Wednesday, April 3, 2019

चर्चा प्लस ... वादों की लहरों पर चुनाव की नैया - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...                    
  वादों की लहरों पर चुनाव की नैया     
      - डॉ. शरद सिंह
       गर्मी का मौसम आते ही जल स्रोतों का जलस्तर भले ही गिर जाए लेकिन चुनाव आते ही वादों की नदी लबालब भर जाती है और उसकी लहरें हिलोरें लेने लगती हैं। इन्हीं लहरों पर चुनावी नैया तैराने का भरपूर प्रयास किया जाता है। जैसा कि लोकसभा चुनावों से पहले इन दिनों देखा जा सकता है। वैसे मतदान की लहर किसकी नाव डुबाएगी और किसकी पार पहुंचाएगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अभी तो वादों की झमाझम का दौर है।
Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper  चर्चा प्लस ...वादों की लहरों पर चुनाव की नैया - डॉ. शरद सिंह
        लोकतंत्र में असली चुनाव बाहुबल से नहीं बल्कि बुद्धिबल से लड़े जाते हैं। इसीलिए बुद्धिबल अपनी इच्छाओं को साधने के लिए पहले बाहुबल को अपना सेवक बनाता है और फिर उससे अपने अनुसार काम कराता है। ऊपर से देखने में भले ही बुद्धिबल और बाहुबल एक-दूसरे के पूरक दिखें किन्तु पलड़ा भारी रहता है बुद्धिबल का ही। तभी तो कई बार छोटा दिखने वाला राजनीतिक दल बड़े राजनीतिक दल को पटखनी दे देता है। यूं भी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तमाम बंधनों के बावजूद आम नागरिक को जागरूक बना दिया है। वह राजनेताओं द्वारा किए जा रहे हर वादे को विश्लेषण के साथ अपने सामने पाती है और फिर उस पर स्वयं चिंतन-मनन करती है। यही कारण है कि अधिक हवा-हवाई वादों पर बवाल मचते देर नहीं लगती है। आज लगभग अस्सी प्रतिशत आम नागरिक वादों की तह तक जाने का प्रयास करता है। यह सच्चाई नेता भी समझते हैं, वे अब इस तरह के वादे करते हैं जो आम नागरिक के दिलों को छू सके तथा उन्हें विश्वास दिला सके।
लोक सभा चुनाव 2019 के मैदान में उतरे हुए छोटे राजनीतिक दलों की बात छोड़ दी जाए तो दो दल खुल्लमखुल्ला आमने-सामने खड़े नज़र आते हैं। एक कांग्रेस (आई) और दूसरी भारतीय जनता पार्टी। यद्यपि दोनों टिके रहने को प्रादेशिक दलों का सहारा लेते जा रहे हैं। सवाल यह है कि ये दोनों दल स्थानीय समस्याओं को समझ पा रहे हैं या नहीं। सबसे बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है इन्हें अपने उम्मीवार चुनने में। किसको खड़ा करें, किसको नहीं? जिसे टिकट नहीं मिलती है, वह दूसरे दल का रास्ता पकड़ लेता है। कहीं टिकट न मिलने का गुस्सा तो कहीं पैराशूट उम्मीदवार के प्रति नाराज़गी। रूठों को मनाने का दौर और दूसरे दलों के लोगों को फोड़ कर अपनी ओर मिलाने का दौर। इन सबके बीच चुनावी वादों की बरसात। ऐसी बरसात कि आम नागरिक की सोचने-समझने की क्षमता ही उसमें बह जाए और वह बुद्धिहीन की तरह जा कर बटन दबा आए। मगर आज की चतुर पब्लिक सब जानती है, उसकी आंखें भी खुली हुई हैं और कान भी। वह अपने विवेक से किस तरह काम लेती है यह इतिहास के पन्नों को देख कर भली-भांति जाना और समझा जा सकता है। जिस परिवार नियोजन की नीति ने कांग्रेस आई की कुर्सी छीन ली थी, सन् 1977 में जनता पार्टी ने उसी परिवार नियोजन कार्यक्रम को त्यागने के संबंध में वादा कर चुनाव में जीत हासिल की थी। सन् 1980 में इंदिरा गांधी ने कार्य-कुशल सरकार के वादे के आधार पर विजय प्राप्त की थी और 1984 में राजीव गांधी ने जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती गांधी के आदर्शो पर निर्मित एक साफ छवि वाली सरकार देने के वायदे पर भारी मतों से विजयश्री प्राप्ति की थी। लेकिन सन् 1989 में बोफोर्स तोप सौदे की दलाली की हवा ने राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार के कुर्सी छुड़ा दी और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने । फिर, 1999 में कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने और गिराने के बाद स्थिर सरकार देने के वादे के साथ ‘‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन‘’ ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में आम चुनाव जीता। ये वादे ही थे जो राजनीति में हार-जीत सुनिश्चित करते रहे।
        सन् 2014 में भजपा द्वारा किए गए वादों के बारे में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव का कहना है कि 2019 में नए वादों की बात करने से पहले नरेन्द्र मोदी जी देश को बताएं कि उन्होंने 5 साल में अपने 2014 के घोषणापत्र में किए गए किन-किन वादों को पूरा किया है? आज उन मुद्दों पर बात करने से क्यों कतरा रहे हैं? उन भारी-भरकम आसमानी वादों, योजनाओं और घोषणाओं का क्या हुआ? बहरहाल, आम नागरिक भी जानता है कि विश्व पटल पर भारत का नाम भले ही जगमगाया हो लेकिन विदेशों में जमा कालाधन वापस देश में लाने का वादा पूरा नहीं हुआ, उल्टे नोटबंदी ने घरेलू महिलाओं की रसोईघर के डब्बों में छिपा कर की गई बचत को भी बाहर निकलवा दिया। नोटबंदी के साल भर बाद भी घर के किसी बैग, किसी कपड़े, किसी किताब में दबे हुए पांच सौ के नोट ने अचानक बरामद हो कर जो सदमा पहुंचाया है, उसे भुला पाना आसान नहीं है। फिर भी भाजपा के नए वादों की ओर आम नागरिक उत्सुकता से देख रहा है।
         इन दिनों कांग्रेस अपने प्रभाव को फिर से जगाने के लिए प्रभावी वादे किए जा रही है। राहुल गांधी ने स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में बजट बढ़ाने का वादा किया है। उन्होंने कहा है कि करीब 22 लाख सरकारी नौकरी की रिक्तियां हैं, जिन्हें उनकी पार्टी के सत्ता में आने पर अगले साल 31 मार्च तक भरा जाएगा। पार्टी इस बार किसानों के लिए कर्जमाफी की घोषणा करने के साथ ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक, न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का वादा किया है। कांग्रेस के अन्य वादों में सबके लिए स्वास्थ्य सेवा का अधिकार, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के बेघर लोगों को जमीन का अधिकार, पदोन्नति में आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन करना और महिला आरक्षण विधेयक को पारित करना आदि शामिल हैं। जीडीपी का 6 प्रतिशत पैसा शिक्षा पर लगाने का वादा है। साथ ही असली जीएसटी लाने का वादा है।
कांग्रेस का यह भी वादा किया है कि अगर कांग्रेस पार्टी सत्ता में वापस आती है तो न्यूनतम आय योजना के तहत 20 प्रतिशत सबसे गरीब भारतीय परिवारों के खाते में हर साल 72,000 रुपये जमा किए जाएंगे। इस संबंध में कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला कहना है कि यह योजना महिला केंद्रित है। यह धनराशि सीधे घरों की महिलाओं के बैंक खाते में जमा की जाएगी। महिलाओं के पक्ष में एक और वादा कि लोकसभा-विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण लागू किया जाएगा। साथ ही केंद्र सरकार की नौकरियों में भी महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलेगा।
कांग्रेस ने जहां जमीनी मुद्दों को अपने वादों में पिरोया है वहीं भाजपा के हाथ से मंदिर का मुद्दा लगभग फिसल चुका है। उसे आमनागरिक की वेदना और संवेदना को जीतने वाले वादे ढूंढने में पसीना बहाना पड़ रहा है। वादे पूरे न कर पाने पर कांग्रेस से सत्ता छिनी थी अब वादे पूरे न कर पाने पर भाजपा को खाली हाथ न रह जाना पड़े।
भाजपा ने फरवरी 2019 को चुनावी वादे तय करने के लिए एक लोकतांत्रिक तरीके की घोषणा की थी। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ‘भारत के मन की बात, मोदी के साथ’ अभियान शुरू किया था। एक महीने तक चलने वाले इस अभियान में विभिन्न माध्यमों से देश की जनता से दस करोड़ सुझाव मांगने का लक्ष्य रखा गया था। बीजेपी के राज्यसभा सदस्य और मीडिया प्रभारी अनिल बलूनी ने तब कहा था कि अगले पांच साल में राष्ट्र निर्माण का एजेंडा तय करने लिए यह सहकारी प्रयास होगा। यह प्रत्येक भारतीय को भारत ढालने के अभियान में शामिल करने का प्रयास है। योजना प्रभावी थी लेकिन इसका संचालन प्रभावी ढंग से हो नहीं सका। फिर भी भाजपा अपने वादों के साथ डटी हुई है जिसमें सवर्णों को आरक्षण जैसे मुद्दे भी हैं।
     यह विडम्बना ही है कि प्रत्येक आमचुनाव के पहले किए गए वादे आजादी के बाद से अब तक लगभग जैसे के तैसे हैं। वही बेरोजगारी हटाने, गरीबी उन्मूलन, किसानों की स्थिति में सुधार आदि के वादे। यदि जीतने वाले राजनीतिक दलों ने सत्ता मिलने के बाद अपने वादों को पूरा किया होता तो आज भी वही बुनियादी जरूरतों को पूरा करने से जुड़े वादे दोहराए नहीं जाते। अब यह आम नागरिक पर निर्भर है कि वह किसके वादों को आजमाना चाहेगी और किसे सत्ता-सुख दिलाएगी। गर्मी का मौसम आते ही जल स्रोतों का जलस्तर भले ही गिर जाए लेकिन चुनाव आते ही वादों की नदी लबालब भर जाती है और उसकी लहरें हिलोरें लेने लगती हैं। इन्हीं लहरों पर चुनावी नैया तैराने का भरपूर प्रयास किया जाता है। जैसा कि लोकसभा चुनावों से पहले इन दिनों देखा जा सकता है। वैसे मतदान की लहर किसकी नाव डुबाएगी और किसकी पार पहुंचाएगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अभी तो वादों की झमाझम का दौर है। इस दौर में स्व. दुष्यंत कुमार का यह शायरी याद आ रही है-
          ख़ुदा नहीं न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
          कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये।
          वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
          मैं बेक़रार हूं  आवाज़ में असर के लिए।     
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