Wednesday, May 1, 2019

चर्चा प्लस ... 1 मई - अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष : चुनावों के बीच मजदूरों के मुद्दे - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

1 मई - अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष :
चुनावों के बीच मजदूरों के मुद्दे
- डॉ. शरद सिंह


इस बार के लोकसभा चुनावों के दौरान जिस तरह जाति, धर्म और वंशावलियों पर जंग छिड़ी हुई है उसके बीच मजदूरों के मुद्दे कहीं खो से गए हैं। गोया मजदूरों के बारे में चिन्ता करने की कतई जरूरत नहीं है। जबकि देश में अब कृषकों से भी बड़ी मजदूरों की संख्या हो चली है। इनमें वे कृषक मजदूर भी शामिल हैं जो माईग्रेट कर के एक राज्य से दूसरे राज्य मजदूरी करने जाते हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार और अब बुंदेलखंड के मजदूरों की मांग सबसे अधिक होती है। वहीं इनका मेहनताना सबसे कम होता है।


सन् 2011 को मुझे कटनी से सागर आना था। नियत समय पर स्टेशन पहुंची तो वहां देखा कि छत्तीसगढ़ी मजदूर परिवारों से प्लेटफॉर्म अटा पड़ा था। बौखलाई सी स्त्रियां, झुंझलाए से पुरुष और कुपोषण के शिकार बच्चे। मैंने अपनी आंखों से उन बच्चों को मिट्टी के बरतन में सहेज कर रखे बासी भात पर झपटते देखा। उस पल मन में यही विचार आया कि क्या यही है मेरा भारत? मजदूरों का वह समूह अकेले नहीं था। उनके साथ उनका एक कथित ठेकेदार था। उसी ने उन्हें रेल में ले जाने की व्यवस्था की थी। वह बीच-बीच में आ कर समझा रहा था कि उनमें से कितने लोगों को किस डिब्बे में चढ़ना है। उन मजदूर परिवारों के चेहरों पर साफ-साफ दिखाई दे रहा था कि वे अपने अनिश्चित भविष्य को ले कर किस तरह भयभीत हैं। 
Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper चर्चा प्लस ... 1 मई - अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष : चुनावों के बीच मजदूरों के मुद्दे - डॉ. शरद सिंह

लगभग यही दृश्य मुझे सन् 2017 में खजुराहो रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला। अंतर मात्र इतना था कि कटनी रेलवे स्टेशन में मैंने छत्तीसगढ़ी मजदूरों को देखा था जो पोटली में मिट्टी के बरतनों में बासी भात बांध कर पलायन कर रहे थे। जबकि खजुराहो रेलवेस्टेशन पर मैंने जिन मजदूरों को देखा वे बुंदेलखंड के थे और उनकी पोटलियों में बाजरे की मोटी रोटियां बंधी थीं। इन मजदूरों के साथ भी उनके बीवी-बच्चे थे। वे दिल्ली जा रहे थे। इस आशा से कि उस महानगर में उन्हें कोई न कोई काम मिल जाएगा। जिससे उनके बीवी-बच्चों का तो पेट भरेगा ही और बचा हुआ पैसा वे अपने बूढ़े मां-बाप के लिए अपने गांव भेज सकेंगें। एक छलावे भरा स्वप्न उन्हें ज़िन्दगी के रेगिस्तान की ओर ले जा रहा था।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैंने जिससे बातचीत की थी, उसका नाम था भगत पटेल। उसने मुझे बताया था कि लगातार सूखे की मार ने उसकी खेतीबाड़ी सुखा दी। सरकारी और गैर सरकारी कर्जा चुकाने में उसका ख्ेत और घर दोनों बिक गए। अब परिवार दाने-दाने को मोहताज हो चुका था। वह तो उसके एक दोस्त ने उसे बताया कि दिल्ली में वह उसे मजदूरी दिला सकता है, बस इसीलिए भगत पटेल अपने बीवी-बच्चों सहित दिल्ली के लिए निकल पड़ा। दिल्ली में कहां जाना है, उसे पता नहीं था। बस, एक विश्वास था अपने उस दोस्त के प्रति। यदि वह दोस्त सही निकला तो कुछ जुगाड़ हो जाएगा, अन्यथा भगवान मालिक है!
सूखे के प्रकोप, लचर जल प्रबंधन और जल की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड के सैकड़ों गांवों से प्रतिवर्ष अनेक ग्रामीण अपने-अपने गांव छोड़ कर दूसरे राज्यों तथा महानगरों की ओर पलायन करने को विवश हो जाते हैं। असंगठित, अप्रशिक्षित मजदूरों के रूप में काम करने वाले इन मजदूरों का जम कर आर्थिक शोषण होता हैं। यह स्थिति तब और अधिक भयावह हो जाती है जब उन्हें कर्जे के बदले अपना घरबार बेच कर अपने बीवी-बच्चों समेत गांवों से पलायन करना पड़ता है। गरमी का मौसम आते ही गांवों में पानी की कमी विकराल रूप धारण कर लेती है। कुंआ, तालाब, पोखर और हैंडपंप सब सूख जाते हैं। अंधाधुंध खनन से यहां की नदियां भी सूखती जा रही हैं। बिना पानी के कोई किसान खेती कैसे कर सकता है? बिना पानी के सब्जियों भी नहीं उगाई जा सकती हैं। खेत और बागीचों के काम बंद हो जाने पर पेट भरने के लिए एकमात्र रास्ता बचता है मजदूरी का। हल चलाने वाले हाथ गिट्टियां ढोने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अभावग्रस्त बुंदेलखंड से हर साल रोजी रोटी की तलाश में हजारों परिवार परदेश जाते हैं। मगर रोटी की खातिर गरीबों का यह पलायन राजनीतिक दलों के एजेंडे में दिखाई नहीं देता है। बुंदेलखंड का क्षेत्र मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में विस्तृत है। इस क्षेत्र में कुल आठ संसदीय क्षेत्र आते हैं। टीकमगढ़, खजुराहो, दमोह और सागर जैसी लोकसभा सीटें मध्य प्रदेश में आती हैं, तो झांसी, जालौन, हमीरपुर और बांदा उत्तर प्रदेश के हिस्से में हैं। इस क्षेत्र में आय का एक मात्र साधन खेती है। यहां कोई बड़ा उद्योग-धंधा नहीं है। दरअसल, खेती भी कुछ खास वर्गो के पास ही है और बहुसंख्यक वे लोग हैं, जो मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं। जब सूखा पड़ता है तो बहुसंख्यक वर्ग दाने-दाने को मोहताज हो जाता है। इन्हीं स्थितियों में इस क्षेत्र से लोग पलायन करते हैं।
बुंदेलखंड के ही चित्रकूट जिले की मंदाकिनी, गुन्ता, बरदहा, बानगंगा सूखकर नाली की तरह कहने लगती है। बांदा की रंज, बागेन, केन जैसी बड़ी नदियों की धार जगह जगह से टूट गई है। महोबा की चंद्रावल, बिरमा, अर्जुन, उर्मिल जैसी नदियों में दूर-दूर तक पानी नहीं नजर आ रहा है। बुंदेलखंड की पहज, धसान, सौर, नारायणी जैसी कई नदियां वैसे ही मृतप्राय हो चुकी हैं। सागर की बेबस नदी अपनी बेबसी पर आंसू बहाती रहती है। अवैध रेत खनन के कारण अब यमुना और बेतवा जैसी नदियों के पाट भी सूखने लगे हैं। नदियों के तटवर्ती गांव पांच-पांच किमी की दूरी तय करके किसी तरह अपनी जान बचा रहे हैं। जिन गांवों के आस-पास कहीं भी पानी का इंतजाम नहीं है उन गांवों के लोग पानी और रोटी के लिए महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बुंदेलखंड के विभिन्न स्वयंसेवी संगठनो की सर्वे रिपोर्ट और सरकार के पल्स पोलियो अभियान के आंकड़ों पर गौर करें तो यूपी के हिस्से के बुंदेलखंड की करीब एक करोड़ की आबादी में पिछले एक दशक के दौरान करीब 45 लाख लोग यहां से पलायन कर चुके हैं। कुछ साल पहले तक लोग अपने भूखे बच्चों की भूख मिटाने के लिए रोजी-रोटी की तलाश मे परदेश कमाने जाते थे। अब भूख और प्यास दोनों से बचने के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, मंबई, कोलकाता जैसे महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार बुंदेलखंड छोड़कर जाने वालों का प्रतिशत इसी जून माह में 50 फीसदी का आंकड़ा पार कर सकता है।
हमारे राजनीतिक दलों के अधिकांश बड़बोले नेताओं को जाति, धर्म और वंशावलियों से फुर्सत मिले तो वे इन मजदूरों की दीन दशा पर दृष्टिपात करें। बुनियादी मुद्दों से मुंहमोड़ कर लड़ा जाने वाला चुनाव कितना टिकाऊ होगा यह तो समय की बताएगा किन्तु तब तक पलयन के लिए विवश कृषक से श्रमिक बने दीन-हीन इंसानों की चिंता भी करनी जरूरी है।
बुंदेलखंड के बांदा जिले की जनसंख्या लगभग 17,99,541 है। पल्स पोलियो अभियान के तहत वर्ष 2017 में पाया गया कि जिले के 18,721 मकानों में ताले बंद है। लगभग 38,783 घरों में सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं। बाकी सब परदेश कमाने चले गए हैं। बांदा में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार बुंदेलखंड के गांवों, कस्बों शहरों से करीब 5 लाख लोग परदेश में रोजी रोटी कमा रहे हैं। इसी तरह चित्रकूट जिले की जनसंख्या लगभग 9,90,626 है। जिसमें लगभग 4.5 लाख लोग कमाने के लिए दिल्ली, लखनऊ, सूरत, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में जा चुके हैं। महोबा जिले के 8,78,055 की आबादी में करीब 4 लाख लोग परदेश कमाने चले गए हैं। हमीरपुर के 11,04,021 में करीब 5 लाख लोग जिले से बाहर रहकर मजदूरी कर रहे हैं। जालौन जिले की 16,70,718 की आबादी में 7 लाख से ज्यादा लोग विभिन्न शहरों महानगरों मे रोजी रोटी कमा रहे हैं। ललितपुर के 12,18,002 और झांसी जिले के 20,00,755 लोगों की आबादी में करीब 14 लाख लोग जिले से बाहर रहकर अपने बच्चों का भरण पोषण कर रहे हैं। बुंदेलखंड विकास परिषद के अनुसार रोजगार और पानी की समस्या के कारण बुंदेलखंड के करीब 40 लाख लोग लखनऊ, दिल्ली, रायबरेली, मुंबई, सूरत, चंडीगढ़, भोपाल, हरियाणा और गोवा में मजदूरी कर रहे हैं। हर साल यह संख्या थमने के बजाय बढ़ती जा रही है।
ग्रामीण पलायन रोकने के लिए सरकार अनेक विकास योजनाएं उपेक्षित वर्गों के लिए चला रही है किन्तु जमीनी सच्चाई यही है कि यिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण उन्हें योजनाओं की सही जानकारी ही नहीं है। महिलाओं के लिए भी स्वयंसहायता समूहों के जरिए विभिन्न व्यवसाय चलाने, स्वरोजगार प्रशिक्षण, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजन आदि अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं किन्तु इनमें भी लगभग वही स्थिति है। जो रास्ता दिखाते हैं वहीं उन्हें लूटने लगते हैं। सरकार ने इस दिशा में यह कदम भी उठाया कि सहायता राशि सीधे बैंकों में जाए किन्तु बैंकों का डिजिटल हो जाना कम्प्यूटर का ज्ञान न रखने वालों के लिए मुसीबत बनता रहता है। एटीएम पर होने वाली धोखाधड़ी की घटनाएं आए दिन प्रकाश में आती रहती हैं। कृषकों का मजदूरों के रूप में पलायन करने की समस्या के आकलनकर्त्ताओं के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत कृषि के स्थान पर पूंजी आधारित व अधिक आय प्रदान करने वाली खेती को प्रोत्साहन दिया जाए जिससे किसानों के साथ-साथ सीमांत किसानों और मजदूरों को भी ज्यादा से ज्यादा लाभ हो सके। सिंचाई सुविधा, जल प्रबन्ध इत्यादि के माध्यम से कृषि भूमि क्षेत्र का विस्तार किया जाए जिससे न केवल उत्पादन में वृद्धि होगी साथ ही आय में भी वृद्धि होगी और किसानों में आत्मविश्वास व स्वाभिमान जागृत होगा जिससे ग्रामीण पलायन रुकेगा।
असंगठित एवं अकुशल मजदूरों की भीड़ का दबाव अर्थव्यवस्था पर पड़ने और इन मजदूरों को शोषण से बचाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण से सोचना होगा और मजबूत कदम उठाने होंगे। जिस प्रजा पर शासन करने के लिए चुनाव लड़े जा रहे हैं, उनकी भलाई के बारे में सोचना प्रत्येक उम्मीदवार की जिम्मेदारी है, चाहे वह चुनाव में जीते अथवा हारे।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 01.05.2018)
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2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 01/05/2019 की बुलेटिन, " १ मई - मजदूर दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार!

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  2. बेहतरीन और सटीक प्रस्तुति आदरणीया

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