Dr (Miss) Sharad Singh |
वर्ष 2018 : आशाएं भी, चुनौतियां भी
- डॉ. शरद सिंह
(दैनिक सागर दिनकर, 03.01.2018)
दुनिया के हर देश, हर शहर और हर नागरिक को स्वयं तय करना है कि वर्ष 2018 में उसकी प्राथमिकताएं क्या रहेंगी? जहां तक हमारे अपने देश का प्रश्न है तो विगत दो वर्ष में न सिर्फ़ राजनीतिक दल वरन आमजनता भी आग के दरिया से हो कर गुज़री है। विधानसभाओं एवं महत्वपूर्ण नगरपालिक निगमों के चुनाव हुए, नोटबंदी हुई और डिजिटिलाईजेशन की बाढ़ आ गई। गोया देश का सम्पूर्ण आर्थिक जगत् एप्पस् में ढल गया। देश की अशिक्षित या कम पढ़ी-लिखी जनता के लिए यह क्रांति किसी पाहाड़ लांघने से कम नहीं रही। फिर भी वर्ष 2016 और 2017 को पार करते हुए 2018 में आ ही पहुंचे जहां आशाएं तो असीमित है लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik |
○दूर न जाते हुए मैं उस ज़मीनी चुनौती से आरम्भ करती हूं जिसका अनुभव मुझे वर्ष के पहले दिन, पहली सुबह को हुआ। एक संगठन है ‘ #प्रजामंडल ’ जिसमें नगर के समाजसेवी और बुद्धिजीवी जुड़े हुए हैं। प्रदेश के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की परिकल्पना पर यह गठित किया गया था। तो, ‘#प्रजामंडल ’ के हम सभी सदस्यों ने यह तय किया कि नववर्ष का आरम्भ किसी सार्थक कार्य से किया जाए। ऐसा कार्य जो समाजहित में हो और लोगों में जागरूकता लानेवाला हो। तय हुआ कि हम सभी नए साल की पहली सुबह शहर की एक गंदी बस्ती में जाएंगे और वहां लोगों से शौचालय के महत्व तथा बस्ती में स्वच्छता बनाए रखने के बारे में चर्चा करेंगे। पहली जनवरी की सुबह समाज के प्रत्येक क्षेत्र के बुद्धिजीवी एवं समाजसेवी जैसे उमाकांत मिश्र, शिवरतन यादव, मैं स्वयं डॉ #शरदसिंह, डॉ शीतांशु राजौरिया, संतोष स्टील, अनुराग ब्रजपुरिया, राजा रिछारिया, बाबूलाल रोहित, बलवंत सिंह ठाकुर, नरेन्द्र ठाकुर आदि निश्चित स्थान पर एकत्र हो गए। इसके बाद हमने बस्ती में प्रवेश किया। महिलाओं से चर्चा का दायित्व मुझे सौंपा गया। बस्ती की महिलाएं पहले झिझकीं फिर आहिस्ते से खुल कर बोलने लगीं। एक महिला ने जिस सरलता से मुझे अपनी सच्चाई बताई, उस पर मुझे समझ में नहीं आया कि मैं उसकी साफ़गोई के लिए उसे बधाई दूं या उसकी ‘लाईफ स्टाईल’ के लिए उसे फटकार लगाऊं। हुआ यूं कि जब मैंने उस महिला से पूछा कि क्या तुम्हारे घर में शौचालय है? उसने बड़े इतरा कर, मुस्कुरा कर उत्तर दिया -‘‘हऔ, है। हमाये इते शौचालय है।’’ लेकिन ग्रामीण इलाके के मेरे पूर्वअनुभवों ने मेरे भीतर घंटी बजा दी और मैंने दूसरे ही पल उससे पूछ लिया, ‘‘लेकिन तुम शौचालय में जाती हो या लोटा ले कर बाहर?’’ वह जरा झेप कर, हंस कर बोली,‘‘हमें तो बाहर अच्छो लगत है। हम तो बाहर ई जात आएं।’’ मेरी शंका सही निकली। वहां उपस्थित अन्य लोग उसका उत्तर सुन कर चकित रह गए थे। उस समय मुझे याद आया कि जब हम इस पहली सुबह की योजना बना रहे थे तो यही बात बार-बार सामने आ रही थी कि सुविधाएं उपलब्ध होने से भी कहीं बड़ी आवश्यकता है व्यवहार परिवर्तन की।
○व्यवहार परिवर्तन की आवश्यकता पर एक मुहर उस समय और लग गई जब वार्ड राजनीति से प्रेरित एक महिला और उसके सहयोगी गंदगी के प्रति स्वयं के दायित्वों को नकारते हुए यह कहते हुए तैश में आ गई कि ‘‘सरकार कहती भर रहती है, करती कुछ नहीं है।’’ जबकि सच यह है कि उस क्षेत्र में कचरा उठाने वाली गाड़ी हर घर के दरवाज़े से गुज़रती है। लेकिन यदि यह सोचा जाए कि आपके घर का कचरा घर से निकाल कर गाड़ी तक सरकार पहुंचाएगी तो फिर दुनिया का कोई स्वच्छता मिशन कामयाब नहीं हो सकता है। यदि कुछ सकारात्मक है तो उसे मात्र राजनीति से प्रेरित हो कर बिगाड़ना या नकारना तो किसी भी मायने में नागरिक कर्त्तव्य नहीं है। यदि नागरिक कर्त्तव्य की बात भी छोड़ दी जाए तो स्वयं के और अपने परिवार के स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति जो दायित्व बनता है, यह उसकी भी अवहेलना ही कहलाएगा। मुझे वहां महिलाओं को यह याद दिलाना और समझाना पड़ा कि अपनी बेटियों को, बहनों को खुले में शौच के लिए मत भेजो और स्वयं भी मत जाओ। आजकल आए दिन बलात्कार की इतनी घटनाएं सुनने को मिलती हैं, किसी दिन तुम्हारे साथ या तुम्हारे परिवार की किसी बेटी के साथ ऐसी कोई घटना घट गई तो तुम क्या करोगी? नुकसान तो तुम्हारा ही होगा न! सच कहूं तो यह समझाते हुए मुझे यह सोच कर दुख रहा था कि ये सब भी महिलाएं हैं तो ये इस ख़तरनाक सच्चाई को देख कर अनदेखा क्यों करती हैं? जो मैं इनके कह रही हूं, वह सब ये अपने परिवार के पुरुषों को क्यों नहीं कहती हैं? मुझे लगा कि यहां भी मुद्दा वही व्यवहार परिवर्तन का है। उन्हें अपनी आदत बदलनी होगी, स्वयं के लिए नही ंतो कम से कम अपने बच्चों के लिए और यही तो एक बड़ी चुनौती है जिसे इस वर्ष हमें गंभीरता से लेना चाहिए।
यूं भी इस वर्ष अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2018 के लिए कोई एक विशेष एजेंडा घोषित नहीं किया है। यानी संयुक्त राष्ट्र संघ भी चाहता है कि प्रत्येक देश अपनी ज़मीनी समस्याओं से निपटने की प्राथमिकताएं स्वयं तय करे।
वर्ष 2017 मुस्लिम महिलाओं को एक बड़ी सौगात दे गया है जो है ‘तीन तलाक’ के शब्दों से मुक्ति। लेकिन यह सौगात उन्हें यूं ही मुफ़्त में नहीं मिली है। इसे पाने के लिए उन महिलाओं ने आगे आकर लम्बी लड़ाई लड़ी जिन्होंने कभी घर से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस भी नहीं ली थी। अब एक लड़ाई लड़नी है पूरे समाज को, और वह भी जाति, धर्म या वर्ग से ऊपर उठ कर। वह लड़ाई है उन अपराधियों से जो स्त्री-अस्मिता और स्त्री-जीवन को तार-तार कर रहे हैं। विगत कुछ वर्षों में बलात्कार की घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है। अब उम्र और लिंग का भेद भी बलात्कारियों के लिए बेमानी हो चला है। दो साल की बच्ची से ले कर नब्बे साल की उम्र दराज़ महिला भी बलात्कारियों की कुदृष्टि का शिकार हो रही है और वहीं कम उम्र बच्चे भी ऐसी घटनाओं की चपेट में आ रहे हैं। लिहाजा हमें निपटना ही होगा ऐसी दूषित प्रवृत्ति से जो दिन दूनी और रात-चौगुनी बढ़ रही है। ऐसी घटनाओं के बढ़ने के पीछे कहीं यह कारण तो नहीं कि आज लगभग हर हाथ में मोबाईल के माध्यम से इन्टरनेट आ गया है जिसमें यौनहिंसा भड़काने वाली सामग्रियां भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जबकि इसके उलट हमारे पास साईबर अपराध रोकने के साधन सीमित हैं। शायद यही कारण है कि बलात्कार जैसे अपराध नाबालिग आयु के युवा भी कर रहे हैं।
एक ओर ग्लोबलाईजेशन की चकाचौंध और दूसरी ओर ग़रीबी और बेरोजगारी का अंधेरा। युवाओं के लिए इसे फ्रस्टेशन का दौर कहा जा सकता है।
राज्यों के चुनाव भी निकट आ रहे हैं। जिससे जनता की आशाएं बढ़ती जा रही हैं और राजनीतिक चुनौतियां जटिल होती जा रही हैं। दिक्कत यह है कि तात्कालिक राजनीतिक चुनौती से निपटने के लिए जो तरीके अपना लिए जाते हैं उनके परिणाम आगे चल कर घातक होते हैं। ग़रीब जनता से मुफ़्तखोरी के वायदे एक ओर आमजनता को सुनहरे ख़्वाब दिखाती है वहीं दूसरी ओर राज्यों की आर्थिक कमर तोड़ कर रख देती है। भला कर्जों के बोझ तले दबा कोई राज्य कभी तरक्की कर सकता है? इस सच को भी समझना होगा सभी राजनीतिक दलों को और तय करन होगा कि वे सचमुच जनहित चाहते हैं या महज़ भुलावे की राजनीति खेलना चाहते हैं।
अच्छा यही होगा कि समूचा देश ही नहीं वरन् देश का हर शहर और हर नागरिक स्वयं तय करे कि वर्ष 2018 में उसकी प्राथमिकताएं क्या रहेंगी? विगत दो वर्ष में न सिर्फ़ राजनीतिक दल वरन आमजनता भी आग के दरिया से हो कर गुज़री है। विधानसभाओं एवं महत्वपूर्ण नगरपालिक निगमों के चुनाव हुए, नोटबंदी हुई और डिजिटिलाईजेशन की बाढ़ आ गई। गोया देश का सम्पूर्ण आर्थिक जगत् एप्पस् में ढल गया। देश की अशिक्षित या कम पढ़ी-लिखी जनता के लिए यह क्रांति किसी पाहाड़ लांघने से कम नहीं रही। फिर भी वर्ष 2016 और 2017 को पार करते हुए 2018 में आ ही पहुंचे जहां आशाएं तो असीमित है लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं।
जीवन की तमाम विषमताओं के होते हुए भी अच्छे दिनों की आशाएं रखनी ही चाहिए।
अंत में ‘सागर दिनकर’ के सभी पाठकों के प्रति ये पंक्तियां -
नूतन सपनों को ले आया, आने वाला साल
नई सफलता पर हो फिर इतराने वाला साल
पूरी हों इच्छाएं सबकी, सबको खुशी मिले
साबित हो सच्चे दिल से अपनाने वाला साल
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