Dr (Miss) Sharad Singh |
कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक
- डॉ. शरद सिंह
कर्नाटक ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस ने अभी भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है। जोश और जमीनी सच्चाई में अंतर होता है, यह अंतर कांग्रेस को समझना होगा यदि वह भावी चुनाव में खुद को बचाए रखना चाहती है तो। वहीं दूसरी ओर भाजपा को अपनी जीत का जश्न मनाते हुए चिन्तन करना होगा कि उन्होंने जो सीटें गंवाईं, वे क्यों गंवाईं। साथ ही यह भी मनन करना होगा कि प्रदेशिक चुनावों के लिए यदि हर बार उसे अपने बड़े-बड़े महारथी ही सामने लाने पड़ रहे हैं तो कहीं उसके प्रादेशिक ढांचे में आत्मबल की कमी तो नहीं है? कुलमिला कर कर्नाटक का यह चुनाव-परिणाम भावी लोकसभा चुनाव पर असर डालने वाला साबित हो सकता है यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही इससे सबक ले कर आगे की रणनीति तैयार करें।
कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक - डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik |
समूचा देश कर्नाटक के चुनाव की ओर टकटकी लगाए देख रहा था। जब से चुनाव की रणभेरी बजी थी तब से अटकलों का बाजार भी गर्म हो गया था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक्जिट पोल अपने-अपने राग अलापने लगे थे। कुछ ने तो त्रिशंकु सरकार की संभावना भी व्यक्त कर दी थी। किन्तु परिणामों ने एक झअके में सब कुछ स्पष्ट कर दिया। मतगणना के प्रथम चौथाई दौर में ही यह बात खुल कर सामने आ कई थी कि कर्नाटक में भाजपा को बहुमत मिलने जा रहा है। बेशक कांग्रेस को पिछली बार से ज्यादा वोट मिले, फिर भी उसने अपनी आधी सीटें गंवाई दीं।
कर्नाटक की 224 विधानसभा सीटों में से 222 पर चुनाव 12 मई को हुए थे। इस दौरान 72.13 प्रतिशत मतदान हुआ। जबकि पिछली बार 71.45 प्रतिशत हुआ था। 2008 में हुए चुनावों के परिणामस्वरूप प्रदेश में सरकार बदल गई थी और भाजपा ने पहली बार राज्य में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। इस बार भी ऐसा ही हुआ। कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। कर्नाटक विधानसभा की 224 में से 222 सीटों पर हुए चुनावों पर भाजपा को बहुमत मिलना जहां प्रदेश में एक राजनीतिक स्थिरता का संकेत देता है वहीं इस बात को साबित करता है कि भाजपा के प्रति जनता का रुझान अभी भी कायम है। मतगणना के शुरुआती आधे घंटे में कांग्रेस ने बढ़त बनाई थी। इसके बाद एक घंटे तक उसकी भाजपा से कड़ी टक्कर देखने को मिली। लेकिन साढ़े नौ बजे के बाद भाजपा आगे निकलकर बहुमत तक पहुंच गई। मानो कोई तेज आंधी चली हो और जिसने मजबूत दिखने वाले पेड़ों की जडे़ं हिला दी हों। राज्य में भाजपा से ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी कांग्रेस उसे पराजित नहीं कर पाई। वहीं सत्ताधारी पार्टी की सीटें पिछली बार से आधी रह गईं। कर्नाटक हारने के बाद कांग्रेस की सरकार पंजाब, मिजोरम और पुडुचेरी में बची है। वहीं, भाजपा अब 31 राज्यों में से 21 में सत्ता में पहुंची है। राजराजेश्वरी, जयनगर मात्र इन दो स्थानों के चुनाव रोके गए हैं।
राजनीतिक आकलनकर्ताओं के त्वरित आकलन के अनुसार जिन दो कारणों से भाजपा ने कांग्रेस पर बढ़त बनाई वे हैं- (1) कर्नाटक की जनता पर येदियुरप्पा का प्रभाव जो खनन घोटाले के बाद भी कम नहीं हुआ। कर्नाटक में भाजपा ने जब पहली बार अपने बूते सरकार बनाई थी तो 2008 में कमान येदियुरप्पा को सौंपी थी। लेकिन बाद में खनन घोटालों में आरोपों के चलते येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उन्होंने कर्नाटक जनता पक्ष नाम से अलग पार्टी बना ली और 2013 का चुनाव अलग लड़ा। 2013 के चुनाव में भाजपा के हाथ से सत्ता निकल गई। येदियुरप्पा की पार्टी को 9.8 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 6 सीटें मिलीं। माना गया कि इससे भाजपा को नुकसान हुआ। उसका वोट शेयर सिर्फ 19.9 प्रतिशत रहा और वह 40 सीटें ही हासिल कर सकी। इस बार येदियुरप्पा की भाजपा में वापसी हुई। उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो पार्टी का वोट शेयर 35 प्रतिशत से ज्यादा हो गया। यानी इसमें येदियुरप्पा की पार्टी का वोट शेयर जुड़ गया जिसने भाजपा को सीधे लाभ पहुंचाया। (2) भाजपा की जीत का दूसरा कारण माना जा रहा है सिद्धारमैया का लिंगायत कार्ड उलटा पड़ना। सिद्धारमैया ने चुनाव की तिथियों के घोषित होने से ठीक पहले राज्य में लिंगायत कार्ड खेला। इस समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केंद्र की मंजूरी के लिए भेजा। किन्तु इसका लाभ उन्हें नहीं मिल सका। राज्य में लिंगायतों की आबादी 17 प्रतिशत से घटाकर 9 प्रतिशत मानी गई। इस कदम से वोक्कालिगा समुदाय और लिंगायतों के एक धड़े वीराशैव में भी नाराजगी थी। इससे उनका झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ा।
उपरोक्त दो कारणों के अलावा एक और कारण है जिसने भाजपा को लाभ दिलाया, वह है प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की धुंआधार रैलियां। प्रधान मंत्री मोदी ने इस चुनाव में 21 रैलियां कीं। कर्नाटक में किसी प्रधानमंत्री की सबसे ज्यादा रैलियां थीं। इसके अलावा उन्होंने दो बार ‘नमो एप’ के माध्यम से जनता को संबोधित किया। उन्होंने अपनी रैलियों के दौरान लगभग 29 हजार किलोमीटर की दूरी तय की। यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो पता चलता है कि भाजपा ने कर्नाटक चुनाव को कितनी गंभीरता से लिया। लगभग 20 करोड़ की जनसंख्या और 403 सीट वाले उत्तरप्रदेश में प्रधान मंत्री मोदी 24 रैलियां की थीं। वहीं 6.4 करोड़ की जनसंख्या और 224 सीटों वाले कर्नाटक में 21 रैलियां कीं। उल्लेखनीय है कि इस दौरान प्रधान मंत्री मोदी एक भी धार्मिक स्थल पर नहीं गए।
भाजपा के दूसरे महारथी अर्थात् भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 27 रैलियां और 26 रोड शो किए। करीब 50 हजार किलोमीटर की यात्रा की। 40 केंद्रीय मंत्री, 500 सांसद-विधायक और 10 मुख्यमंत्रियों ने कर्नाटक में प्रचार किया। भाजपा नेताओं ने 50 से ज्यादा रोड शो किए। 400 से ज्यादा रैलियां कीं। भाजपा के इस तूफानी अभियान के विरुद्ध कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 20 रैलियां और 40 रोड शो एवं नुक्कड़ सभाएं कीं। वैसे राहुल गांधी ने कांग्रेस के पक्ष में प्रचार के लिए 55 हजार किमी की यात्रा करते हुए प्रधान मंत्री मोदी से दो गुना अधिक दूरी तय की। उत्तरप्रदेश के चुनाव-प्रचार में सोनिया गांधी ने हिस्सा नहीं लिया था किन्तु कर्नाटक चुनाव-प्रचार में वे भी शामिल हुईं।
यदि राजनीतिक धड़ों के प्रभाव के अनुसार कुल परिणाम देखे जाएं तो विगत 4 साल में भाजपा-एनडीए 8 से 21 राज्यों में पहुंची, वहीं कांग्रेस 14 से घटकर 3 राज्यों में सिमट गई।
कर्नाटक के नवीन परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि येदियुरप्पा ने ’कर्नाटक के किंग’ का दर्जा हासिल कर लिया है क्योंकि कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा एक ऐसा नाम जिसके बिना बीजेपी का अस्तित्व अधूरा माना जा रहा है। राजनीतिक समीकरण हों या फिर जातीय जोड़-तोड़ येदियुरप्पा ने खुद को राज्य में स्थापित करने और विकसित करने में किसी तरह की कमी नहीं छोड़ी है। मांड्या जिले के बुकानाकेरे में 27 फरवरी 1943 को लिंगायत परिवार में जन्में येदियुरप्पा छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे। सन् 1965 में सामाजिक कल्याण विभाग में प्रथम श्रेणी क्लर्क के रूप में नियुक्त येदियुरप्पा नौकरी छोड़कर और शिकारीपुरा चले गए जहां उन्होंने वीरभद्र शास्त्री की शंकर चावल मिल में एक क्लर्क के रूप में कार्य किया। अपने कॉलेज के दिनों में वे आरएसएस में सक्रिय हुए। सन् 1970 में उन्होंने आरएसएस की सार्वजनिक सेवाएं शुरू की, जिसके बाद उन्हें कार्यवाहक नियुक्त किया गया। येदियुरप्पा भाजपा के एक ऐसे नेता हैं, जिनके बल पर भाजपा ने पहली बार दक्षिण भारत में ना सिर्फ जीत का स्वाद चखा बल्कि सत्ता पर शासन भी किया था। यूं भी, शिकारीपुरा सीट को येदियुरप्पा का गढ़ कहा जाता है। येदियुरप्पा इस सीट से 1983 से जीतते आ रहे हैं। मात्र एक बार सन् 1999 में उन्हें कांग्रेस के महालिंगप्पा से हार का सामना करना पड़ा था।
खनन घोटाले पर मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद येदियुरप्पा भाजपा से अलग हो गए। इसके बाद मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने के बाद जनवरी 2013 में पार्टी में दोबारा उनकी वापसी हुई। इतना ही नहीं 2018 में भाजपा ने दोबारा येदियुरप्पा पर ही दांव खेला और उन्हें सीएम पद का उम्मीदवार बनाया।
कर्नाटक ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस ने अभी भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है। जोश और जमीनी सच्चाई में अंतर होता है, यह अंतर कांग्रेस को समझना होगा यदि वह भावी चुनाव में खुद को बचाए रखना चाहती है तो। कांग्रेस को उस वजह को समझना होगा कि इतिहास के बारे में गलतबयानी करके भी भाजपा जंग कैसे जीत ली? क्या कांग्रेस ने अपने उम्मींदवारों को चुनने में गलती कर दी या वे अपने पक्ष को प्रभावशाली ढंग से जनता के सामने नहीं रख पाए? अब कांग्रेस के लिए महाआत्ममंथन का समय आरम्भ हो चुका है। यदि कांग्रेस सचमुच नहीं चाहती है कि वह अतीत के पन्नों में समा जाए तो उसे बड़ी कठोरता से अपने उम्मींदवारों, अपने नेतृत्व और अपनी योजनाओं का पुनःआकलन करना होगा। यह ध्यान रखना जरूरी है कि प्रजातंत्र में एक मजबूत विपक्ष भी बहुत मायने रखता है। वहीं दूसरी ओर भाजपा को अपनी जीत का जश्न मनाते हुए चिन्तन करना होगा कि उन्होंने जो सीटें गंवाईं, वे क्यों गंवाईं। साथ ही यह भी मनन करना होगा कि प्रादेशिक चुनावों के लिए यदि हर बार उसे अपने बड़े-बड़े महारथी ही सामने लाने पड़ रहे हैं तो कहीं उसके प्रदेशिक ढांचे में आत्मबल की कमी तो नहीं है?
कुलमिला कर कर्नाटक का यह चुनाव-परिणाम भावी लोकसभा चुनाव पर असर डालने वाला साबित हो सकता है यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही इस चुनाव से सबक ले कर आगे की रणनीति तैयार करें।
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( दैनिक सागर दिनकर, 16.05.2018 )
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