Wednesday, April 24, 2019

चर्चा प्लस ... और कितनी सीमाएं लांघी जाएंगी? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...                 
और कितनी सीमाएं लांघी जाएंगी?   
           - डॉ. शरद सिंह                                                                 दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सबसे बड़ा आमचुनाव। राजनीतिक चेहरों में उलटफेर। दल-बदल के चलते भगदड़ का माहौल। अपशब्दों की बाढ़। जातीय और धार्मिक दबावों का बोलबाला। उस पर पड़ोसी देश श्रीलंका में सीरियल बम-विस्फोट। भारतीय उपमहाद्वीप जो दुनिया के लिए शांति की एक मिसाल रहा है, भारत जो दुनिया के सामने संस्कृति और सभ्यता का उम्दा उदाहरण रहा है, आज किस ओर जा रहा है? अपशब्दों और सम्मान की सीमाओं पर सीमाएं लांघी जा रही हैं। भला, अब और कितनी सीमाएं लांघी जाएंगी?         
चर्चा प्लस, और कितनी सीमाएं लांघी जाएंगी - डॉ शरद सिंह
        श्रीराम, श्रीकृष्ण की धरती होने के साथ ही यह भारत भूमि भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, गुरुनानक देव की भी भूमि है। यहां ईद और दीवाली आपसी सौहार्द्य के साथ मनाई जाती है। ईसा मसीह के क्रूस पर चढ़ाए जाने वाले दिन को याद कर सभी की आंखों में समान रूप से आंसू आते हैं और ईसा के पुनर्जीवित होने के दिन सभी इस तरह खुश होते हैं जैसे ईसा मसीह मात्र ईसाइयों के नहीं समस्त मानवता के मसीहा हैं। हमारे देश में जाति और धर्म की जो दीवारें समय-समय पर खड़ी करने की कोशिश की गईं वे भी कच्ची साबित हुईं। आज भी अजमेर शरीफ़ की दरगाह हमारे लिए उतनी ही पवित्र है जितनी कि गंगा की धाराएं। किन्तु इस बार के लोकसभा चुनाव के दौरान जो अशोभनीय जुमले उछाले गए हैं उन्होंने विश्वपटल पर हमारा तमाशा बना दिया है।

इस लोकसभा चुनाव में महिला उम्मींदवारों की संख्या यूं भी कम है। जो हैं भी वे किसी न किसी स्तर पर ओछेपन की शिकार हो रही हैं। यह तो सभी मानते हैं कि राजनीतिक चुनावों में वे राजनीतिक मुद्दे ही होने चाहिए जो आमजनता की भलाई से सरोकार रखते हों, किन्तु जब समय आता है उस पर अमल करने का तो परिदृश्य बदल जाता है। धर्म का टैग लगाए बिना गोया काम ही नहीं चल पा रहा हो। हाल ही में अभिनेत्री उर्मिला मांतोडकर जो स्वयं इस चुनाव में एक उम्मींदवार हैं, उनका एक साक्षात्कार टीवी पर देखा। उर्मिला मांतोडकर ने एक मुस्लिम व्यवसायी से विवाह किया है। वे बालिग हें और अपना जीवन साथी चुनने का उन्हें पूरा अधिकार है। लेकिन जैसा कि उन्होंने बताया कि जब उन्होंने अपनी मां के जन्मदिन पर उनसे केक कटवाती हुई तस्वीर ट्विटर पर शेयर की तो उस पोस्ट को विचित्र ढंग से ट्रोल किया गया। उनसे पूछा गया कि -‘क्या उनकी मां भी मुस्लिम हैं?’ ‘क्या उर्मिला ने अपना धर्म बदल लिया है?’ आदि-आदि। प्रश्न यह उठता है कि क्षेत्र के विकास के लिए वह उम्मीदवार जिम्मेदार रहेगा या फिर उसकी मां अथवा उसका धर्म? यदि उम्मीदवार ने विवाह के बाद धर्म बदल लिया हो तो क्या उसकी नीयत बदल जाएगी? या फिर उसने धर्म नहीं बदला है तो नीयत शर्तिया उम्दा रहेगी? कम से कम यह तो लोकतांत्रिक सोच नहीं हो सकती है।

एक और उदाहरण सामने आया। संयोग से वह भी महिला हैं और फिल्मी दुनिया से हैं। नाम है जयाप्रदा। पहले भी सांसद रह चुकी हैं। पहले वे जिस दल के साथ थीं, उनसे अलग हो गईं। वैचारिक मतभेद स्वाभाविक हैं। किन्तु चुनावी मंच से उन पर जो छींटाकशी की गई वह अशोभनीय ही कही जाएगी। विरोधी दल में से पिता ने उन्हें ‘‘आम्रपाली’’ कहा। उल्लेखनीय है कि आम्रपाली बौद्ध काल में वैशाली की नगरवधू थी। फिर उस पिता के पुत्र ने ठीक वैसी ही चुनावी सभा में मंच से उन्हें ‘‘अनारकली’’ कहा जो प्रचलित कथा साहित्य के अनुसार मुगलकालीन दरबार में नर्त्तकी थी। अर्थात् कल तक जो पिता-पुत्र जयाप्रदा को अपनी पार्टी में पा कर ‘बहन’ और ‘बुआ’ का संबोधन देते थे वे आज जया द्वारा पार्टी छोड़ देने पर उन्हें अप्रत्यक्षतौर पर ‘नाचनेवाली’ कह कर अपमानित कर रहे हैं।

रहा अपमान का सवाल तो शहीद हेमंत करकरे भी इस लपेटे में आ चुके हैं। मामला न्यायालय से अभी पूरी तरह से निपटा नहीं है अतः उस पर टिप्पणी करना उचित नहीं है कि मालेगांव बमकांड में क्या हुआ था? कौन दोषी था या कौन नहीं? लेकिन शहीद को ले कर संयम भी जरूरी था। जो भारतीय लोकतंत्र जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता का है, उसमें जनभावनाओं का ध्यान रखा जाना भी जरूरी है। विशेष राजनीतिक दल के घोड़े पर सवार हो कर चुनाव जीते जा सकते हैं किन्तु आमजनता के दिल नहीं। यह तथ्य सभी को समझना जरूरी है चाहे किसी भी राजनीति दल अथवा राजीतिक समुदाय का हो।         
इस समय देश में चुनाव हो रहे हैं और टीवी से लेकर सोशल मीडिया तक लगातार बहसें चल रही हैं। विचार की जगह कांव-कांव सामने आती है। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की ललक में दिवंगतों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है। स्वर्गीय दादा-परदादा, दादी-परदादी की नीयत और धर्म को बेवजह बहस का मुद्दा बनया गया है। जिसका आमजनता के वर्तमान हालात यानी गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, शिक्षा साधनों की कमी आदि से कोई लेना-देना ही नहीं है। भारत के सत्तर साल के लोकतांत्रिक इतिहास में आज जितनी असंवेदनशीलता, अभ्रदता और असंयम बढ़ा है। वह पहले कभी नहीं रहा। सोशल मीडिया और ट्विटर जैसे इंटरनेट एकाउंट्स में नकली पहचानधारियों ने माहौल बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। नकली नाम, नकली प्रोफाईल तस्वीरों के सहारे आग उगलने का जो काम किया जा रहा है वह किसी बमविस्फोट से कम घातक नहीं है। महान फ्रांसीसी विचारक रुसो ने सही कहा था कि -‘‘यदि शरीर विकालांग भी हो जाए तो जीने की इच्छा बलवती रहती है और एक विकलांग दुनिया जीत सकता है किन्तु यदि विचार दूषित हो कर कमजोर पड़ जाएं तो हाथ-पांव सही-सलामत होने पर भी वह अपनी लड़ाई पल भर में हार सकता है।’’

यहां बाबू जगजीवनराम का उल्लेख किया जाना समीचीन होगा। वर्ष 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित प्रथम लोकसभा में बाबू जगजीवनराम ने श्रम मंत्री के रूप में देश की सेवा की और उसके बाद अगले तीन दशकों तक कांग्रेस मंत्रिमंडल में बने रहे। वर्ष 1952 में पंडित जवाहरलाल नेहरु ने सासाराम से निर्वाचित बाबू जगजीवनराम को संचार मंत्री बनाया। वर्ष 1956-62 तक रेल मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी गई। बाबू जगजीवनराम ने दिसंबर 1885 में बनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी मां के समान बताया है। वर्ष 1977 तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य रहे। फिर, 25 जून 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश भर में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी। इस आपातकाल को संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन मानते हुए बाबू जगजीवनराम ने अपने पद का त्यागपत्र दे दिया तथा कांग्रेस पार्टी त्याग दी। इसके बाद उन्होंने उसी दिन ’कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’  (सी.एफ़.डी.) नामक एक नयी पार्टी गठित की। वर्ष 1977 के आम चुनावों में बाबू जगजीवनराम की विजय हुई तथा वें रक्षा मंत्री बने। 25 मार्च 1977 को कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी, जनता पार्टी में सम्मिलित कर ली गयी जिसके बाद जनवरी 1979 में बाबू जगजीवनराम भारत वर्ष के उपप्रधानमंत्री के बनाए गए। श्रीमती इंदिरा गांधी के विरोध में जयप्रकाश नारायण द्वारा दिया गया नारा-‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ!’ बढ़-चढ़ कर लगवाया। किन्तु जब सन् 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की जघन्य हत्या की गई तो इस समाचार को सुन कर वे व्यथित हो कर बोल उठे थे-‘‘अब राजनीति में मैं किसका विरोध करूंगा?’’ बाबू जगजीवनराम ने इंदिरा गांधी के जीवनकाल में न तो उनके लिए कोई अभद्र टिप्पणी की और इंदिरा गांधी ने भी बाबू जगजीवनराम के लिए कभी कोई अपशब्द नहीं कहे। परस्पर एक-दूसरे पर लांछन लगाते समय भी मर्यादा की एक सीमा स्वतः ही तय रखी गई।     

इस लोकसभा चुनाव के दौरान भाषा की आक्रामकता ने अपनी सारी हदें तोड़ दी हैं। जबकि लोकतंत्र में आक्रामकता का कोई स्थान नहीं होता है। फिर भी आक्रामक वक्तव्यों वाले नेताओं को स्वीकार्यता मिल रही है और यही उनकी श्रेष्ठता बताई जा रही है। क्या हम एक नया आक्रामक लोकतंत्र रच रहे हैं? जिसने समता और समानता को अपने पैरों तले दबा रखा है। इस दौरान समाज की नैतिकताएं कमजोर हुई हैं। इन्हीं कमजोरियों को अपनी शक्ति बनाकर सत्ता के स्वप्न-महल खड़े किए जा रहे हैं। जबकि भाषाई हिंसा से किसी का भला नहीं होता है। भाषाई हिंसा सौहार्द्य को सुखा कर लोकतंत्र को निस्तेज बना देती है। ध्यान से देखें तो हमारे लोकतांत्रिक मूल्य तेजी से नीचे गिरा रहे हैं। जिन्हें समय रहते बचाए जाने की जरूरत है।
जरूरत तो इस बात की भी है कि आतंकवाद के विरोध को किसी एक राजनीतिक दल की थाती की भांति पेश करना छोड़ कर सम्पूर्ण भारतवासियों के द्वारा प्रकट किया जाने वाले विरोध के रूप में सामने रखें। आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीतिक दलों द्वारा परस्पर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने से वैश्विक पटल पर हमारी विचारधारा और हमारे आचरण की हंसी ही उड़ेगी। कसाब और उसके साथियों का मुबई तक घुस आना और पुलवामा में सैनिकों की गाड़ियों में किए जाने वाले विस्फोटों की योजना का समय रहते पता न चल पाना हमारी सुरक्षा खामियों की ओर संकेत करता है। अतः ऐसे मसलों को चुनावी मैदान में घसीटने से किसी का भला नहीं होने वाला है। आम जनता सिर्फ़ उसी की ओर आकर्षित होती है जो उसकी रोजी-रोटी और उसके बच्चों के सुखद भविष्य की योजनाएं सामने रखता है। अतः चुनावी मैदान में उतरे सभी राजनीतिक दलों को सुप्रीमकोर्ट की फटकार की सीमा तक पहुंचने से बेहतर है कि वे अपने संयम को सहेज कर चलें।   
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 24.04.2018)
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