Dr Sharad Singh |
मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (07. 09. 2016) .....
My Column Charcha Plus in "Dainik Sagar Dinkar" .....
विघ्नहर्ता के देश में महिला -जीवन में विध्न
- डॉ. शरद सिंह
श्रीगणेश विध्नहर्ता हैं, यही मानते हुए सदा उनसे प्रार्थना की जाती है कि
उनकी कृपा से प्रत्येक कार्य निर्विघ्न संम्पन्न हों। भारत की धर्मपरायण
आमजनता में महिलाएं ही सबसे अधिक धर्मध्वजा संवाहक मानी जाती हैं। भारतीय
स्त्रियां आमतौर पर धर्मपरायण ही होती हैं, चाहे वे कितनी भी पढ़-लिख जाएं
अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना लें। वे आस्था और वैज्ञानिक ज्ञान को
समानान्तर रखते हुए आराम से दोनों को साधे रखती हैं। किन्तु दुख की बात यह
है कि विध्नहर्ता श्री गणेश से विध्नविनाश की रोज प्रार्थना करने वाली
स्त्रियों के जीवन में दिन प्रतिदिन विध्न बढ़ते ही जा रहे हैं। बलात्कार,
अपहरण, अपमान आदि रोजमर्रा की बात हो चली है। महिला-जीवन प्रगति कर रहा है
किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ।
महिला-जीवन प्रगति कर रहा है किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ। लेकिन क्या सारे अपराधियों को विध्नहर्ता के खाते में डाल कर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा जाना चाहिए? भारतीय समाज में महिलाओं में स्वतंत्रता और आधुनिकता का विस्तार के साथ ही उनके प्रति संकीर्णता का भाव बढ़ गया। महिलाओं के विरू‘ होने वाले अपराधों को देख कर कई बार ऐसो लगने लगता है जैसे 21वीं सदी में भी आधुनिक समाज की दृष्टि अभी भी महिलाएं मात्र स्त्री हैं और उन्हें सड़ी-गली परम्पराओं से बागे नहीं आना चाहिए। स्त्री आज भी निरीह, भोग्या और उत्पीड़न की आसान शिकार मानी जाती है। इसी मानसिकता का घातक परिणाम है कि महिलाओं के प्रति छेड़छाड़, बलात्कार, यातनाएं, अनैतिक व्यापार, दहेज मृत्यु तथा यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है जबकि देश में महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण दिए जाने का प्रावधान है।
महिला-जीवन प्रगति कर रहा है किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ। लेकिन क्या सारे अपराधियों को विध्नहर्ता के खाते में डाल कर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा जाना चाहिए? भारतीय समाज में महिलाओं में स्वतंत्रता और आधुनिकता का विस्तार के साथ ही उनके प्रति संकीर्णता का भाव बढ़ गया। महिलाओं के विरू‘ होने वाले अपराधों को देख कर कई बार ऐसो लगने लगता है जैसे 21वीं सदी में भी आधुनिक समाज की दृष्टि अभी भी महिलाएं मात्र स्त्री हैं और उन्हें सड़ी-गली परम्पराओं से बागे नहीं आना चाहिए। स्त्री आज भी निरीह, भोग्या और उत्पीड़न की आसान शिकार मानी जाती है। इसी मानसिकता का घातक परिणाम है कि महिलाओं के प्रति छेड़छाड़, बलात्कार, यातनाएं, अनैतिक व्यापार, दहेज मृत्यु तथा यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है जबकि देश में महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण दिए जाने का प्रावधान है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
कानून तो अनेक हैं
देश में महिलाओं को अपराधों और अपराधियों से बचाने के लिए यू ंतो ढ़ेर सारे कानून बनाए गए हैं, लेकिन अपराध के आंकड़े शर्म से सिर झुका लेने को विवश करते हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए जो प्रमुख कानून हैं उनमें अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट-रुण्ण प्रतिषेध अधिनियिम 1986, गर्भाधारण पूर्व लिंग-चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध, प्रतितोष) अधिनियम 2013 प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त 16 दिसंबर, 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘निर्भया कांड’ के परिप्रेक्ष्य में दंड विधि (संशोधन) 2013 पारित किया गया और यह कानून 3 अप्रैल, 2013 को देश में लागू हो गया. इस कानून में प्रावधान किया गया है कि तेजाबी हमला करने वालों को 10 वर्ष की सजा और बलात्कार के मामले में अगर पीड़ित महिला की मृत्यु हो जाती है तो बलात्कारी को न्यूनतम 20 वर्ष की सजा होगी। इसके साथ ही महिलाओं के विरुद्ध अपराध की एफआईआर दर्ज नहीं करने वाले पुलिसकर्मियों को दंडित का भी प्रावधान है। इस कानून के मुताबिक महिलाओं का पीछा करने और घूर-घूर कर देखने को भी गैर जमानती अपराध घोषित किया है। लेकिन त्रासदी है कि इन कानूनों के होते हुए भी महिलाओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा है. देश में घरेलू हिंसा, बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज-मृत्यु, अपहरण और अगवा, लैंगिक दुव्र्यवहार और ऑनर किलिंग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।
शर्मनाक आंकड़े
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को सुरक्षा उपलब्ध कराने के बावजूद भी 2014 में प्रतिदिन 100 महिलाओं का बलात्कार हुआ और 364 महिलाएं यौनशोषण का शिकार हुई। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में केंद्रशासित और राज्यों को मिलाकर कुल 36735 मामले दर्ज हुए। यह दुखद है कि दर में कमी आने के बजाए हर वर्ष बलात्कार के मामले में वृद्धि हुई है। सरकारी ऐजेंसी के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में बलात्कार के कुल 18233 मामले दर्ज हुए जबकि वर्ष 2009 में यह संख्या बढ़कर 21397 हो गई। इसी तरह वर्ष 2012 में 24923 मामले दर्ज किए गए और 2014 में यह संख्या 36735 हो गई। तुलना करने पर साफ पता चलता है कि वर्ष 2004 की तुलना में वर्ष 2014 स्त्रीविरुद्ध अपराध के आंकड़े दुगुने हो गए। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के लिए मध्यप्रदेश सबसे अधिक असुरक्षित राज्य के रुप में उभरा है। पिछले वर्ष यहां सबसे अधिक 5076 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। इसी तरह राजस्थान में 3759, उत्तरप्रदेश में 3467, महाराष्ट्र में 3438 और दिल्ली में 2096 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। महिलाओं की सुरक्षा के मामले में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली की दशा बिहार से भी बदतर है। आंकड़ों से उजागर हुआ है कि 2014 में बिहार में बलात्कार के कुल 1127 मामले दर्ज हुए। संपूर्ण साक्षरता वाले राज्य केरल में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। केरल में एक वर्ष में बलात्कार के कुल 1347 मामले दर्ज किए गए।
वस्तुतः देश के अधिकांश राज्य महिलाओं की सुरक्षा के प्रश्न पर कटघरे में खड़े दिखाई देते हैं। उल्लेखनीय है कि महिलाएं सिर्फ सड़कों व सार्वजनिक स्थानों पर ही नहीं बल्कि अपने घर-परिवार के बीच भी असुरक्षित हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार किए जाने की घटनाओं में अप्रत्याशित रुप से वृद्धि हुई है। दुष्कर्म की घटनाओं में तकरीबन 95 फीसदी मामलों में दुष्कर्मी पीड़िता के जान-परिचय का व्यक्ति होता है। यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘हिडेन इन प्लेन साइट’ से उजागर हुआ है कि भारत में 15 साल से 19 साल की उम्र वाली 34 फीसद विवाहित महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने अपने पति या साथी के हाथों शारीरिक या यौन हिंसा झेली हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष तथा वाशिंगटन स्थित संस्था ‘इंटरनेशनल सेंटर पर रिसर्च ऑन वुमेन’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10 में से 6 पुरुषों ने कभी न कभी अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका के साथ हिंसक व्यवहार करते हैं। रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि 52 प्रतिशत महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें अपने पति अथवा प्रेमी से किसी न किसी तरह हिंसा का सामना करना पड़ा है।
कुछ क़दम उठाने ही होंगे
श्रीगणेश विध्नहर्ता हैं, यही मानते हुए सदा उनसे प्रार्थना की जाती है कि उनकी कृपा से प्रत्येक कार्य निर्विघ्न संम्पन्न हों। भारत की धर्मपरायण आमजनता में महिलाएं ही सबसे अधिक धर्मध्वजा संवाहक मानी जाती हैं। भारतीय स्त्रियां आमतौर पर धर्मपरायण ही होती हैं, चाहे वे कितनी भी पढ़-लिख जाएं अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना लें। वे आस्था और वैज्ञानिक ज्ञान को समानान्तर रखते हुए आराम से दोनों को साधे रखती हैं। किन्तु दुख की बात यह है कि विध्नहर्ता श्री गणेश से विध्नविनाश की रोज प्रार्थना करने वाली स्त्रियों के जीवन में दिन प्रतिदिन विध्न बढ़ते ही जा रहे हैं। बलात्कार, अपहरण, अपमान आदि रोजमर्रा की बात हो चली है। महिला-जीवन प्रगति कर रहा है किन्तु सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह के साथ।
स्त्रियों को बढ़ते अपराधों से बचाने के लिए कुछ क़दम उठाने ही होंगे। जैसे पहला कदम है कि स्त्री के प्रति उन पुरुषों की सोच को बदलना होगा जो स्त्री को मात्र देह अथवा उपभोग की वस्तु के रूप में देखते हैं। ऐसे पुरुषों की सोच को बदलने के लिए कानूनी ही नहीं अपितु सामाजिक स्तर पर भी कठोरता बरतनी होगी। किसी भी आयुवर्ग के बलात्कारी का सामाजिक बहिष्कार भी जरूरी है जिससे ऐसे अपराधियों पर भय व्याप्त हो सके। दूसरा कदम है शौचालय का। ग्रामीण अंचलों एवं झुग्गी-बस्तियों में टी.वी. और मोटरसायकिलें तो मिल जाती है किन्तु शौचालय नहीं मिलता है। इस बुनियादी आवश्यकता के प्रति किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। जबकि शौचालय के अभाव में स्त्रियों को समय-असमय घर से बाहर अकेले निकलने को विवश होना पड़ता है। फिर भी न तो वे स्त्रियां घर में शौचालय की मांग करती हैं और न घर के पुरुष इस ओर ध्यान देते हैं। इस प्रकार जागरूकता की कमी समस्या को जस का तस बनाए हुए है। कम से कम वर्ष 21 वीं सदी के इस दूसरे दशक में तो यह मुद्दा समाप्त हो ही जाना चाहिए। तीसरा कदम है स्त्री शिक्षा का। यदि आंकड़ों पर ही शिक्षा को मापें तब भी स्त्री-शिक्षा का आंकड़ा शत-प्रतिशत पर नहीं पहुंच सका है। स्त्रियों में आत्मबल शिक्षा द्वारा ही जागृत किया जा सकता है। चैथा कदम है राजनीति में स्त्रियों के वास्तविक स्थान का। देखने में आता है कि सारे निर्णय पति अथवा परिवार के पुरुष लेते हैं और सरपंच अथवा पार्षद स्त्रियां ‘रबर स्टैम्प’ की भांति उनके निर्णय पर खामोशी से मुहर लगाती रहती हैं। राजनीति में स्त्रियों के बढ़ते वर्चस्व की तस्वीर वाले कोलाज़ का यह टुकड़ा निहायत भद्दा और झुठ का पुलन्दा है। इस टुकड़े की कड़ाई से जांच किए जाने की जरूरत है वरना हमारे स्त्री-प्रगति के किस्से थोथे चने की तरह बजते रहेंगे और स्त्रियां उसी तरह दोयम दर्जे पर ही खड़ी रहेंगी। पांचवा कदम है स्त्री द्वारा आत्मावलोकन का। जी हां, स्त्रियों को अपने भीतर झांकना चाहिए। चाहे वह मां हो, सास हो, बेटी हो, बहू हो या किसी भी रूप में हो, उसे खुद को परखना होगा कि वह अन्य स्त्रियों के प्रति कितनी सहज और उत्तरदायित्वपूर्ण है? स्त्रियों की बहुत सारी समस्याएं तो मात्र इसी बात समाप्त हो सकती है कि यदि एक स्त्री पर संकट आए तो दूसरी स्त्रियां उसके पक्ष में जा खड़ीं हों और उसकी मदद करें।
यदि इस तरह कुछ महत्वपूर्ण कदम गंभीरता से उठाए जाएं तो विध्नहर्ता भी आगे बढ़ कर सहायता करेंगे। वो कहते हैं न कि ‘‘हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा!’’
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