Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस ...
महावीर जयंती (17 अप्रैल) पर विशेष :
सदा प्रासंगिक हैं भगवान महावीर के विचार
- डॉ. शरद सिंह .ईसापूर्व छठीं शताब्दी विश्व के इतिहास में बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उथल-पुथल का समय माना जाता है। भारत के इतिहास में भी यह बौद्धिक एवं दार्शनिक क्रांति का युग था। इस काल में हमारे देश में भी भगवान महावीर जैसे तत्वज्ञाता हुए। ईश्वर के नाम पर होने वाले अनाचार पर रोक लगाते हुए भगवान महावीर ने आत्म संयम, नैतिकता और सद्कर्म को प्रमुखता दी। भगवान महावीर का कहना था कि ‘मनुष्य की आत्मा में जो कुछ महान है और जो शक्ति और नैतिकता है, वही ईश्वर है।’
Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper चर्चा प्लस ... सदा प्रासंगिक हैं भगवान महावीर के विचार- डॉ. शरद सिंह |
भगवान महावीर ने कारण और परिणाम दोनों के परस्पर एकात्मता को प्रतिपादित किया। यही एकात्मता है जिसके कारण मूल द्वारा खाद-पानी मिलने पर पौधे का अग्र भाग फूलता-फलता है। इसी प्रकार मूल प्रवृत्तियों एवं मूल कर्म में ‘सद्’ का समावेश जीवन को श्रेष्ठ बनाता है। जैनाचार में कर्म संबंधी पंच-व्रतों के पालन के लिए दो स्तर निर्धारित किए गए हैं-साधु धर्म एवं श्रावक धर्म। साधु धर्म निवृत्ति मूलक है। यह हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के सम्पूर्ण त्याग से आरम्भ होता है। श्रावक धर्म गृहस्थ धर्म है। इसमें पांचों पापों का अधिक से अधिक त्याग करने का आग्रह किया जाता है। वस्तुतः गृहस्थ धर्म त्याग और भोग के बीच संतुलित जीवन जीने की पद्धति है। जिसको वर्तमान समय में और भी अधिक अपनाए जाने की आवश्यकता है।
किसी भी धर्म के मूल सिद्धांतों को जानने, समझने और उसके व्यावहारिक रूप को परखने का सबसे अच्छा माध्यम होती हैं, उस धर्म के आधारभूत विचारों एवं सिद्धांतों की जीवन में उपादेयता को दर्शाने वाली कथाएं। व्यक्ति अपनी बाल्यावस्था में जीवन संबंधी जो भी नैतिक शिक्षा ग्रहण करता है उसमें अधिकांश कथाओं के माध्यम से दी जाती हैं। अपने शेष जीवन में भी व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के जीवन-अनुभवों की कथाओं से शिक्षा लेता रहता है। अतः जीवन में कथाओं की उपयोगिता निर्विवाद है। वाचिक परम्परा में विशेष रूप से नैतिक तथा जीवनोपयोगी सिद्धांतों की शिक्षा कथाओं द्वारा जितने सहज ढंग से कही और सुनी जाती रही है। इसीलिए मैंने ‘‘श्रेष्ठ जैन कथाएं’’ पुस्तक लिखी जो सन् 2008 में सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई जिससे मैं जैन धर्म के सिद्धांतों को सरल एवं रोचक स्वरूप में सर्वधर्म पाठकों तक पहुंचा सकूं।
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे अपने अब तक के जीवन में वर्तमानयुग के श्रेष्ठ जैनाचार्यों - श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ, दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य विद्यासागर, मुनि क्षमा सागर, आचार्य देवनन्दी से धर्म-चर्चा करने तथा तत्संबंधी अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। मैंने जैन धर्म के सिद्धांतों को दोनों पंथों के ग्रंथों एवं आचार्यों के उपदेशों द्वारा जितना भी जाना और समझा है उसके आधार पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में कोई सैद्धांतिक अन्तर नहीं है मात्रा व्यावहारिक रूप में ही तनिक भिन्नता है। प्रस्तुत पुस्तक में मैंने जिन कथानकों को प्रस्तुत किया है (जहां तक मुझे ज्ञान है) वे मूलतः जैन सिद्धांतों पर आधारित हैं, किसी सम्प्रदाय विशेष पर नहीं। ईसापूर्व छठीं शताब्दी विश्व के इतिहास में बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उथल-पुथल का समय माना जाता है। भारत के इतिहास में भी यह बौद्धिक एवं दार्शनिक क्रांति का युग था। इस काल में हमारे देश में भी भगवान महावीर जैसे तत्वज्ञाता हुए। ईश्वर के नाम पर होने वाले अनाचार पर रोक लगाते हुए भगवान महावीर ने आत्म संयम, नैतिकता और सद्कर्म को प्रमुखता दी। भगवान महावीर का कहना था कि ‘मनुष्य की आत्मा में जो कुछ महान है और जो शक्ति और नैतिकता है, वही ईश्वर है।’
व्यक्तिगत रूप से मुझे जैन धर्म के कर्म सिद्धांत ने सबसे अधिक प्रभावित किया है। धार्मिक ग्रंथों में विद्वानों द्वारा इस सिद्धांत के अंतर्गत कर्म की विस्तृत व्याख्या की गई है जिसका सार यही है कि मनुष्य अपने जीवन में जो भी दुख अथवा सुख प्राप्त करता है, वह उसके पूर्व में किए गए कर्मों का परिणाम होता है। जिसे हम आम बोलचाल की कहावत में भी कहते हैं कि ‘जो जैसा बोएगा-वैसा काटेगा’। इस पुस्तक में जो कथाएं हैं उनमें इसी तथ्य को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य के अपने कर्म उसे दुख-सुख का परिणाम देते हैं। सामान्य व्यक्ति इसे ‘भाग्य’ अथवा ‘दुर्भाग्य’ की संज्ञा दे कर संतोष कर लेता है अथवा कुछ व्यक्ति ‘हमारे साथ ही ऐसा क्यों होता है?’ जैसे प्रश्न के भंवर में डूबते-उतराते रहते हैं। जबकि निमित्त-ज्ञानी व्यक्ति अपने निमित्त-ज्ञान से यह जान लेते हैं कि यह किस ‘पाप’ का फल है अथवा किस ‘पुण्य’ का फल है।
जैन सिद्धांतों में कर्म को प्रधान माना गया है। जिसके अनुसार पूर्व भव (जन्म) के कर्म ही इस बात का निर्णय करते हैं कि किस वंश में हमारा जन्म होगा और कैसा हमारा शरीर होगा। कर्म अनेक प्रकार के होते हैं और उनके फल भी विभिन्न प्रकार के होते हैं। कर्मफल के प्रभाव से ही धनी अथवा निर्धन के घर जन्म होता है। जो इस तथ्य को भली-भांति समझ लेता है वह इस जन्म में अच्छे कर्म कर के अपना भविष्य संवार लेता है। क्रोध, माया, मोह, लोभ आदि कषायों के कारण ही आत्मा बंधनों में पड़ती है। मोक्ष के द्वारा ही इन बंधनों से मुक्ति मिलती है अन्यथा बारम्बार जनम ले कर अपने कर्मों के परिणाम भुगतने होते हैं। जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गया है। जिसके अनुसार यह लोक तेईस प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से परिपूर्ण है। प्रत्येक जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों के अनुरूप इन्हें ग्रहण करता है। यह भी तक संभव होता है जब वह कर्म करता है। इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से कर्म की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। कर्म भी दो प्रकार की श्रेणियों के होते हैं-द्रव्य कर्म और भाव कर्म। इनमें राग-द्वेष आदि भाव-कर्म के रूप हैं जो कर्म और उसके परिणाम को प्रभावित करते हैं। जैन कर्म सिद्धांत के अनुसार कर्म की आठ मूल प्रवृत्तियां बताई गई हैं जो मनुष्य के कर्म और उसके परिणामों को अच्छे अथवा बुरे की श्रेणी में निर्धारित करती हैं- ‘ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र एवं अन्तराय।’ (गोम्मटसार कर्मकाण्ड-1) इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण,मोहनीय और अन्तराय से आत्मा के गुणों का घात होता है अतः इन्हें घातिया माना गया है। जबकि शेष चार मोहनीय, आयु, नाम तथा गोत्रा से आत्मा को घात नहीं होता है अतः इन्हें अघातिया माने गए हैं। सभी मूल कर्म अपने-अपने स्वाभाव के अनुसार ही फल देते हैं। उनमें परस्पर कोई परिवर्तन नहीं होता है। जैसे ज्ञानावरणी कर्म का फल ज्ञान को कुण्ठित व अवरुद्ध करने का ही मिलेगा किन्तु अन्य शक्तियों के फल को प्रभावित करने का कार्य वह नहीं करता है।
जैन परम्परा में आचार और विचार को समान स्थान दिया गया है। अहिंसा मूलक आचार और अनेकान्त मूलक विचार जैन परम्परा की प्रमुख विशेषता है। अहिंसा जैनाचार का प्राण तत्व है। इसे परब्रह्म और परमधर्म कहा गया है। जैन धर्म में अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन और आचरण जैन-परम्परा में मिलता है, उतना किसी अन्य परम्परा में नहीं। प्रत्येक आत्मा चाहे वह सूक्ष्म हो या स्थूल, स्थावर हो या त्रास, तात्वि दृष्टि से समान है। सभी जीवों में एक-सी आत्मा का वास होता है। दुखः,सुख का अनुभव प्रत्येक प्राणी को होता है। जैनाचार में अहिंसा का पालन करने के लिए अहिंसा सहित पंचसूत्रीय आचार निर्धारित किए गए हैं-सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह। तद्नुसार हिंसा नहीं करनी चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए, कुशील नहीं करना चाहिए तथा परिग्रह का संचय नहीं करना चाहिए। जैनाचार के अनुसार मनुष्य के आचरण का परिष्कार निषेधात्मक नियमों से ही किया जा सकता है। पंचसूत्रीय आचार में निषेध किए गए कार्य वस्तुतः सामाजिक-पाप माने जा सकते हैं। जो व्यक्ति इनका परित्याग करता है वह समाज का हितैषी एवं सभ्य माना जाता है।
वर्तमान में आतंकवाद, जातिवाद, लिंगभेद, रंगभेद आदि जो कलुष मनुष्यों के बीच व्याप्त है वह संयम और सद्भाव से ही दूर हो सकते हैं। आज के युग में, मनुष्य को सबसे अधिक आवश्यकता है, महावीरजी के अपरिग्रह के सिद्वान्त को समझने की। संग्रह अशांति का अग्रदूत है, विनाश, विषमता तथा अनेक समस्याओं को जन्म देता है। महावीरजी का अपरिगृह का विचार ही, इसकी संजीवनी है जो अमीर गरीब की दूरी कम कर सामाजिक समता स्थापित कर सकती है। भगवान महावीर के उपदेशों में, यदि अचैर्य के सिद्वान्त का अनुकरण किया जाय तो, आज विश्व में व्याप्त भ्रष्ट्राचार व कालेधन पर अंकुश लगाया जा सकता है। भगवान महावीर ने स्त्री वर्ग के लिए भी उदारता के विचार व्यक्त किए जिसमें उन्होंने स्त्रियों को पूर्णतः स्वतंत्र और स्वावलम्बी बताया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के समान अधिकार एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता हेतु भगवान महावीर के विचार आज भी सार्थक हैं। भगवान महावीर ने तन-मन की शुद्धि तथा आत्म बल बढ़ाने हेतु, साधना एवं तपश्चर्या पर बल दिया। आज के भौतिकवादी युग में जहां खानपान की अशुद्धता एवं अनियमितता है, और जीवन तनावयुक्त है, ऐसे में भगवान महावीर द्वारा बताई तप, त्याग एवं साधनामय जीवन-शैली ही समस्याओं का समाधान है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 10.04.2018)
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