आधी दुनिया - पूरा सच
उन्नीस साल की एक लड़की,
सांवली, दुबली और घबराई हुई। वह रेलवे
स्टेशन में भटक रही थी। वह नहीं जानती थी कि कौन-सी गाड़ी कहां जाएगी। वह पढ़ना नहीं
जानती थी। वह किसी से कुछ पूछ भी नहीं पा रही थी क्यों कि उसकी बोली-भाषा समझने वाला
वहां कोई नहीं था। कुछ देर प्लेटफॉर्म पर भटकने के बाद वह एक कोने में बैठ कर रोने
लगी। लोगों ने समझा कि वह पगली है। उसकी दशा भी उसे पगली सिद्ध कर रही थी। फटी-सी मैली
साड़ी और उतारन के रूप में मिला हुआ ढीला ब्लाउज़। कुल दशा ऐसी कि मानो दस दिन से अन्न
का दाना उसके पेट में न गया हो। एक कुली का ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हुआ। तब तक वहां तमाशबीनों
की भीड़ लग गई और कौतूहल जाग उठा कि यह युवती कौन है? वह स्वयं को लोगों से घिरा हुआ पा
कर एक बार फिर घबरा कर रोने लगी। वह रोती हुई क्या कह रही थी कोई समझ नहीं पा रहा था।
उसी दौरान कोई ओडिया सज्जन उधर आ निकले तब उन्होंने बताया कि वह आंचलिक ओडिया बोल रही
है। फिर उन सज्जन ने उस युवती से पूछ-पूछ कर उस युवती की जो दुख भरी गाथा सुनाई उसने
सुनने वालों के रोंगटे खड़े कर दिए।
वह युवती ब्याह कर लाई गई थी। किन्तु उसका विवाह वास्तविकता में ‘विवाह’ नहीं एक प्रकार का सौदा था
जिसमें उस युवती तो दो समय की रोटी के बदले बेचा गया था।
मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड में भी ओडीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियों को
विवाह करके लाया जाना ध्यान दिए जाने योग्य मसला हैं। क्योंकि यह विवाह सामान्य विवाह
नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं
जलता है, ये
उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी
का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते
हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं
संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच
में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों
को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र
में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की
कमी हो गई है। माना कि यह सच है कि सोनोग्राफी पर कानूनी शिकंजा कसे जाने के पूर्व
कुछ वर्ष पहले तक कन्या भ्रूणों की हत्या की दर ने लड़कियों का प्रतिशत घटाया है लेकिन
मात्रा यही कारण नहीं है जिससे विवश हो कर सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों की अत्यंत
विपन्न लड़कियों के साथ विवाह किया जा रहा हो।
यह कोई सामाजिक आदर्श का मामला भी नहीं है।
खरीददार जानते हैं कि ‘ब्याह कर’ लाई गई ये लड़कियां पूरी तरह से उन्हीं की दया पर निर्भर हैं
क्योंकि ये लड़कियां न तो पढ़ी-लिखी हैं और न ही इनका कोई नाते-रिश्तेदार इनकी खोज-ख़बर
लेने वाला है। ये लड़कियां भी जानती हैं कि इन्हें ब्याहता का दर्जा भले ही दे दिया
गया है लेकिन ये सिर नहीं उठा सकती हैं। ये अपनी उपयोगिता जता कर ही जीवन के संसाधन
हासिल कर सकती हैं। इन लड़कियों के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह भी है कि ये अपनी बोली-भाषा
के अलावा दूसरी बोली-भाषा नहीं जानती हैं अतः ये किसी अन्य व्यक्ति से संवाद स्थापित
करके अपने दुख-दर्द भी नहीं बता सकती हैं। इनमें से अनेक लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने
इससे पहले कभी किसी बस या रेल पर यात्रा नहीं की थी अतः वे घर लौटने का रास्ता भी नहीं
जानती हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लौट कर जाने के लिए इनके पास कोई ‘अपना’ नहीं है। जिन्होंने इन लड़कियों
को विवाह के नाम पर अनजान रास्ते पर धकेला है वे या तो इन्हें अपनाएंगे नहीं या फिर
कोई और ‘ग्राहक’
ढूंढ निकालेंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग़रीबी की आंच सबसे पहले औरत की देह को जलाती है। अपने
पेट की आग बुझाने के लिए एक औरत अपनी देह का सौदा शायद ही कभी करे, वह बिकती है तो अपने परिवार
के उन सदस्यों के लिए जिन्हें वह अपने से बढ़ कर प्रेम करती है और जिनके लिए अपना सब
कुछ लुटा सकती है। लेकिन देह के खेल का एक पक्ष और भी है जो निरा घिनौना है। यही है
वह पक्ष जिसमें परिवार के सदस्य अपने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी बेटी या बहन को
रुपयों की लालच में किसी के भी हाथों बेच दें। औरतों का जीवन मानो कोई उपभोग-वस्तु
हो- कुछ इस तरह स्त्रियों को चंद रुपयों के बदले बेचा और खरीदा जाता है। इस प्रकार
के अपराध कुछ समय पहले तक बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में ही प्रकाश
में आते थे लेकिन अब इस अपराध ने अपने पांव इतने पसार लिए हैं कि इसे मध्यप्रदेश के
गांवों में भी घटित होते देखा जा सकता है। इस अपराध का रूप ‘विवाह’ का है ताकि इसे सामाजिक मान्यताओं
एवं कानूनी अड़चनों को पार करने में कोई परेशानी न हो।
(‘इंडिया इनसाईड’ पत्रिका के मई 2012 अंक में प्रकाशित मेरा लेख साभार)
मेरा यह लेख इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -
http://indiainside.webs.com/
इसे ‘बिहिनिया संझा’ के 17 मई 2012 के अंक में इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है - www.bihiniyasanjha.blogspot.in
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इसे ‘बिहिनिया संझा’ के 17 मई 2012 के अंक में इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है - www.bihiniyasanjha.blogspot.in
sach kaha aapne, agar ladki ka janm nira gareeb ghar main hota hai to main bhi yahi kahunga,
ReplyDelete" NAA AANA IS DESH LADO " INSANON KI DUNIYA MAIN INSAAN AB KAM HI BACHE HUYE HAIN
संजय कुमार चौरसिया जी,
Deleteमेरे लेख पर अपने विचार प्रकट करने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग़रीबी की आंच सबसे पहले औरत की देह को जलाती है। अपने पेट की आग बुझाने के लिए एक औरत अपनी देह का सौदा शायद ही कभी करे, वह बिकती है तो अपने परिवार के उन सदस्यों के लिए जिन्हें वह अपने से बढ़ कर प्रेम करती है और जिनके लिए अपना सब कुछ लुटा सकती है।
ReplyDeleteगहन मुद्दे पर आपकी लेखनी चली है .... आभार
संगीता स्वरुप जी,
Deleteमेरे लेख को पसन्द करने और बहुमूल्य टिप्पणी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
www.bihiniyasanjha.blogspot.in
ReplyDeleteमनोज कुमार जी,
ReplyDeleteआपके विचारों ने मेरा उत्साह बढ़ाया. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ....
कौशल तिवारी जी,
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर फिर आने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
आपका आना सुखद लगा ....आपका स्वागत है।
अपने पेट की आग बुझाने के लिए एक औरत अपनी देह का सौदा शायद ही कभी करे, वह बिकती है तो अपने परिवार के उन सदस्यों के लिए जिन्हें वह अपने से बढ़ कर प्रेम करती है और जिनके लिए अपना सब कुछ लुटा सकती है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा है आपने ... सार्थकता लिए हुए सटीक प्रस्तुति ...आभार
झिंझोड़ती सी स्थिति है आज भी...
ReplyDelete21 सदी लगता है केवल नारों में आई है.
संवदनशील आलेख....सादर।
झिंझोड़ती सी स्थिति है आज भी...
ReplyDelete21 सदी लगता है केवल नारों में आई है.
संवदनशील आलेख....सादर।
संवेदनशील वस्तुपरक सार्थक लेखन / हमारी संवेदना कितनी है ,संज्ञान कितना है,सरोकार कितना है ?अपने देश व समाज से ,यह आलेख बताता है / हमारी सरकारों की प्राथमिकता क्या है ,देशवासियों के प्रति उनकी प्रतिवद्धता क्या है ? इक्कीसवीं सदी का देश अठारवीं में क्यों है ? क्या यही पसंद है हमारी भारतीय जनाकांक्षा को ? ,,, मार्मिक दृष्टान्त ....... शुक्रिया जी डॉ,शरद
ReplyDeleteअंतस को झिझोंड कर रख दिया आपके इस लेख ने.
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