Wednesday, March 1, 2017

हर स्त्री में होती है लहना की सूबेदारनी

Dr Sharad Singh
मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 01.03. 2017) .....My Column "Charcha Plus' in "Sagar Dinkar" news paper
 

 
चर्चा प्लस :
हर स्त्री में होती है लहना की सूबेदारनी

- डॉ. शरद सिंह

लिखे जाने के लगभग 103 वर्ष बाद भी प्रासंगिक लगती है गुलेरी जी की कहानी ‘‘उसने कहा था’’ .... सूबेदारनी का लहना के प्रति प्रेम किसी परिधि में बंधा हुआ नहीं था। उसके साथ न तो कोई सम्बोधन जुड़ा हुआ था और न कोई रिश्ता। वस्तुतः ‘उसने कहा था’’ कहानी में सूबेदारनी एक औरत का बाहरी स्वरूप था। उसके भीतर की औरत अपनी भावनाओं को दो तरह से जी रही थी। एक पति के प्रति समर्पिता और दूसरी अपने उस प्रेमी की स्मृति को संजोए हुए जिसको कभी उसने दुनियावी प्रेमी की दृष्टि से शायद देखा ही नहीं था। 

      जिसने भी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ पढ़ी है, उसे वह संवाद कभी नहीं भूल सकता कि लहना लड़की से पूछता है-‘तेरी कुड़माई हो गई?’ और लड़की ‘धत्’ कह कर शरमा जाती है। लहना का इस तरह पूछना लड़की के मन को गुदगुदाया तो अवश्य होगा, जब कभी अकेले में यह प्रश्न उसके मन में कौंधा होगा। ‘कुड़माई’ का न होना लहना के लिए सुखद था क्यों कि तब उसके मन में लड़की को पा लेने की सम्भावना थी। यह पा लेना ‘दैहिक’ नहीं ‘आत्मिक’ था। फिर भी लहना को वह लड़की नहीं मिली। लड़की ने एक दिन ‘तेरी कुड़माई हो गई’ का उत्तर दे दिया कि ‘हां, हो गई....!’ लहना विचलित हो गया। और वह लड़की? उस लड़की का विवाह जिससे हुआ, वह आगे चल कर सेना में सूबेदार बना और वह लड़की कहलाई सूबेदारनी। एक भरा-पूरा परिवार, वीर, साहसी पति, वैसा ही वीर, साहसी बेटा। आर्थिक सम्पन्नता। सामाजिक दृष्टि से सुखद पारिवारिक जीवन। सुबेदारनी ने अपना दायित्व निभाने में कहीं कोई कमी नहीं रखी। उससे न सूबेदार को शिकायत और न उसके परिवार के किसी अन्य सदस्य को। अपने सामाजिक रिश्तों को निभाने में सूबेदारनी ने अपने जीवन, अपनी भावनाओं को समर्पित कर दिया। मन बहुत कोमल होती है, चाहे स्त्री का हो या पुरुष का। मन अपना अलग जीवन रचता है, अपनी अलग दुनिया सजाता है और सबसे छिप कर हंस लेता है, रो लेता है।
         यदि लहना सिंह उस लड़की को भुला नहीं सका तो ‘वह लड़की’ यानी सूबेदारनी के मन के गोपन कक्ष में लहना की स्मृतियां किसी तस्वीर की भांति दीवार पर टंगी रहीं। सूबेदारनी ने ही तो पहचाना था लहना सिंह को और सूबेदार से कह कर बुलवाया था अनुरोध करने के लिए। स्त्री अपने प्रति प्रकट की गई उस भावना को कभी नहीं भूलती है जो निष्कपट भाव से प्रकट किए गए हों। सूबेदारनी के बारे में सोचते हुए अकसर मुझे अपनी ये पंक्तियां याद आती हैं-
                   छिपी रहती है
                    हर औरत के भीतर एक औरत
                    अकसर हम देख पाते हैं सिर्फ़ बाहर की औरत को।
 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
     हिन्दी साहित्य में ‘उसने कहा था’ की गिनती फ्लैशबैक शैली में लिखी गई कहानियों में तो की ही जाती है, साथ ही श्रेष्ठ प्रेमकथा भी इसे माना जाता है। प्रेम श्रेष्ठ तभी माना जाता है जब वह प्रेम करने वालों के मध्य परस्पर भावनाओं के सम्मान को बनाए रखता हो। चंद्रधर शर्मा गुलेरी (1883-1922) संपादक के साथ-साथ निबंधकार और कहानीकार भी थे। उन्होंने कुल तीन कहानियां लिखी हैं - ‘‘बुद्धू का कांटा’’, ‘‘सुखमय जीवन’’ और ‘‘उसने कहा था’’। इन तीनों कहानियों में गुलेरी जी को अमरत्व प्रदान किया ‘‘उसने कहा था’’ ने। इसके लिखे जाने के 103 वर्ष बाद भी यह प्रासंगिक लगती है। ‘‘उसने कहा था’’ पांच काल-दृश्यों और 25 वर्षों के लंबे अंतराल को खुद में समेटती यह कहानी विषय और अपने अद्भुत वर्णन में किसी औपन्यासिक यात्रा जैसी लगती है। लहना के प्रेम की डोर पकड़ कर सूबेदारनी तक पहुंचने की एक पूरी यात्रा। विशेषता यह कि प्रेम, कर्तव्य और देशप्रेम तीनों एक साथ चलते हैं, एक-दूसरे का अतिक्रमण किए बिना। गुलेरी जी ‘‘उसने कहा था’’ लिखते समय लहना और सूबेदारनी के प्रेम को ले कर आश्वस्त थे इसलिए इसे कहानी के रूप में ढालते हुए वे कहीं भटके नहीं, कहीं चूके नहीं। लहना का प्रेम उन्होंने प्रत्यक्ष में रखा और सूबेदारनी का प्रेम परोक्ष में लेकिन किसी भी दृष्टि से कम नहीं रखा सूबेदारनी के प्रेम को। यदि देखा जाए तो सूबेदारनी के प्रेम की कठिनाइयों और जटिलता को किसी मनोवैज्ञानिक की भांति गुलेरी जी ने परखा और प्रस्तुत किया। न कोई पुरुष विमर्श और न कोई स्त्री विमर्श। इस कहानी में यदि कोई विमर्श है तो वह निष्कपट प्रेम और प्रेम के प्रति विश्वास और समर्पण का।
         क्या सचमुच परिधि नहीं होती प्रेम की? यदि प्रेम की परिधि नहीं होती है तो सामाजिक संबंधों में बंधते ही प्रेम सीमित क्यों होने लगता है? क्या इसलिए कि धीरे-धीरे देह से तृप्ति होने लगती है और प्रेम एक देह की परिधि से निकल कर दूरी देह ढूंढने लगता है? निःसंदेह इसे प्रेम की स्थूल व्याख्या कहा जाएगा किन्तु पुरुष, पत्नी और प्रेमिका के त्रिकोण का समीकरण भी जन्म ले लेता है जबकि एक प्रेयसी से ही विवाह किया गया हो। यदि देह नहीं तो अधिकार भावना वह आधार अवश्य होगी जिस पर कोई भी प्रेम त्रिकोण बना होगा। यदि प्रेमी, प्रेमी न रह जाए और प्रेयसी, प्रेयसी न रह जाए तो प्रेम कैसा? फिर उनके बीच ‘सोशल कांट्रैक्ट’ हो सकता है, प्रेम का मौलिक स्वरूप नहीं।
            प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’ वहीं हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’
         सूबेदारनी का लहना के प्रति प्रेम किसी परिधि में बंधा हुआ नहीं था। उसके साथ न तो कोई सम्बोधन जुड़ा हुआ था और न कोई रिश्ता। वस्तुतः ‘उसने कहा था’’ कहानी में सूबेदारनी एक औरत का बाहरी स्वरूप था। उसके भीतर की औरत अपनी भावनाओं को दो तरह से जी रही थी। एक पति के प्रति समर्पिता और दूसरी अपने उस प्रेमी की स्मृति को संजोए हुए जिसको कभी उसने प्रेमी की दृष्टि से शायद देखा ही नहीं था। लहना का शब्दों से छेड़ना उसके मन को अवश्य ही गुदगुदाया था तभी तो लहना उसे याद रहा। फिर भी उसने लहना के प्रति अपने अनुराग या आकर्षण अथवा स्मरण को कभी प्रकट नहीं किया। यदि युद्ध के मैदान में जाते हुए पति और बेटे के जीवन की चिन्ता न होती तो वह सूबेदार से यह कभी नहीं कहती कि लहना नामक किसी व्यक्ति को वह कभी जानती थी। युद्धकाल एक ऐसे संकट की घड़ी था जो सूबेदारनी से उसका सर्वस्व छीन सकता था सिवाय स्मृतियों के। संकट की घड़ी में एक स्त्री उसी व्यक्ति पर विश्वास करती है जिसे उसने कभी, एक पल के लिए भी सही अपने मन के बहुत करीब पाया हो। सूबेदारनी ने लहना पर विश्वास किया। उसे अपने पति और बेटे की सुरक्षा का दायित्व सौंपा। सूबेदारनी को विश्वास था कि जो युवक उसे कभी शब्दों से छेड़ा करता था और जो उसके विवाह हो जाने के बाद कभी उसके सामने नहीं आया वह उसके अनुरोध का मान रखेगा क्यों कि उस युवक में स्त्री के सामाजिक सम्मान को बचाए रखने की भावना है, वह छिछोरा नहीं है। उसने कभी किसी से नहीं कहा कि वह फलां लड़की को छेड़ता था जो अब सूबेदारनी बन गई है। बल्कि उसने तो पता भी नहीं लगाया कि विवाह के बाद वह लड़की कहां गई? ऐसे संयत युवक को भला कौन स्त्री भुला सकती है? जीवन के तमाम दायित्वों को निभाते हुए भी सूबेदारनी नहीं भुला पाई लहना को।
‘‘उसने कहा था’’ कहानी से परे यथार्थ जीवन में भी स्त्री संयत पुरुष को कभी नहीं भुला पाती है। वह उसे याद रखती है और हर संकट की घड़ी में उसी को याद करती है। यदि संभव हुआ तो उसे बुलाती है, उससे अपनी समस्या बताती है और यदि उसे बुला पाना या उससे मिल पाना संभव न हो सके तो उसे मन ही मन याद कर के तसल्ली कर लेती है कि यदि आज वह इस समय यहां होता तो आगे बढ़ कर मुझे संकट से उबार लेता। यह कल्पना, यह सोच स्त्री को ढाढस बंधाती है और वह अपने उसी ‘प्रिय’ की कल्पना के सहारे संकट का रास्ता स्वयं ढूंढ निकालती है। पुरुष स्त्री के किसी भी ‘प्रिय’ के बारे में सुनना कभी पसन्द नहीं करता है, इसके विपरीत वह अपने गहन-संबंधों के बारे में भले ही खुल कर चर्चा कर ले किन्तु स्त्री के संबंध में वह यही मान कर चलता है कि उसके मन में वह कोना हो ही नहीं सकता है जहां उसके किसी ‘प्रिय’ की छवि मौजूद हो या फिर ऐसा कोना स्त्री के मन में होना ही नहीं चाहिए, यही आकांक्षा रहती है हर पुरुष की। लेकिन सच तो यही है कि हर स्त्री में होती है लहना की सूबेदारनी। अब यह तो दुनियावी सूबेदार को समझना चाहिए कि सूबेदारनी के मन में अंकित लहना की छवि उसका हित ही करेगी, अहित नहीं। बस, इतनी-सी समझ बड़े-बड़े अलगाव और टकराहट को दूर कर सकती है।
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