Wednesday, December 16, 2020

चर्चा प्लस | हर युवा को याद रखना चाहिए 16 दिसम्बर का ‘विजय दिवस’ | डाॅ शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस

  हर युवा को याद रखना चाहिए 16 दिसम्बर का ‘विजय दिवस’

        

  - डाॅ शरद सिंह

                                   

प्रति वर्ष 16 दिसम्बर को हम ‘विजय दिवस’ मनाते हैं। युवा पीढ़ी को इस विजय दिवस के इतिहास को जानना चाहिए ताकि वे अपने देश की सैन्य ताकत और राजनीतिक सूझबूझ से गौरव का अनुभव कर सकें। आज जब पाकिस्तान छिटपुट सैन्य गतिविधियां करके भारत को डराने के सपने देखता है तब हमारी युवा पीढ़ी को ‘विजय दिवस’ याद रखना चाहिए और यह भी कि हमारे देश ने ही बांग्लादेश की स्थापना को संभव बनाया था।   

चर्चा प्लस -  हर युवा को याद रखना चाहिए 16 दिसम्बर का विजय दिवस - डॉ शरद सिंह, Charcha Plus, Sagar Dinkar 16 .12. 2020


सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय मैं छोटी थी। युद्ध को ले कर मुझे अधिक समझ नहीं थी। फिर भी दो कारणों से सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध ने मेरे जीवन को भी प्रभावित किया। उन दिनों मेरी मंा डाॅ विद्यावती ‘मालविका’ मध्यप्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय में शासकीय मनहर गल्र्स हायर सेकेन्ड्री स्कूल में हिन्दी विषय की व्याख्याता थीं। मेरे घर में चावल की जगह रोटी अधिक खाई जाती थी। सिर्फ़ मैं और कमल सिंह मामा ‘‘चावल भक्त’’ की श्रेणी में थे। कमल सिंह मामा के नौकरी पर पन्ना से बाहर चले जाने के बाद मूलतः मेरे लिए ही घर में चावल पकाया जाता था। मुझे याद है कि एक दिन मुझे बड़े अज़ीब से स्वाद वाला चावल खाने को मिला। मैंने मां से कहा कि आज बऊ ने ये कैसा भात (चावल) बनाया है, बहुत अजीब स्वाद है इसका। बऊ हमारे यहां खाना पकाने का काम करती थी। बहुत ही अनुभवी और पाककला में होशियार महिला। उनका असली नाम मुझे आज भी पता नहीं है क्यों कि सभी उन्हें बऊ के नाम से ही पुकारते थे। बऊ ने कभी ख़राब खाना नहीं पकाया था अतः ऐसे विचित्र स्वाद वाला भात खा कर मुझे गुस्सा आ रहा था। तब मां ने मुझे बताया कि ‘‘हमारे देश का पाकिस्तान से युद्ध हो रहा है और पूर्वी बंगाल से बड़ी संख्या में रिफ्यूजी आ रहे हैं। उनमें से बहुतों को हमारे पन्ना जिले में भी बसाया जा रहा है। वे लोग मुख्य रूप से चावल खाते हैं, इसलिए चावल की खपत बढ़ गई है। इसीलिए कंट्रोल की सरकारी दूकानों में भी उबले चावल मिल रहे हैं। आज जो तुमने खाया वह भी उबला चावल है। अभी कुछ समय यही खाना पड़ेगा।’’ 


इससे पहले मैंने ‘‘उबले चावल’’ का नाम भी नहीं सुना था। आजकल तो ‘‘ब्राउन राईस’’ के नाम से मंहगी दरों में बिकता है और फिटनेस के लिए ‘‘लो कैलोरी राईस’’ के नाम से जाना जाता है। बहरहाल, उस समय मुझे यह समझ में आया कि पाकिस्तान हमारे देश से लड़ रहा है जिससे बंगालियों को अपना घर छोड़ कर हमारे देश में आना पड़ा है और जिससे मुझे विचित्र स्वाद वालें ‘‘उबले चावल’’ खाने पड़ रहे हैं।


इस घटना के कुछ समय बाद भारत-पाकिस्तान युद्ध से जुड़ी एक और बात हुई जिसने मेरे मानस पर गहरा प्रभाव डाला। उन दिनों पन्ना की इकलौती टाॅकीज़ - कुमकुम टाॅकीज़ में एक फिल्म लगी जिसका नाम था ‘‘जय बांग्लादेश’’। मां ने हम दोनों बहनों को वह फिल्म दिखाई क्यों कि वह भारत-पाकिस्तान युद्ध पर आधारित थी।


‘‘जय बांग्लादेश’’ फिल्म उस समय के मशहूर काॅमेडीयन अभिनेता आई. एस. जौहर ने बनाई थी। आई. एस. जौहर आजकल के फिल्म निर्माता करण जौहर के चाचा और प्रसिद्ध फिल्म निर्माता यश जौहर के बड़े भाई थे। इस फिल्म में पूर्वी बंगाल के लोगों पर पाकिस्तानी सेना द्वारा की गई ज्यादतियों को देख कर उस बालपन में भी मेरा खून खौल गया था। मुझे याद है कि मैंने घर लौटते ही घोषणा कर दी थी कि मैं भी सेना में भर्ती होऊंगी और पाकिस्तानी सेना की छुट्टी कर दूंगी। बालपन की मेरी यह घोषणा पूरी तो नहीं हुई लेकिन युद्ध की विभीषिका को ले कर मेरे मन में कड़वाहट हमेशा के लिए छप कर रह गई। आज भी सियासी स्वार्थों के लिए छिड़ने वाले युद्धों से मुझे घृणा होती है।


16 दिसम्बर सन् 1971 को भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की शानदार विजय हुई और बांग्लादेश का जन्म हुआ। उस दिन हम सबने भी खुशी मनाई थी। चूंकि स्कूल में मिठाई बांटी गई थी इसलिए भी मुझे वह खुशी अच्छी तरह याद है। वह दिन ‘‘विजय दिवस’’ कहलाया। आज भी हम हर वर्ष 16 दिसम्बर को ‘‘विजय दिवस’’ मनाते हैं। यह 16 दिसम्बर 1971 का दिन युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की जीत के उपलक्ष्य में ‘‘विजय दिवस’’ के रूप में मनाया जाता है। इस युद्ध के अंत के बाद 93,000 पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था। साल 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी पराजय दी, जिसके बाद पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया, जो आज बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है।


भारत-पाकिस्तान के इस युद्ध की नौबत क्यों आई? यह जानने के लिए मैंने इतिहास के पन्ने पलटे हैं जिन्हें संक्षेप में आपसे साझा कर रही हूं। इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्ष 1970 में ही बनने लगी थी। पाकिस्तान में 1970 के दौरान चुनाव हुए, जिसमें पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग ने बड़ी संख्या में सीटें जीती और सरकार बनाने का दावा किया। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो इस बात से सहमत नहीं थे, इसलिए उन्होंने विरोध करना शुरू कर दिया था। उस समय हालात इतने खराब हो गए थे कि सेना का प्रयोग करना पड़ा। अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान जो कि पूर्वी पाकिस्तान के थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यहीं से पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच विवाद शुरू हो गया। धीरे-धीरे विवाद इतना बढ़ गया कि पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पश्चिमी पाकिस्तान से पलायन करना शुरू कर दिया था। ये लोग पाकिस्तानी सेना (जो उस समय उनके देश की ही सेना थी) के अत्याचार के शिकार हो रहे थे। भारत में उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी भारत में आ गए थे और उन्हें भारत में सुविधाएं दी जा रही थीं क्योंकि वे भारत के पड़ोसी देश से आए थे। इन सबको देखते हुए पाकिस्तान ने भारत पर हमले करने की धमकियां देना शुरू कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोशिशें की, ताकि युद्ध न हो और कोई हल निकल जाए तथा शरणार्थी सही सलामत घर को लौट जाएं परन्तु ऐसा हो न सका।


पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया खां ने 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया। इसके बाद शेख मुजीब को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद जनता पर दमनचक्र में तेजी आ गई और पूर्वी पाकिस्तान से कई शरणार्थी लगातार भारत आने लगे थे। अब भारत पर यह दबाव पड़ने लगा कि वह सेना के जरिए हस्तक्षेप करे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने थलसेनाध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय ली। मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी से स्पष्ट कह दिया कि वे पूरी तैयारी के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरना चाहते हैं। उस वक्त भारत के पास सिर्फ एक पर्वतीय डिवीजन था और इस डिवीजन के पास पुल बनाने की क्षमता नहीं थी। तब मानसून की शुरुआत होनी थी और ऐसे समय में पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करना मुसीबत बन सकता था। इसके बाद 3 दिसंबर, 1971 को इंदिरा गांधी द्वारा कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित करने के दौरान पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने भारतीय वायुसीमा को पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर, आगरा आदि सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरु कर दिए। इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटकर मंत्रिमंडल की आपात बैठक की। युद्ध की घोषणा कर दी गई। पूर्व में तेजी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेना ने जेसोर और खुलना पर कब्जा किया। भारतीय सेना की रणनीति थी कि अहम ठिकानों को छोड़ते हुए पहले आगे बढ़ा जाए। 


14 दिसंबर को भारतीय सेना को एक गुप्त संदेश मिला कि ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के बड़े अधिकारी भाग लेने वाले हैं। भारतीय सेना ने तय किया और बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी। गवर्नर मलिक ने लगभग कांपते हाथों से अपना इस्तीफा लिखा। 16 दिसंबर की सुबह जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुंचें। पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खां नियाजी के पास ढाका में 26400 सैनिक थे, जबकि भारत के पास सिर्फ 3000 सैनिक और वे भी ढाका से 30 किलोमीटर दूर। जैकब जब नियाजी के कमरे में घुसे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था। आत्म-समर्पण का दस्तावेज मेज पर रखा हुआ था। पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा वहां पहुंचने वाले थे। शाम के साढ़े चार बजे जनरल अरोड़ा हेलिकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे। पूर्वी सैन्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और नियाजी एक मेज के सामने बैठे और दोनों ने आत्म-समर्पण के दस्तवेज पर हस्ताक्षर किए। नियाजी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया। इस युद्ध में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया।


16 दिसंबर 1971 को जनरल मानेक शॉ ने इंदिरा गांधी को पाकिस्तानी सेना पर भारत की शानदार विजय का समाचार दिया। देश में हर्ष की लहर दौड़ गई। इसी के साथ बांग्लादेश का स्वतंत्र देश के रूप में जन्म हुआ।


इस युद्ध में देश को विजय दिलाने वाली भारतीय सेना के वीरों में थे मेजर होशियार सिंह। उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। मेजर होशियार सिंह ने 3 ग्रेनेडियर्स की अगुवाई करते हुए अपना अद्भुत युद्ध कौशल और पराक्रम दिखाया था। उनके आगे दुश्मन की एक न चली और उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उन्होंने जम्मू कश्मीर की दूसरी ओर शकरगढ़़ के पसारी क्षेत्र में जरवाल का मोर्चा फतह किया था। अलबर्ट एक्का को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने वीरता से युद्ध लड़ा और वीरगति पाई। निर्मलजीत सिंह सेखों को भी मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों श्रीनगर में पाकिस्तान के खिलाफ एयरफोर्स बैस में तैनात थे, जहां इन्होंने अपना साहस और पराक्रम दिखाया था। 21 वर्षीय लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल सबसे कम उम्र में मरणोपरांत परमवीर चक्र पाने वाले वीर थे। चेवांग रिनचैन को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 1971 के भारत-पाक युद्ध में लद्दाख में तैनात चेवांग रिनचैन ने अपनी वीरता और साहस का पराक्रम दिखाते हुए पाकिस्तान के चालुंका कॉम्पलैक्स को अपने कब्जे में लिया था। महेन्द्र नाथ मुल्ला भारतीय नेवी में तैनात थे। इन्होंने अपने साहस का परिचय देते हुए कई दुश्मन लडाकू जहाज और सबमरीन को नष्ट कर दिया था। महेन्द्र नाथ मुल्ला को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 


16 दिसंबर भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा वह दिन है, जो पाकिस्तान पर भारत की ऐतिहासिक विजय की याद दिलाता है। 16 दिसंबर 1971, यही वह तारीख थी, जब भारत ने युद्ध में पाकिस्तान को पराजय का स्वाद चखाया था।

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(दैनिक सागर दिनकर में 16.12.2020 को प्रकाशित)
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