Wednesday, July 15, 2020

चर्चा प्लस - वर्तमान राजनीति का चाल, चेहरा और चरित्र- डाॅ शरद सिंह



Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
वर्तमान राजनीति का चाल, चेहरा और चरित्र
- डाॅ शरद सिंह

राजनीति का  रंग  बदलता देखो तो
कैसे सब कुछ है अब चलता देखो तो

पहले ही निवेदन कर दूं कि मेरे इस लेख का उद्देश्य किसी दल अथवा व्यक्ति पर आक्षेप लगाना नहीं है अपितु भारतीय राजनीति के तेजी से बदलते स्वरूप का आकलन करना है। अतः इसके उद्देश्य के मर्म को ध्यान में रखें। 

आज भारतीय राजनीति का जो रंग देखने को मिल रहा है वह रोज ही एक न एक चौंकाने वाले तथ्य परोसता रहता है। राजनीति मानो सुविधाभोगी क्लब बन गया है। ऐसा नहीं है कि सभी राजनेता दोषी हैं लेकिन दोषियों की संख्या बढ़ना चिंताजनक है। विशेष रूप से उन राजनेताओं के पक्ष में जो अपने राजनीतिक दल एवं अपने राजनीतिक मूल्यों पर हर हाल में डटे रहते हैं। राजनीतिक दल के उसूल और राजनेता का स्वयं का व्यक्तित्व दोनों मिल कर ही एक बेहतर राजनेता की छवि गढ़ते हैं। चुनाव के समय बेशक़ दोनों पक्ष प्रबल होते हैं-व्यक्तिगत प्रभाव और दल का प्रभाव। दोनों पक्ष मिल कर उम्म्ीदवार को गारंटेड विजय दिलाते हैं। मगर उस मतदाता का क्या? जिसने ‘अ’ पार्टी का उम्मीदवार मान कर चुनाव जिताया और कुछ समय बाद वह विजयी नेता ‘ब’ पार्टी के खेमे में जा खड़ा हुआ। कार्पोरेट जगत में इस तरह कंपनी बदलने वाले को हमेशा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है लेकिन राजनीति में अब यह आम हो चला है। बात किसी एक राजनीतिक दल की नहीं है। आजकल कब कौन किधर चल दे, इसका ठिकाना नहीं है। जबकि देश में दल-बदल रोकने वाले कानून का भी प्रावधान है।
Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar daily, 15.07.2020
.      दल बदलना कोई अपराध नहीं है। वैचारिक मतभेद होने पर यह एक स्वाभाविक कदम है। यदि किसी नेता को अपने मूल दल में कोई कमी, कोई खोट दिखाई पड़ती है तो उसे उजागर किया जाना भी कोई गलत बात नहीं है। लेकिन जब कभी यही कदम जब व्यक्तिगत लाभ को ध्यान में रख कर उठाया जाने लगता है तो राजनीति की चारित्रिक छवि घूमिल पड़ने लगती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के वास्तविक कर्णाधर देश के राजनीतिक नेता ही होते हैं। भारतीय लोकतंत्र के सभी महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर जनता द्वारा चुने गये राजनीतिक नेता ही कार्यरत है। देश और जनता की प्रगति एवं कल्याण के लिए नीतियों और योजनाओं का निर्माण करना इनका दायित्व है। इसके लिए इन्हें निजी स्वार्थों से परे होकर कार्य करना जरूरी है। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीति आज व्यक्ति केन्द्रित हो गयी है। सत्ता से प्राप्त होनेवाली सुख सुविधाओं ने वर्तमान राजनीति को भ्रष्ट कर दिया है। फलस्वरूप आम जनता का लोकतंत्र व्यवस्था से विश्वास खोता जा रहा है। 1985 में अधिनियमित दसवीं अनुसूची के दल-बदल प्रावधानों को कड़ा बनाने के लिये 2003 में संविधान में 91वां संशोधन लाया गया। यह संशोधन उन सभी राजनीतिक दलों के सदस्यों -चाहे व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक तौर पर यह अनिवार्य बना देता है कि वे वैधानिक सदस्यता से त्याग-पत्र दे दें। अब यदि वे दल बदलते हैं तो उन्हें पुनः चुनाव लड़ना पडेगा और ऐसे दलों के सदस्यों की एक तिहाई संख्या द्वारा दल-बदल अथवा लगातार दल बदलने के कारण वे पद पर बने नहीं रह सकते। यह संशोधन विधायकों द्वारा दल-बदल के बाद भी लाभ के पद पर बने रहने पर रोक लगाता है, बशर्ते इसे कड़ाई से लागू किया जाए। यूं भी दल बदल कर लाभ प्राप्त करने से उन राजनेताओं एवं कार्यकर्ताओं के मनोबल को ठेस पहुंचती है जो अपने दल के प्रति समर्पित भाव से काम करते रहते हैं और ‘प्रमोशन’ पाने का व्यवहारिक अधिकार रखते हैं। ऐसे नेता और कार्यकर्ता भी आगे चल कर दल बदल का मन बनाने लगते हैं क्यों कि दलबदल के फायदें उन्हें अपने सामने चरितार्थ होते दिखाई देते रहते हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद और पिछली सदी के उत्तरार्द्ध तक नाराज़गी के चलते अपने मूल दल से अलग हो कर नया दल गठित कर लेने का चलन था। मगर इस सदी के इन आरम्भिक दशकों में सीधे विरोधी दल के पाले में जा बैठने का चलन बढ़ गया है। इससे न तो लोकतंत्र का भला होता है और न लोक का। यदि भला होता है तो दलबदलने वालों को। यह प्रवृत्ति राजनीतिक चाल और चरित्र को तेजी से बदलती जा रही है।
हमारे देश में बहुदलीय व्यवस्था है। आज किसी एक दल के लिये यह कठिन हो चला है कि वह विधानमंडल या संसद में स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर सके। ऐसे में गठबंधन की राजनीति जरूरी हो जाती है। गठबंधन सरकार को उचित ठहराए जाने के लिये गठबंधन करने वाले दलों हेतु यह आवश्यक है कि वे यह सुनिश्चित करने के लिये व्यापक रूप से बनाए गए कार्यक्रमों पर आधारित एक सोच बना लें कि सामाजिक-आर्थिक विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। यद्यपि गठबंधन सरकार की नैतिकता तब खतरे में पड़ जाती है, जब ये मिले-जुले दल बीच में ही अपने साझेदारों को बदल लेते हैं और सामाजिक-आर्थिक विकास के लक्ष्य को पाने के लिये उनकी सहमति से बनाए गए साझा न्यूनतम कार्यक्रम की अवहेलना करते हुए मुख्य रूप से अवसरवादिता का लाभ उठाने और सत्ता पाने की लालसा से नए दल से गठबंधन कर लेते हैं। मतदाता की अपेक्षाओं को बनाए रखने के लिये आवश्यक है कि यह सुनिश्चित करने के लिये एक नैतिकता का ढांचा बनाया जाना जरूरी हो चला है जिससे कि चुनावों के बीच पुनः गठबंधन जैसे अवसरवादिता को रोका जा सके।  
राजनीति में आज जो ट्रेंड चल रहा है वह है कि ‘राजनीति में सब कुछ जायज़ है’। विधायकों को बंधक या ‘मेहमान’ बना कर होटलों के कमरों में तब तक बंद रखना जब तक अपना बहुमत प्रदर्शित न हो जाए, क्या इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया माना जाना चाहिए? क्योंकि कई बार यह समझना कठिन हो जाता है कि इस तरह की प्रक्रिया के पीछे प्रलोभन, दबाव अथवा स्वेच्छा किसने सक्रिय भूमिका निभाई। इस तरह के कदम अब अकसर उठाए जाने लगे हैं इसलिए अब जरूरी हो चला है कि इस मुद्दे पर राष्ट्रव्यापी बहस की जाए और किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। वर्तमान राजनीति की चाल, चेहरा और चरित्र सेवा के स्थान पर लाभ की राजनीति के सांचे में ढलता जा रहा है जो लोकतंत्र को कहीं धीरे-धीरे अवसरतंत्र में न बदल दे।

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 (दैनिक सागर दिनकर में 15.07.2020 को प्रकाशित)
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