Friday, April 26, 2019

बुंदेलखंड के लोकनृत्यों पर अपसंस्कृति का संकट - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
आज
26.04.2019 को "नवभारत" में मेरा लेख "बुंदेलखंड के लोकनृत्यों पर अपसंस्कृति का संकट" प्रकशित हुआ है। इसे आप भी पढ़िए ... हार्दिक धन्यवाद नवभारत !!!

बुंदेलखंड के लोकनृत्यों पर अपसंस्कृति का संकट
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
आज समूचे विश्व में नृत्य को ‘हीलिंग थेरेपी’ माना जाता है। सन् 1982 को यूनेस्को की अंतर्राष्ट्रीय नृत्य समिति ने 29 अप्रैल की तिथि ‘नृत्य दिवस’ के रूप में घोषित की थी। इस दिन जीन जार्ज नावेरे का जनम हुआ था जो एक महान नर्त्तक थे। अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस को पूरे विश्व में मनाने का उद्देश्य जनसाधारण को उसकी तमाम व्यस्तताओं के बीच नृत्य विधा से जोड़े रख कर उसकी संवेदनाओं को जगाए रखना तथा उसके भीतर मौजूद कलात्मकता को जीवित रखना है। हमारे देश में नृत्यकला देवताओं द्वारा प्रदत्त मानी जाती है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार देवताओं के अनुरोध पर ब्रह्माजी ने नृत्यवेद तैयार किया, तभी से नृत्य की उत्पत्ति संसार में मानी जाती है। इस नृत्यवेद में सामवेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद व ऋग्वेद से कई तत्वों को शामिल किया गया। जब नृत्यवेद की रचना पूरी हो गई। इसके रचनाकार भरत मुनि थे। नृत्य के संबंध में चली आ रही भारतीय एवं वैश्विक परंपाओं पर गर्व करने के साथ ही यह देखना भी जरूरी है कि लोकनृत्यों पर किस तरह अपसंस्कृति की काली छाया पड़ती जा रही है। लोकनृत्यों का मूल सौंदर्य नष्ट होता जा रहा है और थर्ड ग्रेड की फिल्मों के तर्ज़ का फूहड़पन उसकी जगह लेता जा रहा है। 
बुंदेलखंड के लोकनृत्यों पर अपसंस्कृति का संकट - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित   An article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat newspaper
     बुंदेलखंड में लोकनृत्य के रूप में नृत्य परम्परा आदिकाल से चली आ रही है। यहां विभिन्न प्रकार के लोक नृत्य किये जाते हैं, जिनमें बधाई नृत्य, कानड़ा नृत्य, बरेदी नृत्य, ढिमरयाई नृत्य, नौरता नृत्य, दुलदुल घोड़ी और राई प्रमुख हैं। यहां कुछ प्रमुख नृत्यों की चर्चा की जा रही है। दुर्भाग्यवश इन नृत्यों की मौलिकता पर भी ‘डीजे’ और ‘बारडांस’ प्रभावी होने लगा है। फिर भी अभी बहुत सारी मौलिकता शेष है जिसे बचाए रखना होगा।
राई नृत्य : राई नृत्य बुंदेलखंड का एक लोकप्रिय नृत्य है यह नृत्य उत्सवों जैसे विवाह, पुत्रजन्म आदि के अवसर पर किया जाता है। अशोकनगर जिले के करीला मेले में राई नृत्य का आयोजन सामूहिक रूप से किया जाता है। यहां पर लोग अपनी मन्नत पूर्ण होने पर देवी के मंदिर के समक्ष लगे मेले में राई नृत्य कराते हैं। यह मुख्यरूप से बेड़िया समाज की स्त्रियों अर्थात् बेड़िनों द्वारा किया जाता है।
बधाई नृत्य : बुंदेलखंड क्षेत्र में जन्म, विवाह और त्योहारों के अवसरों पर ‘बधाईं’ लोकप्रिय है। इसमें संगीत वाद्ययंत्र की धुनों पर पुरुष और महिलाएं सभी, ज़ोर-शोर से नृत्य करते हैं। नर्तकों की कोमल और कलाबाज़ हरकतें और उनके रंगीन पोशाक दर्शकों को चकित कर देते है।
दिवारी नृत्य : बुंदेलखंड में दीपावली तब तक अधूरी ही मानी जाती है, जब तक दिवारी नृत्य नहीं होता है। इस नृत्य की एक पूरी विधि है और इसके लिए वस्त्र भी हैं। नृत्य करने वाले कमर में झेला बांधे रहते हैं जो घंटीनुमा होता है जो नाचते समय आवाज करता है। लौंगा झूमर वस्त्र होता है। इस दिवारी के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, झीका, नगड़िया, कांसे की थाली, रमतूला जैसे वाद्ययंत्रों के बीच लोग दिवारी नृत्य में झूमते हैं।
कानड़ा नृत्य : भगवान कृष्ण या कान्हा से सम्बन्धित कानड़ा नृत्य विवाह के अवसर पर यि जाता है। हल्दी के समय, मेहर का पानी भरते समय, मण्डप छांजते समय, बारात विदा होते समय, बारात की अगुवानी में कनाड़ियाई का चलन आज भी सुदूर ग्रामीण अंचलों में है।
बरेदी नृत्य : इस नृत्य के बारे में मान्यता है कि इसकी भगवान कृष्ण ने की थी। वे ग्वालों के साथ मिलकर इसे किया करते थे। एक बार कंस ने सारे जानवरों को बंधक बना लिया। चरवाहे इससे बहुत दुखी थे। दीपावली के एक दिन बाद श्रीकृष्ण ने जानवरों को कंस से मुक्त करवाया। इसी खुशी में चरवाहों और ग्वालों ने नृत्य किया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है। चरवाहे नृत्य कर भगवान से अपने घर और जानवरों की सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं।
ढिमरयाई नृत्य : यह लोक नृत्य मूल रूप से ढीमर या केवट जाति के वर्ग के लोगों द्वारा किया जाने बल बुंदेलखंड का एक प्रमुख और प्रसिद्ध लोकनृत्य है। इस नृत्य में नृत्य करने बाले पुरुषों का परिधान धोती, बनड़ी होते हैं और इस नृत्य में प्रमुख वाद्य यंत्र ढोलक और सारंगी होती है।
दुल-दुल घोड़ी नृत्य : यह नृत्य अब बुंदेलखंड के शहरी क्षेत्रों से लुप्त हो चूका है। यह नृत्य बारात के साथ किया जाता है। दूल्हे की घोड़ी के आगेदुलदुल घोड़ी नर्त्तक नृत्य करते चलते हैं। यह वरपक्ष के उमंग और उत्साह की सुंदर प्रस्तृति होती है। इस नृत्य को वाले पुरुष साफा पहन कर लकड़ी के घोड़ों की आकृति को कमर में बांधकर वाद्ययंत्रों की धुन पर नृत्य करते हैं।
पारिवारिक नृत्य : इनमें कलश नृत्य है जो शिशु जन्म के समय बुआ द्वारा लाये गये बधाई के साथ किया जाता है। इस नृत्य की परम्परा आज भी मौजूद है। रास बधावा नृत्य विवाह में भांवर की रस्म पूरी होने के पश्चात कन्या पक्ष की महिलायें द्वारा जब वह डेरों पर जाती हैं तो बहू का टीका पूजन, वर पक्ष के रिश्तेदारों द्वारा किया जाता है। बालिकायें व महिलायें बन्नी गाते हुये नृत्य करती हैं। बहू उतराई का नृत्य विवाहोपरान्त वर पक्ष के निवास में होता है। शगुन चिरैया गीत गाये जाते हैं सास देवरानी, जिठानी, बुआ आदि उल्लास में नाचती हैं। बालिकाओं द्वारा नौरता नृत्य भी किया जाता है।
जब कोई नृत्य अपने मूल स्वरूप को खो देता है और आधुनिकता में ढलने लगता है तो न केवल नृत्य एवं लोकनर्त्तकों का नुकसान होता है बल्कि उनसे जुड़ी वादन, गायन एवं साज-सज्जा की कला भी नष्ट होने लगती है। बुंदेलखंड के ‘कला गुरु’ कहे जाने वाले स्व. विष्णु पाठक का कहना था कि ‘‘समय के साथ हर चीज बदल जाती है, लेकिन हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपनी लोकसंस्कृति से अपने बच्चों को परिचित करवाएं और अपनी विरासत को सहेज के रखें।’’ उनकी इस नसीहत पर अमल करती हुई बुंदेलखंड में कई कला संस्थाएं ऐसी हैं जो इन नृत्यों पर कार्यशाला करके सभी जातिवर्ग के लोगों को ये नृत्य सिखा कर इन्हें बचाए रखने का हरसंभव प्रयास कर रही हैं। इन नृत्यों को अपसंस्कृति से बचाना भी इन संस्थाओं एवं कलाप्रेमियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
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( नवभारत, 26.04.2019 )
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