राजनीति की अभद्र भाषा के निशाने पर महिलाएं
- डाॅ शरद सिंह
जब दो उजड्ड लोग आपस में लड़ते हैं तो वे जल्दी ही गाली-गलौज पर उतर आते हैं। ऐसे समय मां-बहन की गाली आम बात है। वे गाली के अर्थ को नहीं जानते क्योंकि वे उजड्ड हैं। लेकिन इन दिनों मध्यप्रदेश के उपचुनावी माहौल में जनप्रतिनिधियों द्वारा जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जा रहा है वह सोचने पर मज़बूर करता है कि इन जनप्रतिनिधियों को किस खांचे में रखा जाए- सभ्रांत या उजड्ड? किसी महिला के सम्मान को निशाना बनाने के बाद कोई तर्क मायने नहीं रखता है कि वह किस निहितार्थ कहा गया। समाज में हर महिला को सम्मान पाने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी कार्य से जुड़ी हो।
मां ने सुबह अख़बार उठाया और पहले पेज की एकाध ख़बर पढ़ कर अख़बार बंद कर के टेबल पर एक ओर सरका दिया। वे मानो अख़बार की ओर देखना भी नहीं चाह रही थीं। मैं और मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह भी वहीं दूसरी मेज पर दूसरा अख़बार ले कर बैठे थे। दीदी का ही ध्यान पहले गया मां की ओर। अख़बार लगभग बिना पढ़े ही एक ओर सरका देना हमें अज़ीब लगा। मेरी मां डाॅ विद्यावती ‘मालविका’ जो स्वयं एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं, बड़े चाव से अख़बार पढ़ती हैं। वे टीवी बहुत कम देखती हैं लेकिन सुबह अख़बार ज़रूर पढ़ती हैं। कोरोनाकाल की शुरुआत में यानी लाॅकडाउन 1.0 के दौरान उन्हीें के कहने पर हमें अख़बार लेना बंद करना पड़ा था लेकिन फिर उन्हीं ने कहा कि अख़बार पढ़े बिना पता ही नहीं चलता है कि दुनिया में क्या हो रहा है। यह बात मैं इसलिए बता रही हूं कि मेरी मां अख़बारों या यूं कहिए कि समाचारों में कितनी अधिक रुचि रखती हैं। उनकी आयु 90 से ऊपर हो चली है लेकिन अपनी क्षमता के अनुरुप पठन-पाठन करती रहती हैं। उन्हें देख कर मैंने हमेशा महसूस किया है कि जीवन का इतना लम्बा अनुभव व्यक्ति में धीरे-धीरे वैचारिक तटस्थता ला देता है। मेरी मां न तो कांग्रेस के पक्ष में रहती हैं और न भाजपा के पक्ष में। जो अच्छे काम करता है उसकी तारीफ़ करती हैं और महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ा देख कर खुश होती हैं।
हमने मां से पूछा कि वे अख़बार क्यों नहीं पढ़ रही हैं? तबीयत तो ठीक है न? इस पर उन्होंने यह उत्तर दिया-‘‘कितनी अभद्र हो गई है हमारे यहां की राजनीति। महिलाओं का सम्मान करना ही भूल गए हैं।’’ तब हमें मामला समझ में आया। उस समय तक हम लोग भी पूर्वमुख्यमंत्री कमलनाथ की टिप्पणी पढ़ चुके थे। एक ऐसी महिला जिसने गांधीयुग देखा हो उनका ऐसी टिप्पणी पढ़ कर आहत होना स्वाभाविक था। अख़बार कमलनाथ की टिप्पणी से गरमाए हुए माहौल से भरा हुआ था।
माहौल तो गर्म होना ही था। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमल नाथ ने वह कह दिया जो उन्हें नहीं कहना चाहिए था। भाजपा से उम्मीदवार इमरती देवी के लिए ‘आईटम’ शब्द का प्रयोग कर के कमलनाथ ने सुर्खियां भले ही बटोर ली हों लेकिन चुनाव के संवेदनशील वातावरण में अपनी ही पार्टी पर अप्रत्यक्ष चोट कर बैठे। इसके विरोध में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दो घंटे का मौन रखा और कांग्रेस की महिलाओं के प्रति असम्मान की भावना पर विरोध जताया। बात यहीं तक थमी नहीं रही। कमलनाथ ने ‘आईटम’ शब्द को सही ठहराने के लिए जो तर्क दिए वह गैर राजनीतिक व्यक्तियों के गले भी नहीं उतरे। किसी महिला को ‘आईटम’ कहा जाना अभद्रता की श्रेणी में ही आएगा। भले ही वह महिला राजनीति से जुड़ी हो।
मंा इमरती देवी को सिर्फ़ समाचारों से ही जानती हैं। व्यक्तिगततौर उन्हें इमरती देवी से कोेई लेना-देना नहीं है लेकिन वे पहले भी इसी प्रकार व्यथित हो चुकी हैं जब जनप्रतिनिधयों ने राजनीति में मौजूद महिलाओं के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया। वे तब भी दुखी हुई थीं जब एक महिला राजनेता को ‘‘दारूवाली बाई’’ कहा गया था। वे हेमा मालिनी और जयाप्रदा के लिए भी दुखी हुई थीं जब उन्हें ‘‘नचनिया’’ कहा गया था और वे तब भी दुखी होती हैं जब सोनिया गांधी को अपशब्द कहे जाते हैं। कमलनाथ की टिप्पणी के बाद वे फिर क्षुब्ध हो उठीं जब उन्होंने बिसाहूलाल सिंह की टिप्पणी पढ ली। शिवराज सिंह चौहान सरकार के मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार की पत्नी को ‘रखैल’ कह दिया। मंा की यही प्रतिक्रिया थी कि ‘‘अब और कितना गिरेंगे ये लोग?’’
उनके इस प्रश्न का उत्तर हम दोनों बहनों के पास नहीं था। हम अनुत्तरित रह गए। वर्तमान राजनीतिक माहौल पर उनकी क्षुब्धता देख कर हमें एकबारगी लगा कि हम एक बार फिर अख़बार मंगाना बंद कर दें। फिर दूसरे ही पल विचार आया कि यह कटुसत्य उनसे छिपाने से क्या होगा? अख़बार में बहुत-सी, सकारात्मक बातें होती हैं, उनसे मां को वंचित करना ठीक नहीं है।
वैसे मां का दुखी होना स्वाभाविक है। हर महिला ऐसी बातें पढ़-सुन कर दुखी होती है। राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। चाहे मंच हो या टेलीविज़न पर डिबेट का कार्यक्रम हो, चुभती हुई निर्लज्ज भाषा का प्रयोग आम हो गया है। भारतीय राजनीति में आज किसी भी पार्टी के लिए यह नहीं कहा जा सकता है इस पार्टी ने भाषा की गरिमा को बनाए रखा है। समय-समय पर और चुनाव के समय देश की सभी पार्टियों ने भाषा की गिरावट के नए-नए कीर्तिमान रचे हैं। राजनीति में मौजूद महिलाएं सबसे पहले इसका शिकार बनती हैं। उन पर अभद्र बोल बोलने वाले प्रतिद्वंद्वी उस समय यह भूल जाते हैं कि वह महिला उस समाज का अभिन्न हिस्सा है जिसमें वह स्वयं रहता है। सवाल यह भी है कि क्या भारतीय राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि वोट की खातिर नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रख दिया जाए? देश की राजनीति अगर इतनी गंदी हो गई तो लोकतंत्र की बात करने वाले सफेदपोश नेताओं को व्यक्तिगत छींटाकशी करने की स्वतंत्रता किस ने दे दी? इसके लिए उत्तरदायी कौन है, आम जनता या फिर वे शीर्ष नेता जिन पर दायित्व है अपने दल के नेताओं को दल के सिद्धांतों पर चलाने का।
मध्य प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव के लिए चल रहे प्रचार अभियान के दौरान बयानों का स्तर गिरता ही जा रहा है। पहले पूर्वमुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक महिलानेत्री को ‘‘आईटम’’ कहा और अपने इस शब्द को शालीन ठहराने के लिए तर्क दे डाले। फिर मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार की पत्नी को ‘रखैल’ कहा जिसका वीडियो सोशल मीडिया में जारी हो गया। वीडियो में बिसाहूलाल सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार विश्वनाथ सिंह के नामांकन में दिए गए ब्यौरे पर टिप्पणी करते हुए कह रहे थे कि ‘‘विश्वनाथ ने अपनी पहली पत्नी का नहीं, बल्कि रखैल का ब्यौरा दिया है।’’
कमलनाथ द्वारा फैलाए गए रायते को समेटने में जुटी कांग्रेस को एक धमाकेदार मुद्दा हाथ लग गया। कांग्रेस प्रवक्ता सैयद जाफर ने ट्वीट कर इस पर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि ‘‘इसे कहते हैं महिला का अपमान। भाजपा के मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी की पत्नी को कहा रखैल, क्या महिलाओं के लिए ऐसे ही शब्दों का इस्तेमाल करती है भाजपा? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान तत्काल इस पर संज्ञान लेते हुए मंत्री को पद से हटाएं और प्रदेश की महिलाओं से माफी मांगें।’’ उल्लेखनीय है कि बिसाहूलाल सिंह उन नेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा था और कमलनाथ की सरकार गिराई थी। बिसाहूलाल अनूपपुर से विधानसभा उपचुनाव लड़ रहे हैं।
सच तो यह है कि न तो ‘‘आईटम’’ शब्द उचित है और न ‘‘रखैल’’। ये दोनों ही शब्द महिला के सम्मान को चोट पहुंचाने वाले हैं। क्या महिला कोई वस्तु है जिसे आईटम कहा जाए? याद आता है कि इसी तरह कांग्रेस के एक और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने अपनी ही पार्टी की शालीन और प्रबुद्ध महिला सांसद को ‘‘टंचमाल’’ कह दिया था। दिग्विजय सिंह ने मंदसौर में एक जनसभा को संबोधित करते वक्त अपनी ही पार्टी की एक महिला सांसद को ‘‘100 टंच माल’’ कह दिया था। बयान पर बवाल हुआ तो, दिग्विजय ने मानहानि का केस करने की चेतावनी देते हुए कहा कि उनकी बात का गलत मतलब निकाला गया। दिग्विजय सिंह ने यह बयान जुलाई 2013 में मंदसौर में दिया था। मंदसौर में एक जनसभा को संबोधित करते वक्त वह इलाके की सांसद मीनाक्षी नटराजन पर ‘‘100 प्रतिशत टंच माल’’ की टिप्पणी कर डाली थी। सभा में दिग्विजय सिंह ने कहा था कि ‘‘मैं अंत में आपसे इतना ही कहूंगा मीनाक्षी नटराजन आपकी लोकसभा की सदस्य हैं। गांधीवादी हैं, सरल हैं, ईमानदार हैं। सबके पास जाती हैं, गांव-गांव जाती हैं। मैं अभी कल से इनके इलाके में देख रहा हूं। मुझे भी 40-42 साल का अनुभव है। मैं भी पुराना जौहरी हूं। राजनीतिज्ञों को थोड़ी सी बात में पता चल जाता है कि कौन फर्जी है और कौन सही है। यह 100 प्रतिशत टंच माल हैं और गरीबों की लड़ाई लड़ती हैं। मंदसौर जैसे जिले की गुटबाजी में नहीं पड़तीं, सबको साथ लेकर चलती हैं। दिल्ली में भी इन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। लोकसभा के अंदर भी और पार्टी में भी। सोनिया और राहुल इनको बहुत मानते हैं। साथियो ये आपकी संसद सदस्य हैं, इनको पूरा सपोर्ट करिए, समर्थन करिए।’’
क्या महिलाएं ‘‘माल’’ हैं? क्या महिलाएं ‘‘आईटम’’ हैं? क्या विवाहित महिलाएं ‘‘रखैल’’ हैं? जिम्मेदार और प्रतिष्ठित राजनेताओं द्वारा जब इस तरह की महिला विरोधी टिप्पणी की जाती है तो आश्चर्य होता है राजनीतिक चरित्र की गिरावट पर। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर के लिए ‘‘50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’’ शब्द का इस्तेमाल किया था। बीजेपी के नेताओं ने सोनिया गांधी के लिए ‘‘जर्सी गाय’’ जैसे घोर आपत्तिजनक बयान तक दिए हैं। कांग्रेस, बीजेपी के अलावा भी तमाम पार्टियों के नेताओं ने समय-समय पर महिलाओं के खिलाफ विवादित बयान दिए हैं। गोया राजनीति को विकास के मूलमुद्दों से भटकाए रखने के लिए महिलाओं के सम्मान पर भी चोट पहुंचानी पड़े तो वह भी सही माना जाए। यही तो चाहते हैं हमारे आज के जनप्रतिनिधि। लिहाज़ा अब समय है इस पर विचार करने का कि हम मतदाता एवं आमनागरिक क्या चाहते हैं? शायद मतदाताओं के सामने दुविधा का पहाड़ खड़ा है। जब सभी पक्ष अभद्रता पर उतारू हों तो आमनागरिक नहीं बल्कि चुनाव आयोग और सुप्रीमकोर्ट की तत्काल लगाम कस सकती है। वरना राजनीति में भाषाई गिरावट का यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा।
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(दैनिक सागर दिनकर में 21.10.2020 को प्रकाशित)
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मैं आपके विचारों से पूर्णरूपेण सहमत हूँ माननीया शरद जी । यह और कुछ नहीं, हमारा प्रतिनिधित्व करने वाले आदरणीयों के संस्कारों के नमूने हैं । लेकिन न्यायालय अथवा चुनाव आयोग से इस अभद्रता पर अंकुश लगाने की अपेक्षा करना व्यर्थ है । उन्हें कुछ करना होता तो वे बहुत पहले ही कर देते जब वे स्वायत्त थे । अब क्या करेंगे जब वे सरकार की कठपुतलियां बन चुके हैं ? मतदान करने वाली जनता को ही अपनी मानसिकता को परिवर्तित करना होगा, स्वयं को संस्कारी बनाकर इन संस्कारहीन निर्लज्जों को मताधिकार की शक्ति से उचित पाठ पढ़ाना होगा । सच्चा एवं स्थायी परिवर्तन जनता ही ला सकती है, पथभ्रष्ट नेता नहीं ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जितेन्द्र माथुर जी!!!
ReplyDeleteराजनीति में भाषाई गिरावट को देख कर बहुत क्षोभ होता है। जनहित के मूल मुद्दों से भटकाने के लिए यह पैंतरा निरंतर निर्लज्जता की ओर बढ़ रहा है। इससे भी बड़े दुख की बात है कि साहित्य में शील-अश्लील तलाशने वाले बुद्धिजीवी इस मुद्दे पर लामबंद नहीं होते। अब यही समसामयिक यथार्थ साहित्य में आएगा तो लेखक को ही कोसा जाएगा। मानसिक प्रदूषण को दूर करना भी तो ज़रूरी है।
बस, आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी पर संवाद करने का मन किया।
पुनः धन्यवाद !!!
मैं आपके इस विचार से भी सहमत हूँ माननीया शरद जी । बुद्धिजीवियों को अपने इस महती कर्तव्य से मुख नहीं मोड़ना चाहिए ।
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