-डॉ. शरद सिंह
मैं उन सभी की आभारी हूं जिन्होंने वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे के ज्वलंत मसले पर अपने अमूल्य विचार व्यक्त किए।
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ प्रबुद्ध ब्लॉगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने व्यंगात्मक सहमति।
सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ ने स्पष्ट कहा कि ‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता। किसी सामाजिक बुराई को समाप्त करने की जगह उसे कानूनी मान्यता दे देना, भारतीय समाज के लिए आत्मघाती ही साबित होगा ।’ साथ ही उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव भी दिया कि ‘इस धंधे से जुड़े लोगों के जीवनयापन के लिए कोई दूसरी सम्मानजनक व्यवस्था सरकारें करें। इन्हें इस धंधे की भयानकता से अवगत कराकर जागरूक किया जाये।’ अमरेन्द्र ‘अमर’ ने सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ की बात का समर्थन किया। दिलबाग विर्क ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के लिए उस वातावरण को तैयार किए जाने का आह्वान किया जो ऐसी औरतों का जीवन बदल सके। उनके अनुसार, ‘दुर्भाग्यवश इज्जतदार लोगों का बिकना कोई नहीं देखता ..... जो मजबूरी के चलते जिस्म बेचते हैं उनकी मजबूरियां दूर होनी चाहिए ताकि वे मुख्य धारा में लौट सकें।’ कुंवर कुसुमेश ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों की विवशता पर बहुत मार्मिक शेर उद्धृत किया-
उसने तो जिस्म को ही बेचा है, एक फाकें को टालने के लिए।
लोग ईमान बेच देते हैं, अपना मतलब निकलने के लिए।
मनोज कुमार, रचना दीक्षित, ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ एवं विजय माथुर ने ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ उठाए जाना को सकारात्मक माना।
राज भाटिय़ा ने प्रिया दत्त की इस मांग के प्रति सहमति जताने वालों पर कटाक्ष करते हुए बड़ी खरी बात कही कि -‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हूं ,और जो भी इसे कानूनी मान्यता देने के हक में है वो एक बार इन वेश्याओं से तो पूछे कि यह किस नर्क में रह रही है , इन्हें जबर्दस्ती से धकेला जाता है इस दलदल में, हां जो अपनी मर्जी से बिकना चाहे उस के लिये लाईसेंस या कानूनी मान्यता हो, उस में किसी दलाल का काम ना हो, क्योंकि जो जान बूझ कर दल दल में जाना चाहे जाये... वै से हमारे सांसद कोई अच्छा रास्ता क्यों नही सोचते ? अगर यह सांसद इन लोगो की भलाई के लिये ही काम करना चाहते हैं तो अपने बेटों की शादी इन से कर दें, ये कम से कम इज्जत से तो रह पायेंगी।’
उसने तो जिस्म को ही बेचा है, एक फाकें को टालने के लिए।
लोग ईमान बेच देते हैं, अपना मतलब निकलने के लिए।
मनोज कुमार, रचना दीक्षित, ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ एवं विजय माथुर ने ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ उठाए जाना को सकारात्मक माना।
राज भाटिय़ा ने प्रिया दत्त की इस मांग के प्रति सहमति जताने वालों पर कटाक्ष करते हुए बड़ी खरी बात कही कि -‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हूं ,और जो भी इसे कानूनी मान्यता देने के हक में है वो एक बार इन वेश्याओं से तो पूछे कि यह किस नर्क में रह रही है , इन्हें जबर्दस्ती से धकेला जाता है इस दलदल में, हां जो अपनी मर्जी से बिकना चाहे उस के लिये लाईसेंस या कानूनी मान्यता हो, उस में किसी दलाल का काम ना हो, क्योंकि जो जान बूझ कर दल दल में जाना चाहे जाये... वै से हमारे सांसद कोई अच्छा रास्ता क्यों नही सोचते ? अगर यह सांसद इन लोगो की भलाई के लिये ही काम करना चाहते हैं तो अपने बेटों की शादी इन से कर दें, ये कम से कम इज्जत से तो रह पायेंगी।’
संजय कुमार चौरसिया ने जहां एक ओर देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों की विवशता को उनके भरण-पोषण की विवशता के रूप में रेखांकित किया वहीं साथ ही उन्होंने सम्पन्न घरों की उन औरतों का भी स्मण कराया जो सुविधाभोगी होने के लिए देह व्यापार में लिप्त हो जाती हैं।
गिरीश पंकज ने प्रिया दत्त की इस मांग पर व्यंगात्मक सहमति जताते हुए टिप्पणी की, कि -‘ जिस्मफरोशी को मान्यता देने में कोई बुराई नहीं है। कोई अब उतारू हो ही जाये कि ये धंधा करना है तो करे। जी भर कर कर ले. लोग देह को सीढ़ी बना कर कहाँ से कहाँ पहुँच रहे है(या पहुँच रही हैं) तो फिर बेचारी वे मजबूर औरते क्या गलत कर रही है, जो केवल जिस्म को कमाई का साधन बनाना चाहती है। बैठे-ठाले जब तगड़ी कमाई हो सकती है, तो यह कुटीर उद्योग जैसा धंधा (भले ही लोग गन्दा समझे,) बुरा नहीं है, जो इस धंधे को बुरा मानते है, वे अपनी जगह बने रहे, मगर जो पैसे वाले स्त्री-देह को देख कर कुत्ते की तरह जीभ लपलपाते रहते हैं, उनका दोहन खूब होना ही चाहिये.. बहुत हराम की कमाई है सेठों और लम्पटों के पास। जिस्मफरोशी को मान्यता मिल जायेगी तो ये दौलत भी बहार आयेगी। ये और बात है, की तब निकल पड़ेगी पुलिस वालों की, गुंडों की, नेताओं की. क्या-क्या होगा, यह अलग से कभी लिखा जायेगा। फिलहाल जिस्मफरोशी को मान्यता देने की बात है। वह दे दी जाये, चोरी-छिपे कुकर्म करने से अच्छा है, लाइसेंस ही दे दो न, सब सुखी रहे। समलैंगिकों को मान्यता देने की बात हो रही है...लिव्इनरिलेशनशिप को मान्यता मिल रही है। इसलिए प्रियादत्त गलत नहीं कह रही, वह देख रही है इस समय को।’
संगीता स्वरुप ने एक बुनियादी चिन्ता की ओर संकेत करते हुए कहा कि ‘क़ानून बनते हैं पर पालन नहीं होता ..गिरीश पंकज जी की बात में दम है ...लेकिन फिर भी क्या ऐसी स्त्रियों को उनका पूरा हक मिल पाएगा ? ’
वहीं, राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने बहुत ही समीक्षात्मक विचार प्रकट किए कि -‘ इस काम के वैधानिक करने या ना करने दोनों पक्षों के पक्ष और उलटे में तर्क हैं....वैधानिक होने में बुरी नहीं है अगर सही तरह से कानून बनाया जाए। अगर शराब बिक सकती है ये कह के कि समझदार लोग नहीं पीयेंगे। तो फिर इसमें क्या प्रॉब्लम है....जिनको वहाँ जाना है वो जायेंगे ही लीगल हो या न हो । लीगल होने से पुलिस की आमदनी बंद हो जायेगी थोड़ी। अगर ना हो और उन्मूलन हो जाए तो सब से अच्छा.....वैधानिक न होने की जरूरत पड़े तो अच्छा.....लेकिन देह व्यापार से जुड़े स्त्री-पुरुष के लिए कदम उठाना जरूरी है। ’
संगीता स्वरुप ने एक बुनियादी चिन्ता की ओर संकेत करते हुए कहा कि ‘क़ानून बनते हैं पर पालन नहीं होता ..गिरीश पंकज जी की बात में दम है ...लेकिन फिर भी क्या ऐसी स्त्रियों को उनका पूरा हक मिल पाएगा ? ’
वहीं, राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने बहुत ही समीक्षात्मक विचार प्रकट किए कि -‘ इस काम के वैधानिक करने या ना करने दोनों पक्षों के पक्ष और उलटे में तर्क हैं....वैधानिक होने में बुरी नहीं है अगर सही तरह से कानून बनाया जाए। अगर शराब बिक सकती है ये कह के कि समझदार लोग नहीं पीयेंगे। तो फिर इसमें क्या प्रॉब्लम है....जिनको वहाँ जाना है वो जायेंगे ही लीगल हो या न हो । लीगल होने से पुलिस की आमदनी बंद हो जायेगी थोड़ी। अगर ना हो और उन्मूलन हो जाए तो सब से अच्छा.....वैधानिक न होने की जरूरत पड़े तो अच्छा.....लेकिन देह व्यापार से जुड़े स्त्री-पुरुष के लिए कदम उठाना जरूरी है। ’
इस सार्थक चर्चा के बाद भी मुझे लग रहा है कि कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अभी भी विचारणीय हैं जिन्हें मैं यहां विनम्रतापूर्वक आप सबके समक्ष रख रही हूं -
1.- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक रूप से चलने दिया जाएगा तो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, उस स्थिति में वेश्यागामी पुरुषों की पत्नियों और बच्चों का जीवन क्या सामान्य रह सकेगा ?
2.- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दे दिया जाए तो जिस्मफरोशी करने वाली औरतों, उनके बच्चों और उनके परिवार की (विशेषरूप से) महिला सदस्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा का क्या होगा ?
1.- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक रूप से चलने दिया जाएगा तो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, उस स्थिति में वेश्यागामी पुरुषों की पत्नियों और बच्चों का जीवन क्या सामान्य रह सकेगा ?
2.- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दे दिया जाए तो जिस्मफरोशी करने वाली औरतों, उनके बच्चों और उनके परिवार की (विशेषरूप से) महिला सदस्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा का क्या होगा ?
3.- क्या स्त्री की देह को सेठों की तिजोरियों से धन निकालने का साधन बनने देना न्यायसंगत और मानवीय होगा ? क्या कोई पुरुष अपने परिवार की महिलाओं को ऐसा साधन बनाने का साहस करेगा ? तब क्या पुरुष की सामाजिक एवं पारिवारिक प्रतिष्ठा कायम रह सकेगी ?
4.- विवशता भरे धंधे जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा देने के मुद्दे को क्या ऐच्छिक प्रवृति वाले सम्बंधों जैसे समलैंगिकों को मान्यता अथवा लिव्इनरिलेशनशिप को मान्यता की भांति देखा जाना उचित होगा ?
5.-भावी पीढ़ी के उन्मुक्तता भरे जीवन को ऐसे कानून से स्वस्थ वातावरण मिलेगा या अस्वस्थ वातारण मिलेगा ?
आधुनिक समाज में ये मुद्दे सिर्फ बहस करने के लिए उठाये जा रहे हैं. इस तरह के विषय उठाने वालों का (चाहे वे प्रिय दत्त ही क्यों न हों) कोई सार्थक अर्थ नहीं होता है. इस तरह की समस्या को यदि वैधानिक बना दिया जाए तो घर-घर, गली-गली वैश्यावृत्ति होती दिखेगी. बहरहाल...
ReplyDeleteजय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
प्रश्न सिर्फ वैश्याओं से जुडा नहीं है,बल्कि इसका असर समाज की दूसरी संस्थाओं पर भी पडेगा. विवाह,परिवार और युवा धन इस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.इसे पर्देदारी में ही चलने दीजिये.न वैश्याओं को न वैश्यागामिओं शराफत का चोला पहनाइए. थाईलैंड जैसे देश का
ReplyDeleteहाल देख लीजिये.हाँ वैश्याओं के उत्थान के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है.
सलाम.
ek -ek prashn apne aap main bahut maayne rakhta hai, sabhi par vichaar karna bahut jaroori hai,
ReplyDeleteब्लॉग लेखन को एक बर्ष पूर्ण, धन्यवाद देता हूँ समस्त ब्लोगर्स साथियों को ......>>> संजय कुमार
आज जब हम नारी-उत्थान और नारी सम्मान की बातें करते हैं, ऐसे में वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने का मतलब इसे बढ़ावा देना है | क्या हम इसी तरह नारी सम्मान की रक्षा करेंगे | आज महिलाएं पुरुषों से किसी भी मामले में पीछे नहीं हैं - चाहे वह सेवा हो , व्यवसाय हो , राजनीति हो , साहित्य हो , खेल हो या सेना हो | अगर कहीं इनकी सहभागिता कम है तो प्रयास जारी है कि इनकी सहभागिता बढ़े | दहेज़ उत्पीडन , यौन शोषण एवं आनर किलिंग जैसी विभीषिकाओं से जूझ रही नारी को निजात दिलाने के लिए कार्यपालिका ,न्यायपालिका , स्वयंसेवी संस्थाएं एवं प्रबुद्ध वर्ग प्रयासरत हैं | नारी मात्र भोग की वस्तु नहीं है बल्कि वह माँ,बहन , बेटी ,बहू और अर्धांगिनी जैसे पवित्र संबंधों से सकल श्रृष्टि को पूर्णता प्रदान करने वाली शक्ति है | फिर हम नारी के प्रति किस दृष्टि कोण के तहत वैश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जा देने की बात सोच भी सकते हैं ? जो महिलाएं इस क्षेत्र में हैं उनमे से कम से कम ९०प्रतिशत किसी न किसी मजबूरी के कारण नारकीय जीवन जीने को विवश हैं | अगर कोई सार्थक पहल करनी ही है तो कुछ सकारात्मक सोचा जाये | इस पेशे में लगी बुजुर्ग या अधेड़ महिलाओं को
ReplyDeleteस्वावलंबी बनाने के क्रम में रोजमर्रा की जरूरतों वाले सामानों की छोटी-मोटी दूकाने खुलवाई जाएँ | समाज के लोग सामने आकर साहस का परिचय देते हुए मेडिकल जाँच के उपरांत लड़कियों का विवाह करवाएँ || भयंकर बीमारियों से जूझ रही महिलाओं का उचित इलाज कराया जाये | छोटी बच्चियों को इस माहौल से दूर करके प्रारंभिक और ऊंची शिक्षा दिलवाई जाये जिससे वे संभ्रांत समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकें | इनकी बस्तियों से दलालों को दूर किया जाये, न मानने पर दण्डित किया जाये | इनके गलियों-मोहल्लों में अस्पताल , स्कूल , आदि सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ | कुल मिलाकर इस दलदल से इन्हें उबारा जाये न कि वैधानिक दर्ज़ा देकर सदा के लिए दलदल में धकेल दिया जाये |
प्रश्न आपके जटिल इसलिये है कि पक्ष व विपक्ष दोनों दिशाओं में उदाहरण सहित काफी कुछ कहा जा सकता है । किन्तु सच यह है कि उन सभी स्त्रियों के हित में जो किसी भी मजबूरी या दबाव के चलते इस धंधे में सिसक रही हैं उनकी इस दलदल से मुक्ति के ठोस उपाय किये जाने चाहिये ।
ReplyDeleteआपका भय अन्यथा नहीं है..... शायद इस कारण भी ये वैधानिक नहीं हुआ है. इस कुरीती को दूर करने के लिए इसका वैधानिक होना बिलकुल जरूरे नहीं है....बल्कि उन्मूलन का प्रयास होना ही बेहतर विकल्प है....
ReplyDeleteकिसी भी कुरीति को मान्य बनाना कोई तर्क नहीं हो सकता और ना ही इससे समस्या से निजात पायी जा सकती है...
ठीक वैसे ही जैसे की घूसखोरी को वैधानिक बना के इससे नहीं निबटा जा सकता......
वैधानिक बनाने के विपक्ष में एक प्रश्न मैं भी जोड़ देता हूँ...."वैधानिक करने से क्या इसे अपना व्यवसाय बनाने वालों को छोट नहीं मिल जायेगी....और अधिक अधिक पुरुष भी आ जायेंगे इस काम में....और मैं मानता हूँ की पुरुषों में इस काम को करने के पीची मजबूरी हो ये काफी मुश्किल जान पड़ता है..."
सुशील जी से सहमत हूँ की ये मामला जटिल है...
इस सामाजिक को कानूनी जामा पहनाने के विरूद्ध आपके सवाल पढकर मन भारी हो गया, समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहूं।
ReplyDelete---------
ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
एकदम सही सवाल उठाये हैं आपने .वेश्यावृति को वैधानिक बना दिया गया तो जायज़ नाजायज़ के बीच की रेखा ही नहीं रह जायेगी.
ReplyDeleteAapke saare sawalon ka jawab bas yahi hai ki veshyawritti ko samwaidhanik nahi banana chahiye.
ReplyDeleteYah samaaj par laga ak aisa dhabba hai jise mitaane ke liye sadiyan guzar jaayegi fir bhi insaaniyat sharmsaar rahegi.
Jwalant samasya par wimarsh ke liye saadhuwaad.
----किसी कुप्रथा को मिटाने के प्रयत्न की बज़ाय उसे संवैधानिक बनाना एक मूर्खतापूर्ण सोच है...जो मूलतः विदेशी चश्मे से देखने के आदी लोगों की है..
ReplyDelete---..आखिर हम सती-प्रथा, बाल-विवाह, बलात्कार, छेड्छाड सभी को क्यों नहीं संवैधानिक बना देते ....
--आखिर सरकार ट्रेफ़िक के, हेल्मेट के नियम क्यों बनाती है...जिसे मरना है मरने दे...
...जहां तक कानून के ठीक तरह से न पालन की बात है वह आचरण की समस्या है...चोरी जाने कब से असंवैधानिक है पर क्या चोरी-डकैती समाज से खत्म हुई..तो क्या पुनः चोरी को संवैधानिक कर दिया जाय...
---सही है गैर संवैधानिकता के डर से निश्चय ही समाज में कुछ तो नियमन रहता है...बिना उसके तो ???
प्रश्न जटिल है
ReplyDeleteजो सिर्फ वैश्याओं से जुडा नहीं है,बल्कि इसका असर समाज की दूसरी संस्थाओं पर भी पडेगा.
वेश्याओं को कानूनी मान्यता देने से जायज और नाजायज का अंतर मिट जायेगा और यह अपराध भी नहीं कहलायेगा ... जिस्म को बेंचना और खरीदना नैतिक रूप से तो बहुत ही गलत है .परन्तु जब सब कुछ हो ही रहा है तो क़ानूनी जमा पहनाने से कुछ समय के लिए जिस्म फरोसी बढ़ेगी परन्तु थ्नोड़े ही समय के बाद लोगों का इससे मोह भंग हो जायेगा ...हो सकता है समाज में ओशो सिधान्त " सम्भोग से समाधि " की अवस्था ही आ जाये प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं है . ..
ReplyDelete. जिस्म फरोसी को क़ानूनी जामा पहनाने से पुलिस से जहा इस वर्ग का शोषण समाप्त होगा .वही बेरोजगारी भी दूर होगी .यह विषय बहुत ही संवेदन शील है ..लोग यह भी कह सकते हैं की हम सती-प्रथा, बाल-विवाह, बलात्कार, छेड्छाड सभी को क्यों नहीं संवैधानिक बना देते ..वह अपनी जगह में सही है मगर चोरी-छिपे कुकर्म करने से अच्छा है, मगर अक्सर लोग चोरी छुपे सब करना चाहते है और घोर भ्रस्त व्यक्ति भी सामाजिक रूप से घोर इमानदार बनता है मगर परदे के पीछे का उसका चेहरा सभी समझ सकते है. वेश्याओं को कानूनी मान्यता देने से समाज में क्या होगा अभी नहीं कहा जा सकता है .वे भी समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।"गरीबी ,पुरूष मानसिकता इसका कारण है। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है।
सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। यह दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है।बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें।विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए क्या करें या कर सकते हैं प्रयोग के लिए कुछ समय हेतु मान्यता देके इस बिंदु की भी जाँच पड़ताल की जानी चाहिए समाज में यदि नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो इसे फिर से पुराने नियमन से ही संचालित किया जाय...
इस विषय पर हमें उदारवादी होने की जरूरत है ..मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है की सेक्स वर्कर यदि नहीं होती तो समाज में बलात्कार, छेड्छाड की घटनाएँ ज्यादा ही होती . लेकिन औरत को एक माल में तब्दील होने से रोकना भी बहुत जरूरी है .इसके लिए खुद औरतों को ही आना होगा ,,, यह मेरे व्यक्तिगत विचार है यदि इनसे किसी की भी भावनाए आहत होती है तो मै अपने शब्द वापस लेता हूँ .....
कानूनी जामा पहनना ही उचित है ! इससे इस वर्ग का विकास होगा ! जहाँ तक नाक भौं सिकोड़ने का सवाल है लोगों की मानसिकता कोई नहीं रोक पाया है ! मानव विकास के शुरूआती दिनों से, आदिम काल से यह नहीं रुका है और न रुक सकता !
ReplyDeleteवेश्याएं समाज में समाज में गन्दगी नहीं फैलाती बल्कि गंदगी रोकने में सहायक है , सवाल केवल यह है कि आप के लिए ( पाठकों ) समाज और परिवार की परिभाषा क्या है !
१. प्रश्न अपने आप में बहुत सीमित है, वहां जाने वाले कौन हैं ..??? इसे समझना होगा !
२. हर एक का अपना निजी समाज होता है और प्रतिष्ठा के मापदंड ही अलग अलग होते हैं ! जरा इसी सन्दर्भ में हिजड़ों के बारे में विचार करें ...
३. यह प्रश्न ही असंगत हैं ...यह विशेष वर्ग, अच्छे भले परिवारों में कौन सा सामंजस्य है ....??
४. बहुत आवश्यक है
५. मेरे विचार से दोनों अलग अलग क्षेत्र है !
आपके उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर बेहद जटिल है ! ब्लाक मस्तिष्क से अगर इस पर विचार करेंगे तो इस महत्वपूर्ण विषय के साथ अन्याय ही होगा ! हर प्रश्न के उत्तर के लिए विषद सामजिक चेतना और समझ आवश्यक है ! और हर जवाब के लिए पूरी किताब भी कम पड़ जायेगी ! चार लाइन में जवाब देना असंभव है केवल ब्लॉग मनोरंजन हो सकता है !
शुभकामनायें आपको !
i think that this profession shoul be given legal status only, kam se kam is kaaran se aurato ka shoshan to nahi honga.
ReplyDeleteaapne bahut accha lekha likha hia , badhayi sweekar kare.
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मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
"""" इस कविता का लिंक है ::::
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
विजय
जिस्मफरोशी को संवैधानिक दर्जा देने से वेश्यावृत्ति का उन्मूलन होगा, ये तो हास्यास्पद ही होगा. हाँ इसका समाज पर व्यापक असर होना स्वाभाविक है.
ReplyDeleteजिस्म फरोशी को ही यदि सैवेधानिक दर्जा देना है तो फिर चोरी को भी दे दो, लूट खसोट, भ्रष्टाचार, आदि को भी सैवेधानिक दर्जा दे दो.
ReplyDeleteसीधी सी बात है की हमारे वर्तमान समाज के नैतिक पक्ष का तीव्र गति से पतन होता जा रहा है. ये बहुत ही चिंता का विषय है और ये हुआ इसलिए है क्यों की अच्छे लोग अपनी मर्यादा की दुहाई देकर चुप हो जाते हैं, बोलते ही नहीं, बुराई इसलिए जीतती है क्यों की उसका संगठन होता है, और एक नेक व्यक्ति को जब नीलाम किया जाता है तो बाकी नेक व्यक्ति भेड़ बकरियों की तरह बस देखते ही रहते हैं. नेक बात पर लड़ना बिलकुल सही है और हमें इस और प्रयत्न भी करना होगा, अन्यथा यदि समाज के नैतिक पक्ष का पतन यूँ ही होता रहा तो हो सकता है की आने वाले समय में बच्चे शब्दकोश से पता लगाएंगे की "मामा" कहते किसे हैं.
आपने ब्लॉग पर पधारकर अमूल्य मार्गदर्शन दिया इस हेतु आपका तहेदिल से आभार. आशा है की आप समय समय पर मार्गदर्शन देते रहेंगे.
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अरविन्द जांगिड
आदरणीय डा.सिंह
ReplyDeleteआपने जो मसला यहाँ उठाया है वह बडा ही गंभीर है। समाज़शास्त्रियों,मनोवैज्ञानिकों के लिए भी यह अभी यह तय करना थोडा मुश्किल काम होगा कि इस आफ्टर मैथ्स क्या रहेंगे कारण भारतीय समाज की संरचना अधिक संश्लिष्ट है।
मेरी राय से इसके उन्मूलन के लिए इसको कानून वैद्य करना तार्किक नही होगा इससे और बढावा ही मिलेगी।
संवाद जारी रहेगा। पहली बार आपके सभी ब्लाग के दर्शन किए..आपके विराट व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रणाम।
मेरे ब्लागस पर आपका स्वागत है। लिंक नीचे लिख रहा हूँ आपकी उपस्थिति मुझे खुशी देगी।
सादर
डा.अजीत
www.shesh-fir.blogspot.com
www.meajeet.blogspot.com
arvind jee ki baat se sahmat hoon..jo apraadh ki shrenni me hai, usko waise hi treat karna behtar hai..nahi to fir bhagwan malik hai........!
ReplyDeletefir to blatkaari bhi agar kahe, main vivah karne ke liye tayar hoon, mujhe saja mat do........kya aise kisi ghrinit karya ko sahmati di ja sakti hai.?
शुभम जैन जी,
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग का अनुसरण करने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
आपका स्वागत है!
आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।
आज कल मूल्य बदल गए हैं ... संभव है की जब मूल्य बदल जातें हैं तो उसके अनुरूप परिस्थितियाँ बदल जाती हैं. और परिस्थितियों के अनुरूप ही परिणाम बदल जाते हैं. हमारे ग्रंथों में कहा गया है की कुछ न करते हुए केवल सोचना भी पाप है. मेरा ख्याल है कि भारतीय संस्कृति के विविध सरोकारों को 'मानव हिताय' संदेस के साथ पुनः प्रस्तुत करना होगा.
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