चर्चा प्लस ...(20 जनवरी) जन्मतिथि पर..
कुर्तुलऐन हैदर : जिनका पूरा लेखन आग का दरिया था
- डाॅ शरद सिंह
एक ऐसी लेखिका जो अपनी स्पष्टवादिता के लिए जानी जाती हैं, उनका नाम है कुर्तुलऐन हैदर। वे सियासी नहीं थीं लेकिन अपनी लेखनी से सियासत को हिलाने की ताक़त रखती थीं। पाकिस्तान सरकार उनके साहित्य से तिलमिला उठी थी। कुर्रतुलऐन हैदर ने आईना दिखाते हुए सच लिख जो दिया था कि -‘‘दुनिया की तरफ से इस्लाम का ठेका इस वक़्त पाकिस्तान सरकार ने ले रखा है। इस्लाम कभी एक बढ़ती हुई नदी की तरह अनगिनत सहायक नदी-नालों को अपने धारे में समेट कर शान के साथ एक बड़े भारी जल-प्रपात के रूप में बहा था, पर अब वही सिमट-सिमटा कर (पाकिस्तान के कारण) एक मटियाले नाले में बदला जा रहा है।’’
कुर्रतुलऐन हैदर का जन्म 20 जनवरी 1926 ई. अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में उर्दू के जाने-माने लेखक सज्जाद हैदर यलदरम के यहां हुआ था। उनकी मां बिन्ते बाक़र भी उर्दू की लेखक रही हैं। कुर्रतुलऐन हैदर के पिता सज्जाद हैदर यिल्दिरम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार थे। कुर्रतुलऐन हैदर के परिवार में तीन पीढ़ियों से लिखने की परंपरा रही। कुर्रतुलऐन हैदर के पिता की गणना उर्दू के प्रतिष्ठित कथाकारों में होती थी। कुर्रतुलऐन हैदर की मां नजर सज्जाद हैदर ‘उर्दू’ की ‘जेन ऑस्टिन’ कहलाती थीं। कुर्रतुलऐन को बचपन से ही लिखने की रुचि रही।
कुर्रतुलऐन हैदर के पूर्वज सैय्यद जलालुद्दीन बुखारी 1236 में बुखारा से हिंदुस्तान गए थे। उन दिनों दिल्ली में रजिया सुल्तान का शासन था। बुखारी साहब सूफी विचारों के थे। उन्हें भारत पसंद आया और दिल्ली सल्तनत को वे पसंद आ गए। उस समय से ही बुखारी परिवार भारत में बस गया। इसी ख़ानदान की कुर्रतुलऐन हैदर ने उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा लालबाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश स्थित गांधी स्कूल में प्राप्त की और अलीगढ़ से हाईस्कूल पास किया। लखनऊ के आईटी कालेज से बी.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। फिर लन्दन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। जब वे 20 वर्ष की थीं तो उन्हें देश के बंटवारे की पड़ा झेलनी पड़ी। इस बंटवारे ने उनके खानदान को तहस-नहस कर दिया और उनके भाई-बहन पाकिस्तान चले गए। कुर्रतुलऐन और उनके पिता भारत में ही रहे। पिता की मृत्यु के बाद कुर्रतुलऐन अकेली पड़ गईं तब उनके भाई मुस्तफ़ा हैदर ने उन्हें अपने पास पाकिस्तान बुला लिया। वे पाकिस्तान पहुंच तो गईं लेकिन पाकिस्तान उन्हें रास नहीं आया। उनका उपन्यास ‘‘आग का दरिया’’ पाकिस्तान सरकार को पसंद नहीं आया। जब एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया कि आपने अपने उपन्यास में ऐसा क्या लिख दिया है जिससे पाकिस्तान सरकार परेशान हो उठी है तो उत्तर में उन्होंने पहले यही कहा कि ‘‘मैंने ऐसा क्या लिख दिया? कुछ भी तो नहीं!’’ फिर पाकिस्तान छोड़ का वापस भारत में जा कर बसने का कारण बताते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-‘‘ये हिंदुस्तान कोई लकीर के उस पार का मुल्क नहीं है। ये 4500 साल की तारीख (इतिहास) है जिसका फैलाव खैबर दर्रे से लेकर बंगाल की खाड़ी तक और हिमाले से लेकर हिंद महासागर तक है। इसमें कारवां आते गए और ये गुलिस्तां बनता गया। आर्य, हुन, कुशान और फिर मुसलमां सब आये और बस गए। राम यहीं हैं, बुद्ध यहीं हैं और यहीं हैं निजामुद्दीन औलिया और गरीब नवाज। यहां आकर सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया। लकीर खींच कर पाकिस्तान तो बना लिया पर तहजीब वही रखी जो हिंदुस्तान की थी। वही पहनावा, वही खाना, ‘बाजरे के सिट्टे।।।’ यहां भी गाया जाता है और वहां भी। अगर हिंदुओं की तहजीब कमतर होती तो क्यूं रहीम ‘कृष्ण’ गाते और उनसे पहले खुसरो ‘राम’ गाते? चलो गाया सो गाया, अब भी तो जब बच्चा मुसलमान के घर पैदा होता है, गीत कृष्ण-कन्हैया के गाए जाते हैं, मुसलमान बच्चे मुंह नीला-पीला किए गली-गली टीन बजाते हैं, साथ-साथ चिल्लाते हैं- ’हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की।’ मुसलमान पर्दानशीं औरतें जिन्होंने पूरी उम्र किसी गैर मर्द से बात नहीं की, जब ढोलक लेकर बैठती हैं तो लहक-लहक कर अलापती हैं - भरी गगरी मेरी ढलकाई तूने, श्याम हां तूने। और सुनो हिंदू तहजीब की खास बात ये है कि इसमें कोई किसी को हुक्म नहीं देता है कि ये करो, वो करो, ये करना ही है। मैंने इस तहजीब की बात की थी। कुछ मुसलमानों का अच्छा है तो कुछ हिंदुओं का और यही मिली-जुली तहजीब इस ‘हिंदुस्तान’ की पहचान है। कुछ महासभाई यहां थे और कुछ मुस्लिम लीगी वहां। आप तो आ गए अपने पाकिस्तान में, मैं तो आज भी बीच में झूल रही हूं और मुझे सुकून उस धरती पर ही मिलता है क्योंकि आज भी वहां गंगा-जमुना तहजीब है। इसलिए जा रही हूं।’’
अपने एक अन्य साक्षात्कार में उन्होंने अपने भारत लौटने के बारे कहा था कि -‘‘मैं यहां लौट कर कैसे नहीं आती? मेरी जड़ें और मेरा दिल तो यहीं था।’’ वे जीवनपर्यन्त भारत में ही रहीं।
उन्होंने अपना कैरियर भले ही एक पत्रकार की हैसियत से शुरू किया लेकिन इसी दौरान वे लिखती भी रहीं और उनकी कहानियां, उपन्यास, अनुवाद, रिपोर्ताज वगैरह सामने आते रहे। साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की वह दो बार सदस्य रहीं। विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में वह जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अतिथि प्रोफेसर के रूप में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से भी जुड़ी रहीं। 1951 में वह लन्दन जाकर स्वतंत्र लेखक-पत्रकार के रूप में बीबीसी लन्दन से जुड़ गईं। बाद में ‘द टेलीग्राफ’ की रिपोर्टर और इम्प्रिंट पत्रिका की प्रबन्ध सम्पादक भी रहीं। वह इलेस्ट्रेड वीकली की सम्पादकीय टीम में भी रहीं। वे अविवाहित रहीं।
सन् 1959 में जब उनका उपन्यास ‘आग का दरिया’ प्रकाशित हुआ, भारत और पाकिस्तान के साहित्य जगत में तहलका मच गया। भारत विभाजन पर तुरन्त प्रतिक्रिया के रूप में हिंसा, रक्तपात और बर्बरता की कहानियां तो बहुत छपीं लेकिन अनगिनत लोगों की निजी एवं एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक त्रासदी को एकदम बेबाकी से कुर्रतुलऐन हैदर ने ही प्रस्तुत किया। ‘ऐनी आपा’ के उपनाम से प्रसिद्ध कुर्रतुलऐन हैदर के उपन्यास ‘आग का दरिया’ में उन्होंने आहत मनुष्यता और मनोवैज्ञानिक अलगाव के मर्म को अंदर तक बड़ी बारीकी से छुआ। जो प्रसिद्धि और लोकप्रियता ‘आग का दरिया’ को मिली, वह किसी अन्य उर्दू साहित्यिक कृति को शायद ही नसीब हुई हो। इस उपन्यास में लगभग ढाई हजार वर्ष के लम्बे वक्त की पृष्ठभूमि को विस्तृत कैनवस पर फैलाकर उपमहाद्वीप की हजारों वर्ष की सभ्यता-संस्कृति, इतिहास, दर्शन और रीति-रिवाज के विभिन्न रंगों की एक ऐसी तस्वीर खींची गई, जिसने अपने पढ़ने वालों को कदम-कदम पर चौंकाया।
कुर्रतुलऐन हैदर ने लिखा था कि -‘‘दुनिया की तरफ से इस्लाम का ठेका इस वक़्त पाकिस्तान सरकार ने ले रखा है। इस्लाम कभी एक बढ़ती हुई नदी की तरह अनगिनत सहायक नदी-नालों को अपने धारे में समेट कर शान के साथ एक बड़े भारी जल-प्रपात के रूप में बहा था, पर अब वही सिमट-सिमटा कर एक मटियाले नाले में बदला जा रहा है। मजा यह है की इस्लाम का नारा लगाने वालों को धर्म, दर्शन से कोई मतलब नहीं। उनको सिर्फ इतना मालूम है कि मुसलमानों ने आठ सौ साल ईसाई स्पेन पर हुकूमत की, एक हजार साल हिन्दू भारत पर और चार सौ साल पूर्वी यूरोप पर।’’ इस तरह का बयान, वह भी किसी स्त्री द्वारा दिया जाना सामाजिक तबके में हंगामा पैदा करने के लिए काफी था। कुर्रतुलऐन को उनके बेबाक लेखन के लिए हतोत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई लेकिन वे डरी नहीं और कलम-कागज थामें डट कर खड़ी रहीं। प्रमुख उपन्यास हैं-‘मेरे भी सनमख़ाने (1949), सफीना-ए-गमे-दिल (1952), आग का दरिया (1959), आखि़री शब के हमसफर (1979 गर्दिशे-रंगे-चमन (1987), चांदनी बेगम (1990), कारे-जहां-दराज है(1978-79), शीशे के घर (1952), पतझर की आवाज (1967) और रोशनी की रफ्तार (1982)। उनके लेखन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी, सोवियत लैंड नेहरू सम्मान, गालिब सम्मान, ज्ञानपीठ, पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
मुखर हो कर लिखने वाली तीन लेखिकाओं के बारे में कमलेश्वर कहा था‘‘ अमृता प्रीतम, इस्मत चुगताई और कुर्रतुलऐन हैदर जैसी विद्रोहिणियों ने हिंदुस्तानी अदब को पूरी दुनिया में एक अलग स्थान दिलाया है। जो जिया, जो भोगा या जो देखा, उसे लिखना शायद बहुत मुश्किल नहीं, पर जो लिखा वह झकझोर कर रख दे, तो तय है कि बात कुछ खास ही होगी।’’
कुर्रतुलऐन हैदर के उन्यास ‘आग का दरिया’ के बारे में मशहूर शायर निदा फाज़ली ने कहा था कि ‘‘मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दुस्तान के साढ़े चार हजार सालों की तारीख (इतिहास) में से मुसलमानों के 1200 सालों को अलग करके पाकिस्तान बनाया था। कुर्रतुलऐन हैदर ने नॉवल ‘आग का दरिया’ लिख कर उन अलग किए गए 1200 सालों को हिंदुस्तान में जोड़ कर उसे फिर से एक कर दिया।’’
अपने जिस साहसी लेखन के लिए कुर्रतुलऐन हैदर को विरोधों एवं अपमानों का समाना करना पड़ा, उसी लेखन ने उन्हें आग दरिया पार करने वाली साहसी लेखिका की पहचान और सम्मान भी दिलाया।
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(दैनिक सागर दिनकर 20.01.2021 को प्रकाशित)
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बहुत अच्छा लेख
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद 🌹🙏🌹
Deleteगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
ReplyDeleteआपको भी हार्दिक शुभकामनाएं 🇮🇳🙏🇮🇳
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