मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (21. 09. 2016) .....
My Column Charcha Plus in "Dainik Sagar Dinkar" .....
यदि हम हिन्दी का भला चाहते हैं ...
- डॉ. शरद सिंह
हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके।
वर्ष 2016 का हिन्दी मास भी समाप्त हो गया लेकिन हिन्दी का कितना भला हुआ? मुझे याद आ रही है विगत वर्ष अर्थात् सन् 2015, जुलाई की 19 तारीख। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिन्दी भवन न्यास के तत्वावधान में भोपाल में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन में मनोज श्रीवास्तव ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रखा था कि हम बार-बार संयुक्त राष्ट्रसंघ स्वीकृत भाषासूची में हिन्दी को शामिल किए जाने की मांग करते हैं, किन्तु विश्व श्रम संगठन अथवा सार्क संगठन में भी हिन्दी के लिए स्थान क्यों नहीं मांगते हैं? उसी समय विश्वनाथ सचदेव ने इस ओर ध्यान दिलाया कि जहां हम हिन्दी के प्रति अगाध चिन्ता व्यक्त करते नहीं थकते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम के शासकीय विद्यालय खोल रहे हैं, क्या यह हमारा अपनी भाषा के प्रति दोहरापन नहीं है?
यह अत्यंत व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने दैनिक बोलचाल में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं जो आसानी से सबकी समझ में आ जाती है। यहां तक कि अहिन्दी भाषी भी इसे समझ लेते हैं किन्तु जब हिन्दी के विद्वान तकनीकी अथवा वैज्ञानिक शब्दावली के लिए जिन हिन्दी शब्दों का चयन करते हैं, वे प्रायः संस्कृतनिष्ठ होते हैं। जैसे- ‘चार पैरों वाले’ के स्थान पर ‘चतुष्पादीय’। जब किसी को पांव में ठोकर लगती है तो उससे हम यह नहीं पूछते कि ‘तुम्हारे पद में आघात तो नहीं लगा?’ हम यही पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी?’ जिस शब्दावली से विद्यार्थी परिचित होता है, उससे इतर हम उसके सामने इतनी कठिन शब्दावली परोस देते हैं कि वह तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी को सरल मान कर उसकी ओर आकर्षित होने लगता है। संदर्भवश एक बात और (व्यक्तिगत राग-द्वेष से परे यह बात कह रही हूं) कि जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दावली की पैरवी करते हैं वे ही महानुभाव अपने बेटे-बेटियों को ही नहीं वरन् पोते-पोतियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने की होड़ में जुटे हुए भारी ‘डोनेशन’ देते दिखाई पड़ते हैं और गर्व से कहते मिलते हैं। कोई विद्यार्थी किस भाषाई माध्यम को शिक्षा के लिए चुनता है (अथवा उसे चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है) यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि भाषा को ले कर हमारे दोहरे चरित्र का मसला है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाने तथा विश्वस्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की लड़ाई आज आरम्भ नहीं हुई है, यह तो पिछली सदी के पूर्वार्द्ध से छिड़ी हुई है।
वर्ष 2016 का हिन्दी मास भी समाप्त हो गया लेकिन हिन्दी का कितना भला हुआ? मुझे याद आ रही है विगत वर्ष अर्थात् सन् 2015, जुलाई की 19 तारीख। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिन्दी भवन न्यास के तत्वावधान में भोपाल में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन में मनोज श्रीवास्तव ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रखा था कि हम बार-बार संयुक्त राष्ट्रसंघ स्वीकृत भाषासूची में हिन्दी को शामिल किए जाने की मांग करते हैं, किन्तु विश्व श्रम संगठन अथवा सार्क संगठन में भी हिन्दी के लिए स्थान क्यों नहीं मांगते हैं? उसी समय विश्वनाथ सचदेव ने इस ओर ध्यान दिलाया कि जहां हम हिन्दी के प्रति अगाध चिन्ता व्यक्त करते नहीं थकते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम के शासकीय विद्यालय खोल रहे हैं, क्या यह हमारा अपनी भाषा के प्रति दोहरापन नहीं है?
यह अत्यंत व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने दैनिक बोलचाल में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं जो आसानी से सबकी समझ में आ जाती है। यहां तक कि अहिन्दी भाषी भी इसे समझ लेते हैं किन्तु जब हिन्दी के विद्वान तकनीकी अथवा वैज्ञानिक शब्दावली के लिए जिन हिन्दी शब्दों का चयन करते हैं, वे प्रायः संस्कृतनिष्ठ होते हैं। जैसे- ‘चार पैरों वाले’ के स्थान पर ‘चतुष्पादीय’। जब किसी को पांव में ठोकर लगती है तो उससे हम यह नहीं पूछते कि ‘तुम्हारे पद में आघात तो नहीं लगा?’ हम यही पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी?’ जिस शब्दावली से विद्यार्थी परिचित होता है, उससे इतर हम उसके सामने इतनी कठिन शब्दावली परोस देते हैं कि वह तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी को सरल मान कर उसकी ओर आकर्षित होने लगता है। संदर्भवश एक बात और (व्यक्तिगत राग-द्वेष से परे यह बात कह रही हूं) कि जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दावली की पैरवी करते हैं वे ही महानुभाव अपने बेटे-बेटियों को ही नहीं वरन् पोते-पोतियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने की होड़ में जुटे हुए भारी ‘डोनेशन’ देते दिखाई पड़ते हैं और गर्व से कहते मिलते हैं। कोई विद्यार्थी किस भाषाई माध्यम को शिक्षा के लिए चुनता है (अथवा उसे चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है) यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि भाषा को ले कर हमारे दोहरे चरित्र का मसला है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाने तथा विश्वस्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की लड़ाई आज आरम्भ नहीं हुई है, यह तो पिछली सदी के पूर्वार्द्ध से छिड़ी हुई है।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
हिन्दी के पक्ष में संघर्ष
पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी।
बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
सम्मेलनों में सिमटी हिन्दी चिन्ता
पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी से 14 जनवरी 1975 तक नागपुर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति बी. डी. जत्ती थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे मॉरीशस के प्रधानमंत्रा शिवसागर रामगुलाम। सम्मेलन में तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए थे- 1.संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए 2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो तथा 3. विश्व हिन्दी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अत्यन्त विचारपूर्वक एक योजना बनायी जाए।
भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन इस क्रम में दसवां सम्मेलन था। सन् 1975 से 2015 तक प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रति वैश्विक चिन्ताएं व्यक्त की जाती रहीं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए योजनाएं बनती रहीं किन्तु यदि हम अंग्रेजी के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को इसी तरह बनाए रहेंगे, एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे महत्वांकांक्षी आयोजन करेंगे और दूसरी ओर ठीक उसी समय अंग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलेंगे तो हमारे हिन्दी के प्रति आग्रह को विश्व किस दृष्टि से ग्रहण करेगा?
हिन्दी के प्रति हमारी कथनी और करनी में एका होना चाहिए। हिन्दी समाचारपत्र अपनी व्यवसायिकता को महत्व देते हुए अंग्रेजी के शीर्षक छापते हैं जबकि एक भी अंग्रेजी समाचारपत्र ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें हिन्दी लिपि में अथवा हिन्दी के शब्दों को शीर्षक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा हो। ‘‘सैलेब्स’’ हिन्दी के समाचारपत्र में मिल जाएगा लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्र में ‘‘व्यक्तित्व’’ अथवा ऐसा ही कोई और शब्द शीर्षक में देखने को भी नहीं मिलेगा।
हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा
विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे।
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पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी।
बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
सम्मेलनों में सिमटी हिन्दी चिन्ता
पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी से 14 जनवरी 1975 तक नागपुर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति बी. डी. जत्ती थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे मॉरीशस के प्रधानमंत्रा शिवसागर रामगुलाम। सम्मेलन में तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए थे- 1.संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए 2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो तथा 3. विश्व हिन्दी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अत्यन्त विचारपूर्वक एक योजना बनायी जाए।
भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन इस क्रम में दसवां सम्मेलन था। सन् 1975 से 2015 तक प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रति वैश्विक चिन्ताएं व्यक्त की जाती रहीं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए योजनाएं बनती रहीं किन्तु यदि हम अंग्रेजी के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को इसी तरह बनाए रहेंगे, एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे महत्वांकांक्षी आयोजन करेंगे और दूसरी ओर ठीक उसी समय अंग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलेंगे तो हमारे हिन्दी के प्रति आग्रह को विश्व किस दृष्टि से ग्रहण करेगा?
हिन्दी के प्रति हमारी कथनी और करनी में एका होना चाहिए। हिन्दी समाचारपत्र अपनी व्यवसायिकता को महत्व देते हुए अंग्रेजी के शीर्षक छापते हैं जबकि एक भी अंग्रेजी समाचारपत्र ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें हिन्दी लिपि में अथवा हिन्दी के शब्दों को शीर्षक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा हो। ‘‘सैलेब्स’’ हिन्दी के समाचारपत्र में मिल जाएगा लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्र में ‘‘व्यक्तित्व’’ अथवा ऐसा ही कोई और शब्द शीर्षक में देखने को भी नहीं मिलेगा।
हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा
विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे।
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सबसे ज़रूरी है रोज़गार से जोड़ना ... और नौकरियां भी अच्छे पदों की हों ... सार्थक चिंतन
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