज्यादा हैं। भारत में यह हिस्सेदारी सिर्फ 12.1 फीसदी है। कैमरे के पीछे प्रति 6.2 पुरुषों की तुलना में एक महिला काम कर रही है।
सन् 2017 के मध्य में आई अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ ने इस बात को साबित कर दिया है कि आज की महिला फिल्म निर्देशक घाटे के जोखिम से निपटना बखूबी जानती है। स्त्री यौनिकता का संवेदनशील विषय को सामने रख कर वह स्त्री की स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़ बुलंद करती है और साथ ही अपने आर्थिक घाटे की संभावना को भी चतुराई से बचा ले जाती है। आज की महिला फिल्म निर्देशक व्यावसायिक क्षेत्र बारीकी से नज़र रखे हुए हैं। यह जरूरी भी है। क्यों कि जब आपकी बात अधिक से अधिक लोगों के पास पहुंचेगी तभी तो उस पर विचार-विमर्श होगा अन्यथा स्टूडियो की चौखट पर ही फिल्म भी दम तोड़ देगी। ‘‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’’ की पूरी टीम इस बात को भली-भांति जानती और समझती है।
‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ में पुरूष पितृसत्ता की वजह से इसके पीछे क्या चीजें होती है वो दिखाने की कोशिश की गई है। जहां एक लड़की लोगों के सामने डांस नहीं कर सकती क्योंकि ’लोग क्या सोचेंगे’. जहां एक अधेड़ उम्र की महिला अपने यौनिक रूचि-अरूचि के बारे में बात नहीं कर सकती। जहां एक पुरूष कभी भी सेक्स के लिए अपनी अपनी पत्नी की अनुमति या उसकी पसंद नापसंद के बारे में नहीं सोचता है। ‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ उन महिलाओं की आवाज है जो शायद ही कभी सुनी जाती है। दरअसल फिल्म में लिपस्टिक एक प्रतीक है स्त्री के अधिकारों का। लिपस्टिक चेहरे को सुंदर दिखाने के लिए लगाई जाती है लेकिन यदि चेहरा दिखाने की ही आजादी न हो तो? क्या स्त्री पुरुषों की भांति मनुष्य नहीं है जो उसके चेहरा दिखाने पर पाबंदी लगा दी जाती है। ऐसी पाबंदियां पहले घुटन, फिर क्रोध और फिर विद्रोह को जन्म देती हैं। यही इस फिल्म का मुख्य कथानक है।
‘’लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ के संदर्भ में एक और बात जिसने एक अलग ही बहस का इतिहास रच दिया। सेंसर बोर्ड द्वारा फिलम पर बैन लगा और फिर हटा लेकिन इन सबके विरोध में फिल्म की टीम ने साशल मीडिया पर एक फोटो-आंदोलन चलाया। फिल्म की चारों लीड स्टार्स ने फिल्म के पोस्टर के ही पोज में मिडिल फिंगर को दिखाते हुए तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड की। उन्होंने अपने फैन्स से आग्रह किया कि वो भी इसी पोज में अपनी तस्वीरें खींच कर भेजें। इसकी शुरूआत कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, अहाना कुमरा और प्लबिता बोरठाकुर ने शुरू की है। इन सभी ने इसी मुद्रा में फोटो खिंचाई है। इसे ’लिपस्टिक रिबेलियन’ का नाम दिया गया है। चारो अभिनेत्रियों ने कहा कि एक महिला होने के नाते हम पर हमेशा ये बातें थोपी जाती हैं कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इसलिए जिस प्रकार सभी ने मुद्रा बनाई है उसी तरह आप भी बनाये और फोटो साझा कर इस आंदोलन का हिस्सा बने। जोया अख्तर ने भी इसके सर्मथन में अपनी आवाज उठाई और अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की। परिणाम रहा कि ’लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ ने अपने तीसरे दिन नही कुल 2.41 करोड़ की कमाई की।
‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ में भोपाल की पृष्ठभूमि है। फिल्म वॉइस ओवर से शुरू होती है कि कैसे महिलाओं की जिंदगी में उदासी आ जाती है और फिर युवावस्था पीड़ा देने लगती हैं। इसके बाद शुरू होती है चार स्त्रियों की अलग-अलग कहानियां। चारों स्त्रियां सभी बंदिशों को तोड़कर यौनिक दमित समाज से बाहर निकलना चाहती है और वो जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहती हैं जिसके बारे में उनका मानना है कि मनुष्य होने के नाते उनका अधिकार भी है।
एक स्त्री रेहाना ( पल्बिता बोरठाकुर ) है जो एक टीनएज है और जिसेघर में भी बुर्का में रहना पड़ता है। माइली सायरस (प्रसिद्ध युवा गायिका) बनना चाहती है। उसे लेड जेप का ‘‘स्टेयर वे टू हेवन’’ गाना पसंद है। वह कॉलेज में जीन्स पर बैन के ख़िलाफ आवाज़ उठाती है और दुकान से सामान भी चुराती है। दूसरी स्त्री शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) की है जो एक बुर्का पहनने वाली हाउसवाइफ है। जिसका रुढ़िवादी पति उसे उपभोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता। वो अपनी खुशी के लिए घर-घर जाकर सेल्सगर्ल का काम करती है। तीसरी स्त्री लीला (आहना कुमारा) है जो एक पार्लर चलाती है। उसकी साच और अधिक खुलेपन की है। वह अपनी सुहागरात के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करना चाहती है और इसे लेकर कई सपने सजाती रहती है। चौथी स्त्री बुआ जी उर्फ उषा परमार (रत्ना पाठक शाह) है। वह 55 साल की महिला है जिसका यौन अस्तित्व समाज में स्वीकार्य नहीं है। वो तैराकी के लिए जाती है और नाम बदल कर फोन पर यौनिक बातें करती है। असल में ये चारों महिलाएं एक मिट्टी के घर में रहती है जो बुआ जी का है और बाकी तीनों इसमें किराएदार हैं।
इस कहानी के कई पक्ष ऐसे भी है जिनसे सभी लोग सहमत नहीं हो सकते हैं। जैसे हर स्त्री इस तरह यौनिक दबाव में नहीं रहती है कि अपनी भावनाओं को शांत करने के लिए नाम बदल कर फोन पर यौनिक बातें करने लगे। या फिर स्त्री की सारी स्वतंत्रता उसकी यौनिकता से हो कर ही गुज़रती है। सन् 1996 में दीपा मेहता ने फिल्म ‘फायर’ बनाई। इस फिल्म के कथानक एवं दृष्यांकन को ले कर जमकर विवाद हुआ। भारतीय सिने परिवेष के लिए ‘फायर’ का विषय अत्यंत नया और चौंकाने वाला था। इस फिल्म में बॉलीवुड की दो दमदार अभिनेत्रियों शबाना आजमी और नंदिता दास के माध्यम से दो महिलाओं के बीच के दैहिक संबंधों की कहानी प्रदर्षित की गई है।
नया विषय और वह भी स्त्री-जीवन से जुड़ा हो तो सभी को चौंकाता है। लोग रूचि भी लेते हैं और नाक-भौंह भी सिकोड़ते हैं। ‘‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’’ को भी इन सबसे गुज़रना पड़ा है। फिर भी जहां तक अभिनय की बात की जाए तो कोंकणा सेन शर्मा ने शिरीन के के पात्र को जिस तरह अभिनीत किया है, अद्भुत है। रत्ना पाठक शाह का अभिनय भी फिल्म में पर्याप्त प्रभावित करता है। आहना कुमारा का दमदार किरदार और पल्बिता बोरठाकुर का विद्रोही अंदाज भी प्रभाव डालता है। सुशांत सिंह, वैभव तत्ववादी भी अपना असर छोड़ते हैं। कुल मिला कर फिल्म बहुत कुछ सिखा जाती है-यौनिक दमन, यौनिक दमन के दुष्परिणाम और फिल्म का नया अर्थशास्त्र।
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Wednesday, July 12, 2017

चर्चा प्लस ... पीड़ित बेटियां और विषपान करते शिव ... डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
बैलों के स्थान पर जुती हुई दो बेटियों की अखबारों में छपी तस्वीर ने सोचने पर विवश कर दिया है कि प्रत्येक समुदाय में धर्मध्वजा उठाए रखने वाली और संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने वाली बेटियां कब तक असुरक्षित रहेंगी?
पढ़िए "पीड़ित #बेटियां और #विषपान करते #शिव" मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 12.07. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper...

चर्चा प्लस
 पीड़ित बेटियां और विषपान करते शिव
 - डॉ. शरद सिंह

आए दिन समाचारपत्र भरे रहते हैं बेटियों के प्रताड़ित होने के समाचारों से। कभी हत्या तो कभी बलात्कार तो कभी किसी अन्य तरह का शारीरिक उत्पीड़न। उस पर बैलों के स्थान पर जुती हुई दो बेटियों की अखबारों में छपी तस्वीर ने सोचने पर विवश कर दिया है कि प्रत्येक समुदाय में धर्मध्वजा उठाए रखने वाली और संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने वाली बेटियां कब तक असुरक्षित रहेंगी? आज के सामाजिक एवं सुरक्षा संबंधी समुद्र मंथन में बेटियों का शोषण रूपी विष बढ़ता जा रहा है और मानो शिव का कण्ठ उसे धारण करने के लिए छोटा पड़ता जा रहा है। क्या हम शिव के तांडव की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
Charcha Plus ..  Dr (Miss) Sharad Singh

सावन का महीना और सोलह सोमवार के व्रत का घनिष्ठ संबंध है। हिन्दू परिवारों की बेटियां बड़े उत्साह से सोलह सोमवार का व्रत रखती हैं और मनचाहे जीवन साथी तथा सुखद जीवन की कामना करती हैं। ये बेटियां भगवान शिव की पूजा-आराधना करती हैं। वही भगवान शिव जिन्होंने जगत् कल्याण के लिए विषपान किया था और नीलकण्ठ कहलाए थे। ‘शिवपुराण’ के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब देवतागण एवं असुर पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए मंथन कर रहे थे, तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएं जलने लगीं और देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गर्मी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने भयंकर विष को अपने शंख में भरा और भगवान विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। भगवान विष्णु अपने भक्तों के संकट हर लेते हैं। उन्होंने उस विष को शिवजी के कंठ (गले) में ही रोक कर उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। दुख तो इस बात का है कि आज के सामाजिक एवं सुरक्षा संबंधी समुद्र मंथन में बेटियों का शोषण रूपी विष फैलता जा रहा है और मानो शिव का कण्ठ उसे धारण करने के लिए छोटा पड़ता जा रहा है। क्या हम भगवान शिव के तांडव की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के गृह ज़िले सीहोर में आर्थिक तंगी से जूझ रहे किसान द्वारा खेत जोतने के लिए बैल की जगह बेटियों से हल खिंचवाने की तस्वीरें सामने आने के बाद से सोशल मीडिया से ले कर विपक्षी दलों तक में जागरूकता की लहर दौड़ गई। प्रिंट मीडिया ने तो अपना दायित्व निभाया लेकिन ऐसा लगा जैसे विपक्षी दलों को कोई खज़ाना हाथ लग गया हो। यह घटना राज्य के सीहोर ज़िले के बसंतपुर पांगड़ी गांव का है। रविवार को समाचार एजेंसी एएनआई ने कुछ तस्वीरें जारी की जिसमें एक किसान बैल की जगह बेटियों से खेत की जुताई करवाता नज़र आ रहा था। सरदार बारेला नाम के इस किसान का कहना है कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह बैल खरीद सके और उनका पालन पोषण कर सके। इतना ही नहीं उस ग़रीब किसान का कहना है कि आर्थिक तंगी की वजह से उसकी 14 वर्षीय बेटी राधिका और 11 वर्ष की कुंती को कक्षा आठ के बाद अपनी पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी।
प्रश्न यह उठता है कि यदि उन दो बेटियों और उनके लाचार पिता की तस्वीर अखबारों में नहीं छपती तो क्या पंच, सरपंच आदि स्थानीय प्रशासन उस लाचार किसान के आत्महत्या करने की प्रतीक्षा करता रहता? ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा उछालना तो आसान है, चंद स्कूली बच्चों की रैलियां निकाल कर ऐसी योजनाओं को समर्थन देना तो और भी आसान है, लेकिन कठिन है तो बेटियों की वास्तविक दशा को सुधारना। लाचार पिता को यह नसीहत दे कर कि वह अपनी बेटियों से इस तरह का काम न कराए, दायित्वों की इतिश्री नहीं मानी जा सकती है और यदि बेटियों की जगह बेटे हल में जुते होते तो क्या इस मामले को अनदेखा किया जा सकता था? सवाल यहां दायित्वों के निर्वहन और खोखली व्यवस्थाओं का है। ‘मामा शिवराज के राज में भांजियां पीड़ित’ कह कर मुख्यमंत्री को दोषी ठहराना तो आसान है किन्तु यदि दो पल के लिए राजनीतिक चश्मा उतार कर मानवता की दृष्टि से देखें तो स्थानीय व्यवस्था के जिम्मेदारों ने अपना कर्त्तव्य किस तरह निभाया अथवा समाज ने उन दोनों बेटियों के पक्ष में कितनी आवाज़ उठाई इस पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। जब राधिका और कुंती को पढ़ाई छोड़नी पड़ी तो क्या किसी स्कूलशिक्षा, विकासखण्ड कार्यालय अथवा पंचायत की ओर से कोई रिपोर्ट बना कर राज्य शासन के सामने रखी गई? क्या किसी ने उसी समय यह जानने का प्रयास किया कि दो बेटियां अपनी शिक्षा अधूरी क्यों छोड़ रही हैं? क्या सर्वेयर ने उन दोनों बेटियों की माली हालत को जानने या उन्हें सहायता पहुंचाने का प्रयास किया? इस तरह के अनेक प्रश्न हैं जिनकी ओर ध्यान देना ही हमने लगभग छोड़ दिया है। प्रत्येक प्रशासन विभिन्न विभागों से मिल कर ही बनता है लेकिन विभागों और घोटालों के गठबंधन के चलते दायित्वों का सही निर्वहन हो कहां सकता है?
बेटियों के प्रति यह अनदेखी का रवैया सिर्फ़ मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि लगभग हर प्रदेश में है। एसिड अटैक की शिकार हो चुकी युवती पर बार-बार एसिड फेंकने की घटना हैरान कर देने वाली है। पीड़िता के लखनऊ स्थित हॉस्टल में घुसकर किसी अनजान शख्स ने यह जघन्य अपराध किया। स्मरण रहे कि यह वहीं युवती है, जिस पर मार्च 2017 में ट्रेन में एसिड अटैक हुआ था। पीड़िता पर मार्च माह में ट्रेन में उस वक्त एसिड अटैक किया गया था, जब वह गंगा गोमती एक्सप्रेस से रायबरेली से लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पहुंची थी। तेजाब से झुलसी युवती को जीआरपी ने अस्पताल में भर्ती कराया। पीड़िता ने बताया था कि ट्रेन में दो युवकों ने उसे जबरदस्ती तेजाब पिलाया और ट्रेन से कूदकर भाग गए। घटना की जानकारी मिलते ही यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ पीड़िता से मिलने अस्पताल पहुंचे थे। उन्होंने पीड़िता को उचित कार्रवाई का आश्वासन दिया था। साथ ही पीड़िता के मुफ्त इलाज और 1 लाख रुपये के मुआवजे का एलान भी किया था।
घटना के बाद हॉस्टल की वार्डन नीरा सिंह ने महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चिंता जताई और कहा कि ‘‘यदि हॉस्टल के भीतर  लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं तो फिर महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह कौन सी होगी?’’ वहीं सीएम योगी ने एक टीवी चैनल से खास बातचीत में कहा कि ‘‘रेप पीड़िता को सुरक्षित जगह रखा गया था। ये देखना होगा कि एसिड अटैक हुआ है या नहीं।’’
यदि एक पल के लिए यह मान लिया जाए कि उस युवती ने स्वयं को घायल किया तो इस पर भी यह जानना जरूरी हो जाता है कि ऐसी कौन सी विवशता पैदा हो गई जिसके कारण उसे ऐसा स्वयं को पीड़ा देनेवाला कृत्य करना पड़ा। क्या उसने पहली बार भी छद्म गढ़ा था? क्या कोई युवती स्वयं को तेजाब से जलाने का साहस कर सकती है? देखा जाए तो हर घटना पर अनुत्तरित प्रश्नों का अंबार लग जाता है।
देश की राजधानी दिल्ली में घटित निर्भया-कांड इतना भी पुराना नहीं हुआ है कि उसके घटनाक्रम को हम भूल जाएं। निर्भया अपने ब्वायफ्रेंड के साथ बस में चढ़ी थी, यानी एक जवान लड़का उसके साथ था जो उसकी सुरक्षा कर सकता था किन्तु दरिंदे भेड़ियों के सामने वह भी टिक नहीं सका। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह लड़का कमजोर था या उसमें निर्भया को बचा पाने की चाह नहीं थी। वह तो अपनी जान पर खेल गया लेकिन भेड़ियों के समूह से हार गया। विचार करने की बात तो यह है कि ये भेड़ियों का समूह पनपा ही क्यों? क्या लचर कानून व्यवस्था इसकी जिम्मेदार है? क्या औरातों के प्रति सम्मान की भावना का ग्राफ निरन्तर गिरता जा रहा है? या फिर हम अपने भारतीय संस्कार जिसमें मनुष्य को मनुष्य का सम्मान करना सिखाया जाता है, भूलते जा रहे हैं।
अधिक नहीं मात्र दो दषक पहले, कॉलेज की एक घटना। पान की दूकान पर खड़े कुछ आवारा किस्म के लड़के एक छात्रा को देख कर फिकरे कसने लगे। इस पर पहले तो दूकानदार ने उन्हें ऐसा करने से मना किया। वे नहीं माने तो उसी पान की दूकान पर खड़े दो-तीन अन्य आदमियों ने उन लड़कों की धुनाई कर दी और फिर उसे पुलिस के हवाले कर दिया। उस दिन के बाद से उस पान की दूकान के सामने से बेखौफ लड़कियां गुजरती रहीं, मजाल है कि कोई उन्हें परेशान कर सके। ऐसा लगता है गोया नागरिकों की यह जिम्मेदारी कहीं खो-सी गई है। अब तो ट्रेन की बोगी में सहयात्री लड़की को कोई छेड़ता है, उससे झगड़ता है और फिर उसे चलती ट्रेन से बाहर फेंक देता है, तब भी निन्यान्बे प्रतिशत पुरुष यात्री खामोष रहते हैं। उस पल शायद उन्हें अपने परिवार की बेटियों, स्त्रियों की याद नहीं आती है या फिर सब के सब किसी अज्ञात भय से जकड़ जाते हैं और खामोश रहते हैं।
बेटियां चाहे किसी भी जाति, किसी भी धर्म की हों, बेटिया तो आखिर बेटियां ही होती हैं और उनकी सुरक्षा तथा उनके सुखद-सुरक्षित जीवन का दायित्व भी शासन, प्रशासन, परिवार एवं समाज सभी पर संयुक्त रूप से होता है। किसी एक को जिम्मेदार ठहरा कर शेष अपनी अयोग्यता को ढांक नहीं सकते हैं। अपनी अकर्मण्याताओं से उपजे विष को कब तक भगवान भरोसे छोड़ते रहेंगे? दरअसल, बेटियों की ज़िन्दगी को राजनीतिक मोहरा बनाने की नहीं बल्कि उन्हें हर पायदान पर मदद देने की जरूरत है।
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Wednesday, July 5, 2017

चर्चा प्लस ... महिलाएं, मासिकधर्म और जीएसटी ... डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
"जीएसटी के तहत सैनिटरी नैपकिन्स पर 12 प्रतिशत कर लगाया गया है। अतः महिलाजगत में विरोध के स्वर उभरने स्वाभाविक था। वस्तुतः जीएसटी लागू होने के बाद सेनेटरी नैपकीन्स पर देशव्यापी विस्तृत चर्चा और भी जरूरी है। आखिर यह महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी ज़रूरत है।"   ...   #महिलाएं, #मासिकधर्म और #जीएसटी की #चुनौतियां  ...  मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 05.07. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper...

चर्चा प्लस
  महिलाएं, मासिकधर्म और जीएसटी
   - डॉ. शरद सिंह
                                                                जीएसटी में सेनेटरी नैपकीन्स पर 12 प्रतिशत टैक्स लगाए जाने पर महिलाजगत में विरोध के स्वर उभरे। विशेष बात तो यह है कि इस विरोध को सशक्त स्वर दिया बॉलीवुड की अभिनेत्रियों ने। सोशल मीडिया पर यह विरोध जबर्दस्त ‘ट्रेंड’ करता रहा।  तेंदू पत्ता बीनने वाली एवं बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के जीवन पर ‘‘पत्तों में क़ैद औरतें’’ किताब लिखने के दौरान मैंने स्वयं यह पाया था कि अधिकांश ग्रामीण महिलाएं सेनेटरी नैपकीन्स से या तो अनभिज्ञ हैं या फिर वह उनकी आर्थिक पहुंच से बाहर है। वस्तुतः जीएसटी लागू होने के बाद बिना किसी झिझक के सेनेटरी नैपकीन्स पर देशव्यापी विस्तृत चर्चा और भी जरूरी है।
Charcha Plus ..  Dr (Miss) Sharad Singh

हाल ही में आफ्रिकी देश केन्या में एक बड़ा कदम उठाया गया। वहां की सरकार ने अपना बजट  जारी करते हुए घोषित किया कि सभी स्कूली छात्राओं को सरकार की ओर से मुफ्त सेनेटरी नैपकीन्स दिए जाएंगे। जब कि वहीं हमारे देश में सेनेटरी नैपकीन्स पर जीएसटी बवाल मचा रहा। बॉलिवुड अभिनेत्रियों ने देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली को टैग कर उनसे सैनिटरी नैपकीन को टैक्स के दायरे से बाहर रखने की अपील की। अभिनेत्री अदिति राव हैदरी ने ट्वीट किया, ‘’अरुण जेटली जी, सैनिटरी नैपकीन हमारी जरूरत है, लग्जरी नहीं। कृपया इन्हें जीएसटी से बाहर कर दीजिए, ताकि और ज्यादा महिलाएं इनका इस्तेमाल कर सकें।’’
अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने भी इस तरह के टैक्स का विरोध किया है। इस बारे में स्वरा ने कहा, ’मैं अदिति राव हैदरी से पूरी तरह सहमत हूं। सरकार को सैनिटरी नैपकीन पर किसी तरह का टैक्स नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि यह हमारी जरूरत है, किसी तरह की विलासिता नहीं।’
वहीं बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने इस मामले में हैरानी जताते हुए ट्वीट किया, ’’मिस्टर अरुण जेटली यह बेहद आश्चर्यजनक है। मुझे कभी भी नहीं पता था कि सैनिटरी नैपकीन का इस्तेमाल करना लग्जरी है। मैं हैरान हूं। इसलिए मैं आपसे रिक्वेस्ट करती हूं कि सैनिटरी नैपकीन पर टैक्स न लगाया जाए, ताकि यह हमारे देश की महिलाओं के लिए उपलब्ध हो सके। लहू का लगान को ‘नो’ कहिए।’’
बॉलिवुड एक्ट्रेस लीजा रे ने फाइनैंस मिनिस्टर से सैनिटरी नैपकीन पर टैक्स नहीं लगाने की अपील की। उन्होंने लिखा, ’‘अरुण जेटली क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में 88 फीसदी महिलाएं अब भी सैनिटरी नैपकीन की बजाय कपड़े के टुकड़े, राख, लकड़ी की छीलन और फूस इस्तेमाल करती हैं। फिर इन पर भी टैक्स लगा दीजिए?’’
कवन दवे ने ट्वीट किया, ’सैनिटरी नैपकीन पर तो हम पहले ही स्वच्छ भारत सेस के तौर पर टैक्स दे रहे हैं? तो आप लहू के लगान पर डबल चार्ज लेंगे।’ वहीं लेखिका अद्वैता काला ने ट्विटर पर लिखा, ’मासिक धर्म शुरू होने पर 23 फीसदी लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। आपको सैनिटरी नैपकीन को इतना सस्ता करना चाहिए कि सभी उसका इस्तेमाल कर सकें।’
सैनिटरी नैपकीन पर लगने वाले टैक्स के विरोध में 28 जून, बुधवार सुबह से ही ट्विटर पर ‘‘लहू का लगान’’ ट्रेंड करता रहा। बॉलीवुड अभिनेत्रियों के अलावा कई दूसरे क्षेत्र की महिलाओं ने भी वित्त मंत्री अरुण जेटली से इस टैक्स को खत्म करने की मांग की। बॉलिवुड हीरोइनों समेत तमाम महिलाओं ने सरकार से अपील किया कि हमारे देश में आज भी बहुत कम महिलाएं कीमत ज्यादा होने की वजह से सैनिटरी नैपकीन इस्तेमाल नहीं कर पाती। ऐसे में इसे जीएसटी टैक्स के दायरे में लाकर आम लोगों की पहुंच से बाहर न किया जाए।
इसके बाद एक जून 2017 को महाराष्ट्र की महिला एवं बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे ने राज्य की स्कूली छात्राओं को 5 रुपये में सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि राज्य में अस्मिता योजना के तहत यह सैनिटरी नैपकिन छात्राओं को उपलब्ध कराई जाएगी। नैपकिन देने के लिए सरकार जिला परिषद के स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं को ‘अस्मिता कार्ड’ देगी। इससे पहले मई माह में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को और जिला परिषद स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं को सैनिटरी नैपकिन मुहैया कराने के लिए फडणवीस सरकार विशेष योजना शुरू करने की बात कही थी। राज्य सरकार ने कहा था कि  अस्मिता योजना के तहत महिलाओं को माहवारी के दिनों में रियायती कीमतों पर सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराएगी। इसके लिए सरकार ने चालू वर्ष के बजट में करीब 25 करोड़ रुपये का प्रावधान की घोषणा की थी। कोयम्बटूर के श्री अरुणाचलम मुरुगनाथन ने कम लागत में सेनेटरी पैड्स बनाने की सस्ती मशीन का निर्माण किया। एक इंटरव्यू में अरुणाचलम ने कहा कि मासिक धर्म स्वच्छ्ता के लिए सैनिटरी पैड बनाने के लिए  बड़ी-बड़ी मशीनें न होकर छोटी-छोटी मशीनें होनी चाहिए ताकि उन्हें गाँव या ब्लॉक स्तर पर कुटीर उद्योग की तरह महिलाओं द्वारा चलाया जाय. इससे न केवल काम दाम में पैड उपलब्ध हो सकेंगे वरन महिलाओं के लिए रोज़गार का साधन भी उपलब्ध हो जाएगा। उत्तर प्रदेश सरकार की 2017 तक 10000 मेन्स्ट्रुअल हाइजीन लाने की योजना को सफल बनाने में सहायक हो सकती थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने उन्हें ये मशीनें यू पी  ब्लॉक स्तर पर लगाने के लिए आमंत्रित भी किया जो एक अच्छी पहल थी।
सन् 2009 में तेंदू पत्ता बीनने वानी एवं बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के जीवन पर मैंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है ‘‘पत्तों में क़ैद औरतें’’। यह किताब सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से सन् 2010 में प्रकाशित हुई। इस किताब को लिखते समय मुझे अनेक महिलाओं से मिल कर उनकी निजी समस्याओं को जानने का अवसर मिला। इस दौरान एक बहुत गंभीर समस्या की ओर मेरा ध्यान गया कि अधिकांश ग्रामीण महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति परम्परागत तरीकों का प्रयोग करती हैं जो स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन इसके साथ ही मुझे अहसास हुआ कि वे आर्थिक रूप् से इतनी सक्षम नहीं हैं कि वे आधुनिक सुविधाओं को अपना सकें। जैसे मासिकधर्म के दौरान वे सेनेटरी नैपकीन्स काम में नहीं ला सकती थीं क्यों कि एक तो वे उससे अनजान थीं और यदि उसके बारे में जान भी लेतीं तो उसे खरीदने की क्षमता उनमें नहीं थी। मैंने अपनी किताब के पहले अध्याय में ही एक केस स्टडी के अंतर्गत इस मुद्दे का उल्लेख किया - ‘‘माला ने एक स्त्री के जीवन की आरम्भिक अवस्था का परिचय जाना, तेंदू पत्ते की तुड़ाई के दौरान। उसने घने जंगल के बीच युवावस्था में पांव रखा। वह एक बात फिर भी नहीं जान सकी कि उसकी बुआ ने जिस सहजता से उसे कपड़े का टुकड़ा फाड़ कर पहना दिया था वह धूल-मिट्टी के लगातार सम्पर्क में रहा था। यदि उसमें किसी प्रकार के कीटाणुओं की उपस्थिति भी रही हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस अवस्था में स्वच्छता सबसे अधिक आवश्यक हो जाती है उस अवस्था में माला को एक गंदा-सा कपड़ा धारण करना पड़ा। उस गंदे कपड़े के कारण उसे किसी प्रकार की छूत (इन्फेक्शन) भी लग सकती थी या कोई अन्य परेशानी हो सकती थी। किन्तु इस बात की चेतना जब माला की मां और बुआ को नहीं थी तो भला, माला को कहां से होती?
माला जैसी न जाने कितनी बालिकाएं मई-जून की भीषण गर्मी में घने जंगल में तेंदू पत्ते तोड़ती हुई युवती बन जाती हैं जबकि न तो उन्हें चिकित्सक से परामर्श लेने का ज्ञान होता है और न स्वच्छता का भान होता है। तेंदू पत्ते तोड़ने वाली लड़किएं और औरतें चिलचिलाती धूप में भी वे अपनी स्त्रीगत समस्याओं से जूझती रहती हैं, फिर भी जंगलों में भटकती रहती हैं, मात्र इसलिए कि बीस-पच्चीस दिनों में चार पैसे कमा कर अपने परिवार को आर्थिक सहायता दे सकें या फिर अपने परिवार में अपना महत्व स्थापित कर सकें। वे यह जता सकें कि वे स्त्री हैं तो क्या हुआ, वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं तो क्या हुआ, वे घर-गृहस्थी सम्हालती हैं तो क्या हुआ, वे बच्चे पैदा करती और उन्हें पालती हैं तो क्या हुआ - वे भी चार पैसे कमा सकती हैं।’’
हमारे देश में ग्रामीण एवं आर्थिक रूप से कमजोर घरों की स्कूली छात्राओं की समस्या भी ठीक यही है। उनमें से अनेक ऐसी हैं जो मासिकधर्म के दौरान परम्परागत किन्तु अस्वास्थ्यकर तरीकों का इस्तेमाल करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनीसेफ ने तो मासिकधर्म के दौरान स्वच्छता किस प्रकार रखी जाए एवं सेनेटरी नैपकीन्स का उपयोग कैसे किया जाए, इस विषय पर बाकायदा गाईडलाईन बुकलेट प्रकाशित की हुई है। लेकिन किसी बुकलेट में छपी उपयोगी सामग्री का लाभ भी तभी मिल सकता है जब महिलाओं को उनकी समस्याओं के अनुरूप उन्हीं की बोली-भाषा में जानकारी दे कर प्रेरित किया जाए। जहां तक घोषणाओं का प्रश्न है तो हमारे देश के विभिन्न राज्यों में हर जगह और मुख्यरूप से हर स्कूल में सेनेटरी पैड्स के लिए एटीएम की तरह वेन्डर लगाए जाने घोषणा भी की गई थी। अप्रैल 2015 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि सरकारी स्कूलों में लड़कियों को सैनिटरी नैपकिन्स बांटे जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि इस योजना के लिए हर साल 30-40 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। यद्यपि कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी अच्छी क्वालिटी के पैड्स बनाने के लिए आगे आ रही हैं। निसंदेह कुछ राज्य सरकारों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं ने ‘मेस्ट्रुअल हाईजीन’ को ले कर कमरकसा हुआ है लेकिन कई राज्यों में ये घोषणाएं एक दिखावा बन कर रह गई हैं। उस पर जीएसटी के तहत सैनिटरी नैपकिन्स पर 12 प्रतिशत कर लगाया गया है। अतः महिलाजगत में विरोध के स्वर उभरने स्वाभाविक था। वस्तुतः जीएसटी लागू होने के बाद सेनेटरी नैपकीन्स पर देशव्यापी विस्तृत चर्चा और भी जरूरी है। आखिर यह महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी ज़रूरत है।  
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