Wednesday, December 26, 2018

चर्चा प्लस ... प्रकृति पर आधारित है भारतीय संस्कृति - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
प्रकृति पर आधारित है भारतीय संस्कृति
      - डॉ. शरद सिंह
भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है। यदि प्रत्येक मनुष्य में देवत्व के गुण जाग्रत हो जाएं तो सांस्कृतिक विकार जागने अथवा किसी विषम पल में जाग भी जाए तो उसके स्थाई रूप से बने रहने का प्रश्न ही नहीं है। संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है।
चर्चा प्लस ...  प्रकृति पर आधारित है भारतीय संस्कृति - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus .. Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Daily Sagar Dinkar Newspaper
 23 दिसंबर 2018 को आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज, सागर म.प्र. के हिन्दी विभाग में प्राचार्य डॉ. जी.एस.रोहित एवं संगोष्ठी संयोजक डॉ. सरोज गुप्ता के अथक श्रम से “अतुल्य भारतः संस्कृति और राष्ट्र“ विषय पर अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी हुई जिसमें अतिथि विद्वान के रूप में मैंने ’संस्कृति और मानव मूल्य’ पर अपना वक्तव्य दिया। इस अवसर पर संगोष्ठी में लंदन से आई लूसी गेस्ट, अमेरिका से आए भारतीय मूल के डॉ. अनुभव मिश्रा, सांची के बौद्ध भिक्षु लेखराम भंते, हटा (म.प्र.) के डॉ. श्याम सुंदर दुबे, खंडवा (म.प्र.) के डॉ श्रीराम परिहार, वाराणसी (उ.प्र.) के डॉ. संजीव सराफ, सागर (म.प्र.) की डॉ. मीना पिंपलापुरे एवं योगाचार्य विष्णु आर्य आदि विद्वानों ने भी विचार रखे। इसी संगोष्ठी मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंह भारतीय संस्कृति पर काव्यपाठ के लिए आमंत्रित थीं। आज ‘‘चर्चा प्लास’’ में मैं अपने वक्तव्य के कुछ अंश यहां दे रही हूं-
संस्कृति, राष्ट्र और समाज ये तीन ईकाइयां हैं, जो मानव संस्कृति को आकार देती हैं। सुसंस्कृति से सुराष्ट्र आकार लेता है और अपसंस्कृति से अपराष्ट्र। शब्द अनसुना सा लग सकता है-‘‘अपराष्ट्र’‘। किन्तु यदि राष्ट्रों की राजनीतिक स्तर पर अपराधों में लिप्तता राजनीतिक कुसंस्कारों को जन्म देती है और यही कुसंस्कार राष्ट्र में अतंकवाद की गतिविधियों को प्रश्रय देते हैं। विश्व में कई देश ऐसे हैं जो राजनीतिक दृष्टि से अपराष्ट्र की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। वहीं भारत की संस्कृति का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें अपसंस्कारों की कोई जगह नहीं है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है। यदि प्रत्येक मनुष्य में देवत्व के गुण जाग्रत हो जाएं तो सांस्कृतिक विकार जागने अथवा किसी विषम पल में जाग भी जाए तो उसके स्थाई रूप से बने रहने का प्रश्न ही नहीं है। संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या जड़ तत्वों के लिए भी कोई सांस्कृतिक आह्वान होता है जबकि जड़ तो जड़ है, निचेष्ट, निर्जीव। फिर निर्जीव के लिए संसकृति का कैसा स्वरूप, कैसा रूप? ठीक इसी बिन्दु पर भारतीय संस्कृति की महत्ता स्वयंसिद्ध होने लगती है। भारतीय संस्कृति समस्त जड़ ओर समस्त चेतन जगत से तादात्म्य स्थापित करने का तीव्र आग्रह करती है। यही आग्रह आज हम पर्यावरण संतुलन के आग्रह के रूप में देखते हैं, सुनते हैं और उसके लिए चिन्तन-मनन करते हैं। जब प्र्रणियों का शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है और ये पंचतत्व वही हैं जिनसे संसार के जड़ तत्वों की भी पृथक-पृथक रचना हुई है, तो जड़ और चेतन के पारस्परिक संबंध अलग कहां हैं? ये दोनों तो घनिष्ठता से परस्पर जुड़े हुए हैं।
भारतीय संस्कृति वह मार्ग सुझाती है कि वे सांस्कृतिक मूल्य कहां से सीखें जाएं जो मनावजीवन को मूल्यवान बना दे -
परोपकाराय फलन्ति वृक्षः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदम् शरीरम्।
अर्थात् - वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गाय परोकार के लिए दूध देती हैं अतः अपने शरीर अर्थात् अपने जीवन को भी परोपकार में लगा देना चाहिए।
भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मां है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।
एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। नर्मदा स्नान करने को नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उगती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिली रे
अरे, ऐसे तौ मिली के जैसे मिल गए मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
जब नर्मदा माता है तो गंगा, यमुदना और सरस्वती की त्रिवेणी? क्या उनसे कोई नाता नहीं रह जाता है? लोकमानस त्रिवेणी से भी अपने रिश्तों को व्याख्यायित करता है-
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया... हो...
वहीं भोजपुरी लोकगीतों में गंगा को मां, यमुना को बहन, चांद और सूरज को भाई कहा गया है और साथ ही स्त्री की झिझक को प्रकट करते हुए यह भी कहा गया है कि इनके द्वारा अपने परदेसी पति को संदेश कैसे भिजवाऊं, तुम्हीं संदेश पहुंचाओ मेरी सखी।
चननिया छिटकी मैं का करूं गुंइया
गंगा मोरी मइया, जमुना मोरी बहिनी,
चान सुरुज दूनो भइया,
पिया को संदेस भेजूं गुंइया।
भारतीय संस्कृति में मानवमूल्य की महत्ता इतनी सघन है कि प्रकृति को भी रक्तसंबंधियों से अधिक घनिष्ठ माना जाता है। इसके उदाहरण लोकसंस्कारों में देखे जा सकते हैं जो आज भी ग्रामीण अंचलों में निभाए जाते हैं- जैसे कुआ पूजन संस्कार - विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हें तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।
इसी तरह अनूठा है मातृत्व साझा करने का संस्कार - सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्री के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
जिस संस्कृति में पृथ्वी की रक्षा से ले कर पारिवारिक संबंधों की गरिमा तक पर समुचित ध्यान दिया जाता हो उस संस्कृति में मानवमूल्यों का पीड़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान रहना स्वाभाविक है।    
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 26.12.2018)
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