Dr Sharad Singh |
My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
वायु प्रदूषण की दिल्ली अब दूर नहीं है
- डॉ. शरद सिंह
दिल्ली में पिछले 17 वर्षों की सबसे खतरनाक धुंध को देखते हुए पूरे देश में चिन्ता के बादल छा गए। राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए समय रहते रक्षात्मक कदम न उठाने के लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने दिल्ली सरकार को फटकार लगाई। एनजीटी ने पानी के छिड़काव के लिए हेलीकॉप्टरों के इस्तेमाल तक के लिए कहा। जो दशा आज हम दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में देख रहे हैं, वह देश के किसी भी हिस्से में कल दिखाई देने लगे तो आश्चर्य नहीं होगा। यह भयावह स्थिति किसी एक दिन में नहीं बनी। दिवाली के पटाखों या खेत के धुंए ने तो बस आखिरी बूंद का काम किया है।
यूं तो प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से वायु के दूषित होने की प्रक्रिया वायु प्रदूषण कहलाती है। लेकिन वर्तमान दशा बताती है कि मानवीय कारणों ने वायु को प्रदूषित करने में प्रकृति को बहुत पीछे छोड़ दिया है। भारत जैसे विकासशील देश में प्राकृतिक संसाधनों को अनुचित दोहन और कृत्रिम तत्वों के अधिकतम प्रयोग ने पर्यावरण को अनुमान से कहीं अधिक नुकसान पहुंचाया है। यदि दिल्ली का ही उदाहरण लें तो जिस समय दिल्ली के मुख्यमंत्री ने गाड़ियों के लिए ऑड-इवेन फार्मूला पहली बार लागू किया था, उस समय उसे भी यह अनुमान नहीं था कि चंद माह बाद दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर मापने की क्षमता से भी कहीं अधिक पाया जाएगा। शाम होते-होते धुंधलका छा जाना कई वर्षोंं दिल्ली के लिए आम बात रही है। सभी ने इसे लगभग अनदेखा किया। भले ही वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में श्वास रोगियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। वाशिंगटन विश्वविद्यालय द्वारा 1999 से 2000 के बीच किए एक अध्ययन के अनुसार सूक्ष्म वातावरण, वायु प्रदूषण में रहने वाले मरीजों को फेफडों के संक्रमण का जोखिम अधिक रहता है। वायु में घुल जाने वाले विशिष्ट प्रदूषक एरुगिनोसा या बी-सिपेसिया घातक रोगों के कारण बनते हैं। एक अध्ययन के दौरान पाया गया कि एक हजार में से लगभग 117 मौतें सिर्फ़ वायु प्रदूषण के कारण हुईं। अध्ययन बताते हैं कि शहरी क्षेत्रों में मरीज बलगम की अधिकता, फेफड़ों की क्षमता कम होना और गंभीर खांसी से अधिक पीड़ित रहते हैं।
वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) के अनुसार ‘वायु प्रदूषण एक एैसी स्थिति है जिसके अन्तर्गत बाह्य वातावरण में मनुष्य तथा उसके पर्यावरण को हानि पहुचाने वाले तत्व सघन रूप से एकत्रित हो जाते हैं।‘ दूसरे शब्दों में वायु के सामान्य संगठन में मात्रात्मक या गुणातात्मक परिवर्तन, जो जीवन या जीवनोपयोगी अजैविक संघटकों पर दुष्प्रभाव डालता है, वायु प्रदूषण कहलाता है।
हम यह सोच कर तसल्ली नहीं रख सकते हैं कि जो संकट महानगरों में दिखाई दे रहा है वह छोटे शहरां अथवा औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े इलाकों में नहीं गहरा सकता है। संकट के कारण अलग हो सकते हैं लेकिन संकट की भयावहता दिल्ली जैसी ही रहेगी।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
विश्व में औद्योगिक विकास के बाद कई ऐसी घटनाएं घटीं जिनसे सबक लेते हुए वायु प्रदूषण के नियंत्रण पर गंभीरता सेध्यान दिया जाना चाहिए था। किन्तु अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ। अमेरिका में वायु प्रदूषण की सबसे भीषण घटना डोनोरा, पेनसिल्वेनिया में 1948 के अक्टूबर के अन्तिम दिनों में हुई जिसमे 20 लोग मरे गए और 7,000 लोग घायल हो गए थे। इंग्लैंड को अपना सबसे बुरा नुकसान जब हुआ तब 4 दिसम्बर 1952 को लन्दन में भारी धूम कोहरा की घटना हुई। छह दिन में 4000 से अधिक लोग मारे गए और बाद के महीनों के भीतर 8000 और लोगों की मृत्यु हो गई। सन् 1979 में पूर्व सोवियत संघ में स्वर्डर्लोव्स्क के पास एक जैविक युद्ध कारखाने से अन्थ्रेक्स के रिसाव से सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो गयी थी। भारत में सबसे भयंकर नागरिक प्रदूषण आपदा 1984 में भोपाल आपदा थी। संयुक्त राज्य अमरीका की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री कारखाने से रिसने वाली गैस से 2000 से अधिक लोग मारे गए और 150,000 से 600,000 दूसरे लोग घायल हो गए जिनमे से 6,000 लोग बाद में मारे गए। जबकि ये तथ्य किसी से भी छिपे नहीं रहे कि वायु प्रदूषण से होने वाले स्वस्थ्य प्रभाव जैविक रसायन और शारीरिक परिवर्तन से लेकर श्वास में परेशानी, घरघराहट, खांसी और विद्यमान श्वास तथा हृदय की परेशानी हो सकती है। इन प्रभावों का परिणाम दवाओं के उपयोग में वृद्धि होती है, चिकित्सक के पास या आपातकालीन कक्ष में ज्यादा जाना, ज्यादा अस्पताल में भरती होना और असामयिक मृत्यु के रूप में आता है। वायु की ख़राब गुणवत्ता के प्रभाव दूरगामी है परन्तु यह सैद्धांतिक रूप से शरीर की श्वास प्रणाली और हृदय के संचालन को प्रभावित करता है। वायु प्रदुषण की व्यक्तिगत प्रतिक्रिया उस प्रदूषक पर, उसकी मात्रा पर, व्यक्ति के स्वास्थ्य की स्थिति और अनुवांशिकी पर निर्भर करती है जिससे वह व्यक्ति संपर्क में रहता है।
बुंदेलखंड पर भी संकट
हम विश्व के किसी भी हिस्से में ‘शुद्ध वायु’ नहीं प्राप्त कर सकते। भारत में भी 1970 के दशक से ही प्रदूषण के व्यापक प्रभावों के बारे में विशेष अध्ययन किये गये हैं। वर्तमान में सभी महानगरों एवं औद्योगिक केन्द्रों में प्रदूषण मापन के यन्त्र लगाना प्रशासन ने अनिवार्य कर दिया है। देश की कई संस्थायें इस काम में लगी हुई है। इनमें से नागपुर की (राष्ट्रीय पारिस्थितिकी एवं परिवेश शोध संस्थान), प्रमुख विश्वविद्यालयों के पर्यावरण विभाग, भारतीय टेक्नालाजी संस्थान, भाभा आणविक शोध केन्द्र, बम्बई, पर्यावरण नियोजन एवं समन्वयय की राष्ट्रीय समिति, भारत सरकार का केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं श्रम मंत्रालय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सभी कार्यों का परिवेश एवं नियोजन एवं समन्वय की राष्ट्रीय समिति से समन्वित कर उनके आधार पर विभिन्न प्रकार के नियम व कानून बनाने की एवं विशेष प्रदूषण नियंत्रण व तकनीक व उपकरण काम में लाने या आयात करने की सलाह दी जाती है। लेकिन योजनाओं एवं सरकारी प्रयासों के साथ ही जरूरत है जन जागरूकता की। सरल शब्दों में कहा जाए तो अपनी और अपनी आने वाली पीढ़ी की सांसों को शुद्ध वायु देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं जागरूक रहना होगा। जागरूक रहने से आशय है स्वच्छता बनाए रखना और अधि से अधिक पेड़ लगाना। बुंदेलखंड में इन दोनों में गिरावट आई है। नागरिकों में जागरूकता की कमी है और जंगल की अवैध कटाई स्थिति को घातक दशा की ओर धकेल रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले साल पड़ा सूखा है। किसानों को आशानुरूप फसल न मिलने पर आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा। इसके पीछे कर्ज न चुका पाने का कारण तो था ही लेकिन इससे बड़ा कारण था सूखे की मार। जो र्प्यावरण के परिवर्तन के परिणामस्वरूप सामने आया।
बुंदेलखण्ड औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। यहां बड़े कारखानों की कमी है। लेकिन इससे यह सोचना गलत होगा कि यहां वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर का खतरा नहीं है। बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में जंगलों और नदियों का होना खतरे के आगमन को धीमा तो कर सकता है लेकिन उससे मुक्त नहीं रख सकता है। यहां के शहरों और गांवों में वायु प्रदूषण के सबसे बड़े कारक हैं खुली बजबजाती नालियां, हर दस कदम पर रखा कूचे-कचरे का ढेर और गंदगी का अंबार। इन सबसे निकलती ज़हरीली गैसें स्लोप्वाइजन का काम करती हुई सांसों को प्रभावित कर रही हैं। केन जैसी सहायक नदियों का जल स्तर तेजी से होता जा रहा है। भू-जल के सतर में भी विगत वर्षों में चिन्ताजनक गिरावट आई है। दरअसल चाहे वायु हो या जल, प्रत्येक प्राकृतिक तत्व संतुलन पर निर्भर रहते हैं। यदि र्प्यावरण सृतुलन बिगड़ेगा तो उपयोगी एवं जीवनदायी प्राकृतिक तत्वों की भी कमी होने लगेगी। बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र इसलिए भी महत्व रखते हैं कि यदि समय रहते इन क्षेत्रों में पर्यावरण के संतुलन को पुनर्स्थापित कर लिया गया तो शहरी क्षेत्रों को भी ये शुद्ध वायु मुहैया करा सकेंगे।
संकट की गंभीरता
दुनिया भर के अत्यधिक वायु प्रदूषण वाले शहरों में ऐसी संभावना है कि उनमें रहने वाले बच्चों में कम जन्म दर के अतिरिक्त अस्थमा, निमोनिया और दूसरी श्वास सम्बन्धी परेशानियां विकसित हो सकती हैं। युवाओं के स्वास्थ्य के प्रति सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित करने के लिए नई दिल्ली जैसे शहरों में बसें अब संपीडित प्राकृतिक गैस का उपयोग प्रारंभ किया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए अनुसंधान बताते हैं कि कम आर्थिक संसाधन वाले देशों में जहां सूक्ष्म तत्वों की मात्रा बहुत ज्यादा है, बहुत ज्यादा गरीबी है और जनसंख्या की उच्च दर है। इन देशों के उदाहरण में शामिल हैं मिस्र, सूडान, मंगोलिया और इंडोनेशिया.स्वच्छ वायु अधिनियम 1970 में पारित किया गया था, लेकिन 2002 में कम से कम 146 मिलियन अमेरिकी ऐसे क्षेत्रों में रहते थे जो 1997 के राष्ट्रीय परिवेश वायु गुणवत्ता मानकों में से एक “प्रदूषक मानदंड“ को भी पूरा नहीं करते थे। उन प्रदूषकों में शामिल हैं, ओज़ोन, सूक्ष्म तत्व, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और सीसा क्योंकि बच्चे ज्यादातर समय घर से बाहर व्यतीत करते हैं इसलिए वे वायु प्रदूषण के खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील है। यह याद रखना जरूरी है कि विश्व में हर सातवां बच्चा वायु प्रदूषण से प्रभावित है।
इस बात को समझना ही होगा कि यदि अब भी स्थितियों की गंभीरता को सिर्फ़ राजनीति के चौसर या बयानबाजी पर उछालना नहीं छोड़ा तो चाहे बुंदेलखंड हो या टिहरी-गढ़वाल हो, वायु प्रदूषण के मामले में अब दिल्ली दूर नहीं है। वह दिन जल्दी ही आ जाएगा जब हर शहर, हर गांव धुंधलके से ढंक जाएगा और लगभग प्रत्येक नागरिक श्वास के गंभीर रोगों से जूझता नज़र आएगा।
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