हाल ही में घटी घटनाओं के बाद घरों में शौचालय न होने के मुद्दे पर जागरूकता दिखाई जा रही है। इस मुद्दे को मैंने अपनी कहानी "मरद" में लगभग 12 वर्ष पहले उठाया था। मेरी यह कहानी मेरे कहानी संग्रह "तीली-तीली आग" में शामिल है जो सन् 2003 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। कृपया इस कहानी को आप भी पढ़ें और शेयर करें ...
मरद
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
सुंदरा शेरनी की तरह दहाड़ रही थी । अपनी साड़ी का छोर कमर पर कसी हुई वह शुद्ध बुंदेली गालियों की बौछार कर रही थी। सुंदरा का पति रमेसर सहमा-सहमा सा एक कोने में बैठा हुआ था। सुंदरा की छोटी बेटी चमेली ने अपने-आप को एक कमरे में दुबका रखा था। आंसू की धाराएं बह रही थीं उसकी आंखों से। सुंदरा की सास भी विलापना छोड़ दम साधे पड़ी थी अपने टूटे खटोलने में। किसी ने भी आज से पहले सुंदरा का यह रौद्र रूप नहीं देखा था । यूं तो सुंदरा कभी बेजुबान भी नहीं रही, उसकी बड़बड़,उसके उलाहने चलते ही रहतेलेकिन इस प्रकार ज्वालामुखी कभी नहीं बनी थी वह । आज तो सुंदरा को देख कर उसकी सास को ऐसा लग रहा था जैसे सुंदरा पर साक्षात् चंडिका सवार हो गई हो ।
आंगन में बंधी गाय भी चारा-पानी को भूल कर मानो अनुमान लगाने में मशगूल थी कि उसकी चहेती मालकिन सुंदरा को आज क्या हो गया?कहीं गले में बंधी घंटी न बज उठे इस डर से गाय अपनी गरदन तक नहीं हिला रही थी । उस मूक पशु को भी सुंदरा के मगज खराब होनेका आभास हो गया था । मगर जैसे इंसान का बच्चा वैसे गाय का बच्चा । भूख के मारे बछड़ा रंभा उठा । बछड़े को इस समय तक न तो चारा मिला था और न अपनी मां का दूध । गाय लगाने के बाद ही बचा हुआ दूध पीने देने के लिए बछड़े को गाय के पास छोड़ जाता था । आज अभी तक गाय लगाई ही नहीं गई थी इसलिए बछड़े को छाड़े जाने का सवाल ही नहीं था । सुबह की भांति शाम को भी नियमित रूप से दूध दुहा जाता । गाय भी अपने थनों में दूध का बोझ उठाए दुहे जाने की प्रतीक्षा कर रही थी।
बछड़े के बार-बार रंभाने पर रमेसर उठ बैठा । उसने बाल्टी उठाई और गाय-बछड़े के लिए पानी की हौदी भरने को पांव बढ़ा दिए ।
‘छोड़ो,आज तक किए हो जो आज करोगे। लुगाई-बिटिया तो सम्हाली नहीं जाती, चले हो गाय-बच्छड़ सम्हालने। जाओ, जा के सो रहो अपनी बुढि़या के साथ ...वो पड़ी है तुमाई छिनाल...... ।’ सुंदरा ने झपना मार के बाल्टी छीन ली रमेसर के हाथ से । दीवार से कान सटाए खड़ीं पास-पड़ोस की औरतों ने सुंदरा के आखिरी शब्दों पर ‘राम-राम’ की दुहाई देते हुए अपने दातों से अपनी जीभ काट ली । मगर रमेसर सुंदरा के द्वारा दी गई मां की गाली भी पी गया । रमेसर की मां यानी सुंदरा की सास ने भी सुनी वह गाली और अपने पल्लू में मुंह दाब कर टेसुंए ढारने लगी ।
शाम तक लगभग सब ठीक-ठाक था। रमेसर ज़रा जल्दी ही लौट आया था खेत से। सदैव की भांति सुंदरा ने चाय बना कर आटे के लड्डू और बेसन की नमकीन पपड़ी के साथ परोस दी थी। उस घर में रमेसर और बच्चे ही चाय पीते थे। सुंदरा को तो नफ़रत थी चाय से। रमेसर की खातिर मन मार कर दोनों समय चाय बना देती थी। ये चाय का चस्का सरपंच के यहां लगा था रमेसर को। सरपंच का साथ तो छूट गया पर चाय का पल्ला नहीं छूटा। अगर चाय का शौक़ सरपंच के बजाये कहीं और से लगा होता तो शायद सुंदरा को चाय से चिढ़ नहीं होती। उसने तो यही चाहा कि कम से कम बच्चे इस लत से दूर रहें किन्तु बच्चों की चटोरी जीभ को शक्कर घुली मीठी चाय बड़ी रास आती ।
सुंदरा का पूरा नाम है सुंदरबाई । उसके इस नाम से उसे कभी किसी ने नहीं पुकारा, न मायके में, न ससुराल में। ये नाम उसके अब तक के जीवन में बस दो बार लोगों की जुबान पर आया। एक बार तब जब सुंदरा की पैदाइश के बाद जन्मपत्री बनाते समय पंडित नं ‘सुंदरा बाई’के नाम से नामकरण किया था और दूसरी बार तब जब सुंदरा का विवाह होने जा रहा था । उसके ससुराल वालों को उसका पूरा नाम बताया गया था जिसे उसके चचिया देवरों ने दीवार पर गेरू से लिख दिया था – ‘रमेसर संग सुंदरा बाई’। उसके देवर भी उससे उम्र में चार-छः साल बड़े ही थे। वहीं गांव के स्कूल में पढ़ते थे । कुल आठ बरस की थी सुंदरा जब रमेसर के संग उसका ब्याह हुआ था । उसे बहुत खुशी हुई थी अपने ब्याह की । वह जानती थी कि ब्याह होना अच्छी बात है । जिसका ब्याह न हो वह अभागी । सुंदरा अपने भाग्य पर इतराती हुई अपनी ससुराल पहुंची थी । चम्पा के फूल-सा निखरा रंग और भरा-भरा गोल-मटोल चेहरा।
जैसा नाम है सुंदरा, वैसी ही सुंदर भी है। मुंहदिखाई की रस्म के समय लगभग सभी के यही उद्गार थे। वह घूंघट काढ़ कर ही निकलती थी घर से बाहर। नई बहू के लिए यह ज़रूरी था। सुंदरा और उसकी सास की दो दिन में ही अच्छी पटरी बैठ गई। कारण कि सुंदरा की सास को सात बच्चे हुए थे लेकिन उनमें से जीवित बचा तो सिर्फ रमेसर। फिर ससुर गुज़र गए तो कोई आशा भी नहीं बची। सुंदरा को पा कर उसकी सास बहुत खुश हो गई थी। उसे एक साथिन जो मिल गई थी ।
सुंदरा और उसकी सास सुबह पांच बजे से जो साथ होतीं कि रात ब्यालू (रात्रि भोजन) के बाद उस समय ही अलग होतीं जब रमेसर अपने कमरे में जा लेटता । बाप के जीवित रहने तक रमेसर अपने बाप के साथ खेत पर जाता रहा । बाप के मरने के बाद चाचा-ताऊ की देख-रेख में खेत सम्हालने लगा । सबके अलग-अलग घर थे। इसीलिए आपस में लगभग राजी-खुशी भी थी।
सुंदरा को यही कोई पंद्रहवां-सोलहवां वसंत चल रहा था। सात-आठ साल होने को आ रहे थे ब्याह हुए। अब वह पुरानी बहू हो चली थी । इतना ही समय हो चला था उसे कड़वा काढ़ा पीते । उसकी सास उसे हर महीने कड़वा काढ़ा जरूर पिलाती । सुंदरा नाक-भौंह सिकोड़ती तो उसकी सास कहती कि पहले बच्चा पालने लायक तो हो जा फिर पैदा करना । बच्चा न होने देने का नुस्खा था वह काढ़ा । पहले तो उसे गुस्सा आता था कि यह काढ़ा रमेसर को क्यों नहीं पिलाया जाता?धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा । सात-आठ साले में घूंघट भी ठोड़ी से ऊपर सरक कर माथे पर आ टिका था । यूं तो उसे घर से बाहर वट-पूजन,देव-पूजन के अलावा निकलना ही नहीं पड़ता। घर में चैपाल जैसा बड़ा आंगन था जो ईंट और मिट्टी की मोटी दीवार से घिरा था । इसी आंगन में फुदकती रहती थी सुंदरा । बस,सिर्फ सुबह-शाम ही निकलना पड़ता,शौच की खातिर । वह भी अपनी सास के पल्लू में बंध कर जाती । मुहल्ले की और औरतें और लड़कियां तो खुले में भी बैठ जातीं लेकिन सुंदरा को शर्म आती । उससे तो झाडि़यों की ओट के बिना बैठा ही नहीं जाता ।
कभी-कभी उसकी सास उसकी इस जि़द पर झुंझला उठती । तब सुंदरा तपाक से कहती, ‘हम अपने घर के पिछवाड़े वैसा पखाना क्यों न बनवा लें जैसा सरपंच जी के यहां है।’
‘धत् ! ऐसा कहीं हो सकता है?सरपंच जी ठहरे ज़मींदारी वाले । ज़मींदार के घर ही बन सकता है पखाना,हम जैसों के यहां नहीं।’ सास उसे झिड़क देती ।
‘मगर क्यों?क्यों नहीं बन सकता?’ लाड़ में सिर चढ़ी सुंदरा प्रश्न कर बैठती सास से ।
‘हमारे यहां कौन आएगा सफाई करने?’ सास उसके प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही देती ।
‘क्यों?’ पूछ कर सुंदरा उलझ जाती अपने-आप में । सच तो ये था कि उसने सरपंच के यहां का शौचालय अपनी आंख से देखा तक नहीं था । उसके बारे में सिर्फ सुना ही सुना था । सरपंच को अवश्य उसने एक नहीं कई-कई बार देखा था । रमेसर से दूनी उमर का होगा ।
‘सरपंच जी खड़े हैं, जल्दी-जल्दी पांव उठा ।’ जब कभी उसकी सास सरपंच को रास्ते में खड़ा देखती दबे स्वर में सुंदरा को अवश्य टोंकती ।
जैसे-जैसे सुंदरा का लम्बा घूंघट माथे के पल्लू में बदला वैसे-वैसे सास की नसीहत भी बदल गई ।
‘सरपंच जी खड़े हैं । घूंघट काढ़ ले !’ अब उसकी सास कहती और सुंदरा घूंघट काढ़ लेती ।
उस दिन सास की तबीयत खराब थी । उसे रात से बुखार हो आया था । सुबह अकेली ही जाना पड़ा सुंदरा को । यूं तो मैदान तक औरतों का साथ मिल गया था सुंदरा को किन्तु झाड़ी-झुरमुट के पीछे अकेली ही थी सुंदरा। उस दिन भी लौटते हुए दिखा था सरपंच । शायद अपने खेत की ओर जा रहा था। उस दिन सास साथ में नहीं थी इसलिए सुंदरा को कोई टोंकने वाला भी नहीं था । वह घूंघट काढ़े बिना ही सरपंच के सामने से निकल गई। उसी दिन शाम को रमेसर के साथ सरपंच घर आया । सुंदरा की सास की तबीयत पूछने । जितनी देर सरपंच आंगन में बैठा रहा,सुंदरा रसोईघर से बाहर नहीं निकली । उसे अचम्भा हुआ था सरपंच के आने पर। सास की तबीयत इतनी खराब भी नहीं थी कि सरपंच उसे देखने आता । यद्यपि,सरपंच की आमद के बाद से रमेसर छाती फुलाए घूमता रहा। उसे अपना आपा दूना होता दिखाई दिया। उस रात वह सोना भूल कर सरपंच की घंटों तारीफ के पुल बांधता रहा । सुंदरा ने उसे दबे स्वर में टोंका भी था ‘लोग तो सरपंच जी को भला मरद नहीं कहते हैं।’ ‘झूठ कहते हैं लोग । अरे ज़मींदार आदमी है ।’ रमेसर ने पक्ष लिया था सरपंच का ।
‘लेकिन लोग कहते हैं कि वो लुगाइयों के पीछे..... ।’सुंदरा ने और खुला संकेत किया ।
‘तू भी कहां लगी है?अरे, दो-चार लुगाइयों पे मुंह मारना तो मर्दानगी की निशानी है।’ रमेसर ने अकड़ कर कहा था ।
‘तो आप सोई मुंह मारना चाहते हो का?’ सुंदरा ने चिकोटी काटी थी ।
‘तू ऐसा करने दे तब तो..... ।’ छेड़ने लगा था रमेसर उसे ।
.....और बात आई-गई हो गई थी ।
दूसरे दिन शौच से लौटते में सुंदरा को सरपंच फिर दिखाई पड़ा । ऐसे अचानक सामने आ खड़ा हुआ कि वह घूंघट काढ़ ही नहीं पाई । वह अपने होंठों पर आजीब मुस्कराहट लिए निकल गया उसके सामने से । उसके बाद से सुंदरा अन्य औरतों के बीच -बीच में हो कर चलने लगी । सास की तबीयत अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुई थी । वैदजी की दवा बहुत धीरे-धीरे असर कर रही थी । इसीलिए सुंदरा की सास सुबह मुंहअंधेरे या सांझ को अंधेरा घिरने पर घर के नाज़दीक ही निपट लिया करती थी । सुंदरा का वश चलता तो वह अपनी सास के बिना कभी घर से पांव बाहर नहीं निकालती मगर शौच के मामले को टाला नहीं जा सकता था।
सास को बीमार हुए पांच दिन गुज़र चुके थे । सुंदरा नित्य की भांति मुर्गे की बांग के साथ उठी । लोटे में पानी भरा और दरवाज़ा उढ़का कर निकल पड़ी। सास उनींदी पड़ी थी अपने खटोलने पर। रमेसर की खुर्राटें आंगन तक सुनाई पड़ रही थीं । घर से बाहर निकलते ही दो पड़ोसनें साथ मिल गईं। उन दोनों ने सुंदरा से उसकी सास की तबीयत का हाल पूछना शुरू कर दिया। तीनों आपस में बोलती-बतियातीं मैदान के दूसरे छोर पर आ पहुंचीं। यहीं से तीनों अलग-अलग हो लीं। सुंदरा झाड़ी-झुरमुट की ओट के लिए आगे बढ़ती चली गई।
वह शौच से निवृत्त हो कर उठी ही थी कि दो मज़बूत हाथों ने उसे दूसरे झुरमुट की ओर खींच लिया। इस अप्रत्याशित घटना ने चींखने का मौक़ा भी नहीं दिया सुंदरा को। एक बारगी सुंदरा के दिमाग़ में आया कि उसे किसी जंगली,आदमखोर जानवर ने पकड़ लिया है किन्तु दूसरे ही क्षण चेतना लौटने पर उसने पाया कि सरपंच ने अपनी मज़बूत बांहों में उसे दबोच रखा है।
‘सुंदरा मेरी प्यारी, मेरी जान, मेरी प्यास बुझा दे मेरी सुंदरा ..... !’ न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बकने लगा था सरपंच। सुंदरा की छठी इंद्रिय ने उसे बता दिया कि उस पर कौन-सी विपत्ति आई है और क्या कुछ घटित होने वाला है उसके साथ।
‘मुझे खुश कर दे तो रानी बना दूंगा ...वरना जान से मार दूंगा,समझीं !’ सरपंच ने अपनी उंगलियों का दबाव उसके गले पर बढ़ाते हुए उसे धमकाया । भयभीत सुंदरा को मानो लकवा मार गया। उसके हलक से चींटी बराबर आवाज़ भी नहीं निकल पा रही थी। वह आंखें फाड़ कर सरपंच के चेहरे की ओर ताके जा रही थी। सरपंचकी आंखों में तैरते लाल डोरे उसके चेहरे को और अधिक भयानक बना रहे थे । अपनी देह पर सरपंच के शरीर का पाशविक दबाव महसूस कर सुंदरा फड़फड़ा उठी । लेकिन सोलह बरस की सुकुमार सुंदरा न तो सरपंच को रोक सकती थी और न रोक पाई।
‘रमेसर की सलामती चाहती है तो चुप कर बैठना!’ जाते-जाते धमका गया था सरपंच ।
सुंदरा से उठा भी नहीं जा रहा था । उसकी कमर, पीठ, कुहनियां सब कुछ कंकड़-पत्थर से बुरी तरह छिल गए थे। समूची देह टीस रही थी। इससे भी कहीं तीखी टीस उठ रही थी उसके मन में। जैसे-तैसे वह हिम्मत कर के उठी और विक्षिप्त-सी लड़खड़ाती हुई अपने घर पहुंची। रमेसर उस समय भी खुरार्टे भर रहा था। सास कूल्ह-कांख रही थी। सुंदरा सास के खटोलने का पाया पकड़ कर बैठ गई । बिलख-बिलख कर रोने लगी वह। सास ने हड़बड़ा कर सुंदरा की ओर देखा।
‘क्या हुआ?’ सास ने घबराते हुए पूछा ।
‘बाई वो ..... ।’ आगे कुछ न कह सकी सुंदरा । वैसे कुछ कहने की आवश्यकता भी नहीं थी । बताए बिना ही सब कुछ समझ गई सुंदरा की सास ।
‘कौन था?सरपंच?’ सास ने पूछा । उसके पूछने में प्रश्न नहीं बल्कि उत्तर के भाव झलक रहे थे ।
कुछ देर सन्नाटा खिंचा रहा दोनों के बीच। बस, सुंदरा के सुबकने की आवाज़ ही सुनाई पड़ रही थी।
‘अब चुप हो जा! अब रोने-पीटने से क्या फ़ायदा,बिन्ना! मुझ मरी को भी अभी ही बीमार पड़ना था ....चल अब चुप हो जा ! ....बहुत दुख रहा है?’ सास ने सुंदरा को सांत्वना देते हुए पूछा ।
‘बाई! चल,थाने चलेंगे !’ सुंदरा ने अनसुनी करते हुए सास से कहा ।
‘ठीक है,पहले हाथ-मूं धो ले और कपड़े-लत्ते बदल ले।’सास ने कांपते हुए स्वर में कहा।
‘नहीं ऐसे ही चलेंगे।’ सुंदरा बिलखती हुई बोली।
‘ऐसे नहीं। चलमेरी बात मान ।’ सास ने गंभीरतापूवर्क कहा।
सास के कहने पर सुंदरा उठी । उसने जैसे-तैसे हाथ-मुंह धोया । फटा ब्लाउज़ बदला और साड़ी ठीक-ठाक कर के आ खड़ी हुई सास के आगे ।
‘बैठ जा बिन्ना! यहां बैठ और कान धर के सुन !’सास ने अपने खटोलने पर सुंदरा के लिए जगह बनाते हुए उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। सुंदरा बैठ गई खटोलने पर ।
‘हम थाने नहीं जाएंगी । कहीं नहीं जाएंगी । तू भी इस बारे में किसी से कुछ मत कहना ।’ सास के ये शब्द सुन कर सुंदरा को झटका लगा । वह आश्चर्य से सास का मुंह ताकने लगी। वह तो घर में घुसते समय यही सोच कर हलाकान हुई जा रही थी कि जब सास को पता चलेगा कि सुंदरा अपनी अस्मत लुटा आई है तो वह उसे कोसेगी,किसी कुए में डूब मरने को कहेगी । इसीलिए सास की बातें सुन कर भी सुंदरा को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हो रहा था ।
‘मगर क्यों?’ सुंदरा के स्वर में हठ के भाव थे। वह बोली ‘हमारे गांव में तो चोरी-चकाड़ी होती है तो लोग थाने पहुंच जाते हैं।’
‘बिन्ना ! चोरी चकाड़ी और इसमें फरक है....मेरी बात को समझ! ....तू औरतज़ात है, तेरी ही जग हंसाई होगी । वो मुआ सरपंच मरद है,उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। वह तो न जाने कितनियों पर अपनी मदार्नगी उतार चुका है,भला क्या बिगड़ा उसका?जो होनी बदी थी,सो हो गई । अब भलाई इसी में है कि अब चुप कर के रह ! थाने-कचहरी में जाने से बिरादरी में भी नाक-कटाई होगी । रमेसर के कक्का तो ताकई बैठे हैं कि कुछ उेसई-वेसई हो जाए तो रमेसर को बिरादरी से बाहर कर ज़मीन दबाएं। रमेसर की खातिर गम्म खा।’ सास ने उसे समझाना चाहा।
सास की बातें सुन कर न जाने कौन-सा जुनून सवार हुआ सुंदरा पर कि वह सास के पास से छिटक कर सीधी रमेसर के पास जा पहुंची । गहरी नींद में सोए रमेसर को झकझोर कर जगाने लगी। रमेसर अचकचा कर उठ बैठा।
‘क्या बात है?क्या हुआ?’ रमेसर ने आंखें मिचमिचाते हुए पूछा ।
उत्तर में सुंदरा बिलखने लगी । उससे कुछ भी कहा नहीं गया। तब तक सास भी कूल्हती-कांखती रमेसर के कमरे तक आ पहुंची। उसने दरवाज़े के पल्ले उढ़का दिए ताकि आवाज़ बाहर तक न जा पाए। रमेसर को समझ में नहीं आ रहा था कि ‘ये सब क्या हो रहा है’ सुंदरा बिलख-बिलख कर रोए जा रही थी।
‘क्या हुआ,बाई?अनिष्ट की आशंका से घबराते हुए रमेसर ने अपनी मां से पूछा।
‘बताती हूं,ठैर जा ।’ रमेसर से कहती हुई सास सुंदरा को चुप कराने लगी- ‘अब चुप हो जा, बिन्ना! अब चुप कर!’
‘क्या चुप कर!’ तुम थाने क्यों नहीं चलतीं?’ सुंदरा तड़प कर बोली।
‘थाने?क्या बात हुई, चोरी-डाका पड़ गया क्या?’ थाने का नाम सुनते ही रमेसर और अधिक घबरा गया।
‘नहीं-नहीं, तू घबरा मत....और देख,सुंदरा ! मुझे पहले रमेसर से बात कर लेने दे । ये तेरा मरद है अगर ये कहेगा तो इसी के साथ चली जाना थाने।’ सास ने सुंदरा से कहा फिर रमेसर को संबोधित करती हुई बोली- ‘रमेसर,तू सयाना है! तू बता कि सरपंच से झगड़ा कर के कोई इस गांव में रह सकता है क्या?’
‘नहीं ! कोई नहीं रह सकता। मगर हुआ क्या?’ रमेसर ने उत्तर देते हुए प्रश्न किया ।
‘पहले तू ये बता कि इज्जत जब तक ढकीं रहती है तभी तक इज्जत रहत है न, उघर गई तो धूल बरोबर हो जात है। है कि नई?’
‘सो तो है लेकिन..तो बेटा ! अब तू ही इस घर का अकेला मरद है, इस घर की इज्जत ढांपना अब तेरे हाथ में है। अगर तू समझदारी से काम लेगा तो हम सारी मुसीबतों से बच जाएंगे। सोच ले बेटा !’ सास ने अनुनय -विनय के स्वर में कहा ।
‘मगर हुआ क्या?’ झुंझला उठा रमेसर । उसके धीरज का बांध टूट चला था।
‘वो सरपंच है है न....उसने सुंदरा की इज्जत बिगाड़ दी है....ये चाहती है कि हम थाने जाएं और रपट लिखाएं सरपंच के खिलाफ ....मगर तू तो जानता हैकि पिछले बसर सरपंच के भंनेज ने केसरी की बिटिया की इज्जत बिगाड़ दी थी । केसरी तो गया था थाने, पर क्या हाथ लगा उसके?थाने वालों ने केसरी की बिटिया को ही दिन-रात बिठाए रखा थाने में । वहां जो बीती उस पर कि थाने से लौट कर कुए में ही कूद गई थी बेचारी । केसरी की बीवी हलक-हलक के मर गई चार महीने में ही और सरपंच ने ज़मीन हड़प ली उसकी। सात जनों का भूखा पेट लिए अब भी चक्कर काट रह है थाने के। बिरादरी में ही कौन पूछ रहा है उसे?सरपंच के डर से हुक्का-पानी बंद है उसका।‘ सुंदरा की सास ने एक ही सांस में सुंदरा के साथ घटी घटना और बुरा-भला सब कुछ समझा दिया रमेसर को।
‘मगर बाई वो.... ।’ रमेसर का बीस सालाना जवानी का गरम खून जोर मारने लगा।
‘सोच ले बेटा! केसरी जैसी अपनी मिटानी है या इज्जत ढांपे रहनी है?अरे क्या मेरा कलेजा मूं को नहीं आ रहा है?....कैसा रौंदा है मेरी फूल-सी बिन्ना को ...मगर बेटा, दुनियादारी के कारण कलेजे पर पत्थर रख कर बोल रही हूं ऐसा करने को...।’सास का गला रुंध गया। रमेसर पर अपनी मां के कथन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि तत्काल उसके हाथ-पांव ढीले पड़ गए।
क्या कर लेती अकेली सुंदरा?रमेसर और सास दोनों ने मिल कर खूब समझाया सुंदरा को । अंत में उसे भी सास की बात मान लेनी पड़ी । किसी हद तक ठीक ही तो कह रही थी उसकी सास । उसके मन में बस एक फांस चुभी रह गई कि कैसा मरद है रमेसर जो अपनी घरवाली की इज्जत लुटने पर भी गम्म खा गया ।
इस हादसे के बाद सुंदरा और उसकी सास के बीच पहले जैसा प्रेम-भाव नहीं रहा । सास को भी सुंदरा की आंखों में अपने लिए घृणा तैरती दिखाई देती और सुंदरा भी सास की उपेक्षा करने से नहीं चूकती। रमेसर भी दबा-दबा सा रहता । सुंदरा ने तय कर लिया था कि अब वह रमेसर को भी अपने साथ संबंध नहीं बनाने देगी । अब वह चारपाई के बजाये अलग ज़मीन पर चटाई बिछा कर सोने लगी । रमेसर के स्पर्श मात्रा से उसके शरीर में कांटें चुभने लगते ।
सयानी सास ने सुंदरा के ये हाव-भाव देख कर नया पैंतरा अपनाया जिसके आगे सुंदरा का रमेसर से अलगाव टिक नहीं पाया । गांव की औरतें बाकी दुनियादारी के मामले में भले ही सीधी और अज्ञानी हों लेकिन घरेलू मामलों में दांव-पेंच करने में शहरी औरतों से कम नहीं रहती हैं। सुंदरा की सास ने सरपंच की दबंगई के आगे भले ही घुटने टेक रखे थे लेकिन अपनी वंश-परम्परा की चिन्ता उसे थी। सुंदरा को पता ही नहीं चला कि उसकी सास उसके रात के भोजन में भांग मिलाने लगी । सास की चतुराई के चलते सुंदरा तीन बच्चों की मां बन गई । दो बेटे हुए और एक बेटी । वह इसके लिए रमेसर को ही दोषी मानती रही । वह यही सोचती कि रमेसर अपनी चाह पूरी करने के लिए रात को सोते में किसी जादू-टोना की मदद लेता है । उसे नशे वाली बात का शायद कभी पता ही नहीं चल पाता लेकिन एक दिन मंदिर से लौटते समय किराने वाले ने आवाज़ दे कर सुंदरा को रोका और उसे पुडि़या थमाते हुए कहा कि उसकी सास भांग की पुडि़या दुकान पर ही भूल गई है । किराने वाला समझता था कि सुंदरा की सास को भांग की लत है । सुंदरा ने किराने वाले से पूछा कि ‘उसकी सास कब से भांग ले जा रही है?’
किराने वाले का जवाब सुन कर सुंदरा को सारा माज़रा समझ में आ गया । उसे समझ में आ गया कि रात को सोते समय उसका अपने आप पर वश क्यों नहीं रहता?क्यों वह भी रमेसर के बहकावे में आ जाती है?
जिस सास को वह अपनी मां, बहन, सहेली जैसा मानती थी वही उससे धोखा करती रही, यह बात सुंदरा को मन के कोने-कोने तक साल गई । घर आते ही उसने सास को खूब खरी-खोटी सुनाई । सास वंश, परंपरा और खानदान की दुहाई देती रही ।
समय यूं ही व्यतीत होता रहता मगर अभी एक होनी और घटित होनी शेष थी । सुंदरा की बेटी चमेली दस बरस की हो चली थी । सुंदरा ने कई बार रमेसर और सास से झगड़ा किया कि बेटी जवान हो रही है, शादी-ब्याह में तो कुछ समय लगेगा । अब जवान बेटी को शौच के लिए बाहर न जाना पड़े इसकी व्यवस्था कर लेनी चाहिए। रमेसर भी सुंदरा की बात से सहमत था मगर इस प्रश्न पर पीछे हट जाता कि उनके यहां सफाई के लिए कौन आएगा?इस पर सुंदरा कहती कि अंग्रेजी वाली बनवा लो । रमेसर तर्क देता कि अंग्रेजी वाला पखाना (फ्लश) तो सरपंच के यहां भी सिर्फ मेहमानखाने में है । गांव भर में और कहीं नहीं है । अब सरपंच की बराबरी कैसे की जा सकती है?रमेसर के मुंह से ऐसे तर्क सुन कर कसमसा कर रह जाती सुंदरा और गालियां बकने लगती ।
सुबह हो या शाम,रात हो या दोपहर, चमेली को जब भी शौच के लिए जाना होता सुंदरा उसके साथ जाती। चमेली मना भी करती तब भी वह नहीं मानती । ये बात और है कि सुंदरा हर समय, हर जगह तो बेटी के साथ जा नहीं सकती थी । चमेली स्कूल जाती, सहेलियों के घर जाता,सहेलियों के साथ कभी-कभार बाज़ार-हाट चली जाया करती ।
आज शाम को चमेली जब स्कूल से लौटी उस समय सुंदरा रात का भोजन बनाने की तैयार कर रही थी। रमेसर चाय-नाश्ता कर के चारपाई पर पड़ा-पड़ा झपकियां ले रहा था। चमेली ने किताब-कापियां एक ओर रखीं और सुंदरा का हाथ बंटाने के लिए सुंदरा के पास जा पहुंची । सुंदरा ने चमेली की कलाइयों में हरी-पीली चूडि़यां देखीं तो वह चिहुंक पड़ी।
‘ये चूडि़यां कहां से आईं?’सुंदरा ने भृकुटी तानते हुए पूछा।
‘वो...स्कूल की जल्दी छुट्टी हो गई थी तो मैं सहेलियों के साथ बाज़ार चली गई थी । मैं तो मना कर रही थी लेकिन वे लोग ज़बदस्ती लिवा ले गईं।’ चमेली ने तत्काल सफाई दी।
‘तो ये चूडि़यां तेरी सहेली ने खरीदीं?’ सुंदरा ने संदेह भरे स्वर में पूछा ।
‘नहीं, सरपंच दाऊ ने...वो वहीं दुकान पर खड़े थे ।’ एक सांस में कह गई चमेली ।
इतना सुनते ही सुंदरा का हाथ उठ ही गया चमेली पर । मारने के साथ ही पछताई सुंदरा। सरपंच का कांइयांपन क्या सुंदरा नहीं जानती?
‘ये क्या करती है, सुंदरा?उसे क्यों मार रही है?’ तभी सुंदरा की सास ने उसे टोका ।
‘चुप कर, बाई ! नशे की औलाद बहकेगी नहीं तो और क्या करेगी?’ सुंदरा ने झिड़क दिया सास को। सास भी समझ गई सुंदरा का संकेत। कुछ बाल न सकी वह। सुंदरा ने रमेसर को भी आड़े हाथों लिया।
रमेसर ने सुझाव दिया कि चमेली का स्कूल जाना छुड़वा देते हैं। यह सुन कर भड़क गई सुंदरा।
‘आहा, हा ! स्कूल जाना छुड़वा दो । स्कूल नहीं जाएगी और शौच के लिए?मैं कोई अमरित खा के आई हूं?इस बुढि़या जैसे मैंने भी किसी दिन खाट पकड़ ली तो कौन जाएगा चमेली साथ सुबह-शाम?फिर तुम्हें क्या, तुम तो चमेली को भी समझा दोगे कि चुप कर के बैठ! नामरद कहीं के!’ यही से शरु हुआ ज्वालामुखी विस्फोट।
‘कित्ती बार कहा तेरे से कि मैं तो देसी-अंग्रेजी सब बनवा दूं मगर वो सरपंच बैर मान गया तो?समझती नहीं है तू !’ रमेसर आहत स्वर में बोला ।
‘खूब समझती हूं, तेरे को भी और तेरे सरपंच को भी । वो भी नामरद, तू भी नामरद । एक को झाडि़यों की ओट चाहिए तो एक को कमरे की ओट ...तभी दिखती है तुम लोगों की मरदानगी। तेरे से कुछ नहीं होगा ...तू तो सो रह अपनी बुढि़या के साथ ...जो बनवाना-करना है, मैं बनवाऊंगी -करुंगी। लुगाई भी मैं ही हूं और मरद भी मैं ही !’ क्रोध से उबलती दहाड़ उठी सुंदरा।
‘सोच ले,वो सरपंच कहीं....।’रमेसर ने दबे स्वर में टोका।
‘तू बैठ के सोच! आ के देखे तो साला सरपंच,गाड़ दूंगी उसे खुड्डी में ...अब मैं वो सुंदरा नहीं कि तेरे कहे से चुप बैठूं,अब मैं मां हूं चमेली की ! समझे !’सुंदरा ने फिर दहाड़ा ।
‘चल, तैयार हो जा ! जब तक मैं यहां इन्तेजाम न करवा लूं तब तक तू अपने मामा के पास रहना!’सुंदरा ने चमेली का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा ।
सुंदरा की यह बात सुन कर खटोलने पर लेटी सास ने सिर उठा कर सुंदरा की ओर देखा । सुंदरा की आंखों में धधकती हुई ज्वाला देख कर सहम गई वह और उसने फिर से अपना सिर दुबका लिया अपने खटोलन में।
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