- डॉ. शरद सिंह
भारतीय स्त्री के सामाजिक विकास की कथा यदि लिखी जाए तो उसमें आए उतार-चढ़ावों से स्त्री के संघर्ष की कथा बखूबी उभरकर सामने आ जाएगी। दिलचस्प बात है कि मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं का वास्ता देकर पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह जैसी कुप्रथाओं को हर बार परिस्थितिजन्य "बेचारगी" कह दिया जाता है। जबकि इन्हीं कारणों एवं परिस्थितियों के बारे में दूसरे पक्ष से विचार करें तो समाज की और विशेष रूप से पुरुषों की वह कमजोरी साफ-साफ दिखाई देती है जिसमें वे हाथ में तलवार धारण करके भी अपनी स्त्रियों को बचाने में सक्षम साबित नहीं होते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि "हम तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते हैं इसलिए या तो तुम पर्दे के पीछे छिपी रहो या फिर आग में, पानी में कहीं भी कूद कर अपने प्राण दे दो।" जो स्त्रियां भयभीत हो गईं या जिनमें परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढालने का साहस नहीं था, उन्होंने अपने पुरुषों की बात मान ली। लेकिन जिनमें संकटों से जूझने का साहस था वे जीवित नहीं और उनके जीवत रहने से ही सामाजिक पीढ़ियों का सतत प्रवाह जारी रह सका।
समाज का ढांचा चंद्रमा की सतह के समान ऊबड़-खाबड़ है, कहीं समतल है तो कहीं गहरी खाइयां। यदि स्त्री पुरुषप्रधान समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप चले तो सब कुछ ठीक-ठाक है, अन्यथा सब कुछ गड़बड़ है। इसका एक कारण यह भी है कि सदियों से दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, सीता आदि देवियों की छवि परंपरागत रूप से भारतीय जनमानस में बैठी हुई है जो समाज ने स्वयं गढ़ी हैं और दुर्भाग्यवश स्त्रियों ने इन्हें आंख मूंद कर समर्थन भी दिया। इसीलिए आमतौर पर भारतीय स्त्री में इसी छवि को ढूंढ़ा जाता है तब मुसीबतों का पहाड़ स्त्रियों पर ही टूटता है। यह छवि टूटती दिखाई देती है तो बवाल मच जाता है। दक्षिण भारतीय अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर बनी फिल्म "डर्टी पिक्चर" में उन मानकों के टूटने की कथा है जो स्त्री के लिए गढ़े गए हैं। इसमें समाज के उस दोहरेपन की कथा है जो समाज में सर्वत्र व्याप्त है। यह उस औरत के जीवन की कथा है जिसने पुरुषों की दबी हुई लालसा के आधार पर अपनी क्षमता को साबित करना चाहा और किया भी। पुरुषों की दबी हुई लालसा और समाज का दोहरापन कुछ-कुछ ऐसी ही है जैसे पाठ्यपुस्तक में छिपाकर वयस्क सामग्री वाली पत्रिका पढ़ी जाए। स्त्री को जब यह लगता है कि यदि वह वयस्क सामग्री बन जाएगी तो पुरुष उसे हाथोहाथ लेंगे। ऐसा होता भी है। लेकिन यह स्थिति एक भ्रम के समान जब टूटती है तब स्त्री पाती है कि उसके तमाम प्रशंसक पुरुष तो अपनी-अपनी खोल में वापस दुबक चुके हैं और वह बीच बाजार में एक बिकाऊ वस्तु की भांति अकेली खड़ी अपनी बोली लगने की प्रतीक्षा कर रही है।
स्त्री के साथ छल दोनों स्थिति में किया जाता है-देवी के रूप में भी और डर्टी पिक्चर के रूप में भी। पहली स्थिति में वह देवी से कब देवदासी बना दी जाती है, उसे पता ही नहीं चलता...और दूसरी स्थिति में वह कब दिलों की रानी से डर्टी पिक्चर की डर्टी हीरोइन बना दी जाती है, वह समझ ही नहीं पाती है। वहीं एक तीसरी स्थिति भी है जो स्त्री को अपने समग्र के साथ जीने का और आगे बढ़ने का भरपूर अवसर देती है यदि वह उस अवसर को पहचान कर उसका लाभ उठा ले। विद्या बालन की क्षमता के रूप में सामने आता है। "परिणिता" की विद्या बालन एक देवी रूप का चरित्र निभाती है किंतु "डर्टी पिक्चर" की विद्या बालन सिल्क स्मिता के चरित्र को निभाती हुई "डर्टी हीरोइन" की छवि के साथ सामने आती हैं। एक विशुद्ध भारतीय चेहरे-मोहरे वाली विद्या बालन ने अपने अभिनय से सिद्ध कर दिया कि समाज में "सेक्स" आज भी भी उतना ही बिकता है जितनी की स्त्री की देवी वाली छवि, क्यों कि पुरुषप्रधान समाज अपनी प्रकट आकांक्षाओं के साथ बाकी आकांक्षाओं को भी छोड़ना नहीं चाहता है। इसीलिए दोनों छवियां समनांतर बनी हुई हैं। इनमें कभी एक का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी दूसरी का। वहीं एक बात और उभरकर सामने आई कि आज की स्त्री सम्हल कर चलना सीख गई है। सत्तर-अस्सी के दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बाद की स्त्री में बहुत अंतर आ चुका है। उसने दोनों छवियों के बीच का रास्ता ढूंढ़ लिया है, ठीक मध्यवर्ग की तरह यह न तो शोषित है और न ही विद्रोही। मानो वह घोषणा कर रही हो कि "मेरी क्षमता देखो और तय करो कि तुम मुझे दोनों में से किस पाले में रखना चाहते हो? यदि दोनों में नहीं तो मुझे अपने लिए स्वयं रास्ता बनाने दो और और आगे बढ़ने दो, बस तुम मेरे साथ-साथ चलो, न आगे-आगे और न पीछे-पीछे।"
(एक लम्बी यायावरी और .... दो पुस्तकों का लेखन पूरा करने के बाद पुनः हाज़िर हूं......)
काफ़ी दिनों के बाद आपकी पोस्ट पढने मिली।
ReplyDeleteपुन: हाजिरी पर स्वागत है।
हार्दिक आभार ललित शर्मा जी....
ReplyDeleteसमाज का ढांचा चंद्रमा की सतह के समान ऊबड़-खाबड़ है, कहीं समतल है तो कहीं गहरी खाइयां।सामाजिक परतों का तापमान भी चन्द्र तापमान की तरह बड़ा विषम है .बेहद कसी हुई समीक्षा .अभी तक जितनी पढ़ी उनमे अव्वल .आपकी ब्लॉग वापसी मूड एलीवेटर साबित हुई है .बधाई पुस्तकों को संपन्न करने और घुमक्कड़ी के लिए .
ReplyDeleteमुझे अपने लिए स्वयं रास्ता बनाने दो और और आगे बढ़ने दो, बस तुम मेरे साथ-साथ चलो, न आगे-आगे और न पीछे-पीछे।"
ReplyDeleteयही चाहती है नारी, आगे निकलने कि चाह नहीं साथ तो चल सकती है बराबरी से... बस तुम उसके साथ चलो...
AADARNIY SHARAD JI,
ReplyDeleteBAHUT DINON BAAD AAP KA AANA HUA , SWAGAT HAI,
BILKUL SAHI BAAT AAPNE APNI POST MAIN LIKHI HAI,
NAYI KITABON KE LIYE BHI BAHUT BAHUT BADHAI
इक्कीसवीं सदी में भी सामंती रूढ़ियों वाले पुरु-प्रधान समाज में नारी के लिए आत्माभिव्यक्ति में कितनी कठिनाई हो सकती है, यह सहज अनुमेय है। फिर भी आपने इस लेख के माध्यम से जो आवाज उठाई है वह प्रशंसनीय है।
ReplyDeleteइस विषय पर बहुत से आलेख आए, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यह सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए तो आपकी इतने दिनों से कमी खल रही थी, ब्लॉगजगत में।
फिर से स्क्रिय होने के लिए स्वागत और आभार।
Dr miss Sharad first of all ,I would like to say sorry,on a Hindi platform I am commenting in non Hindi medium ,due to lack of translation facilities.
ReplyDeleteIt is very -2 appreciable statement /views on woman scenario
now and then ,there is a slightly difference in our society" s attitude and thinking ,it must be go on ,up to reach its highest and equal peak of man and woman altitude .We can not, complete the words of VANI- " SO KYON MANDA AAKHIYE ,JIN JAMAYA RAJAAN" wich we have given to our path .There is need to change the current of evil's definition and demarcation of inhuman, ill-logistic posture and boundaries erected against our reverend part of not life but nature .Revolutionary skill is needed to overcome this bifurcation and prejudices .A lot of thanks , and best wishes ,to raise this burning issue ,and warm welcome on cumming back after long interval.
यही तो दुर्भाग्य है, जिस देश में नारी को देवी के रूप में पूजा जाता है उसी देश में नारी के साथ तरह तरह के अत्याचार होते हैं.......
ReplyDeleteनारी के देवी से लेकर डर्टी पिक्चर बनने तक के सफर और इसके कारकों पर बढिया चर्चा।
काफी दिनों बाद आपको ब्लाग में देखा...... आपकी किताबों के संबंध में भी बताएंगी आने वाले दिनों में ऐसी उम्मीद है।
डर्टी पिक्चर के बहाने हालात की संतुलित समीक्षा.
ReplyDeleteबढ़िया है....संतुलित विश्लेषण करता आलेख, हर हाल में स्त्री शोषण का शिकार रही है , आज भी है....
ReplyDeletehalat ki sundar samiksha....aabhar
ReplyDeleteजो लडकियाँ glamour और sex में अपना अच्छा भविष्य तलाश रही हैं उनके लिए ये फिल्म एक सबक है.देखना चाहिए ये फिल्म.
ReplyDelete"हम तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते हैं इसलिए या तो तुम पर्दे के पीछे छिपी रहो या फिर आग में, पानी में कहीं भी कूद कर अपने प्राण दे दो।"
ReplyDeleteकितना सटीक और सपाट लिखा है ..पुरुषों ने हमेशा अपनी आकाँक्षाओं को महत्त्व दिया है .. परिणीता से डर्टी पिक्चर तक का सफर .. बहुत सार्थक विश्लेषण ..अच्छी समीक्षा .
पुस्तक लेखन के लिए बधाई ..आपकी कमी खल रही थी
इस फिल्म में आज की सही तस्वीर है , इससे मुह नहीं मोड़ा जा सकता.....बहुत ही यथार्थ-चित्रण आपने इस पोस्ट में किया है. सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteकलेंडर
निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के पहले अश्सक की नारी आज ज्यादा सक्षम और समर्थ है...घर में और बाहर भी...
ReplyDeleteस्वागत..और दोनो पुस्तकों के लेखन पर बधाई..
ReplyDeleteउम्दा चिन्तन एवं विश्लेषण!!
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