चर्चा प्लस
Dr (Miss) Sharad Singh |
तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी
- डॉ. शरद सिंह
भारत में बड़ी संख्या में लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूक नहीं है। वहीं यूनाईटेड नेशन्स के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण सन् 2020 तक दुनिया में पांच करोड़ से ज्यादा पर्यावरणीय शरणार्थी होंगे। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
- डॉ. शरद सिंह
भारत में बड़ी संख्या में लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूक नहीं है। वहीं यूनाईटेड नेशन्स के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण सन् 2020 तक दुनिया में पांच करोड़ से ज्यादा पर्यावरणीय शरणार्थी होंगे। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी - डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik |
इंवायरमेंटल रिफ्यूजी यानी पर्यावरणीय शरणार्थी अर्थात् वह व्यक्ति जो
पर्यावरण में हुए प्राकृतिक एवं मानवजनित परिवर्तनों के कारण शरणार्थी बन
गया हो। पहले सिर्फ़ युद्ध-शरणार्थी हुआ करते थे लेकिन अब पर्यावरणीय
शरणार्थी यानी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी होने लगे हैं। सूडान और सोमालिया जैसे
अफ्रिकी देशों में गृहयुद्ध से कहीं अधिक लोग शरणार्थी जीवन बिताने को विवश
हुए हैं प्राकृतिक आपदा के कारण। उनके गांवों के जलस्रोत सूख गए, पानी
उपलब्ध न होने के कारण उनके मवेशी मरने लगे और उनके स्वयं के प्राणों पर
संकट आ गया। जिससे मजबूर हो कर उन्हें अपना गांव, घर छोड़ कर दूसरे देशों
में शरण लेनी पड़ी। लेकिन उनका यह विस्थापन अवैध है क्योंकि इंवायरमेंटल
रिफ्यूजी को शरण देने का कानून अभी किसी भी देश में नहीं बनाया गया है। ऐसे
शरणार्थी वास्तविक शराणार्थी होने पर भी न तो शराणार्थी कहलाते हैं और न
उन्हें कोई सहायता मिल पाती है। यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि
पर्यावरण परिवर्तन के कारण सन् 2050 तक अफ्रिका, लैटिन अमरीका और दक्षिण
एशिया से लगभग 140 मिलियन लोग इंवायरमेंटल रिफ्यूजी के रूप में अपनी मुख्य
भूमि छोड़ कर दूसरे भू भाग में विस्थापित हो जाएंगे।
भारत में भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी बढ़ते जा रहे हैं। ये रिफ्यूजी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपना गांव छोड़ कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर बन कर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखें कि आए दिन किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का समाचार मिलता है। सरकार किसानों को हर संभव सहायता देती है। तो फिर यह आत्महत्या क्यों? यदि राजनीतिक चश्मा उतार कर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दी जाने वाली रुपयों की सहायता से न तो फसल उगाई जा सकती है और न बचाई जा सकती है। फसल उगाने के लिए बुनियादी जरूरत है पानी की। जिसे हम लगभग गंवाते जा रहे हैं।
मई माह के आरम्भ में ही जो गर्मी पड़ रही है वह अपने पिछले रिकॉर्ड तोड़ती हुई नज़र आ रही है। जल स्रोत तेजी से सूख रहे हैं या फिर उनका जलस्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वृक्षों और पोखरों में स्वच्छन्द जीवन बिताने वाले पक्षियों के लिए मुट्ठी भर दाने और एक सकोरा पानी रख देने भर से हम अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह एक सकोरा पानी भी तब तक ही हम पक्षियों को दे सकेंगे जब तक हमारे पास अपनी प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी होगा लेकिन हमारी प्यास भी अब संकट के दायरे में आती जा रही है। हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए मौजूदा पीढ़ीं के लिए ही गंभीर संकट खड़े कर दिए हैं। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, नदियों से रेत का असीमित उत्खनन, जहरीली गैस उत्सर्जन करने वाले वाहनों की सीमा तोड़ती संख्या, खाद्यान्न की आपूर्ति पर जनसंख्यावृद्धि का भारी दबाव जैसे वे प्रमुख कारण हैं जो आज पानी की उपलब्धता, सांस लेने को शुद्ध हवा और तापमान के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और देश का पढ़ा-लिखा तबका यह सब देख कर भी अनदेखा कर रहा है।
सन् 1992 में जब रियो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु कंवेशन पर दस्तखत हुए, तो अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैस पर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया। इसके विपरीत वाशिंगटन ने हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की, जब भी यह तय करने की बात हुई कि किस गैस को कम करना है, किस तरह, कितना और कब। सन् 1997 में अमेरिका ज्यादातर देशों की तरह क्योटो संधि में शामिल होने को तैयार हो गया, जिसमें सिर्फ धनी देशों के लिए उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किये गये थे, जो ग्लोबल वॉर्मिंग का स्रोत समझे जाने वाले कार्बन प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं। अमेरिका कई रियायतें हासिल करने के बाद इसके लिए तैयार हुआ.बिल क्लिंटन के उपराष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन डेमोक्रैटिक प्राशासन इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिये सीनेट में जरूरी दो तिहाई बहुमत कभी नहीं जुटा पाया। और जब बिल क्लिंटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो सारी स्थिति बदल गई.पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी ऐसी संधि के विरोधी थे जो उनके विचार में विकासशील देशों को फोसिल इंधन जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देता था जबकि धनी देशों के हाथ उत्सर्जन की सीमाओं के साथ बांध दिये गये थे। यह संधि 2005 में अमेरिका की भागीदारी के बिना शुरू हुई। रूस के हस्ताक्षर के साथ संधि को लागू करने के लिए जरूरी 55 देशों ने इस पर अनुमोदन के बाद दस्तखत कर दिये थे। कनाडा बाद में संधि से बाहर निकल आया जबकि न्यूजीलैंड, जापान और रूस ने कार्बन कटौती के दूसरे चरण में भाग नहीं लिया। सन् 2009 में दुनिया भर के देश क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पर एक नई संधि करने के लिए इकट्ठा हुए जिसमें अमेरिका, चीन और भारत सहित सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने थे। लेकिन धनी और गरीब देशों के बीच बोझ के बांटने के मुद्दे पर मतभेदों के बीच कोपेनहैगन सम्मेलन विफल हो गया। कुछ दूसरे देशों के समर्थन के साथ अमेरिका ने इस पर जोर दिया कि डील को संधि न कहा जाए। अंत में बैठक में एक अनौपचारिक समझौता हुआ जिसमें औसत ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिक पूर्व स्तर से 2 डिग्री पर रोकने पर सहमति हुई, लेकिन उत्सर्जन में कटौती का कोई लक्ष्य तय नहीं हुआ.अगला लक्ष्य 2015 तक वैश्विक संधि कर लेने का हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के शी जिनपिंग के साथ मिलकर भारत सहित 195 देशों को जलवायु संधि के लिए इकट्ठा किया। उत्सर्जन लक्ष्यों को प्रतिबद्धता के बदले योगदान कहा गया जिसकी वजह से ओबामा इस संधि का अनुमोदन कर पाए। अब डोनाल्ड ट्रम्प इसके लिए प्रयासरत हैं।
भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार दिखने लगी है। बारिश के स्वभाव में आए बदलाव की वजह से हिमालयी राज्यों में कई नदियां रास्ता बदल चुकी हैं। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है। बीते कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह चुके हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से कई नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक बीते कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदला है। अब बारिश बहुत ज्यादा और लंबे समय तक हो रही है। इसकी वजह से नदियां लबालब हो रही हैं। नदियों के रास्ता बदलने से असम के लखीमपुर और धेमाजी जिले के कई गांव साफ हो चुके हैं। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने अपना रास्ता 300 मीटर दूर तक बदला है तो कहीं कहीं नदियां 1.8 किलोमीटर दूर जा चुकी हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) के अनुसार जलवायु की सामान्य स्थिति में बरसात पूरे साल अच्छे ढंग से बंटी रहती है। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका स्वभाव बदला है। भारत सहित पूरी दुनिया में बड़े शहरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन विशेषज्ञों की राय में यह सिर्फ शुरुआत है। सन् 2050 तक दुनिया की सत्तर फीसदी आबादी शहरों में रहेगी। भारत जैसे देश जिसकी आबादी सवा अरब है। तेजी से बढ़ती जा रही है, इन बड़े शहरों के पर्यावरण को बचाने के लिए काम करना होगा। सवा करोड़ के भारत में शहरों की घनी आबादी पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी बजा रही है। आबादी के मामले में साठ सत्तर लाख से लेकर करोड़ के आंकड़े को छूते इन शहरों में अगर फौरन पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है। पहले से ही घनी आबादी वाले इन शहरों पर दबाव बढ़ेगा। बिजली की जरूरत के अलावा बुनियादी सुविधाओं की भी व्यवस्था करनी होगी। नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्त्रोत गर्माने लगेंगे, तो दूसरी तरफ लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। दिल्ली की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। वहीं मुंबई की भी आबादी लगभग दो करोड़ का आंकड़ा छूने जा रही है।
यदि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी की बढ़ती दर को रोकना है तो हमें सबसे पहले उन सब कामों को रोकना होगा जिनसे पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। वृक्षों को बचाना होगा तथा नए वृक्षों की पौध लगानी होगी तथा उस पौध की ईमानदारी से रक्षा करनी होगी। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
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( दैनिक सागर दिनकर, 03.05.2018 )
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भारत में भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी बढ़ते जा रहे हैं। ये रिफ्यूजी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपना गांव छोड़ कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर बन कर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखें कि आए दिन किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का समाचार मिलता है। सरकार किसानों को हर संभव सहायता देती है। तो फिर यह आत्महत्या क्यों? यदि राजनीतिक चश्मा उतार कर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दी जाने वाली रुपयों की सहायता से न तो फसल उगाई जा सकती है और न बचाई जा सकती है। फसल उगाने के लिए बुनियादी जरूरत है पानी की। जिसे हम लगभग गंवाते जा रहे हैं।
मई माह के आरम्भ में ही जो गर्मी पड़ रही है वह अपने पिछले रिकॉर्ड तोड़ती हुई नज़र आ रही है। जल स्रोत तेजी से सूख रहे हैं या फिर उनका जलस्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वृक्षों और पोखरों में स्वच्छन्द जीवन बिताने वाले पक्षियों के लिए मुट्ठी भर दाने और एक सकोरा पानी रख देने भर से हम अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह एक सकोरा पानी भी तब तक ही हम पक्षियों को दे सकेंगे जब तक हमारे पास अपनी प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी होगा लेकिन हमारी प्यास भी अब संकट के दायरे में आती जा रही है। हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए मौजूदा पीढ़ीं के लिए ही गंभीर संकट खड़े कर दिए हैं। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, नदियों से रेत का असीमित उत्खनन, जहरीली गैस उत्सर्जन करने वाले वाहनों की सीमा तोड़ती संख्या, खाद्यान्न की आपूर्ति पर जनसंख्यावृद्धि का भारी दबाव जैसे वे प्रमुख कारण हैं जो आज पानी की उपलब्धता, सांस लेने को शुद्ध हवा और तापमान के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और देश का पढ़ा-लिखा तबका यह सब देख कर भी अनदेखा कर रहा है।
सन् 1992 में जब रियो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु कंवेशन पर दस्तखत हुए, तो अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैस पर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया। इसके विपरीत वाशिंगटन ने हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की, जब भी यह तय करने की बात हुई कि किस गैस को कम करना है, किस तरह, कितना और कब। सन् 1997 में अमेरिका ज्यादातर देशों की तरह क्योटो संधि में शामिल होने को तैयार हो गया, जिसमें सिर्फ धनी देशों के लिए उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किये गये थे, जो ग्लोबल वॉर्मिंग का स्रोत समझे जाने वाले कार्बन प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं। अमेरिका कई रियायतें हासिल करने के बाद इसके लिए तैयार हुआ.बिल क्लिंटन के उपराष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन डेमोक्रैटिक प्राशासन इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिये सीनेट में जरूरी दो तिहाई बहुमत कभी नहीं जुटा पाया। और जब बिल क्लिंटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो सारी स्थिति बदल गई.पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी ऐसी संधि के विरोधी थे जो उनके विचार में विकासशील देशों को फोसिल इंधन जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देता था जबकि धनी देशों के हाथ उत्सर्जन की सीमाओं के साथ बांध दिये गये थे। यह संधि 2005 में अमेरिका की भागीदारी के बिना शुरू हुई। रूस के हस्ताक्षर के साथ संधि को लागू करने के लिए जरूरी 55 देशों ने इस पर अनुमोदन के बाद दस्तखत कर दिये थे। कनाडा बाद में संधि से बाहर निकल आया जबकि न्यूजीलैंड, जापान और रूस ने कार्बन कटौती के दूसरे चरण में भाग नहीं लिया। सन् 2009 में दुनिया भर के देश क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पर एक नई संधि करने के लिए इकट्ठा हुए जिसमें अमेरिका, चीन और भारत सहित सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने थे। लेकिन धनी और गरीब देशों के बीच बोझ के बांटने के मुद्दे पर मतभेदों के बीच कोपेनहैगन सम्मेलन विफल हो गया। कुछ दूसरे देशों के समर्थन के साथ अमेरिका ने इस पर जोर दिया कि डील को संधि न कहा जाए। अंत में बैठक में एक अनौपचारिक समझौता हुआ जिसमें औसत ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिक पूर्व स्तर से 2 डिग्री पर रोकने पर सहमति हुई, लेकिन उत्सर्जन में कटौती का कोई लक्ष्य तय नहीं हुआ.अगला लक्ष्य 2015 तक वैश्विक संधि कर लेने का हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के शी जिनपिंग के साथ मिलकर भारत सहित 195 देशों को जलवायु संधि के लिए इकट्ठा किया। उत्सर्जन लक्ष्यों को प्रतिबद्धता के बदले योगदान कहा गया जिसकी वजह से ओबामा इस संधि का अनुमोदन कर पाए। अब डोनाल्ड ट्रम्प इसके लिए प्रयासरत हैं।
भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार दिखने लगी है। बारिश के स्वभाव में आए बदलाव की वजह से हिमालयी राज्यों में कई नदियां रास्ता बदल चुकी हैं। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है। बीते कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह चुके हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से कई नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक बीते कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदला है। अब बारिश बहुत ज्यादा और लंबे समय तक हो रही है। इसकी वजह से नदियां लबालब हो रही हैं। नदियों के रास्ता बदलने से असम के लखीमपुर और धेमाजी जिले के कई गांव साफ हो चुके हैं। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने अपना रास्ता 300 मीटर दूर तक बदला है तो कहीं कहीं नदियां 1.8 किलोमीटर दूर जा चुकी हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) के अनुसार जलवायु की सामान्य स्थिति में बरसात पूरे साल अच्छे ढंग से बंटी रहती है। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका स्वभाव बदला है। भारत सहित पूरी दुनिया में बड़े शहरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन विशेषज्ञों की राय में यह सिर्फ शुरुआत है। सन् 2050 तक दुनिया की सत्तर फीसदी आबादी शहरों में रहेगी। भारत जैसे देश जिसकी आबादी सवा अरब है। तेजी से बढ़ती जा रही है, इन बड़े शहरों के पर्यावरण को बचाने के लिए काम करना होगा। सवा करोड़ के भारत में शहरों की घनी आबादी पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी बजा रही है। आबादी के मामले में साठ सत्तर लाख से लेकर करोड़ के आंकड़े को छूते इन शहरों में अगर फौरन पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है। पहले से ही घनी आबादी वाले इन शहरों पर दबाव बढ़ेगा। बिजली की जरूरत के अलावा बुनियादी सुविधाओं की भी व्यवस्था करनी होगी। नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्त्रोत गर्माने लगेंगे, तो दूसरी तरफ लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। दिल्ली की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। वहीं मुंबई की भी आबादी लगभग दो करोड़ का आंकड़ा छूने जा रही है।
यदि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी की बढ़ती दर को रोकना है तो हमें सबसे पहले उन सब कामों को रोकना होगा जिनसे पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। वृक्षों को बचाना होगा तथा नए वृक्षों की पौध लगानी होगी तथा उस पौध की ईमानदारी से रक्षा करनी होगी। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
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( दैनिक सागर दिनकर, 03.05.2018 )
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