– डॉ. शरद सिंह
यमन एक इस्लामिक देश
है जहां पर्दा प्रथा का कड़ाई से पालन कराया जाता है। स्त्रियों को घर से बाहर
निकलने की मनाही है। विवशता में ही वे घर से बाहर निकलें, यही उनसे अपेक्षा की जाती
है। एक तो कठोर पुरुषवादी सामाजिक व्यवस्था और उस पर सत्ता पर कोई तानाशाह हो तो
इसे करेला और नीम चढ़ा ही कहा जा सकता है। यमन की स्त्रियां इसी विषाक्त कड़वाहट
को झेलने के लिए विवश हैं। किन्तु कहा जाता है कि अतिवाद से ही उदारवाद और
परिवर्तन का अंकुर फूटता है। यही यमन में भी हुआ। सन् 2011 से पहले किसी ने सपने
में भी नहीं सोचा होगा कि स्त्री-स्वातंत्रय विरोधी, कट्टरपंथी समाज वाले यमन की
किसी 32 वर्ष की युवा स्त्री शांति का नोबल पुरस्कार दिया जाएगा। स्वयं यमन के लोग
भी चौंक उठे थे जब उन्हें पता चला कि उनके देश की एक युवती जिसका नाम तवक्कुल
कारमान है, उसे
शांति के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
तवक्कुल कारमान मूल
रूप से राजनीतिज्ञ नहीं पत्रकार हैं। संभवतः इसीलिए अपने देश की स्त्रियों की
समस्याओं को देखने का उनका दृष्टिकोण राजनेताओं से भिन्न है। निश्चत रूप से
उन्होंने समस्याओं की जड़ों तक जा कर हल ढूंढने का प्रयास किया होगा। इसीलिए उनका
ध्यान सबसे पहले इस ओर गया कि उनके देश में आमतौर पर लड़कियों का विवाह सत्रह वर्ष
की आयु पूरी होने के पहले ही कर दिया जाता है अर्थात् बालविवाह। इससे लड़कियों के
स्वास्थ्य और समूचे जीवन पर बुरा असर होता है। अपना भला-बुरा सोचने की समझ पैदा होने
से पहले ही उन्हें विवाह के बंधन में बांध कर शिक्षा पाने और देश के विकास में
सहयोगी बनने से रोक दिया जाता है। तवक्कुल को यह विसंगति रास नहीं आई। किन्तु रास्ता बहुत कठिन था। जो पुरुष सहयोगी
घर से बाहर उनकी गतिविधियों को सहन कर रहे थे वे भी तवक्कुल के विरोध में जा खड़े
हुए जब उन्हें लगा कि इससे उनके घर की औरतें कुछ अधिकार पा जाएंगी। उनकी बेटियां
सत्राह वर्ष की आयु होने तक उनके घर पर ही रहेंगी। यह नया पर तवक्कुल के सहयोगी
पुरुषों को आपत्तिजनक लगा। इसीलिए जब तवक्कुल ने एक कानून बनवाने की कोशिश की
जिसके बाद 17 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी पर पाबंदी लग जाती तो उनकी
पार्टी वालों ने ही उसका विरोध किया। तवक्क्कुल कारमान समझ गईं कि अतिवादी पुरुषों
का विरोध उन्हें झेलना ही होगा। तवक्कुल के अपने ही साथी उन्हें इस्लाम विरोधी
मानने लगे और उन पर आरोप लगाने लगे कि तवक्कुल की चले तो वे उनके घरों से औरतों को
बाहर कर दें। तवक्कुल इस विरोध से डरी नहीं। वे जानती थीं कि यह तो होगा ही। क्यों
कि यमन जैसे देश में जहां लड़कियों की कहीं भी आवाज सुनायी नहीं देती और पर्दा
प्रथा के कारण चेहरे भी दिखाई नहीं देते वहां स्त्रियों के अधिकार की बात करने पर
विरोध तो होगा ही।
तवक्कुल उस ‘इस्लाह
पार्टी’ की
सदस्य हैं जो यमन के तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह की कठोरता के कारण मुख्यधारा से
कटते चले गए किन्तु उनके मन में परिवर्तन की लौ जलती रही। यह पार्टी मूलतः इस्लामी
पार्टी है लेकिन तवक्कुल ने उस पार्टी में भी कुछ उदारवादी रुझान शामिल किया। भले
ही उनकी पार्टी के लोग उनके प्रभाव के कारण उनसे डरते हैं लेकिन वे कारमान के उदार
रवैये एक विरोध भी करते हैं। वहीं दूसरी यमन में तीस साल से चली आ रही तानाशाही को
खत्म करने के लिए शुरू हुए आन्दोलन की नेता तवक्कुल को यमन के लोग ‘क्रांति की मां’ कह कर पुकारते हैं। इसी लिए
तवक्कुल को विरोध में भी आशा की किरण दिखाई देती है। वे मानती हैं कि एक दिन अवश्य
ऐसा आएगा जब उनके उदार विचारों विशेष रूप से स्त्रियों के हित में सामने रखे जाने
वाले विचारों का उनके विरोधी भी सहृदयता से स्वागत करेंगे और आत्मसात करेंगे।
तवक्कुल को विश्वास है कि उनके देश के कट्टर विचारों वाले पुरुष एक दिन इस तथ्य को
समझ जाएंगे कि किसी भी देश का सर्वांगीण विकास तभी संभव है जब उस देश की स्त्रियों
को बराबरी का अधिकार दिया जाए।
यमन में स्त्री शिक्षा की दर
न्यूनतम है, स्त्री-स्वास्थ्य के मामले में भी पर्याप्त जागरूकता नहीं है, वस्तुतः
वहां की स्त्रियां स्वयं को परम्परागत सामाजिक बंधनों के आगे विवश पाती हैं।
कट्टरवादी पुरुषप्रधान समाज में आम स्त्री को यह अधिकार नहीं होता है कि वह परिवार
के पुरुषों की अनुमति के बिना अपने जीवन को कोई दिशा दे सकें या अपनी बेटियों के
लिए स्वतंत्राता के सपने देख सकें। तवक्कुल ने इस लगभग असंभव को संभव बनाने की
दिशा में पहल करते हुए हर तरह का जोखिम उठाया। क्रांति और परिवर्तन के प्रयास के
दौरान उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण और सशक्तिकरण की मांग को छोड़ा
नहीं वरन् प्रत्येक अवसर पर इन मांगों को सामने रखती रहीं। उनकी इसी दृढ़ता और
सामाजिक शांति तथा विकास के प्रयासों के कारण उन्हें नोबल सम्मान दिया गया। अपनी
भारत यात्रा के दौरान तवक्कुल भारतीय स्त्रियों की प्रगति से अत्यंत प्रभावित
हुईं। उन्होंने ने माना कि ऐसे ही बहुमुखी विकास की आकांक्षा वे अपने देश की स्त्रियों
के लिए भी रखती हैं।
(साभार- दैनिक ‘नेशनल दुनिया’ में 16.06.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)
बहुत अच्छी जानकारी मिली ....
ReplyDeleteसशक्त लेखन.......
ReplyDeleteअच्छा लगा तवक्कुल को आपकी कलम से जानना.
सादर
अनु
बहुत अच्छी जानकारी मिली , सशक्त लेखन
ReplyDeleteजानकारीपूर्ण लेख के लिए आभार जी.
ReplyDeleteजानकारीपूर्ण आलेख
ReplyDeleteनारी सशक्तीकरण के दिशा में एक और कदम...
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