Friday, May 6, 2016

चर्चा प्लस ... राजनीतिक चश्मे से राष्ट्रवाद को देखने की आदत - डाॅ. शरद सिंह


मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (06. 05. 2016) .....
My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....
चर्चा प्लस ...... 
 

राजनीतिक चश्मे से राष्ट्रवाद को देखने की आदत ...
- डाॅ. शरद सिंह
आमतौर पर यह माना जाता है कि राष्ट्रवाद एक विचारधारा या भावना के रूप में ब्रिटिश शासन से पहले अस्तित्व में नहीं था। राष्ट्रवाद का उदय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान हुआ। भरतीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में यह विचार उचित जान पड़ता है। औपनिवेशिक ‘साम्राज्यवादी’ कैंब्रिज स्कूल मानता है कि साम्राज्यवाद, सभ्यता तथा सामाजिक सुधारों के साथ भारत आया। साम्राज्यवादी स्कूल के अनुसार राष्ट्रवादी वह लोग थे जिन्होंने जाति तथा धार्मिक पहचानों के आधार पर समूह निर्माण किया। माक्र्सवादी स्कूल भारतीय इतिहासलेखन भारतीय राष्ट्रवाद के वर्ग चरित्र की आलोचना करता है। उनके अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद विरोधाभासी और द्वैधवृत्तिक है। राष्ट्रवादी इतिहासलेखन के उपाश्रित स्कूल ने भी राष्ट्रवाद की शोषणकारी तथा प्रभुत्ववादी विचारधारा के रूप में व्याख्या की है। बहरहाल, विद्वानों द्वारा राष्ट्रवाद की दी गई परिभाषाओं एवं सिद्धांतों के तर्क-वितर्क में उलझने के बदले मैं आम बोलचाल के शब्दों में राष्ट्रवाद को परिभाषित करना चाहूंगी कि -‘‘राष्ट्रवाद वह विचार , वह भावना है जो किसी भी व्यक्ति को अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करती है।’’ इसीलिए जब राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्तित्वों को लोग पूर्वाग्रह से भर कर देखते हैं तो सोचना पड़ता है कि अपने राष्ट्र के प्रति आत्मोत्सर्ग की भावना रखने वाले व्यक्ति, चाहे वे जिस दल-विशेष के साथ रह कर राष्ट्र के प्रति समर्पित रहे हों, क्या उनके अवदान को कम कर के आंका जा सकता है? पंडित दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, वल्लभ भाई पटेल, मदन मोहन मालवीय और महात्मा गांधी ने यदि देशहित एवं देश सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया तो क्या उनकी राष्ट्रवादिता पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है? देश सेवा के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन उद्देश्य तो एक ही रहता है जो किसी भी प्रकार से लांछन की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। क्या देश के प्रति अपने प्राणों की बलि देने वाले शहीद भगत सिंह और महात्मा गांधी के अवदान को तुलनात्मक रूप से कम या ज्यादा माना जा सकता है? एक सशस्त्र विरोध में विश्वास रखता था तो दूसरा अहिंसा में। दोनों के रास्ते अलग थे लेकिन उद्देश्य तो एक ही था, देश को स्वतंत्राता दिलाना। लेकिन अंग्रेजों ने जो फूट के बीज बोए वे राष्ट्रवाद के विचार को भी अनेक टुकड़ों में बांटने से बाज नहीं आते हैं। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
जब राष्ट्रवाद के प्रति चिन्तन पूर्वाग्रह से भरा हो। जितने राजनीतिक चश्मे, उतने ही राष्ट्रवाद के मायने। इसका चैंकाने वाला अनुभव मुझे स्वयं भी हुआ। जब ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व’’ श्रृंखला की मेरी छः किताबें प्रकाशित हुईं। जिनमें ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: दीन दयाल उपाध्याय’’। पर मेरे एक परिचित प्रोफेसर साहब की प्रतिक्रिया थी कि -‘‘अरे, मुझे नहीं मालूम था कि आप संघ विचारधारा की हैं।’’ तब मैंने उनसे पूछा कि मैंने तो ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: वल्लभ भाई पटेल’’ और ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: महात्मा गांधी’’ भी लिखी है, फिर आपके अनुसार मेरी विचारधारा क्या होनी चाहिए? वे खिसियानी हंसी हंस कर रह गए। लेकिन एक चुभता हुआ प्रश्न छोड़ गए मेरे लिए। राष्ट्रवाद क्या है? क्या राष्ट्रवाद को अलग-अलग राजनीतिक चश्मे से देखा जाना उचित है?
वामपंथियों के लिए राष्ट्रवाद की परिभाषा अलग है तो दक्षिणपंथियों के लिए अलग। लिहाजा जब एक राष्ट्र के प्रति वादों में भिन्नता होगी तो विवाद होंगे ही। लेकिन विवाद की भी अपनी अर्थवत्ता होनी चाहिए। अपनी राजनीतिक विचारधारा के वशीभूत किसी शहीद को ‘‘आतंकवादी’’ ठहराना, वह भी इस दौर में जब आतंकवाद अपने सभी वीभत्स रूपों में आए दिन हमारे सामने प्रकट हो रहा हो, इस बात पर पुनर्विचार करने को विवश करता है कि क्या हम राजनीतिक धरातल पर वैचारिक विचलन के आदी होते जा रहे हैं?
अभी हाल ही में शहीद भगत सिंह को ले कर एक विवाद सामने आया। इस विवाद का मंच एक बार फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय रहा। दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल एक किताब में भगत सिंह को एक ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया गया है। इतिहासकार बिपिन चन्द्रा और मृदुला मुखर्जी द्वारा ‘इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ शीर्षक से लिखी गई इस पुस्तक के 20वें अध्याय में न केवल भगत सिंह को बल्कि चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन को भी ‘‘क्रांतिकारी आतंकवादी’’ बताया गया है। उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से डीयू के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है। इतिहास विभाग में इस पुस्तक को एक ‘संदर्भ पुस्तक’ के तौर पर पढ़ाया जाता है। इस पुस्तक में चटगांव आंदोलन को भी ‘आतंकी कृत्य’ करार दिया गया है, जबकि अंग्रेज पुलिस अधिकारी सैंडर्स की हत्या को ‘आतंकी कार्रवाई’ कहा गया है। शहीद भगत सिंह के परिजनों को जब इस बात का पता चला तो वे स्तब्ध रह गए और उन्होंने ने इस पर आपत्ति जताई। शहीद भगतसिंह को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ के रूप में उल्लेख किए जाने पर विरोध के अनेक स्वर उठ खढ़े हुए। मामले को संज्ञान में लेते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने डीयू से इस पर पुनर्विचार करने को कहा।
वामपंथी और दखिणपंथी दो फड़ में बंट गए लेकिन इन सबके बीच हताहत हुई जनभावना। जब विरोध के स्वर मुखर हुए तो पुस्तक के लेखकों के पक्ष में भी तर्क सामने आए। जेएनयू के प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ने अपने एक विस्तृत लेख में लिखा कि- ‘‘दिल्ली यूनिवर्सिटी में रेफरेंस बुक के तौर पर पढ़ाई जा रही किताब ‘इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ को लेकर छिड़ा विवाद आधारहीन है। इस आरोप में दम नहीं है कि इस किताब में भगत सिंह को आतंकवादी बताकर उनकी निंदा की गई है। साल 1988 में प्रकाशित इस किताब को पांच इतिहासकारों की एक टीम ने तैयार किया है, जिसमें विपिन चंद्र के अलावा मृदुला मुखर्जी, के एन पानिकर, सुचेता महाजन और इन पंक्तियों का लेखक शामिल है। विपिन चंद्र ने जब पहली बार ‘रिवॉल्यूशनरी टेररिस्ट’ शब्द का इस्तेमाल किया था, तब साथ में यह विशेष रूप से लिखा कि- हम इस शब्द का इस्तेमाल आलोचना के रूप में नहीं कर रहे, यह कोई अपमानजनक शब्द नहीं है, भगत सिंह को हम कोई गाली नहीं दे रहे, बल्कि उन्हें क्रांतिकारी बता रहे हैं। मगर अब मुश्किल यह हो गई है कि उस दौर के ‘आतंकवाद’ और आज के ‘आतंकवाद’ में घालमेल कर दिया गया है। हम ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ और आज के उन्मादी आतंकवादी के बीच के फर्क को नहीं समझ रहे।’’ प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ने आगे लिखा है कि -‘‘असल में, भगत सिंह उस रूप में आतंकवादी नहीं थे, जिस रूप में हम आज आतंकवाद को समझते हैं या कुछ राजनेता हमारे सामने परोसने की कोशिश कर रहे हैं। इस किताब में उनके लिए इसलिए यह शब्द इस्तेमाल किया गया, क्योंकि वह हिंसा का इस्तेमाल किया करते थे।’’
यहां उल्लेखनीय है कि प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी स्वयं मानते हैं कि उस दौर के आतंकवाद और आज के आतंकवाद में अन्तर है। उनके द्वारा लिखे गए ‘उन्मादी आतंकवाद’ और ‘क्रांतिकारी आतंकवाद’ के शब्दों के अन्तर को आज कैसे समझाया जा सकता है जबकि आज आतंकवाद का मात्र एक ही अर्थ है-अमानवीय नृशंसता। शब्दों के खेल और पूर्वाग्रह का धरातल हमारे उन शहीदों को लांछित कर रहा है जिनका एकमात्र उद्देश्य देश को स्वतंत्र कराना था। वे मात्र आतंक अर्थात् भय का संचार करने के लिए किसी को मारने में विश्वास नहीं रखते थे। उन शहीदों ने जिस रास्ते को अपनाया था उसके लिए बहुप्रचलित शब्द ‘गरमदल’ सटीक बैठता है। स्वतंत्रता सेनानी के भतीजे अभय सिंह संधू ने कहा कि ’’भगत सिंह को फांसी पर लटकाने वाले अंग्रेजों ने अपने फैसले में भी आतंक या आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। विवाद पैदा करने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों के इस तरह के शब्दों का उपयोग करना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।’’ आतंकवाद आज पूरी तरह से कलंकित शब्द बन चुका है। अतः किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में इसका उपयोग करते समय सावधानी बरतना जरूरी है। इस शब्द के साथ भले ही कोई भी विशेषण जोड़ दिया जाए किन्तु यह शब्द सामने आते ही नृशंसता के दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं। पूर्वाग्रह के चलते, शब्दों के चयन में त्रुटि की संभावना बढ़ जाती है जबकि इस विचलन से सतर्क रहना जरूरी है।
आज जब हम एक ओर वैश्विक बंधुत्व को अपना रहे हैं तो और भी जरूरी हो जाता है कि राष्ट्रवाद के प्रति अपने दृष्टिकोण को भी विस्तार दें। देश तथा देश भक्तों पर होने वाले विवादों पर पूर्णविराम लगाएं क्यों कि ऐसे विवादों से राष्ट्र का कोई भला होने वाला नहीं है। किसी राष्ट्र में भिन्न राजनीतिक विचारों का एक साथ सक्रिय होना राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सुखद हो सकता है किन्तु यदि ये वैचारिक मतभेद अपनी श्रेष्ठता साबित करने की अंधी होड़ में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अस्मिता पर उंगली उठाने लगें तो परिणाम दुखद ही रहते हैं। क्योंकि इससे वैश्विक पटल पर भी राष्ट्र की छवि खराब होती है।

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1 comment:

  1. apne- apne rastra me rastrabad failane me lge logo se kya vishbandhutv ka vichar falibhut ho payega?
    klpna kriye ydi ratsra na army na ho itne hathiya .....
    aap kahegi kaise ?
    ye vichar hi to failana hoga
    log rastravirodhi kahege
    bt samna krna hoga

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