Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस
एक बयान, एक टिप्पणी और भारतीय फेमिनिज़्म
- डॉ. शरद सिंह
इस बार यानी सन् 2017 के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और अंतर्राष्ट्रीय मातृदिवस पर अलग-अलग दो घटनाएं घटीं। दोनों में समानता यह थी कि दोनों ही भारतीय स्त्री के प्रति टिप्पणी के रूप में थीं। दोनों घटनाओं में से एक ने भारतीय नारीवादियों अर्थात् इंडियन फेमिनिस्ट्स का ध्यान खींचा तो दूसरी घटना ने शायद सिर्फ़ मेरा ध्यान खींचा क्यों कि यह दूसरी घटना सिर्फ़ मुझसे संबंधित थी। लेकिन ये दोनों घटनाएं भारतीय फेमिनिज़्म और उसके प्रति लोगों के विचारों का खुलासा करती हैं। दोनों ही अपने-अपने स्तर पर महत्वपूर्ण हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
बात यही तक रहती तो भी गनीमत थी, लेकिन मीरा राजपूत की एक सहपाठी ने अपना गुस्सा सोशल मीडिया पर प्रकट कर दिया। मीरा की एक क्लासमेट ने एक फेसबुक पोस्ट के माध्यम से अपने विचार इन शब्दो में रखे - ‘‘मीरा तुम्हारा इंटरव्यू देखने के बाद मुझे आज बहुत गुस्सा आया। मैंने कॉलेज में तुम्हारे ही बैच में तीन साल बिताए हैं। मैं आज पूरे आत्मविश्वास से कह सकती हूं कि नारीवाद को लेकर तुम्हारी सोच में बहुत खोट है। तुमने ऐसा किया ही क्या है खुद को किसी से नैतिक रूप से श्रेष्ठ बताकर किसी मुद्दे पर बात कर सको। दुनिया के बारे में तुम्हारा संकीर्ण नजरिया बहुत कम कह पाता है। और इसे भूलना नहीं चाहिए कि किस तरह वर्किंग वुमेन के बारे में तुम्हारा बयान हमें वास्तविक सशक्तिकरण से सालों पीछे ले जाता है, जिसके बारे में तुम्हें कुछ पता ही नहीं है। ढेर सारे गुस्से के साथ, एक जागरुक फेमिनिस्ट।’’
इस ‘‘एक जागरुक फेमिनिस्ट’’ ने विचारों के समुन्दर में ऊंची-ऊंची लहरें उठा दीं। यह प्रश्न एक बार फिर जाग उठा कि आखिर ‘फेमिनिज़्म’ है क्या, वह भी भारतीय संदर्भ में? तो जाहिर है कि पहले खंगालना होगा फेमिनिज़्म को। आज नारीवाद शब्द का उच्चारण करते ही कितने ही लोगों की भौंहें सिकुड जाती है । इसका कारण यह है कि ‘ नारीवाद ’ या ‘ नारीवादी ’ विचारधारा के बारे में आज-कल अच्छी-खासी भ्रान्तियां और ग़लतफहमियां फैली हुई हैं । ‘स्त्री-मुक्ति’ और ‘नारीवाद’ इन दो शब्दों को इतना तोड़ा-मरोड़ा गया है कि आज खुद कई स्त्रियां ‘नारीवादी’ कहलाने से झिझकने लगती हैं। जबकि ‘नारीवाद’ एक ऐसा विचार है जो पुरूष और स्त्री के बीच की असमानता को स्वीकार करते हुए नारी के सशक्तिकरण की प्रक्रिया को बौद्धिक एवं क्रियात्मक रूप से प्रस्तुत करता है । नारीवाद एक विचारधारा भी है और एक आंदोलन भी । 17वीं शताब्दी में जब सब से पहली बार ‘नारीवाद’ (फेमिनिज़्म) शब्द का प्रयोग किया गया, तब उसका एक विशेष अर्थ था, आज 2012 में उसका प्रयोग बिलकुल भिन्न अर्थ में होता है। नारीवाद के संबंध में कई भ्रान्तियां एवं ग़लत धारणाएं प्रचलित हैं। जैसे- नारी स्वतंत्रता का पक्ष लेने वाली महिलाएं पश्चिमी विचारों की पोषक होती हैं, वे उन्मुक्त यौन संबंधों में विश्वास रखती हैं या फिर वे देशज परम्पराओं एवं संस्कृति की घोर विरोधी होती हैं, आदि-आदि। ऐसी भ्रांतियां अक्षरशः सही नहीं हैं। अपवाद हर क्षेत्र में होते हैं और अतिवादी भी जिन्हें हम कट्टर विचारों वाला भी कह देते हैं। लेकिन वास्तविकता में फेमिनिज़्म वह वाद या विचार है जो स्त्री को समाज में पुरुषों के बराबर अधिकार दिलाने की पैरवी करता है। यह पुरुषविरोधी कदापि नहीं है।
मीरा राजपूत ने कामकाजी महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में घरेलू महिलाओं का पक्ष लेते हुए अपनी बात कह डाली। उनके बयान ऐसा नहीं था कि उसके विरोध में हंगामा खड़ा किया जाता। वे जिस आर्थिक तबके की हैं, वहां वे नारीवाद की पक्षधर कहलाने भर के लिए पैसे कमाएं कि यह कहां का तर्क है? यदि कोई स्त्री आर्थिक रूप से समर्थ है, सम्पन्न परिवार की है तो उसे अपनी स्वतंत्रता साबित करने के लिए नौकरी करना या व्यवसाय करना ही जरूरी नहीं है, और भी कई रास्ते हैं स्वयं की स्वतंत्रता की घोषणा करने के। कम से कम भारत जैसे देश में जहां बेरोजगारों की संख्या असंख्य होती जा रही है, मीरा राजपूत की टिप्पणी विशेष अर्थ रखती है। इस बात में भी विशेष अर्थ रखती है कि वर्तमान समाज में पारिवारिक संबंध तेजी से बिखर रहे हैं। न्यूक्लियर फैमिली की विचारधारा ने युवा पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच गहरी खाई खोद दी है। ऐसे में बच्चे के प्रति मां द्वारा विशेष ध्यान दिया जाता जरूरी हो गया है। अब यदि नानी या दादी ने नहीं तो कम से कम मां से तो बच्चों को संस्कार मिलने ही चाहिए। इससे स्त्री की स्वतंत्रता कहीं बाधित नहीं होती है बल्कि मां और बच्चे के बीच एक अच्छा रिश्ता कायम होता है।
मां रूपी स्त्री के प्रति हमारे दृष्टिकोण में भी गड़बड़ है। यह गड़बड़ी मुझे उस दूसरी घटना से महसूस हुई जो मातृ दिवस पर एक टिप्पणी के रूप में मेरे फेसबुक पर मुझे दिखाई दी। हुआ यह कि अंतर्राष्ट्रीय मातृ दिवस पर मैंने अपनी मां की तस्वीर पोस्ट की और उसमें उनका नाम लिखा ‘‘डॉ. विद्यावती’’। मेरे एक फेसबुक फ्रेंड ने टिप्पणी की कि ‘‘आपने अपनी मां के नाम के साथ उनकी उपाधि लिख कर उनका महत्व घटा दिया।’’ यह टिप्पणी पढ़ कर मैं चकरा गई। यदि मेरी मां ने पीएच. डी. की है और मैं उनके नाम के साथ ‘डॉक्टर’ शब्द का प्रयोग कर उनकी उपाधि लिख रही हूं तो इसमें उनका महत्व कम कैसे हो गया? मैंने इस टिप्पणी के निहितार्थ को तलाशने का बहुत प्रयास किया। इसी सिलसिले में मेरा ध्यान गया कि हम साहित्य के पन्नों पर मां के चरित्र को आज भी दीन, हीन, अपढ़, दिखाते हैं। यदि मां की महानता स्थापित करना ही होती है तो ‘‘पन्ना धाय’’ का चरित्र याद दिला देते हैं। कार्पोरेट , साईबर और स्पेस की दुनिया में स्वयं की साबित करने वाली मांओं के इस युग में हम उनकी योग्यताओं को कम कर के हम उनका सही आकलन नहीं कर कर सकेंगे। एक पढ़ी-लिखी स्कॉलर और अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए एक आईकॉन मां का रूप अपने साहित्य में क्यों नहीं दिखाते हैं जबकि हर युग में ऐसी मांएं हुई हैं और वर्तमान में तो ऐसी मांओं की कोई कमी नहीं हैं। फिर भी गोबर के उपले थापती मां, बेटे की राह ताकती दुखियारी मां और बेटे से कमतर जानकारी रखने वाली मां को ही साहित्य में अधिक स्थान दिया जाता है। कहीं यह साहित्य में पुरुषवादिता तो नहीं है?
चाहे मीरा राजपूत का बयान हो या मेरे फेसबुक पर टिप्पणी, जरूरी है इन दोनों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय फेमिनिज़्म का आकलन करना। कहीं हम फेमिनिज़्म की मूल भावना को पीछे छोड़ कर दोहरेपन के खेमे में तो नहीं जा पहुंचे हैं? बहस लम्बी है, कई किस्तों में जा सकती है लेकिन फिलहाल चिंतन के लिए यहीं अर्द्धविराम। वैसे यदि वूमेन एक्टीविस्ट कमला भसीन के शब्दों में देखें तो- “ पितृसत्तात्मक नियंत्रण व परिवार, काम की जगह व समाज में, भौतिक व वैचारिक स्तर पर औरतों के काम, प्रजनन और यौनिकता के दमन व शोषण के प्रति जागरूकता तथा स्त्रियों व पुरूषों द्वारा इन मौजूदा परिस्थितियों को बदलने की दिशा में जागरूक सक्रियता ही नारीवाद है।”
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