Wednesday, November 14, 2018

चर्चा प्लस ... बाल दिवस विशेष : क्या उपहार दे रहे हैं हम अपने बच्चों को ? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
बाल दिवस विशेष :
क्या उपहार दे रहे हैं हम अपने बच्चों को ?
- डॉ. शरद सिंह 
 
हर साल बालदिवस का उत्सव मनाना आसान है लेकिन अपने गिरेबान में झांकना कठिन हैं जहां हम स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। यदि हम अपने बच्चों को अच्छा स्वास्थ्य नहीं दे सकते, अच्छी शिक्षा नहीं दे सकते, अच्छे संस्कार नहीं दे सकते, समुचित सुरक्षा नहीं दे सकते हैं, तो क्या हम दावा कर सकते हैं कि हम अपने बच्चों को अच्छा भविष्य दे रहे हैं? गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, प्रदूषण और अपराध के दलदल का उपहार देते हुए बच्चों को कैसे कहें ‘हैप्पी बालदिवस’? हमारे ये उपहार बच्चों को न तो अच्छा वर्तमान दे सकते हैं और न अच्छा भविष्य।
Charcha Plus a column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar, Daily, Sagar M.P.
पीठ पर लदा भारी-भरकम स्कूल बैग, कोचिंग क्लासेस के लिए भागमभाग कुल मिला कर बेइंतहा तनाव में जीते बच्चे। यदि बच्चा खेलना चाहता है तो उससे उस खेल को खेलने के लिए बाध्य किया जाता है जिसमें आगे चल कर वह कैरियर बना सके और लाखों कमा सके। यदि बच्चे को नाचने या गाने में रुचि है तो उसकी इस रुचि में भी टेलेण्ट-हण्ट वाले टी.वी. शोज़ में सहभागिता की चमक-दमक दिखाई देने लगती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बच्चे की रुचि में कमाई का जरिया देखने की हमारी आदत बनती जा रही है। जब यह तस्वीर है वर्तमान की तो भविष्य कैसा होगा? जब कि हम अपने बच्चों के भविष्य के लिए न तो स्वच्छ वातावरण छोड़े रहे हैं और न र्प्याप्त प्राकृतिक संसाधन। जैसे एक जुआरी पिता जुआ खेलने के लिए कर्ज लेता चला जाता है और इस बात का कतई ध्यान नहीं रखता है कि उसके बच्चे उस कर्ज को कैसे चुकाएंगे, कुछ ऐसी ही दशा की ओर बढ़ रहे हैं हम और हमारे बच्चे।
दिल्ली जैसे महानगरों में प्रदूषण का स्तर इतना अधिक है कि अस्थमा जैसी सांस की बीमारियों से ग्रस्त बच्चों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। नाक पर नक़ाब लगा कर सांस लेने को मज़बूर बच्चे और बाज़ारवाद के शिकार होते उनके माता-पिता सब कुछ देख कर भी मानो कुछ नहीं देख पा रहे हैं। जो नक़ाब ऑपरेशन थियेटर में पहने जाते थे, वे नक़ाब अब घर से निकलते ही लगाने की नौबत है। गोया समूचा शहर ही ऑपरेशन थियेटर में बदल गया हो। बस, अंतर यही है कि ऑपरेशन थियेटर के अन्दर का वातावरण स्वच्छ रहता है और उस स्वच्छता को बनाए रखने के लिए दस्ताने और नक़ाब पहने जाते हैं लेकिन शहर में गंदगी से बचने के लिए नक़ाब पहनने की जरूरत पड़ने लगी है।
जो गंदगी भरा वातावरण हम अपने बच्चों को दे रहे हैं उसी का परिणाम है कि आज पालने में झूलने वाले नन्हें बच्चे जीका वायरस से जूझ रहे हैं। यह वायरस देश के लगभग हर राज्य में फैलता जा रहा है। मध्यप्रदेश में यहां तक कि सागर जैसे कम विकसित शहर में भी इसके मरीज़ मिलने लगे हैं। ज़ीका वायरस दिन में एडीज मच्छरों के काटने से फैलता है। इस बीमारी में बुखार के साथ जोड़ों में दर्द और सिरदर्द जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। इसका कोई टीका नहीं है, न ही कोई ख़ास उपचार है। ये मच्छरों से ही फैलता है। ये वायरस दिन में ज्यादा सक्रिय रहता है। पाया गया है कि विशेष रूप से गर्भावस्था में महिलाएं इससे ज्यादा संक्रमित होती हैं। इससे प्रभावित बच्चे का जन्म आकार में छोटे और अविकसित दिमाग के साथ होता है। ये गर्भावस्था के दौरान वायरस के संक्रमण से होता है। इसमें शिशु दोष के साथ पैदा हो सकता है। नवजात का सिर छोटा हो सकता है। उसके ब्रेन डैमेज की ज्यादा आशंका होती है। साथ ही जन्मजात तौर पर अंधापन, बहरापन, दौरे और अन्य तरह के दोष दे सकता है। इसका सिंड्रोम शरीर के तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है और इसके चलते लोग लकवा का शिकार हो जाते हैं। ये न्यूरोलॉजिकल जटिलताएं भी दे सकता है। जीका वायरस कोई नया नहीं है। इसकी पहचान पहली बार सन् 1947 में हुई थी। जिसके बाद ये कई बार अफ्रीका व साउथ ईस्ट एशिया के देशों के कुछ हिस्सों में फैला था। अभी तक कैरेबियाई ,उत्तर व दक्षिणी अमेरिका के 21 देशों में ये वायरस फैल चुका है। भारत में इसके फैलने का सबसे बड़ा कारण है ऐसी गंदगी जहां मच्छर पलते रहते हैं। किसी भी स्वच्छता मिशन का सरकारी स्वरूप आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण नहीं दे सकता है। इसके लिए प्रत्येक नागरिक को स्वच्छता को जीवनचर्या बनाना होगा। भले ही वह नागरिक करोड़ों के भवनों में रह रहा हो या झोपड़पट्टी में रहता हो। खुद के लिए नही ंतो अपने बच्चों के लिए यह जरूरी है। आज जीका वायरस है तो कल कुछ और इससे भी भयावह वायरस आ जाएगा, यदि आज हम नहीं सम्हले तो।
आपराधिक स्तर पर भी बच्चे अपराध से घिरे हुए दिखाई देने लगे हैं। जब अवयस्क युवा बलात्कार जैसा घिनौना अपराध करने लगें या फिर तीन-चार साल की नन्हीं बच्चियों को हवस का शिकार बनाया जाने लगे तो इसे अच्छी सामाजिक दशा तो हरगिज नहीं कहा जा सकता है। अपराध और अपराधियों से आज बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। विकास के दावों के बीच यह एक कड़वा सच है कि हमने अपराधों में कहीं अधिक विकास कर लिया है। हमारे बच्चे न तो घर-परिवार में सुरक्षित हैं, न मोहल्ले में और न स्कूलों में। कोई दुश्मनी भी नहीं, मात्र व्यक्तिगत आनन्द के लिए बच्चों को शिकार बनाया जा रहा है। भारत सरकार द्वारा बच्चों से बलात्कार के मामलों में फांसी की सज़ा दिए जाने का प्रावधान किए जाने के बाद भी घटनाएं थम नहीं रही हैं।
देश के विकास की दिशा में यूं तो लक्ष्य रखा गया है बच्चों के प्रति दुराचार, उनका शोषण, तस्करी, हिंसा और उत्पीड़न समाप्त करना। किन्तु सच तो यह है कि हमारी व्यवस्थाएं नहीं बचा पा रही हैं अपने बच्चों को। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अध्ययन ‘चाइल्ड एब्यूज़ इन इंडिया’ के अनुसार भारत में 53.22 प्रतिशत बच्चों के साथ एक या एक से ज़्यादा तरह का यौन दुर्व्यवहार और उत्पीड़न हुआ होता है। गृह मंत्रालय के मुताबिक, सन् 2016 में अगवा बच्चों के 40.4 प्रतिशत मामलों में ही आरोप पत्र दाखिल हुआ। वहीं, 2016 में देश में बच्चों के विरुद्ध अपराध के 1,06,958 मामले दर्ज हुए, जबकि सन् 2015 में इनकी संख्या 94,172 थी। बच्चों की तस्करी, बंधुआ मज़दूरी, बेगारी, यौनशोषण और विवाह के लिए बच्चों के अपहरण के मामलों में बहुत वृद्धि हुई है। भारत में सन् 2016 में बच्चों के अपहरण के 54,723 मामले दर्ज हुए, जबकि सन् 2001 में ऐसे दर्ज मामलों की संख्या 2,845 थी। अर्थात् सोलह सालों में बच्चों के अपहरण के मामलों में 1,823 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सन् 2016 में बच्चों के अपहरण के 54,723 मामलों में से 39,842 लड़कियां थीं। इन आंकड़ों को देख कर चिंता होने लगती है कि जब हम बचचों को उनका सुरक्षित वर्तमान नहीं दे पा रहे हैं तो एक सुरक्षित भविष्य कहां से देंगे?
दिनों-दिन बढ़ते हुए बाल-अपराध हमारे सामाजिक जीवन के लिए एक चुनौती हैं। छोटे-छोटे बच्चों में अपराधी प्रवृत्तियां एक गंभीर समस्या बन गई है। बाल जीवन में बढ़ती जा रही हिंसा, क्रूरता, गुण्डागर्दी, नशेबाजी, आवारापन मानव-समाज के लिए एक गंभीर समस्या है। बाल अपराध इस तरह बढ़ रहे हैं कि उनका अनुमान कर सकना मुश्किल है। यूं तो बाल अपराधों के लिए सर्वेक्षण होता रहता है किन्तु कहीं की भी पूरे आंकड़े सामने नहीं आ पाते हैं। माता-पिता अपने बच्चों के अपराधों पर पर्दा डालते रहते हैं। अपने बच्चों के आपराधिक कारनामों को छिपाने के लिए माता-पिता जितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, यदि उससे आधी ऊर्जा भी बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान देने में लगाएं तो बच्चों के अच्छे संस्कार खोने नहीं पाएंगे। बच्चों का दिमाग़ तो कोरी स्लेट के समान होता है, उसमें यदि आपराधिक प्रवृत्तियां लिख दी जाएं तो वहीं जीवन भर लिखी रहेंगी। आज बच्चे अगर अपने माता-पिता या मेहमानों को पलट कर जवाब देते हैं या बेअदबी से पेश आते हैं तो इसमें दोष बच्चों का नहीं, उन माता-पिता का है जिन्होंने हंस कर बढ़ावा दिया और अपराधी बनने की पहली सीढ़ी यानी ढिठाई पर चढ़ा दिया। आज 80 प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी करते ही कैरियर वाली पढ़ाई के चक्कर में अपने घर से दूर पराये शहरों में चले जाते हैं। इसके बाद उनकी हमेशा के लिए अपनी घर वापसी बहुत कम हो पाती है। जो लौटते भी हैं वे फ्रस्टेशन से ग्रस्त रहते हैं। यह फ्रस्टेशन भी उन्हें उसी वातावरण से मिलता है जो हमने आर्थिक दबाव के रूप में रच दिया है। कमाऊ युवाओं के उदाहरणों से घिरे बेरोजगार युवा पारिवारिक दबाव में आ कर गलत कदम उठाने लगते हैं। या तो वे आत्मघाती हो उठते हैं या फिर अपराधी बन जाते हैं।
हर साल बालदिवस का उत्सव मनाना आसान है लेकिन अपने गिरेबान में झांकना कठिन है,ं जहां हम स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। यदि हम अपने बच्चों को अच्छा स्वास्थ्य नहीं दे सकते, अच्छी शिक्षा नहीं दे सकते, अच्छे संस्कार नहीं दे सकते, समुचित सुरक्षा नहीं दे सकते हैं, तो क्या हम दावा कर सकते हैं कि हम अपने बच्चों को अच्छा भविष्य दे रहे हैं? गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, प्रदूषण और अपराध के दलदल का उपहार देते हुए बच्चों को कैसे कहें ‘हैप्पी बालदिवस’? हमारे ये उपहार बच्चों को न तो अच्छा वर्तमान दे सकते हैं और न अच्छा भविष्य।
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( सागर दिनकर, 14.11.2018)
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3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/11/2018 की बुलेटिन, " काहे का बाल दिवस ?? “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. विचारोतेज्जक पोस्ट। काफी जरूरी मुद्दों के विषयमें आपने लिखा है। त्यौहार तो हमे मनाना चाहिए लेकिन बच्चों के प्रति जो दायित्व है उसका निर्वाह भी बहुत जरूरी है।

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  3. बच्चों के यौन-शोषण की वारदातों के शतांश को भी पुलिस में दर्ज नहीं कराया जाता है. अधिकतर पीड़ित बच्चा/बच्ची ख़ुद ही अपने साथ हुई ऐसी किसी वारदात को किसी को भी नहीं बताता/बताती है और अगर उसके घर वालों को इसकी खबर भी लग जाती है तो वो इसे सब से छुपाना ही बेहतर समझते हैं. जटिल, धीमी और महंगी न्याय-व्यवस्था तथा भ्रष्ट पुलिस के कारण ऐसे अपराध में लिप्त दरिंदों को सज़ा दिलवाना बड़ा मुश्किल काम हो जाता है.

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