Dr (Miss) Sharad Singh |
मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (21. 09. 2016) .....
My Column Charcha Plus in "Dainik Sagar Dinkar" .....
राष्ट्रवादी चिंतक पं. दीनदयाल उपाध्याय
- डॉ. शरद सिंह
दीनदयाल उपाध्याय में देश सेवा की ललक थी उतनी ही अध्ययन के प्रति
अभिरुचि थी। वे एक चिन्तक, लेखक, सम्पादक, संगठनकर्ता एवं राजनीतिज्ञ ही
नहीं अपितु एक अच्छे पाठक भी थे। उनके कंधे में टंगे रहने वाले थैले में दो
या तीन किताबें अवश्य रहती थीं। दीनदयाल उपाध्याय की बहुमुखी प्रतिभा का
सभी सम्मान करते थे, चाहे वे संघ के अनुयायी हों या किसी और दल के। यहां
मैं अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : दीनदयाल उपाध्याय’’ के कुछ अंश
साझा कर रही हूं।
25 सितंबर 1916 को राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में जन्में पं. दीनदयाल उपाध्याय को परिवार का स्नेह अधिक समय तक न मिल सका। जब माता-पिता उनसे बिछड़े तब उनकी आयु मात्र आठ वर्ष ही थी। दुर्भाग्य ऐसा था कि कुछ ही समय बाद दीनदयाल जी के भाई शिवदयाल की भी निमोनिया से पीड़ित होने के कारण मृत्यु हो गई। माता-पिता के अभाव में उनका पालन-पोषण उनके मामा ने किया। जो राजस्थान के गंगापुर रेलवे स्टेशन पर मालगार्ड के रूप में कार्यरत थे। उनके मामा ने उनसे शादी का कई बार आग्रह किया लेकिन वे शादी के प्रस्तावों को नकार देते थे। शायद राष्ट्र की सेवा का व्रत लेकर ही वे जन्मे थे, जिस कारण सभी सांसारिक बंधनों से दूर वे केवल भारत माता के बंधन में ही रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया।
पं. दीनदयाल उपाध्याय एक सच्चे कर्मयोगी थे। वे अत्यंत सादगी से रहना पसंद करते थे। उनका मानना था कि व्यक्ति को इच्छाओं के वशीभूत नहीं रहना चाहिए, बल्कि इच्छाओं को अपने वश में रखना चाहिए। वे यह भी मानते थे कि विचारों की उच्चता ही व्यक्ति को उत्कृष्ट बनाती है। दीनदयाल उपाध्याय सभी को अपना मानते थे। उनके मन में जाति, धर्म, भाषा, अमीर, गरीब आदि का कोई भेद नहीं था। उनके इस स्वभाव के संबंध में मुम्बई की एक महिला कार्यकर्ता ने अपने उद्गार प्रकट किए थे कि ‘‘हमारे यहां अनेक नेता आते रहते हैं। कोई नेता आ रहा हो तो उनकी अच्छी देख-भाल करने की चिन्ता तो मन में होती ही है। किन्तु दीनदयाल उपाध्याय आने वाले हों तो ऐसी कोई चिन्ता मुझे नहीं होती थी । लगता था मानों अपना ही कोई भाई या सगा-संबंधी आ रहा है।’’
अहम् से परे
पंडित दीनदयाल उपाध्याय सहज व्यक्ति थे। वे अहंकार से कोसों दूर रहते थे। सन् 1960 की एक घटना है, कानपुर में संघ-शिक्षा वर्ग का शिविर था। दीनदयाल उपाध्याय भी शिविर में शामिल थे। दोपहर के भोजन के पश्चात् सभी शिविरार्थी अपना-अपना लोटा ले कर नल पर हाथ धोने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। उस पंक्ति में एक चंचल प्रकृति का कार्यकर्ता भी था। उसने जैसे ही देखा कि एक धोती-कुर्ताधारी शांत स्वभाव का कार्यकर्ता पानी भरने के लिए अपना लोटा नल के नीचे रख रहा है, वैसे ही वह चंचल कार्यकर्ता लपक कर आया और उसने लोटा उठा कर परे फेंक दिया। धोती-कुर्ताधारी कार्यकर्ता उसके इस कृत्य पर शान्त रहा। उसने अपना लोटा उठाया और पंक्ति में सबसे पीछे जा कर खड़ा हो गया क्यों कि उसकी पारी व्यर्थ जा चुकी थी। वह चंचल कार्यकर्ता अपनी इस शरारत पर अत्यन्त प्रसन्न था। कुछ देर बाद कक्षाएं पुनः आरम्भ हुईं। बौद्धिक वर्ग की कक्षा में उस धोती-कुर्ताधारी युवक का परिचय कराते हुए कहा गया कि ये पंडित दीनदयाल उपाध्याय हैं और ये आपकी बौद्धिक वर्ग की कक्षा लेंगे।
वहां लोटा फेंकने वाला कार्यकर्ता भी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित था। जैसे ही उसे इस बात का पता चला कि उसने जिसका लोटा फेंका था वह और कोई नहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। उसे तो मानां काटो तो खून नहीं। वह भाग कर शिविर संचालक के पास पहुंचा क्योंकि दीनदयाल उपाध्याय का सामना करने का साहस उसमें नहीं था। शिविर संचालक ने उसे समझाया कि यदि दीनदयाल उपाध्याय को अपने वरिष्ठ होने का अहंकार होता तो वे उसी समय डांटते या अन्य किसी तरह से दंडित करते किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अतः वह भयभीत न हो। इस प्रकार शिविर संचालक द्वारा समझाए जाने के बाद वह चंचल कार्यकर्ता साहस करके दीनदयाल उपाध्याय के पास गया और उनके पैर पकड़ लिए। दीनदयाल उपाध्याय ने उसे गले से लगाते हुए कहा - ‘‘मैं तुम्हारे भीतर उपस्थित ऊर्जा को प्रणाम करता हूं। तुम इसका सही मार्ग पर उपयोग करोगे ऐसा मुझे विश्वास है।’’
व्यक्तिगत आलोचना के विरोधी
राजनीति के क्षेत्र में एक-दूसरे पर व्यक्तिगत छींटाकशीं करना हमेशा सामान्य बात रही है, विशेषरूप से चुनाव के दौरान तो इसका और भी वीभत्स रूप सामने आने लगता है। जौनपुर लोकसभा क्षेत्र से जब दीनदयाल उपाध्याय को चुनाव के लिए खड़ा किया गया तो उनके साथी यादवराज देशमुख ने अपने पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर उन्हें सलाह दी कि -‘‘पंडित जी, चुनाव सभाओं में आपके भाषण कुछ अधिक आक्रामक होने चाहिए। प्रतिपक्ष पर तीखा प्रहार किए बिना चुनाव अभियान में रंग नहीं चढ़ पाएगा। मतदाताओं पर रचनात्मक एवं शिक्षात्मक भाषणों का प्रभाव नहीं पड़ता है।’’
एक अन्य कार्यकर्त्ता ने भी देशमुख का समर्थन करते हुए कहा कि -‘‘हां, पंडित जी, आपको अपने भाषणों में विरोधी नेता की जम कर टांग खि्ांचाई करना चाहिए।’’
‘‘ टांग खि्ांचाई से आपका आशय?’’ दीनदयाल उपाध्याय ने पूछा।
‘‘आशय यही कि आप उसके व्यक्तिगत जीवन का बखिया उधेड़ दीजिए।’’ उस कार्यकर्त्ता ने स्पष्ट किया।
‘‘देखिए, यदि आप लोगों को ऐसा लगता है कि मेरा प्रभाव नहीं पड़ेगा तो मैं चुनाव से हट जाता हूं। लेकिन केवल मत बटोरने के लिए अपने भाषणों में किसी पर व्यक्तिगत लांछन नहीं लगा सकूंगा। चाहे अपने हों या विरोधी, किसी की भी व्यक्तिगत आलोचना को मैं अनैतिक कार्य मानता हूं और मैं इसका विरोधी हूं।’’ दीनदयाल उपाध्याय दो-टूक ढंग से आगाह कर दिया कि उनसे घटिया राजनीति की आशा कोई न रखे।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सदैव स्वच्छ राजनीति का पक्ष लिया। वे स्पष्टवादी थे और राजनीति में भी वे सभी से स्पष्टता की अपेक्षा रखते थे।
सदा प्रासंगिक रहेंगे विचार
पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे। उनका कहना था कि राष्ट्र विभिन्न समाजों, समूहों एवं कुशलताओं से बनी एक ऐसी इकाई है जो मानव सभ्यता को सच्चे अर्थ में परिभाषित करती है। वे नागरिकों के लिए राष्ट्रीयता को सबसे बड़ी पूंजी मानते थे।
पं. दीनदयाल प्रकृति की महत्ता को सम्मान देते थे। वे प्राकृतिक सम्पदा के दुरुपयोग के विरोधी थे। उनके अनुसार प्रकृति का दोहन उसी सीमा तक किया जाना चाहिए जिस सीमा तक प्रकृति को क्षति न पहुंचे। पं. दीनदयाल जी ने मनुष्य एवं राष्ट्र के समुचित विकास के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अति आवश्यक माना। इस संबंध में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि ‘‘15 अगस्त 1947 को हमने एक लड़ाई जीती है। अपने विकास के मार्ग के रोड़ों को दूर करने के लिए हमें स्वतंत्रता की आवश्यकता थी। अब हमारी आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब मानव की प्रगति के लिए हमें इसकी सहायता करनी है। पं. दीनदयाल देश के विकास के लिए भूमि के उचित वितरण एवं समुचित देखभाल को मुख्य आधार मानते थे। वे कृषि की सुव्यवस्था के लिए कृषियोग्य भूमि का उचित बन्दोबस्त किया जाना आवश्यक समझते थे। पं. दीनदयाल भविष्य के भारत की अपनी संकल्पना में आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से सुदृढ़ भारत को देखा था। उन्होंने कहा था कि ‘‘परतंत्रता के कारण दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में हम बराबरी में खड़े नहीं हो सके। परन्तु अब हम स्वाधीन हो गए हैं। अब हमें इस कमी को पूरा करना चाहिए।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र एवं मनुष्यता को आधार में रख कर जीवन के प्रत्येक पक्षों पर चिन्तन किया तथा अपने मौलिक विचार सब के सामने रखे। चाहे प्रकृति के उचित दोहन का विषय हो या सांस्कृतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर का, धर्म संबंधी विचार हों या फिर भूमि के उचित वितरण चिन्ता दीनदयाल जी के विचार प्रत्येक देश, काल एवं परिस्थितियों में प्रासंगिक रहेंगे तथा दिशाबोध कराते रहेंगे। इसीलिए उनके विचारों को राजनीतिक मतभेदों से परे रख कर देखा जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘मुझे श्री उपाध्याय जी की मृत्यु की खबर सुन कर गहरा आघात पहुंचा है। श्री उपाध्याय देश के राजनीतिक जीवन में एक प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। उनकी ऐसी दुखद परिस्थितियों में असामयिक और अप्रत्याशित मुत्यु से उनका कार्य अधूरा रह गया है। जनसंघ व कांग्रेस के बीच मतभेद चाहे जो हों मगर श्री उपाध्याय सर्वाधिक सम्मान प्राप्त नेता थे और उन्होंने अपना जीवन देश की एकता और संस्कृति को समर्पित कर दिया था।’’
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25 सितंबर 1916 को राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में जन्में पं. दीनदयाल उपाध्याय को परिवार का स्नेह अधिक समय तक न मिल सका। जब माता-पिता उनसे बिछड़े तब उनकी आयु मात्र आठ वर्ष ही थी। दुर्भाग्य ऐसा था कि कुछ ही समय बाद दीनदयाल जी के भाई शिवदयाल की भी निमोनिया से पीड़ित होने के कारण मृत्यु हो गई। माता-पिता के अभाव में उनका पालन-पोषण उनके मामा ने किया। जो राजस्थान के गंगापुर रेलवे स्टेशन पर मालगार्ड के रूप में कार्यरत थे। उनके मामा ने उनसे शादी का कई बार आग्रह किया लेकिन वे शादी के प्रस्तावों को नकार देते थे। शायद राष्ट्र की सेवा का व्रत लेकर ही वे जन्मे थे, जिस कारण सभी सांसारिक बंधनों से दूर वे केवल भारत माता के बंधन में ही रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
पं. दीनदयाल उपाध्याय एक सच्चे कर्मयोगी थे। वे अत्यंत सादगी से रहना पसंद करते थे। उनका मानना था कि व्यक्ति को इच्छाओं के वशीभूत नहीं रहना चाहिए, बल्कि इच्छाओं को अपने वश में रखना चाहिए। वे यह भी मानते थे कि विचारों की उच्चता ही व्यक्ति को उत्कृष्ट बनाती है। दीनदयाल उपाध्याय सभी को अपना मानते थे। उनके मन में जाति, धर्म, भाषा, अमीर, गरीब आदि का कोई भेद नहीं था। उनके इस स्वभाव के संबंध में मुम्बई की एक महिला कार्यकर्ता ने अपने उद्गार प्रकट किए थे कि ‘‘हमारे यहां अनेक नेता आते रहते हैं। कोई नेता आ रहा हो तो उनकी अच्छी देख-भाल करने की चिन्ता तो मन में होती ही है। किन्तु दीनदयाल उपाध्याय आने वाले हों तो ऐसी कोई चिन्ता मुझे नहीं होती थी । लगता था मानों अपना ही कोई भाई या सगा-संबंधी आ रहा है।’’
अहम् से परे
पंडित दीनदयाल उपाध्याय सहज व्यक्ति थे। वे अहंकार से कोसों दूर रहते थे। सन् 1960 की एक घटना है, कानपुर में संघ-शिक्षा वर्ग का शिविर था। दीनदयाल उपाध्याय भी शिविर में शामिल थे। दोपहर के भोजन के पश्चात् सभी शिविरार्थी अपना-अपना लोटा ले कर नल पर हाथ धोने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। उस पंक्ति में एक चंचल प्रकृति का कार्यकर्ता भी था। उसने जैसे ही देखा कि एक धोती-कुर्ताधारी शांत स्वभाव का कार्यकर्ता पानी भरने के लिए अपना लोटा नल के नीचे रख रहा है, वैसे ही वह चंचल कार्यकर्ता लपक कर आया और उसने लोटा उठा कर परे फेंक दिया। धोती-कुर्ताधारी कार्यकर्ता उसके इस कृत्य पर शान्त रहा। उसने अपना लोटा उठाया और पंक्ति में सबसे पीछे जा कर खड़ा हो गया क्यों कि उसकी पारी व्यर्थ जा चुकी थी। वह चंचल कार्यकर्ता अपनी इस शरारत पर अत्यन्त प्रसन्न था। कुछ देर बाद कक्षाएं पुनः आरम्भ हुईं। बौद्धिक वर्ग की कक्षा में उस धोती-कुर्ताधारी युवक का परिचय कराते हुए कहा गया कि ये पंडित दीनदयाल उपाध्याय हैं और ये आपकी बौद्धिक वर्ग की कक्षा लेंगे।
वहां लोटा फेंकने वाला कार्यकर्ता भी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित था। जैसे ही उसे इस बात का पता चला कि उसने जिसका लोटा फेंका था वह और कोई नहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। उसे तो मानां काटो तो खून नहीं। वह भाग कर शिविर संचालक के पास पहुंचा क्योंकि दीनदयाल उपाध्याय का सामना करने का साहस उसमें नहीं था। शिविर संचालक ने उसे समझाया कि यदि दीनदयाल उपाध्याय को अपने वरिष्ठ होने का अहंकार होता तो वे उसी समय डांटते या अन्य किसी तरह से दंडित करते किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अतः वह भयभीत न हो। इस प्रकार शिविर संचालक द्वारा समझाए जाने के बाद वह चंचल कार्यकर्ता साहस करके दीनदयाल उपाध्याय के पास गया और उनके पैर पकड़ लिए। दीनदयाल उपाध्याय ने उसे गले से लगाते हुए कहा - ‘‘मैं तुम्हारे भीतर उपस्थित ऊर्जा को प्रणाम करता हूं। तुम इसका सही मार्ग पर उपयोग करोगे ऐसा मुझे विश्वास है।’’
व्यक्तिगत आलोचना के विरोधी
राजनीति के क्षेत्र में एक-दूसरे पर व्यक्तिगत छींटाकशीं करना हमेशा सामान्य बात रही है, विशेषरूप से चुनाव के दौरान तो इसका और भी वीभत्स रूप सामने आने लगता है। जौनपुर लोकसभा क्षेत्र से जब दीनदयाल उपाध्याय को चुनाव के लिए खड़ा किया गया तो उनके साथी यादवराज देशमुख ने अपने पत्रकारिता के अनुभवों के आधार पर उन्हें सलाह दी कि -‘‘पंडित जी, चुनाव सभाओं में आपके भाषण कुछ अधिक आक्रामक होने चाहिए। प्रतिपक्ष पर तीखा प्रहार किए बिना चुनाव अभियान में रंग नहीं चढ़ पाएगा। मतदाताओं पर रचनात्मक एवं शिक्षात्मक भाषणों का प्रभाव नहीं पड़ता है।’’
एक अन्य कार्यकर्त्ता ने भी देशमुख का समर्थन करते हुए कहा कि -‘‘हां, पंडित जी, आपको अपने भाषणों में विरोधी नेता की जम कर टांग खि्ांचाई करना चाहिए।’’
‘‘ टांग खि्ांचाई से आपका आशय?’’ दीनदयाल उपाध्याय ने पूछा।
‘‘आशय यही कि आप उसके व्यक्तिगत जीवन का बखिया उधेड़ दीजिए।’’ उस कार्यकर्त्ता ने स्पष्ट किया।
‘‘देखिए, यदि आप लोगों को ऐसा लगता है कि मेरा प्रभाव नहीं पड़ेगा तो मैं चुनाव से हट जाता हूं। लेकिन केवल मत बटोरने के लिए अपने भाषणों में किसी पर व्यक्तिगत लांछन नहीं लगा सकूंगा। चाहे अपने हों या विरोधी, किसी की भी व्यक्तिगत आलोचना को मैं अनैतिक कार्य मानता हूं और मैं इसका विरोधी हूं।’’ दीनदयाल उपाध्याय दो-टूक ढंग से आगाह कर दिया कि उनसे घटिया राजनीति की आशा कोई न रखे।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सदैव स्वच्छ राजनीति का पक्ष लिया। वे स्पष्टवादी थे और राजनीति में भी वे सभी से स्पष्टता की अपेक्षा रखते थे।
सदा प्रासंगिक रहेंगे विचार
पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे। उनका कहना था कि राष्ट्र विभिन्न समाजों, समूहों एवं कुशलताओं से बनी एक ऐसी इकाई है जो मानव सभ्यता को सच्चे अर्थ में परिभाषित करती है। वे नागरिकों के लिए राष्ट्रीयता को सबसे बड़ी पूंजी मानते थे।
पं. दीनदयाल प्रकृति की महत्ता को सम्मान देते थे। वे प्राकृतिक सम्पदा के दुरुपयोग के विरोधी थे। उनके अनुसार प्रकृति का दोहन उसी सीमा तक किया जाना चाहिए जिस सीमा तक प्रकृति को क्षति न पहुंचे। पं. दीनदयाल जी ने मनुष्य एवं राष्ट्र के समुचित विकास के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अति आवश्यक माना। इस संबंध में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि ‘‘15 अगस्त 1947 को हमने एक लड़ाई जीती है। अपने विकास के मार्ग के रोड़ों को दूर करने के लिए हमें स्वतंत्रता की आवश्यकता थी। अब हमारी आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब मानव की प्रगति के लिए हमें इसकी सहायता करनी है। पं. दीनदयाल देश के विकास के लिए भूमि के उचित वितरण एवं समुचित देखभाल को मुख्य आधार मानते थे। वे कृषि की सुव्यवस्था के लिए कृषियोग्य भूमि का उचित बन्दोबस्त किया जाना आवश्यक समझते थे। पं. दीनदयाल भविष्य के भारत की अपनी संकल्पना में आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से सुदृढ़ भारत को देखा था। उन्होंने कहा था कि ‘‘परतंत्रता के कारण दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में हम बराबरी में खड़े नहीं हो सके। परन्तु अब हम स्वाधीन हो गए हैं। अब हमें इस कमी को पूरा करना चाहिए।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र एवं मनुष्यता को आधार में रख कर जीवन के प्रत्येक पक्षों पर चिन्तन किया तथा अपने मौलिक विचार सब के सामने रखे। चाहे प्रकृति के उचित दोहन का विषय हो या सांस्कृतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर का, धर्म संबंधी विचार हों या फिर भूमि के उचित वितरण चिन्ता दीनदयाल जी के विचार प्रत्येक देश, काल एवं परिस्थितियों में प्रासंगिक रहेंगे तथा दिशाबोध कराते रहेंगे। इसीलिए उनके विचारों को राजनीतिक मतभेदों से परे रख कर देखा जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘मुझे श्री उपाध्याय जी की मृत्यु की खबर सुन कर गहरा आघात पहुंचा है। श्री उपाध्याय देश के राजनीतिक जीवन में एक प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। उनकी ऐसी दुखद परिस्थितियों में असामयिक और अप्रत्याशित मुत्यु से उनका कार्य अधूरा रह गया है। जनसंघ व कांग्रेस के बीच मतभेद चाहे जो हों मगर श्री उपाध्याय सर्वाधिक सम्मान प्राप्त नेता थे और उन्होंने अपना जीवन देश की एकता और संस्कृति को समर्पित कर दिया था।’’
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