Thursday, April 11, 2019

बुंदेलखंड में आज भी कमी है सुरक्षित मातृत्व की - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
आज "नवभारत" में राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस (11 अप्रैल) पर विशेष लेख "बुंदेलखंड में आज भी कमी है सुरक्षित मातृत्व की " प्रकशित हुआ है। इसे आप भी पढ़िए 🙏

❤️ हार्दिक धन्यवाद #नवभारत ❤️

राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस (11 अप्रैल) पर विशेष :
   बुंदेलखंड में आज भी कमी है सुरक्षित मातृत्व की
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह                     
       मातृत्व स्त्री-जीवन को ही नहीं वरन् समूचे समाज को पूर्णता प्रदान करता है। मातृत्व संतति को सुनिश्चित करता है और संतति से ही समाज की संरचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी अगे बढ़ती है। किन्तु विडम्बना यह है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में जहां एक ओर मातृत्व का भरपूर स्वागत किया जाता है, खुशियां मनाई जाती हैं, वहीं गर्भवती के उचित आहार-पोषण के प्रति लापरवाही बरती जाती है। प्रत्येक गर्भवती के आहार-पोषण की आवश्यकता अलग-अलग होती है और यह चिकित्सकीय जांच द्वारा ही पता लगाया जा सकता है। जहां तक गर्भवती की जांच का प्रश्न है तो आज भी बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचल में शिक्षा की कमी, पारम्परिक अंधविश्वासों एवं मान्यताओं के चलते गर्भवती की जांच कराने में कोताही बरती जाती है। ऐसी ही समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित मातृत्व के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से भारत सरकार ने प्रति वर्ष कस्तूरबा गांधी की जयंती पर अर्थात् 11 अप्रैल को राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस मनाने की घोषणा सन् 2003 में की थी। तब से हर साल देश में राष्ट्रीय राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस मातृत्व दिवस मनाया जाता है।
Dr (Miss) Sharad Singh's article on Condition of Safe Motherhood in Bundelkhand published in Navbharat , बुंदेलखंड में आज भी कमी है सुरक्षित मातृत्व की - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित
        बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी शिक्षा की कमी और स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता के प्रति लापरवाही को बोलबाला है। यद्यपि प्रदेश यारकार की ओर से समय-समय पर जननी सुरक्षा योजना जैसी योजनाएं लागू की गईं और इन योजनाओं के बारे में ग्रामीणजन को जानकारी देने का अभियान भी चलाया गया। फिर भी अनेक परिवार ऐसे हैं जिनकी रूचि इस बात पर टिकी रहती है कि गर्भस्थ शिशु लड़का है या लड़की? सरकारी पाबंदी के कारण अतः ऐसे लोगों की रुचि जननी को सरकार की ओर से मिलने वाली राशि में सिमट कर रह जाती है। भले ही उचित पोषण के अभाव में मां और शिशु दोनों की जान ख़तरे में रहती है। इसी मसले का दूसरा पक्ष यह भी है कि स्वयं गर्भवती महिलाओं को पता नहीं होता है कि अपने पोषण जरूरतों की पूर्ति तथा भ्रूण के विकास के लिए उनके शरीर को अतिरिक्त आयरन और फोलिक एसिड की आवश्यकता होती है। प्राप्त सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन् 2018 में किए गए एक सर्वे में बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में लगभग 46.8 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में खून की कमी पाई गई थी। इन हालातों के चलते बुंदेलखंड के जिलों में गर्भवती महिलाओं में एनीमिया का प्रतिशत सबसे अधिक पाया गया है। प्रसवपूर्व चिकित्सकीय जांच को लेकर इन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जागरूकता की कमी है।
स्वास्थ्य विभाग ने सन् 2012 में मातृत्व एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए मदर एंड चाइल्ड ट्रैकिंग सिस्टम नामक एक महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी। इसके तहत गर्भवती माताओं व उनके नवजात शिशु का पंजीकरण किया जाता है, ताकि उन्हें लंबे समय तक स्वास्थ्य सेवाएं दी जा सकें । आशा या एएनएम द्वारा जमीनी स्तर पर गर्भवती महिला एवं उनके शिशु की हेल्थ हिस्ट्री दर्ज की जाती है, जो स्वास्थ्य सुविधाओं को न सिर्फ बेहतर बनाने में बल्कि, लाभार्थी को भी स्वास्थ्य योजनाओं के प्रति जागरूक करने में मदद करती है। मार्च 2013 से फरवरी 2014 माह तक प्रदेश स्तर पर एकत्रित एमसीटीएस की रिपोर्ट के आधार पर रैंक तैयार की गई। इसमें बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेशीय अंचल की स्थिति काफी खराब पाई गई थी। प्रदेश के 75 जनपद के परफार्मेंस में प्रसूता पंजीकरण में झांसी जनपद का स्थान 50 वां एवं नवजात शिशु पंजीकरण में 35 वां स्थान था।

    प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के सबसे प्रमुख कारण हैं-अशिक्षा और गरीबी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार आर्थिक रूप से कमजोर तबके की हर पांच मिनट में एक गर्भवती महिला प्रसवकाल के दौरान मौत के मुंह में चली जाती है। स्त्री के गर्भवती होने पर हर घर में बधाईयां गाई जाती हैं चाहे वह अमीर हो या गरीब। सरकार ने श्रमिक गर्भवतियों के लिए अनेक नियम-कानून बनाए हैं लेकिन उसका लाभ उन्हें कितना मिल पाता है इसमें कागजी और ज़मीनी आंकड़ों में बहुत अन्तर है। लगभग 52 प्रतिशत महिलाएं अपने स्वास्थ्य की चिन्ता किए बिना गर्भधारण करती हैं क्योंकि उन्हें गर्भधारण का निर्णय करने का अधिकार नहीं होता है। परिवार के अभिलाषाएं और पति की इच्छा उन्हें इस बात का अधिकार ही नहीं देती हैं कि उन्हें गर्भ धारण करना चाहिए या नहीं? अथवा उन्हें कब और कितने अंतराल में गर्भधारण करना चाहिए? ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं घरों में अप्रशिक्षित दाइयों से प्रसव कराती हैं। यह भी उनकी इच्छा और अनिच्छा की सीमा से परे होता है। उन्हें यह तय करने का अधिकार नहीं होता है कि वे कहां और किससे प्रसव कराएं? अर्थात् एक गर्भवती का गर्भधारण से ले कर प्रसव तक की यात्रा उसकी इच्छा की सहभागिता से परे तय होती है। इसी दुर्भाग्य के चलते प्रतिवर्ष लगभग एक लाख महिलाएं प्रसवकाल में अथवा इससे पूर्व प्रसव संबंधी परेशानियों के कारण अपने प्राण गवां देती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रसव के दौरान गर्भवती की मृत्यु का 24.8 प्रतिशत कारण हैमरेज, 14.9 प्रतिशत कारण संक्रमण और 12.9 प्रतिशत कारण एक्लैंपसिया है। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में ‘जननी एक्सप्रेस’ के द्वारा गर्भवती को अस्पताल पहुंचाए जाने की मुफ़्त सुविधा राज्य सरकार की ओर से मुहैया कराई जा रही है किन्तु जागरूकता की कमी के कारण परिवार यह तय नहीं कर पाता है कि गर्भवती को अस्पताल कब पहुंचाया जाए? ‘जननी एक्सप्रेस’ बुलाने में भी इतनी देर कर दी जाती है कि या तो वाहन में ही प्रसव की स्थिति निर्मित हो जाती है या फिर गर्भवती की हालत गंभीर होने लगती है। ऐसी दशा में सुरक्षित मातृत्व अभियान को पूरी ईमानदारी से और पूरी गंभीरता से चलाया जाना जरूरी है। 

 परिवार खुश होता है कि उनकी बहू उनके परिवार को संतान देने वाली है, पति प्रसन्न होता है कि उसकी पत्नी उसे पिता का दर्जा दिलाने वाली है किन्तु इन खुशियों के बीच गर्भवती की सही देखभाल, स्वास्थ्य-सुरक्षा तथा उसकी इच्छा-अनिच्छा की इस तरह अनदेखी कर दी जाती है कि दुष्परिणाम गर्भवती की मृत्यु के रूप में सामने आता है। जबकि एक गर्भवती का दायित्व सरकार या कानून से कहीं अधिक परिवार पर होता है, इस बात को परिवार और समाज को समझना ही होगा।     
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( नवभारत, 11.04.2019 )
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