Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस
भारतीय संस्कृति में राष्ट्रवाद और महिलाएं
- डॉ. शरद सिंह
(दैनिक सागर दिनकर, 31.01.2018)
राष्ट्रवाद एक ऐसा विचार, एक मनोभाव है जो प्रत्येक नागरिक को उसकी नागरिकता का अहसास कराता है। यह भावना किसी भी राजनीतिक दल अथवा राजनीतिक विचारों में सिमटी हुई नहीं होती है और यह पुरुषों और स्त्रियों में बंटी हुई नहीं होती। एक स्त्री भी किसी पुरुष की भांति राष्ट्रवादी होती है। यह राष्ट्रीयता की भावना होती है जो राष्ट्र के प्रति होती है। आज आवश्यकता है राष्ट्रवाद को एक व्यापक दृष्टिकोण से समझने और आत्मसात करने की और इसे याद रखने की भी कि भारतीय संस्कृति में राष्ट्रवाद के विचार आदिकाल से मौजूद हैं।
Nationalism and Women in Indian Culture - Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik |
‘‘प्रादुर्भूतोस्मि राष्ट्रेस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।’’
- श्रीसूक्तम में दिए गए इस श्लोक का अर्थ है कि -हे देवि! मैं इस राष्ट्र में उत्पन्न हुआ हूं, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें!
राष्ट्र और राष्ट्रवाद परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। राष्ट्रवाद एक ऐसा विचार, एक मनोभाव है जो प्रत्येक नागरिक को उसकी नागरिकता का अहसास कराता है। किसी भूमि को राष्ट्र के रूप में अपने जातीय गौरव से जोड़ कर देखना, यह एक गर्व से परिपूर्ण भावना है। वस्तुतः राज्य एक राजनीतिक अवधारणा है, जो नियमों के बल पर संचालित होती है और उसे अपने मूल स्वरूप में बनाए रखने के लिए दण्डशक्ति एक सशक्त तत्व होती है। जबकि राष्ट्र एक सांस्कृतिक अवधारणा है। जिस देश में लोग रहते हैं, उस भूमि के प्रति उन लोगों की भावना और उस भावना से संचालित होने वाले क्रियाकलापों से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। अपने राष्ट्र के प्रति सर्वस्व अर्पण करने की भावना ही राष्ट्रवाद है।
राष्ट्रवाद को ले कर अकसर लोगों में भ्रम पैदा हो जाता है। यह होता है राष्ट्रवाद की मूल प्रवृत्ति को न पहचान पाने के कारण। जैसा कि अकसर लोग भस्रम में पड़ जाते हैं विचारक एवं लेखक कामू के एक वक्तव्य को ले कर। फ्रेंच लेखक अल्बेयर कामू ने एक बार लिखा था, “मैं अपने देश को इतना प्यार करता हूं कि मैं राष्ट्रवादी नहीं हो सकता।“ जाहिर है कि कामू इस बात को स्पष्ट करना चाहते थे कि राष्ट्रवाद महज एक शब्द नहीं अपितु भावना है, यह कोई तमगा या टोपी नहीं कि जिसे पहन कर स्वयं को राष्ट्रवादी करार दे दिया जाए। राष्ट्रवाद एक जटिल, बहुआयामी अवधारणा है, जिसमें अपने राष्ट्र से एक साझी साम्प्रदायिक पहचान समावेशित है। यह एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में अभिव्यक्त होता है, जो किसी समूह के लिए ऐतिहासिक महत्व वाले किसी क्षेत्र पर साम्प्रदायिक स्वायत्तता, और कभी-कभी सम्प्रभुता हासिल करने और बनाए रखने की ओर उन्मुख हैं। राष्ट्रवाद में संस्कृति, भाषा, धर्म, राजनीतिक लक्ष्य के साथ ही एक आम साम्प्रदायिक पहचान का आधार होता है लेकिन यहां सम्प्रदाय से अर्थ राष्ट्रीय-सम्प्रदाय होता है, न कि धर्म या जाति से जुड़ा संकुचित सम्प्रदाय। दरअसल, राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे ख़ुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं। इन्हीं बंधनों के कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्हें आत्म-निर्णय के आधार पर अपने सम्प्रभु राजनीतिक समुदाय अर्थात् ‘राष्ट्र’ की स्थापना करने का आधार है। राष्ट्रवाद के आधार पर बना राष्ट्र उस समय तक कल्पनाओं में ही रहता है जब तक उसे एक राष्ट्र-राज्य का रूप नहीं दे दिया जाता। राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जन समूह के रूप में की जा सकती है जो कि एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बंधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बांधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं पाई जाती हों। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।
यह सच है कि जब-जब राष्ट्र पर संकट आया तो राष्ट्रवादी भावना मुखर रूप से सामने आई। जैसा कि पराधीनता की बेड़ियां तोड़ने के समय हुआ। इस संदर्भ में यह माना जाता है कि भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा का अंकुर सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से उगने लगा था किन्तु यह धीरे-धीरे विकसित होता रहा अन्त मे 1857 ई. में पूर्ण हो गया। लेकिन यह भी सच है कि भारत में राष्ट्रवाद के जन्म के कारण जो राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ वह विश्व में अपने आप में एक अनूठा आन्दोलन था भारत में राजनीतिक जागृति के साथ-साथ सामाजिक तथा धार्मिक जागृति का भी सूत्रपात हुआ। डॉ. जकारिया का मत है कि ”भारत का पुनर्जागरण मुख्यतः आध्यात्मिक था। इसने राष्ट्र के राजनीतिक उद्धार के आन्दोलन का रूप धारण करने से बहुत पहले अनेक धार्मिक और सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया।“
यदि देश के स्वतंत्रता संग्राम का अध्याय छोड़ कर देखा जाए तो राष्ट्रवाद की संकल्पना हमारे सूक्तों में प्रखर रूप से दिखाई देती है। शिवसंकल्पसूक्त का यह श्लोक देखें-
यत्प्रज्ञानमुत चेतो ध तिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।।
अर्थात् जो मन प्रखर ज्ञान से संपन्न, चेतना से युक्त्त एवं धैर्यशील है, जो सभी प्राणियों के अंतःकरण में अमर प्रकाश-ज्योति के रूप में स्थित है, जिसके बिना किसी भी कर्म को करना संभव नहीं, ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों से युक्त हो। जिन व्यक्तियों का मन शुभ संकल्पों से युक्त होता है, वही अपना जीवन राष्ट्रहित में समर्पित करते हैं। सच्चे राष्ट्रवादी व्यक्ति अपने जीवन को अपनी आकांक्षा, अपने सपनों और अपने सिद्धांतों के अनुरूप ढाल लेते हैं। अकसर यह माना जाता है कि जो व्यक्ति साधन सम्पन्न न हो उसके लिए अपने सपनों को पूरा कर पाना अत्यंत कठिन होता है। किन्तु, यदि कोई व्यक्ति साधनहीनता को ही अपने साधन का आधार बना ले तो वह अपने सारे स्वप्न, समस्त आकांक्षाओं को अपने सिद्धांतों की बलि दिए बिना पूरे कर सकता है।
राष्ट्र वैचारिक रूप से तब पिछड़ने लगता है जब स्त्री बौद्धिकता को कम कर के आंका जाने लगता है। भारतीय पुरुष भी देवी के शक्तिस्वरूप को स्वीकार करते हैं किन्तु स्त्री का प्रश्न आते ही विचारों में दोहरापन आ जाता है। इस दोहरेपन के कारण को जांचने के लिए हमें बार-बार उस काल तक की यात्रा करनी पड़ती है जिसमें ‘मनुस्मृति’ की रचना की गई। स्मृतिकाल से पहले स्त्री का समाज में स्थान इस तरह दोयम नहीं था जिस तरह ‘मनुस्मृति’ की रचना के बाद हुआ। एक यही स्मृतिग्रंथ नहीं लिखा गया, और भी कई स्मृतिग्रंथों की रचना हुई किन्तु पुरूष प्रधान समाज में यह स्मृतिग्रंथ पूरी तरह से आत्मसात कर लिया गया क्यों कि इसमें स्त्रियों को दलित बनाए रखने के ‘टिप्स’ थे। फिर भी पुरुषों में सभी कट्टर मनुवादी नहीं हुए समय-समय पर अनेक पुरुष जिन्हें हम ‘महापुरुष’ की भी संज्ञा देते हैं, मनुस्मृति की बुराइयों को पहचान कर स्त्रियों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए आगे आए और न केवल सिद्धांत से अपितु व्यक्तिगत जीवन के द्वारा भी मनुस्मृति के सहअस्तित्व-विरोधी बातों का विरोध किया।
राष्ट्र की परिकल्पना में भारतीय विचारकों ने देश को माता का स्थान दिया। माता जो स्त्री है। जो प्रत्येक शिशु को अपनी संतान मानती है और सभी दुख सह कर उसकी रक्षा और लालन-पालन करती है। सन् 1881 में बंकिमचन्द्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक “आनंदमठ” में “वन्दे मातरम” गीत लिखा। बंकिमचन्द्र ने भारत माता को एक पवित्र प्रतीक के रूप में चित्रित किया, जो राष्ट्र की छवि थी और दैवीय शक्तियों से युक्त थी। राष्ट्र-राज्य को देवी और मां के रूप में देखते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर शांति निकेतन में आई हुई महिलाओं से कहा था कि “क्या मैंने तुम्हें नहीं बताया कि तुममें (महिलाओं), मैं हमारे देश की शक्ति देखता हूं?”
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का कहना था कि, “महिला जिस तरह से राष्ट्रवाद की जन्मदात्री और पोषक रही है, उस तरह पुरुष कभी नहीं हो सकते। राष्ट्रवाद को गति देने में महिलाओं की भूमिका को पर्याप्त तवज्जो नहीं दी गयी।’’ उन्होंने लिखा, “सामाजिक एकजुटता के बगैर राजनीतिक एकता हासिल करना मुश्किल होगा। अगर वह हासिल कर भी ली जाती है तो उसका बच पाना उतना ही अनिश्चित होगा, जितना कि गर्मी में लगाये गए एक छोटे-से पौधे का, जिसे प्रतिकूल दुनिया की हवा का एक झोंका कभी भी उखाड़ देगा। महज राजनीतिक एकता से भारत एक राज्य बन सकता है लेकिन राज्य होने का मतलब राष्ट्र होना नहीं है और जो राज्य, राष्ट्र नहीं होता, उसका अस्तित्व बने रहने की संभावना कम ही होती है।”
डॉ. अंबेडकर राष्ट्रवाद के विचार को सुदृढ़ बनाए रखने के संदर्भ में कहते थे जब तक स़्ी और पुरुष समाज के सामन शक्ति वाली धुरी नहीं बनेंगे तक तक राष्ट्र का भला नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा था कि “महिलाओं की तुलना में पुरुष हमेशा से अधिक शक्तिसंपन्न रहे हैं। हर समूह में उनका बोलबाला रहा है और दोनों लिंगों में से हमेशा उनकी अधिक प्रतिष्ठा रही है। महिलाओं पर पुरुषों की इसी उच्चता के चलते, हमेशा पुरुषों की इच्छाओं को तवज्जो दी जाती रही। दूसरी ओर, महिलाएं हमेशा हर तरह के अन्यायपूर्ण धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंधों का शिकार बनती रहीं।’’ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी महिलाओं की सबलता में राष्ट्र की उन्नति देखते थे। उन्होंने सत्याग्रह और असहयोग आन्दोलन जैसे कई राजनीतिक और राष्ट्रीय आंदोलनों में महिलाओं को शामिल कर उनके लिए सार्वजनिक जीवन के रास्ते खोले। महात्मा गांधी ने यह स्थापित किया कि महिलाएं, राष्ट्रीय आंदोलन में विशिष्ट और अहम भूमिका निभा सकती हैं।
वास्तविक राष्ट्रवादी विचार वही होते हैं जिनमें स्त्री और पुरुष की बौद्धिक क्षमता को बराबरी से महत्व दिया जाता है और यह बिना किसी पूर्वाग्रह स्वीकार किया जाता है कि राष्ट्र के उत्थान के लिए दोनों की समानभागीदारी आवश्यक है तथा भारतीय संस्कृति में यही विचार सदियों से प्रवाहमान हैं।
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