Wednesday, April 27, 2016

चर्चा प्लस ...... जल प्रबंधन और सूखे का समीकरण - डाॅ. शरद सिंह

मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (27. 04. 2016) .....
My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....


यदि आप अपने गांव, अपने शहर, अपने प्रदेश और अपनी धरती को सूखे के संकट से बचाना चाहते हैं तो यह लेख अवश्य पढ़ें ....


चर्चा प्लस ...... 
जल प्रबंधन और सूखे का समीकरण
- डाॅ. शरद सिंह
 
भविष्य का सबसे डरावना सच अगर आज कोई है तो वह है जल का अभाव। शहरी क्षेत्रों में दम तोड़ते जलस्तरों वाले जल स्रोतों के पास लम्बी कतारें और पानी के लिए आपस में झगड़ते लोगों को देखा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में दृश्य और अधिक भयावह होते हैं। वहां मिट्टी और रेत में गढ़े बना कर और गहरी खाइयों में उतर कर जान जोखिम में डाल कर जिन्दा रहने लायक पानी मिल पाता है। दुख तो यह है कि पानी और सूखे के जिस पारस्परिक संबंध के बारे में हम अपने बचपन से पढ़ते, सुनते और समझते आ रहे हैं, उसे ही भुला बैठे हैं। पानी नहीं रहेगा तो सूखा पड़ेगा और सूखा पड़ेगा तो पानी उपलब्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता। स्थिति भयावह है। मौसम विज्ञानी भविष्यवाणी कर रहे हैं कि आगामी मानसून बहुत अच्छा रहेगा और अच्छी बारिश होगी लेकिन यदि हमने जल प्रबंधन पर समय रहते ध्यान नहीं दिया तो अच्छी बारिश का लाभ भी हम नहीं ले सकेंगे। अभी हाल ही में ‘मन की बात’ के 19वें कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूखे के संकट पर अपने विचार रखे और कहा कि जल संकट से निपटने के लिए सामूहिक प्रयत्नों की जरूरत है।
आज भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देश सूखा और जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। भारत सहित अनेक विकासशील देशों के अनेक गांवों में आज भी पीने योग्य शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल का प्रदूषण और जल की खपत बढ़ने के कारण सब कुछ गड़बड़ा गया है। पर्यावरण की क्षति तथा जल प्रबंधन के प्रति लापरवाही के कारण देश के महाराष्ट्र, तेलंगाना और मध्यप्रदेश जैसे कई राज्य जल संकट की त्रासदी से गुज़र रहे हैं। उचित जल प्रबंधन न होने के कारण बारिश के जल को हम इस तरह नहीं सहेज पाए हैं कि वह आज हमारे काम आ पाता। हैण्डपंप, कुओं और बावडि़यों का रख-रखाव सही ढंग से न होने के कारण या तो वे सूख गई हैं या फिर उनका पानी इतना दूषित हो गया है कि हम उसे काम में ही नहीं ला पा रहे हैं।
हमारे देश में 15 प्रतिशत वर्षा जल का उपयोग होता है, शेष जल बहकर समुद्र में चला जाता है। उस पर शहरों एवं उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ नदियों के जल को प्रदूषित करके पीने योग्य नहीं रहने देते। जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। प्रति व्यक्ति मीठे जल की उपलब्धि जो सन् 1994 में 6000 घन मीटर थी, घटकर सन् 2000 में मात्र 2300 घन मीटर रह गई है और यही उपलब्धता सन् 2014 में लगभग 1600 रह गई। अब तो यह भविष्यवाणी की जाने लगी है कि यदि उपयोगी जल की उपलब्धता इसी तरह कम होती गई तो सन् 2050 में देश को विदेशों से पेयजल आयातित करना पड़ेगा। जब देश में ही बिकने वाला बोतलबंद पानी गरीब आदमी की पहुंच से दूर रहता है तो विदेशों से आयातित पानी गरीबों को देखने को नसीब होगा भी या नहीं, इसमें संदेह है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

ऐसा नहीं है कि सरकारी स्तर पर जलनीति निर्धारकों ने देश को सूखे से बचाने के लिए जल प्रबंधन की अच्छी नीतियां नहीं बनाईं। राष्ट्रीय जलनीति 1987 में जल को प्रमुख प्राकृतिक संसाधन माना गया। इस राष्ट्रीय जलनीति में स्पष्ट कहा गया कि पानी मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है और बहुमूल्य संपदा है। संभावित जल संकट को ध्यान में रखते हुए बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में बढ़ती जनसंख्या की उभरने वाले पानी से जुड़ी चुनौतियों पर भी ध्यान दिया गया है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक शहरी विकास के बावजूद देश के महानगरों में ज्यादातर लोग नाली व्यवस्था से जुड़े नहीं है। योजना के मुताबिक शहरों का विकास करते वक्त शौचायलों और अपशिष्ट जल प्रशोधन व्यवस्था को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके अलावा बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भूजल के घटते स्तर पर चिंता जताई गई है। योजना में भूजल स्तर बढ़ाने के लिए कदमों को उठाए जाने की सिफारिश की गई है, जिसमें भूजल जमा करने वाले पत्थरों का इस्तेमाल भी शामिल है। संभावना है कि वर्ष 2031 में पानी की मांग वर्तमान मांग से 50 फीसदी अधिक हो जाएगी। अगर देश को आर्थिक विकास के अनुमानित लक्ष्य को हासिल करना है तो पानी की इस बढ़ती मांग को पूरा करना जरूरी है। पानी के अतिरिक्त भंडारण और भूजल स्तर को कायम रखने के लिए कदम उठाए जाने से 20 फीसदी मांग को पूरा किया जा सकता है। बाकी मांग को पूरा करने के लिए पानी का संयम से उपयोग करना होगा। कुछ ऐसे कारण है जो जल के संरक्षण और संवर्द्धन में बाधा बने हुए हैं जैसे कि हमारे देश में भूमि के स्वामी को उसकी भूमि पर मौजूद जलस्रोत का स्वामित्व रहता है, जो जल उपलब्ध है वह प्रदूषण का शिकार होता जा रहा है। दरअसल जल संरक्षण, जल का उचित उपयोग और भूजल की रिचार्जिंग भी जरूरी है।
अतिदोहन के कारण भूजल स्तर जो वर्ष 1984 में 9 मीटर था, अब 17 मीटर हो चुका है। वहीं वर्ष 1984 में भूजल के मात्र 17 प्रतिशत दोहन की तुलना में आज हम 138 प्रतिशत दोहन कर रहे हैं। यदि यही स्थिति रही तो वर्ष 2020 तक भूजल भंडार रीत जाएंगे। इस स्थिति को उचित भूजल प्रबंधन के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। ये प्रबंधन घरेलू, कृषि, औद्योगिक और सामुदायिक स्तर पर किया जा सकता है। घरेलू क्षेत्र में वर्षा जल संचयन संरचना बनाकर, पेयजल के उचित प्रयोग एवं निष्कासित जल का अन्य कार्यों में प्रयोग कर, कृषि में बूंद बूंद सिंचाई, कम जल में होने वाली फसलें एवं उचित मात्रा में खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर, उद्योगों में जल को रिसाइकिल कर तथा भूजल पुनर्भरण संरचनाएं बनाकर एवं सामुदायिक स्तर पर जल संरक्षण के प्राचीन स्रोतों का जीर्णोद्धार कर इस गंभीर खतरे को टाला जा सकता है।
भारत के विकास के लिए जल संरक्षण को प्राथमिकता दिए जाने के साथ ही रिपोर्ट में अपशिष्ट जल प्रबंधन पर भी खासा जोर दिया गया है। शहरी इलाकों के लिए बढ़ती आबादी की कारण से पानी की कमी की बुनियाद में एक बड़ी चुनौती अपशिष्ट जल के प्रबंधन की है। शहरों में अवैध इमारतें और झुग्गियों के निर्माण से ये कठिनाई और भी बढ़ जाती है, क्योंकि ये शौचालयों और नालियों से नहीं जुड़ी होती हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुमान के मुताबिक भारत के पास इकट्ठा होने वाले कुल अपशिष्ट जल के सिर्फ 30 फीसदी का ही प्रशोधन करने की क्षमता है। अर्थात् शेष 70 फीसदी अपशिष्ट जल झीलों, नदियों और बोरवेल के भूमिगत स्रोत में मिलकर उन्हें प्रदूषित करता रहता हैै। अपशिष्ट जल प्रबंधन के साथ ही हमें इस ओर ध्यान देना ही होगा कि वर्षा के कितने भाग का हम प्रयोग करते हैं, और कितने भाग को हम बेकार जाने देते हैं। बारिश के पानी को जितना ज्यादा हम जमीन के भीतर जाने देकर भूजल संग्रहण करेंगे उतना ही हम जल संकट को दूर रखेंगे और मृदा अपरदन रोकते हुए देश को सूखे और अकाल से बचा सकेंगे। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार यदि हम अपने देश के थलीय क्षेत्रफल में से मात्र 5 प्रतिशत वर्षा के जल का संग्रहण कर सके तो एक बिलियन लोगों को 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मिल सकता है। वर्तमान में वर्षा का 85 प्रतिशत जल बरसाती नदियों के रास्ते समुद्र में बह जाता है। इससे निचले इलाकों में बाढ़ आ जाती है। यदि इस जल को भू-गर्भ की टंकी में डाल दिए जाए तो दो तरफा लाभ होगा। एक तो बाढ़ का समाधान होगा, दूसरी तरफ भूजल स्तर बढ़ेगा। अतः जल संग्रहण के लिए ठोस नीति एंव कदम की आवश्यकता है।
यदि जल के अभाव और सूखे के संकट से निपटना है तो जल प्रबंधन और सूखे के समीकरण को समझना होगा। इसके साथ ही कुछ आवश्यक कदम भी उठाने होंगे। जैसे- जल की शिक्षा अनिवार्य विषय के रूप में स्कूली पाठ्यक्रम में जोड़ी जाए, जल संवर्धन एवं संरक्षण कार्य को सामाजिक तथा धार्मिक संस्कारों से जोड़ा जाए, भूजल दोहन अनियंत्रित एवं असंतुलित ढंग से न हो, इसे सुनिश्चित किया जाए, तालाबों और अन्य जल संसाधनों पर समाज का सामूहिक अधिकार हो, जलस्रोतो को प्रदूषण से बचाने का हरसंभव प्रयास किया जाए तथा नदियों और नालों पर चैक डैम बना वर्षा जल को संग्रहीत किया जाए। इन सबके साथ जन संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए जन जागरूकता अभियान को नागरिक मुहिम के रूप में चलाया जाए, जिसमें प्रत्येक नागरिक की किसी न किसी स्तर पर सहभागिता हो। इससे नागरिकों में जन संरक्षण के प्रति अपने दायित्वों का बोध होगा तथा वे भविष्य के भयावह जल संकट के यथार्थ को भली-भांति समझ सकेंगे।
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