Dr (Miss) Sharad Singh |
भारतीय सिनेजगत की महिला निर्देशक जो जोखिम लेने से नहीं डरतीं
- डॉ. शरद सिंह यदि कोई निर्माता-निर्देशक मुनाफ़े के विचार को ताक में रख कर ऐसी फिल्म बनाए जिसका सम्पूर्ण सरोकार आर्थिक लाभ कमाने के बजाए समाज एवं व्यवस्था से हो तो इसे व्यापार जगत् में ‘आत्मघाती जोखिम’ ही कहा जाएगा। भारतीय सिने जगत में अल्पसंख्यक होते हुए भी महिला निर्देशकों ने साहस के साथ इस जोखिम को बार-बार उठाया लिया। अपने परिवार के लिए एक-एक पैसे जोड़ने पर विश्वास रखने वाली महिलाएं जब सिने जगत में निर्देशक के रूप में प्रविष्ट हुईं तो उनमें से अधिकांश ने फिल्म के माध्यम से पैसे कमाने का उद्देश्य त्याग कर सामाजिक, पारिवारिक एवं वैश्विक मुद्दों पर फिल्में बनाईं, वह भी बिना किसी ‘फिल्मी मसाले’ के।
चर्चा प्लस ...भारतीय सिनेजगत की महिला निर्देशक जो जोखिम लेने से नहीं डरतीं - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper |
जब प्रश्न भारतीय सिनेमा का उठता है तो आमतौर पर महिलाओं की भूमिका अभिनय और संगीत तक सिमटी दिखाई देती है। नायिका, खलनायिका, चरित्र अभिनेत्री अथवा पार्श्व गायिका पर जा कर स्त्री का अस्तित्व सिमटता दिखता है। आज भी भारतीय सिनेमा में सिर्फ 9.1 फीसदी महिला निर्देशक हैं। पिछले दो-तीन दशकों में कुछ प्रसद्धि महिला निर्देशकों को याद करें तो उनमें विजया मेहता, साईं परांजपे, अपर्णा सेन, अरूणा राजे, दीपा मेहता, कल्पना लाजमी, मीरा नायर, गुरविदंर चड्ढा, फराह खान, तनुजा चंद्रा, लीना यादव, जोया अख्तर, किरण राव, सोहना उर्वशी, मेघना गुलजार, रीमा राकेशनाथ, बेला नेगी, जेनिफर लिंच, सौंदर्य रजनीकांत, लवलीन टंडन, रीमा कागती, गौरी शिंदे और अनुषा रिजवी आदि के नाम उभर कर आते हैं। हिन्दी सिनेमा से इतर अन्य भारतीय भाषाओं में भी महिला फिल्म निर्देशकों की संख्या अत्यंत सीमित है। जैसे- भानुमती रामकृष्णा, बी. जया, मधुमिथा, बी. वी नन्दिनी रेड्डी, वी. प्रिया, लक्ष्मी रामकृष्णन, रेवती, शारदा रामनाथन, शोभा चन्द्रशेखर, सौंदर्या आर. अश्विन, श्रीप्रिया, सुहासिनी मणिरत्नम, विजया निर्मला, मृणालिनी भोसले, अरुन्धती देवी, शोनाली बोस, प्रीती अनेजा, भावना तलवार, धवनी देसाई आदि। जिन महिला निर्देशकों ने भरपूर जोखिम उठाते हुए भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई उनमें प्रमुख पांच नाम हैं- मीरा नायार, दीपा मेहता, अपर्णा सेन, कल्पना लाजमी और अनुषा रिजवी।
यहां जिन पांच महिला निर्देशकों पर चर्चा की जा रही जिससे भारतीय सिनेमा में महिला निर्देशकों की उल्लेखनीय उपस्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, साथ ही इस बात पर भी विश्वास किया जा सकता है कि गुणात्मक उपस्थिति संख्यात्मक उपस्थिति पर हमेशा भारी पड़ती है। इन पांच निर्देशकों में से मीरा नायर और दीपा मेहता ने समाज सरोकारित विषयों के प्रतिबंधित पक्षों को जिस दमदार तरीके से अपनी फिल्मों के माध्यम से सामने रखा, उतना साहस तो कलात्मक स्तर पर पुरुष निर्देशक भी नहीं कर सके।
मीरा नायर : मीरा नायर ने भारत के साथ ही अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है। जुलाई 2013 में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में ‘गेस्ट ऑफ ऑनर’ से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उन्हें फिलिस्तीनियों के संबंध में इसराईल की नीतियों का विरोध करने के उपलक्ष्य में दिया गया था। सन् 1988 में ‘सलाम बांबे’ जैसी बेहतरीन फिल्म से अपने करियर की शुरुआत करने वाली मीरा ‘सलाम बाम्बे’ से पहले सन् 1979 में ‘जामा स्ट्रीट मस्जिद जर्नल’, 1982 में ‘सो फार फ्राम इंडिया’, 1985 में इंडिया कैबरे’, 1987 में ‘चिल्ड्रेन ऑफ डिजायर्ड सेक्स’ चार महत्वपूर्ण लघु फिल्में बना चुकी थीं। ‘सलाम बॉम्बे’ ने प्रतिष्ठित गोल्डन कैमरा पुरस्कार और 1989 में कान फिल्मोत्सव में आडियंस अवार्ड के साथ कई पुरस्कार जीते। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में आस्कर में भी नामांकन मिला था। ‘मॉनसून वेडिंग’, ‘द नेमसेक’ ‘मिसीसिपी मसाला‘, ‘वेनिटी फेयर’ और ‘अमेलिया’ जैसी फिल्मों का उन्होंने निर्देशन किया। वीनस का 69वां फिल्म-महोत्सव मीरा नायर की फिल्म ‘द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट’ से शुरू किया गया था। फिल्म में पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश अभिनेता रिज अहमद के अलावा फिल्म में हॉलीवुड कलाकार केट हडसन, लीव श्रेबर और बॉलीवुड कलाकार शबाना आजमी और ओम पुरी भी थे।यह फिल्म पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद के उपन्यास का रूपांतर है। फिल्म में चंगेज खान की भूमिका निभाने वाले रिज अहमद का कहना था कि ‘‘पहली बार 9/11 को गैर-अमरीकी नजरिए से देखा गया।’’
दीपा मेहता : सन् 1991 में दीपा मेहता ने अपने निर्देशन में पहली फीचर फिल्म ‘सेम एण्ड मी’ बनाई। इस फिल्म में ओमपुरी ने महत्वपूर्ण अभिनय किया था। इस फिल्म की कहानी टोरंटों में रहने वाले एक भारतीय लड़के और एक जूईश प्रौढ़ के पारस्परिक संबंधों पर आधारित थी। इस फिल्म को 1991 के कांस फिल्म समारोह में ऑनरेबल मेंशन अवार्ड दिया गया। सन् 1994 में दीपा ने ब्रिगेट फॉण्डा और जेसिका टेंडी को ले कर ‘केमिल्ला’ फिल्म बनाई। इसके बाद एक महिला निर्देशक के रूप में दीपा मेहता ने जिस तरह का जोखिम लिया वह भारतीय फिल्म जगत को चकित कर देने वाला था। सन् 1996 में दीपा मेहता ने फिल्म ‘फायर’ बनाई। इस फिल्म के कथानक एवं दृश्यांकन को ले कर जमकर विवाद हुआ। दो महिलाओं के बीच समलैंगिकता का रिश्ता दिखाया गया था, जो भारतीय समाज के लिए पचा पाना आसान नहीं था। फिल्म के विरोध में जगह-जगह पोस्टर जलाए गए और संस्कृति की रक्षा की दुहाई दी गई। दीपा मेहता न तो विवादों से घबराईं और न विरोधों से। सन् 1998 में उनकी अगली फिल्म आई ‘अर्थ’। यह फिल्म बाप्सी सिधावा के उपन्यास ‘आइस कैंडीमैन’ पर आधारित थी। सन् 2002 में ‘बॉलीवुड-हॉलीवुड’, 2003 में ‘द रिपब्लिक ऑफ लव’, 2005 में ‘वाटर’ 2008 में ‘हेवन ऑन अर्थ’, 2012 में ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ नामक फिल्म बनाई। 2012 में लाईफ टाईम आर्टिस्टिक अचावमेंट के लिए गवर्नर जनरल्स परफार्मिंग आर्ट अवार्ड, 2013 में मेम्बर आफॅ द ऑर्डर ऑफ ओंटारियो सम्मान, 2013 में ऑफीसर आफॅ द आर्डर ऑफ कनाडा के सम्मान से सम्मानित किया गया।
अपर्णा सेन : अपर्णा सेन ने फिल्मों में अभिनय एवं निर्देशन के साथ लोकप्रिय बंगाली पत्रिका ‘सानंद’ का भी लम्बे समय तक संपादन किया। अपर्णा के निर्देशन में बनीं महत्वपूर्ण फिल्में थीं- 1981 में 36 चौरंगी लेन, 1984 में परोमा, 1989 सती, 1989 में पिकनिक, 1995 में युगांत, 2000 में हाउस आफ मेमोरीज, 2002 में मिस्टर और मिसेज अय्यर, 2005 में 15 पार्क एवेन्यू , 2010 में इति मृणालिनी : एन अनफिनिश्ड लेटर एवं 2013 में गोयनार बक्शो। उनकी फिल्म ‘द जैपनीज वाइफ’ को 2010 में कनाडा के कैलगरी में आयोजित ‘हिडन जेम्स’ फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार दिया गया था। ‘इति मृणालिनी : एन अनफिनिश्ड लेटर’ बायोग्राफिक फिल्म है। फिल्म शुरू होती है एक वेटरन एक्ट्रेस मृनालिनी मित्रा के सुसाईड नोट से। एक अभिनेत्री जो अपने जीवन की सभी त्रासदियों का दोषी खुद को मानती है और याद करती है अपने उस समय को जब वो अपने दोस्तों के साथ सिनेमा में जाने के ख्वाब देखती थी। स्त्री मनोदशा को फिल्माने में अपर्णा सेन को महारत हासिल है। वे बिना झिझके स्त्री के अंतर्मन को बड़ी कलात्मकता से रूपहले पर्दे पर उतार देती हैं।
कल्पना लाजमी : कल्पना लाजमी प्रसिद्ध अभिनेता गुरुदत्त की भतीजी मशहूर चित्रकार ललिता लाजमी की बेटी हैं। उन्होंने अपने निर्देशन का आरम्भ श्याम बेनेगल के साथ बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर किया। सन् 1978 में ‘डी.जी. मूवी पायोनियर ‘, 1979 में ‘ए वर्क स्टडी इन टी प्लकिंग’ तथा 1981 में ‘एलांग विथ ब्रह्मपुत्र’ के बाद 1986 में फीचर फिल्म ‘एक पल’ बनाई। 1988 में ‘लोहित किनारे’, 1993 में ‘रूदाली’, ‘1997 में ‘दरमियां’, 2001 में दमन, ‘2003 में ‘क्यों’ और 2006 में फिल्म ‘चिनगारी’ निर्देशित की।
कल्पना और भूपेन हजारिका 40 सालों से बिना शादी के साथ में एक छत के नीचे रहे। इस दौरान कल्पना लाजमी ने ‘दमन’ (दमनः ए विक्टिम आफॅ मेरिटल वायोलेंस) और ‘चिनगारी’ बनाई। ‘चिनगारी’ ग्रामीण परिवेश में वेश्यावृत्ति की कथा पर आधारित फिल्म थी। इसमें सुष्मिता सेन ने कल्पना के निर्देशन में बखूबी अभिनय किया। देखा जाए तो कामर्शियल अभिनेत्रियों में कलात्मक अभिनय की खोज का उल्लेखनीय काम कल्पना लाजमी ने किया।
अनुषा रिजवी : अनुषा फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आने से पहले एन.डी.टी.वी. की एक पत्रकार थीं। उनके निर्देशन में बनी उनकी पहली फिल्म ‘पीपली लाईव’ ने डरबन फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पहला पुरस्कार जीता। ‘पीपली लाइव’ मूलतः किसानों की आर्थिक समस्या, सरकार और मीडिया के त्रिकोण पर केन्द्रित फिल्म थी। ‘पीपली लाईव’ ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी खेल और सरकारी योजनाओं के रहस्य को भी फिल्म सबको बेपर्दा किया।
मीरा नायार, दीपा मेहता, अपर्णा सेन, कल्पना लाजमी और अनुषा रिजवी ने अपनी फिल्मों के द्वारा कथानकों की विविधता को प्रस्तुत किया किन्तु उन सबके मूल था स्त्री चरित्रों एवं सामाजिक सरोकार का गहन दायित्वबोध। क्या कोई पुरुष निर्देशक ‘फायर’ को इतनी संवेदनशील तटस्थता के साथ फिल्मा पाता? चाहे ‘36 चौरंगीलेन’ की वायलेट हो या ‘फायर’ की जेठानी-देवरानी, फिलिस्तीन का मसला हो या किसानों की आत्महत्या का, पुरुष निर्देशकों से एक कदम आगे ही दिखाई देती हैं ये महिला निर्देशक। अतः भारतीय सिने जगत में इनके योगदान को अलग से ही रेखांकित किया जाना चाहिए।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 05.12.2018)
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