Wednesday, July 5, 2017

चर्चा प्लस ... महिलाएं, मासिकधर्म और जीएसटी ... डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
"जीएसटी के तहत सैनिटरी नैपकिन्स पर 12 प्रतिशत कर लगाया गया है। अतः महिलाजगत में विरोध के स्वर उभरने स्वाभाविक था। वस्तुतः जीएसटी लागू होने के बाद सेनेटरी नैपकीन्स पर देशव्यापी विस्तृत चर्चा और भी जरूरी है। आखिर यह महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी ज़रूरत है।"   ...   #महिलाएं, #मासिकधर्म और #जीएसटी की #चुनौतियां  ...  मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 05.07. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper...

चर्चा प्लस
  महिलाएं, मासिकधर्म और जीएसटी
   - डॉ. शरद सिंह
                                                                जीएसटी में सेनेटरी नैपकीन्स पर 12 प्रतिशत टैक्स लगाए जाने पर महिलाजगत में विरोध के स्वर उभरे। विशेष बात तो यह है कि इस विरोध को सशक्त स्वर दिया बॉलीवुड की अभिनेत्रियों ने। सोशल मीडिया पर यह विरोध जबर्दस्त ‘ट्रेंड’ करता रहा।  तेंदू पत्ता बीनने वाली एवं बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के जीवन पर ‘‘पत्तों में क़ैद औरतें’’ किताब लिखने के दौरान मैंने स्वयं यह पाया था कि अधिकांश ग्रामीण महिलाएं सेनेटरी नैपकीन्स से या तो अनभिज्ञ हैं या फिर वह उनकी आर्थिक पहुंच से बाहर है। वस्तुतः जीएसटी लागू होने के बाद बिना किसी झिझक के सेनेटरी नैपकीन्स पर देशव्यापी विस्तृत चर्चा और भी जरूरी है।
Charcha Plus ..  Dr (Miss) Sharad Singh

हाल ही में आफ्रिकी देश केन्या में एक बड़ा कदम उठाया गया। वहां की सरकार ने अपना बजट  जारी करते हुए घोषित किया कि सभी स्कूली छात्राओं को सरकार की ओर से मुफ्त सेनेटरी नैपकीन्स दिए जाएंगे। जब कि वहीं हमारे देश में सेनेटरी नैपकीन्स पर जीएसटी बवाल मचा रहा। बॉलिवुड अभिनेत्रियों ने देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली को टैग कर उनसे सैनिटरी नैपकीन को टैक्स के दायरे से बाहर रखने की अपील की। अभिनेत्री अदिति राव हैदरी ने ट्वीट किया, ‘’अरुण जेटली जी, सैनिटरी नैपकीन हमारी जरूरत है, लग्जरी नहीं। कृपया इन्हें जीएसटी से बाहर कर दीजिए, ताकि और ज्यादा महिलाएं इनका इस्तेमाल कर सकें।’’
अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने भी इस तरह के टैक्स का विरोध किया है। इस बारे में स्वरा ने कहा, ’मैं अदिति राव हैदरी से पूरी तरह सहमत हूं। सरकार को सैनिटरी नैपकीन पर किसी तरह का टैक्स नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि यह हमारी जरूरत है, किसी तरह की विलासिता नहीं।’
वहीं बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने इस मामले में हैरानी जताते हुए ट्वीट किया, ’’मिस्टर अरुण जेटली यह बेहद आश्चर्यजनक है। मुझे कभी भी नहीं पता था कि सैनिटरी नैपकीन का इस्तेमाल करना लग्जरी है। मैं हैरान हूं। इसलिए मैं आपसे रिक्वेस्ट करती हूं कि सैनिटरी नैपकीन पर टैक्स न लगाया जाए, ताकि यह हमारे देश की महिलाओं के लिए उपलब्ध हो सके। लहू का लगान को ‘नो’ कहिए।’’
बॉलिवुड एक्ट्रेस लीजा रे ने फाइनैंस मिनिस्टर से सैनिटरी नैपकीन पर टैक्स नहीं लगाने की अपील की। उन्होंने लिखा, ’‘अरुण जेटली क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में 88 फीसदी महिलाएं अब भी सैनिटरी नैपकीन की बजाय कपड़े के टुकड़े, राख, लकड़ी की छीलन और फूस इस्तेमाल करती हैं। फिर इन पर भी टैक्स लगा दीजिए?’’
कवन दवे ने ट्वीट किया, ’सैनिटरी नैपकीन पर तो हम पहले ही स्वच्छ भारत सेस के तौर पर टैक्स दे रहे हैं? तो आप लहू के लगान पर डबल चार्ज लेंगे।’ वहीं लेखिका अद्वैता काला ने ट्विटर पर लिखा, ’मासिक धर्म शुरू होने पर 23 फीसदी लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। आपको सैनिटरी नैपकीन को इतना सस्ता करना चाहिए कि सभी उसका इस्तेमाल कर सकें।’
सैनिटरी नैपकीन पर लगने वाले टैक्स के विरोध में 28 जून, बुधवार सुबह से ही ट्विटर पर ‘‘लहू का लगान’’ ट्रेंड करता रहा। बॉलीवुड अभिनेत्रियों के अलावा कई दूसरे क्षेत्र की महिलाओं ने भी वित्त मंत्री अरुण जेटली से इस टैक्स को खत्म करने की मांग की। बॉलिवुड हीरोइनों समेत तमाम महिलाओं ने सरकार से अपील किया कि हमारे देश में आज भी बहुत कम महिलाएं कीमत ज्यादा होने की वजह से सैनिटरी नैपकीन इस्तेमाल नहीं कर पाती। ऐसे में इसे जीएसटी टैक्स के दायरे में लाकर आम लोगों की पहुंच से बाहर न किया जाए।
इसके बाद एक जून 2017 को महाराष्ट्र की महिला एवं बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे ने राज्य की स्कूली छात्राओं को 5 रुपये में सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि राज्य में अस्मिता योजना के तहत यह सैनिटरी नैपकिन छात्राओं को उपलब्ध कराई जाएगी। नैपकिन देने के लिए सरकार जिला परिषद के स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं को ‘अस्मिता कार्ड’ देगी। इससे पहले मई माह में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को और जिला परिषद स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं को सैनिटरी नैपकिन मुहैया कराने के लिए फडणवीस सरकार विशेष योजना शुरू करने की बात कही थी। राज्य सरकार ने कहा था कि  अस्मिता योजना के तहत महिलाओं को माहवारी के दिनों में रियायती कीमतों पर सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराएगी। इसके लिए सरकार ने चालू वर्ष के बजट में करीब 25 करोड़ रुपये का प्रावधान की घोषणा की थी। कोयम्बटूर के श्री अरुणाचलम मुरुगनाथन ने कम लागत में सेनेटरी पैड्स बनाने की सस्ती मशीन का निर्माण किया। एक इंटरव्यू में अरुणाचलम ने कहा कि मासिक धर्म स्वच्छ्ता के लिए सैनिटरी पैड बनाने के लिए  बड़ी-बड़ी मशीनें न होकर छोटी-छोटी मशीनें होनी चाहिए ताकि उन्हें गाँव या ब्लॉक स्तर पर कुटीर उद्योग की तरह महिलाओं द्वारा चलाया जाय. इससे न केवल काम दाम में पैड उपलब्ध हो सकेंगे वरन महिलाओं के लिए रोज़गार का साधन भी उपलब्ध हो जाएगा। उत्तर प्रदेश सरकार की 2017 तक 10000 मेन्स्ट्रुअल हाइजीन लाने की योजना को सफल बनाने में सहायक हो सकती थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने उन्हें ये मशीनें यू पी  ब्लॉक स्तर पर लगाने के लिए आमंत्रित भी किया जो एक अच्छी पहल थी।
सन् 2009 में तेंदू पत्ता बीनने वानी एवं बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के जीवन पर मैंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है ‘‘पत्तों में क़ैद औरतें’’। यह किताब सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से सन् 2010 में प्रकाशित हुई। इस किताब को लिखते समय मुझे अनेक महिलाओं से मिल कर उनकी निजी समस्याओं को जानने का अवसर मिला। इस दौरान एक बहुत गंभीर समस्या की ओर मेरा ध्यान गया कि अधिकांश ग्रामीण महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति परम्परागत तरीकों का प्रयोग करती हैं जो स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन इसके साथ ही मुझे अहसास हुआ कि वे आर्थिक रूप् से इतनी सक्षम नहीं हैं कि वे आधुनिक सुविधाओं को अपना सकें। जैसे मासिकधर्म के दौरान वे सेनेटरी नैपकीन्स काम में नहीं ला सकती थीं क्यों कि एक तो वे उससे अनजान थीं और यदि उसके बारे में जान भी लेतीं तो उसे खरीदने की क्षमता उनमें नहीं थी। मैंने अपनी किताब के पहले अध्याय में ही एक केस स्टडी के अंतर्गत इस मुद्दे का उल्लेख किया - ‘‘माला ने एक स्त्री के जीवन की आरम्भिक अवस्था का परिचय जाना, तेंदू पत्ते की तुड़ाई के दौरान। उसने घने जंगल के बीच युवावस्था में पांव रखा। वह एक बात फिर भी नहीं जान सकी कि उसकी बुआ ने जिस सहजता से उसे कपड़े का टुकड़ा फाड़ कर पहना दिया था वह धूल-मिट्टी के लगातार सम्पर्क में रहा था। यदि उसमें किसी प्रकार के कीटाणुओं की उपस्थिति भी रही हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस अवस्था में स्वच्छता सबसे अधिक आवश्यक हो जाती है उस अवस्था में माला को एक गंदा-सा कपड़ा धारण करना पड़ा। उस गंदे कपड़े के कारण उसे किसी प्रकार की छूत (इन्फेक्शन) भी लग सकती थी या कोई अन्य परेशानी हो सकती थी। किन्तु इस बात की चेतना जब माला की मां और बुआ को नहीं थी तो भला, माला को कहां से होती?
माला जैसी न जाने कितनी बालिकाएं मई-जून की भीषण गर्मी में घने जंगल में तेंदू पत्ते तोड़ती हुई युवती बन जाती हैं जबकि न तो उन्हें चिकित्सक से परामर्श लेने का ज्ञान होता है और न स्वच्छता का भान होता है। तेंदू पत्ते तोड़ने वाली लड़किएं और औरतें चिलचिलाती धूप में भी वे अपनी स्त्रीगत समस्याओं से जूझती रहती हैं, फिर भी जंगलों में भटकती रहती हैं, मात्र इसलिए कि बीस-पच्चीस दिनों में चार पैसे कमा कर अपने परिवार को आर्थिक सहायता दे सकें या फिर अपने परिवार में अपना महत्व स्थापित कर सकें। वे यह जता सकें कि वे स्त्री हैं तो क्या हुआ, वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं तो क्या हुआ, वे घर-गृहस्थी सम्हालती हैं तो क्या हुआ, वे बच्चे पैदा करती और उन्हें पालती हैं तो क्या हुआ - वे भी चार पैसे कमा सकती हैं।’’
हमारे देश में ग्रामीण एवं आर्थिक रूप से कमजोर घरों की स्कूली छात्राओं की समस्या भी ठीक यही है। उनमें से अनेक ऐसी हैं जो मासिकधर्म के दौरान परम्परागत किन्तु अस्वास्थ्यकर तरीकों का इस्तेमाल करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनीसेफ ने तो मासिकधर्म के दौरान स्वच्छता किस प्रकार रखी जाए एवं सेनेटरी नैपकीन्स का उपयोग कैसे किया जाए, इस विषय पर बाकायदा गाईडलाईन बुकलेट प्रकाशित की हुई है। लेकिन किसी बुकलेट में छपी उपयोगी सामग्री का लाभ भी तभी मिल सकता है जब महिलाओं को उनकी समस्याओं के अनुरूप उन्हीं की बोली-भाषा में जानकारी दे कर प्रेरित किया जाए। जहां तक घोषणाओं का प्रश्न है तो हमारे देश के विभिन्न राज्यों में हर जगह और मुख्यरूप से हर स्कूल में सेनेटरी पैड्स के लिए एटीएम की तरह वेन्डर लगाए जाने घोषणा भी की गई थी। अप्रैल 2015 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि सरकारी स्कूलों में लड़कियों को सैनिटरी नैपकिन्स बांटे जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि इस योजना के लिए हर साल 30-40 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। यद्यपि कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी अच्छी क्वालिटी के पैड्स बनाने के लिए आगे आ रही हैं। निसंदेह कुछ राज्य सरकारों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं ने ‘मेस्ट्रुअल हाईजीन’ को ले कर कमरकसा हुआ है लेकिन कई राज्यों में ये घोषणाएं एक दिखावा बन कर रह गई हैं। उस पर जीएसटी के तहत सैनिटरी नैपकिन्स पर 12 प्रतिशत कर लगाया गया है। अतः महिलाजगत में विरोध के स्वर उभरने स्वाभाविक था। वस्तुतः जीएसटी लागू होने के बाद सेनेटरी नैपकीन्स पर देशव्यापी विस्तृत चर्चा और भी जरूरी है। आखिर यह महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी बुनियादी ज़रूरत है।  
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