Dr (Miss) Sharad Singh |
नवभारत में मेरा लेख "बुंदेलखंड के काव्य में समाज, राजनीति और चुनाव" प्रकशित हुआ है। इसे आप भी पढ़िए ....
हार्दिक धन्यवाद "नवभारत " !!!
बुंदेलखंड एक ऐसा क्षेत्र है जहां देश की स्वतंत्रता के दशकों बाद भी विकास की गति कछुआचाल से चल रही है। सड़क, जल और बिजली की दृष्टि से ही नहीं अपितु शिक्षा, स्वास्थ्य और औद्योगिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र अभी भी आस लगाए बैठा है। अब तक जितना विकास हुआ है वह भी जनसंख्या के मुकाबले सीमित ही कहा जाएगा। विसंगतियों का नमूना तो यह है कि जहां युवा है वहां शिक्षा के केन्द्र कम हैं, जहां शिक्षा के केन्द्र हें वहां अध्यापकों की कमी है। जहां जल स्रोत नहीं हैं वहां तो सूखे का बोलबाला है ही और जहां जलस्रोत हैं वहां उचित प्रबंधन की कमी के कारण गर्मियां आते-आते सूखे का संकट गहराने लगता है। शिक्षा के अभाव के कारण अत्याधुनिक युग में भी यहां के लोग अंधविश्वास, कुरीति, परम्परागत बुराइयों के के साथ जी रहे हैं। सदियों से चली आ रही अवहेलना ने बुंदेली जनता को मानो अभाव को अपना भाग्य मानकर परिस्थितियों से समझौता करना सिखा दिया है। अभाव का यह दौर कोई आज ही नहीं उपजा है बल्कि महाकवि जगनिक काल से चला आ रहा है।
पृथ्वीराज
चौहान एवं महोबा के राजा परमाद्रिदेव के युद्ध में बुन्देलखण्ड के किसानों
की खड़ी फसल बर्बाद होती रही फिर भी युद्ध जारी रहे। जिसके बारे में महाकवि
जगनिक ने गोया असंतुष्ट हो कर लिखा है कि -
ऐसो समय परौ महुबे पै, विपदा कछू कहीं न जाये।
रोबे रैयत चन्देलों की, हा, हम कौन देश भग जाये।।
ऐसो समय परौ महुबे पै, विपदा कछू कहीं न जाये।
रोबे रैयत चन्देलों की, हा, हम कौन देश भग जाये।।
कवि ईसुरी के समय भी सिथतियां बदली नहीं थीं। युद्ध भले ही कम हो गए थे
परन्तु प्राकृतिक विपदा से छुटकारा नहीं मिला था क्योंकि राजकीय तौर पर जल
प्रबंधन और कृषि प्रबंधन में पहले जैसी तत्परता नहीं रह गई थी-
पर गये एई साल में ओरे कऊं भौत कऊं थोरे,
कैसे जिये गरीब गुसइयां छिके अन्न के दौरे।
पर गये एई साल में ओरे कऊं भौत कऊं थोरे,
कैसे जिये गरीब गुसइयां छिके अन्न के दौरे।
प्रकृतिक विपदाएं भी रूप बदल-बदल कर आतीं। कभी फसल को ‘गिरुआ रोग’ लग जाता
तो कभी ओले से पकी पकाई फसल नष्ट हो जाती। ईसुरी ने अपनी फाग कविताओं में
जहां प्रेम को रीतिकालीन शैली में वर्णित किया है वहीं उस अकाल की पीड़ा का
भी वर्णन किया है जिसने बुन्देलखण्ड के जनजीवन को विकट रूप में प्रभावित
किया था।
आसौं दे गओ काल करौटा, करौ-खाव सब खौंटा।
गोऊं पिसी खों गिरुआ लग गऔ, मऊअन लग गऔ लौंका।।
आसौं दे गओ काल करौटा, करौ-खाव सब खौंटा।
गोऊं पिसी खों गिरुआ लग गऔ, मऊअन लग गऔ लौंका।।
आज भी बुंदेली कृषक अज्ञान और प्राकृतिक विपदा के बीच झूलता रहता है।
रही-सही कसर पूरी कर देता है जलप्रबंधन का अभाव। इस दुर्दशा का कवि संतोष
सिंह बुंदेला ने मार्मिक उललेख किया है-
स्यारी में सूखा पर गऔ तो, ऊ में कछू न पाओ।
बीज साव को धरौ चुकावे, दानों लैन आओ।
स्यारी में सूखा पर गऔ तो, ऊ में कछू न पाओ।
बीज साव को धरौ चुकावे, दानों लैन आओ।
बुन्देलखण्ड का विकास जितना और जिस तेजी से होना चाहिए था, भ्रष्टाचार के
कारण हो नहीं सका। इस दशा पर कटाक्ष करती हुई कवि रामेश्वर प्रसाद गुप्ता
की ये पंक्तियां देखें -
भूखी सब जनता मरै, नेता गोल मटोल।
चींथ चींथ के देश खों, करतई पोलम पोल।
भूखी सब जनता मरै, नेता गोल मटोल।
चींथ चींथ के देश खों, करतई पोलम पोल।
जब समाज पर राजनीति का दबाव हो और राजनीति में स्वार्थ का बोलबाला हो तो जो दृश्य उपस्थित होता है वह कवयित्री डॉ. वर्षा सिंह के इन दोहों में देखा जा सकता है-
कोनउ को परवा नईं, सूखी नदिया- ताल।
हो रयी कैसी दुरदसा, फैलो स्वारथ जाल।।
अपनो घर भरबे मगन, जो सक्छम कहलायं।
औरन पे लातें धरें, अपनो पेट भरायं।।
बुंदेली माटी कहे- “जो का कर रये, लाल !
उल्टे- सूधे काज कर, काय करत बेहाल ।।
“वर्षा" का को से कहें, सबई इते मक्कार।
पेड़ काट, धूरा उड़ा, मिटा रये संसार ।।
कोनउ को परवा नईं, सूखी नदिया- ताल।
हो रयी कैसी दुरदसा, फैलो स्वारथ जाल।।
अपनो घर भरबे मगन, जो सक्छम कहलायं।
औरन पे लातें धरें, अपनो पेट भरायं।।
बुंदेली माटी कहे- “जो का कर रये, लाल !
उल्टे- सूधे काज कर, काय करत बेहाल ।।
“वर्षा" का को से कहें, सबई इते मक्कार।
पेड़ काट, धूरा उड़ा, मिटा रये संसार ।।
राजनीति में आती जा रही गिरावट को देखते हुए कवि महेश कटारे की ये पंक्तियां सहसा याद आने लगती हैं-
अपनी तौ पांचई घी में हैं
खूब मचै कुहराम हमें का
मौका मिलौ काय खौं छोडौ
मरै आदमी आम हमें का
अपनी तौ पांचई घी में हैं
खूब मचै कुहराम हमें का
मौका मिलौ काय खौं छोडौ
मरै आदमी आम हमें का
इन दिनों जब लोकसभा चुनाव का समय आ गया है और मतदान की तिथि करीब आती जा
रही है तो ऐसे में यह बुंदेली लोकगीत बहुत मायने रखता है जिसमें
उम्मींदावारों पर कटाक्ष भी है और मतदाताओं को झकझोर कर जगाने का प्रयास भी
है-
वोट मांगबे आये दुआारे, फेर ने ऐहें
कभऊं ने मिलहें सांझ-सकारे, फेर ने ऐहें
जिनने मतलब राखो नईयां आगूं-पीछूं
ने चुनियो झिन ऐसे कारे, फेर ने ऐहें
वोट मांगबे आये दुआारे, फेर ने ऐहें
कभऊं ने मिलहें सांझ-सकारे, फेर ने ऐहें
जिनने मतलब राखो नईयां आगूं-पीछूं
ने चुनियो झिन ऐसे कारे, फेर ने ऐहें
बुंदेलखंड की जनता अगर लोकतंत्र की शक्ति को याद रखे और इन कविताओं में
कही गई सच्चाई को ध्यान में रखे तो मतदान के द्वारा सही उम्मींदवार चुन कर
अपने क्षेत्र के लिए तीव्र विकास का अधिकार पा सकती है।
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( नवभारत, 18.04.2019 )
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