Dr (Miss) Sharad Singh |
कब तक चलेंगी पाक की नापाकियां
- डॉ. शरद सिंह
भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग हुए लगभग 70 साल हो चुके हैं फिर भी पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। सीमा पर हमलों की निरंतर घटनाओं के बाद भारतीय सेना के जवानों के शवों को क्षत-विक्षत करना उसके घिनौने इरादों को बयान करता है। जबकि सच तो यह है कि दुनिया के अधिकांश देश पाकिस्तान को आतंकवाद को पनाह देने वाला देश घोषित कर चुके हैं और स्वयं पाकिस्तान की आंतरिक दशा कोई अच्छी नहीं है, फिर भी मानो वह कोई सबक लेना ही नहीं चाहता है या फिर उकसाना चाहता है भारत को ताकि वह आतंकी देश की जगह पीड़ित का नकाब पहन सके।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
भारत विभाजन के सत्तर साल होना यह चाहिए था कि भारत और पाकिस्तान विकास के अपने-अपने सपनों को पूरा करते और विकसित देशों की पंक्ति में जा खड़े होते। मगर परिदृश्य इसके ठीक विपरीत है। पाकिस्तान आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक हर दिशा में पिछड़ा हुआ है। एक ब्राजीलियन कहावत है कि ‘‘हथियारों की खेती खून की नदियां बहाती है, पेट नहीं भरती।’’ यही दशा है पाकिस्तान की। साक्षरता का प्रतिशत औसत से भी कम है क्यों कि वहां की आधी आबादी यानी महिलाएं हर संभव तरीके से शिक्षा से दूर रखी जाती हैं। अगर यह सच नहीं होता तो मासूम मलाला को अपने सिर पर गोली नहीं खानी पड़ती। होना तो यही चाहिए था कि पाकिस्तान अपने नागरिकों की सुरक्षा और उनके बहुमुखी विकास के लिए समर्पित रहता लेकिन वहां के कतिपय राजनेता आतंकवादी गतिविधियों में अपनी शक्तिसम्पन्नता का आसरा ढूंढते हैं। यह माना जाता है कि विकास के मुद्दे को ले कर ही पाकिस्तान के जन्म की रूपरेखा तैयार की गई थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने यही कहा था कि पाकिस्तान के रूप में अलग देश में रहते हुए मुस्लिम समुदाय तेजी से विकास कर सकेगा। लेकिन संभवतः मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के भावी राजनेताओं की नीतियों का अनुमान नहीं लगा सके। भारत ने तो तरक्की की और भारत में रहने वाले मुस्लिम समुदाय ने भी तरक्की की लेकिन पाकिस्तान के नागरिकों के हाथ आया आतंकवाद और वैश्विक निंदा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही पाकिस्तान भारत से बैर रखने लगा था और कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से युद्ध के मैदान में भारत को ललकारता रहा। भले ही हर बार उसे मुंह की खानी पड़ी। इसीलिए जब उसे आभास हो गया कि सीधे युद्ध में भारत को पराजित करना या कश्मीर पर कब्जा करना संभव नहीं है, तब आतंकवाद को पाल-पोस कर छद्म युद्ध की राह पर चल पड़ा। एक ओर पाकिस्तान की भारत से दुश्मनी 70 साल बाद भी निरंतर जारी है वहीं दूसरी ओर, भारत में सरकारों के बदलने के साथ-साथ नीतियों में उतार-चढ़ाव आता रहा. पाकिस्तान के साथ दोस्ती के मकसद से नये-नये प्रयोग हुए, उदारता दिखाते हुए कई एकतरफा समझौते किए गए। लेकिन दुर्भाग्य से आज स्वतंत्र भारत की तीसरी पीढ़ी भी पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य करने के लिए जूझ रही है। भारत की ओर से हमेशा सद्भाव ही प्रकट किया गया। पाकिस्तान के गठन के समय नेहरू ने कहा था कि दोनों देशों में दोस्ताना रिश्ते रहेंगे, कोई वीजा-पासपोर्ट नहीं लगेगा। लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया और नेहरू की यह सोच असफल हो गयी।
इसी तरह से अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर डिक्लरेशन किया और उसके बाद लगा कि भारत-पाक के मसले पर बहुत से मसले हल हो जायेंगे, लेकिन हुआ कुछ नहीं। गुजराल डॉक्ट्रिन में भी सभी पड़ोसी देशों के साथ बातचीत और सहयोग की नीति अपनायी गयी, लेकिन वह डॉक्ट्रिन सफल नहीं हो पायी, जिसके चलते गुजराल की काफी आलोचना भी हुई थी। इसलिए इसे भी कूटनीतिक गलती कही गयी. यहां तक कि पाकिस्तान के गठन के समय नेहरू ने कहा था कि दोनों देशों में दोस्ताना रिश्ते रहेंगे, कोई वीजा-पासपोर्ट नहीं लगेगा। लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया और नेहरू की यह सोच असफल हो गयी। नरेंद्र मोदी जी ने भी प्रधानमंत्री बनते ही पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की पिछले दो साल में बहुत कोशिशें कीं। लेकिन, पाकिस्तान ने हमें पठानकोट, ताजपुर और उड़ी जैसे हमले दिए। कश्मीर की हालत अब और भी खराब हो गई है। हो सकता है कि लोग इसे प्रधानमंत्रा नरेन्द्र मोदी की कूटनीतिक गलती ठहराएं लेकिन यह कूटनीतिक गलती नहीं है। क्योंकि एक देश दूसरे देश से सद्व्यवहार की अपेक्षा ही रख सकता है, इसके लिए उसे प्रोत्साहित कर सकता है लेकिन उसे किसी प्रकार से बाध्य नहीं कर सकता है।
भारत और पाकिस्तान के बीच कई बार युद्ध छिड़ा। युद्ध की पहल पाकिस्तान ने की और जिसका शांति के साथ समापन भारत ने किया। अप्रैल, 1965 में गुजरात के कच्छ के रण के पास सीमा गश्ती दलों के बीच विवाद पैदा हो गया। अगस्त माह में स्थानीय कश्मीरियों के वेश में 26 हजार पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा में घुस आए। दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ गया और भारतीय सेना लाहौर स्थित अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुंच गयी। कई दिनों तक चले युद्ध के बाद 22 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की दखल के बाद युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी गयी। पूर्वी पाकिस्तान के मुद्दे पर पाकिस्तान ने 1971 का युद्ध किया। ढाका में पाकिस्तानी सेना की ज्यादतियों के खिलाफ भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी। इस युद्ध के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश के रूप में नया राष्ट्र बना। सन् 1972 में शिमला समझौता शांति बहाली के दिशा में एक सराहनीय प्रयास माना गया। वरना चाहता तो भारत बांगलादेश को अपने कब्जे में ले सकता था किन्तु उसने ऐसा नहीं किया क्यों कि भारतीय उपमहाद्वीप में शांति बनाए रखना उसका मून उद्देश्य था। फिर भी आदत से लाचार पाकिस्तान द्वारा सन् 1989 कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियां की गईं। सन् 1999 का कारगिल युद्ध ने भारत के मन-मस्तिष्क को झकझोर दिया।
विभाजन के बाद भारत की पहल पर कई ऐसे समझौते किए गए जो कार्यरूप में पाकिस्तान द्वारा भी अपनाए जाते तो आज वातावरण इतना कटु नहीं होता। उल्लेखनीय है कि भारत और पाकिस्तान, इन दोनों देशों के सैन्य नेतृत्व के बीच 27 जुलाई, 1949 को सीजफायर समझौता किया गया था। सन् 1950 में लियाकत-नेहरू पैक्ट या दिल्ली पैक्ट के तहत दोनों देशों के बीच शरणार्थी, संपत्ति, अल्पसंख्यकों के अधिकार के मुद्दों पर समझौता किया गया था। सिंधु जल-संधि (1960) : सिंधु और उसकी अन्य सहायक नदियों के जल बंटवारों को लेकर 19 सितंबर, 1960 को सिंधु जल-संधि समझौता सम्पन्न हुआ था और आशा की गई थी कि भविष्य में सिंधु नदी के पानी के विषय पर भविष्य में कोई विवाद नहीं होगा। पाकिस्तान की ओर से यह आशा झूठी साबित हुई। फिर सन् 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद समझौता हुआ था। सन् 1971 में हुए बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद विवादों खत्म करने के लिए शिमला में 2 जुलाई, 1972 को दोनों देश सहमत हो गये थे यह समझौता इतिहास में शिमला समझौता के नाम से विख्यात है। इसके बाद, 28 अगस्त, 1973 को भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच समझौता था दिल्ली समझौता हुआ था। सन् 1980 में भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बीच 21 दिसंबर, 1988 को नॉन-न्यूक्लियर एग्रीमेंट के नाम से समझौता हुआ था जिसे ‘‘इस्लामाबाद समझौता’’ कहा जाता है।
पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित कई देशों में भारत की नुमाइंदगी करनेवाले अनुभवी राजनयिक जेएन दीक्षित (1936-2005) ने अपनी किताब ‘भारत-पाक संबंध : युद्ध और शांति में’ में आजादी के बाद से कारगिल युद्ध तक के घटनाक्रमों और कूटनीतिक फैसलों का विश्लेषण किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि -‘‘भविष्य का अनुमान लगानेवाले एकमात्र राजनेता थे 1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष और भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद. उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि पाकिस्तान का निर्माण भारत के मुसलमानों को नुकसान पहुंचायेगा और सीमा के दोनों ओर उनकी इसलामी पहचान के बारे में संकट उत्पन्न करेगा। उन्हें पूर्वाभास हो गया था कि जातीय-भाषायी और कट्टरवादी शक्तियां भारत और पाकिस्तान, खासकर पाकिस्तान को प्रभावित करेंगी। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि भारत एवं पाकिस्तान एक दीर्घकालीन शत्रुतापूर्ण संबंधों के रास्ते पर चलेंगे।’’
भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग हुए लगभग 70 साल हो चुके हैं फिर भी पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। सीमा पर हमलों की निरंतर घटनाओं के बाद भारतीय सेना के जवानों के शवों को क्षत-विक्षत करना उसके घिनौने इरादों को बयान करता है। जबकि सच तो यह है कि दुनिया के अधिकांश देश पाकिस्तान को आतंकवाद को पनाह देने वाला देश घोषित कर चुके हैं और स्वयं पाकिस्तान की आंतरिक दशा कोई अच्छी नहीं है, फिर भी मानो वह कोई सबक लेना ही नहीं चाहता है या फिर उकसाना चाहता है भारत को ताकि वह आतंकी देश की जगह पीड़ित का नकाब पहन सके। कभी किसी निर्दोष को जासूस बता कर बंदी बना लेना और उसे अमानवीय ढंग से प्रताड़ित करना तो कभी सेना के जवानों पर हमले कर के उनके शवों का भी अपमान करना पाकिस्तान की गोया आदत बनती जा रही है। उसकी इस आदत को ध्यान में रखते हुए भारत को कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे। सिर्फ़ यह कहना कि अब भारत बर्दाश्त नहीं करेगा, र्प्याप्त नहीं है। पाकिस्तान की नापाकियों पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी नहीं है कि युद्ध का बिगुल बजाया जाए। उसके विरुद्ध आर्थिक नाकेबंदी और वैश्विक दबाव भी बनाया जा सकता है जो एक शांतिपूर्ण लेकिन असरदार रास्ता होगा।
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