लेख
आंचलिक पत्रकारिता, महिलाएं और हैशटैग मी टू
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
साहित्यकार एवं काॅलमिस्ट
drsharadsingh@gmail.com
Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Novelist & Social Activist |
यदि यह कहा जाए कि हमारे देश की मानसिक भूमि आज भी आंचलिक महिला पत्रकारिता के लिए उतनी उर्वर नहीं है जितनी होनी चाहिए, तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। आंचलिक पत्रकारिता में पुरुष पत्रकार तो अनेक हैं किन्तु महिला पत्रकारों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। यह अवश्य है कि निजी चैनल्स के रूप में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ने एंकर के रूप में अंचल की युवतियों को रुपहले पर्दो पर अवश्य जगह दे दी है किंतु जहां तक बात ज़मीनी पत्रकारिता में महिलाओं के दखल की है तो आज भी कस्बाई और ग्रामीण अंचल पिछड़ा हुआ है। इस तारतम्य में मुझे वह समय याद आता है जब स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद ही मैंने मध्यप्रदेश के छोटे से जिले पन्ना में पत्रकारिता में कदम रखा था। उस समय पन्ना में ही एक और महिला पत्रकार हुआ करती थीं प्रभावती शर्मा। जिनके पतिदेव एक टेबलाईड अखबार प्रकाशित किया करते थे। पति के टेबलाईड अखबार में पत्नी की पत्रकारिता कुछ-कुछ आज के ‘‘सरपंचपति’’ जैसी ही थी। वे ग्रामीण क्षत्रों में कम ही जाया करती थीं। मेरा उनसे परिचय पत्रकारिता में कदम रखने के बाद हुआ। मैं पन्ना ज़िले में इकलौती महिला रिपोर्टर थी। लोग तनिक आश्चर्य से किन्तु सम्मान से देखा करते थे। ग्रामीण अंचलों के दौरे पर निकले पर वहां कौतूहल भरा स्वागत एवं सहयोग मिलता। उन दिनों प्रिंट मीडिया में एक उत्साहजनक वातावरण था। उस दौर में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘नवीनदुनिया’ में ‘जोगलिखी’ काॅलम में पन्ना की समस्याओं पर मेरी रिपोर्ट्स प्रकाशित हुआ करती थीं। वहीं से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘ज्ञानयुग प्रभात’ में मैंने विशेष संवाददाता का कार्य किया। ‘जनसत्ता’ एवं ‘पांचजन्य’ के लिए रिपोर्टिंग की। उन दिनों पन्ना में बहुचर्चित ‘भदैंया कांड’ हुआ था जिसमें भदैंया नामक ग्रामीण की कुछ दबंगों ने आंखें छीन ली थीं। इस लोमहर्षक कांड पर मेरी कव्हरेज को ‘जनसत्ता’ ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था।
Press Conference of animal rights activist, environmentalist and now Union Minister Smt Maneka Gandhi and beside her left Journalist Miss Sharad Singh |
पन्ना की खुली जेल में रह रहे दस्यु पूजा बब्बा से मैंने साक्षात्कार लिया था। डकैत चाली राजा के आत्मसमर्पण तथा कुछ डकैतों के इन्काउंटर पर भी मैंने रिपोर्टिंग की थी। इसी तारतम्य में एक लोमहर्षक घटना घटी थी मेरे साथ। मुझे जनसम्पर्क अधिकारी ने सूचना दी कि उस वनपरिक्षेत्र में पुलिस ने सभी पत्रकारों को आमंत्रित किया है जहां अलस्सुबह तीन डकैतों का इन्काउंटर किया गया था। हम सभी पत्रकार जनसम्पर्क विभाग की जीप में सवार हो कर आनन-फानन में निकल पड़े। उस समय तक मैंने इन्काउंटर के बारे में सुना भर था किन्तु किसी मृत दस्यु को देखा नहीं था। तो, जब हम घटना स्थल पर पहुंचे तो वहां दुबले-पतले तीन ग्रामीण युवकों की लाशें पड़ी हुई थीं। वे देखने में किसी भी ऐंगल से डकैत नहीं लग रहे थे। एक झोला, कुछ कपड़े और दो बोरियां वहां जमीन पर पड़ी हुई थीं जो उन डकैतों का समान बताया गया। वैसे, किसी के माथे पर नहीं लिखा होता है कि वह डकैत है। उन दिनों ग्रामीण अंचलों में यदि देसी तमंचा भी हाथ लग गया तो युवकों को डकैत बनते देर नहीं लगा करती थी। वैसे इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि उन दिनों कहीं-कहीं फर्जी इन्काउंटर भी हुआ करते थे। बहरहाल, मैंने उन डकैतों की लाशें देखीं। उनमें से एक के सिर में गोली लगी थी और उसका भेजा खोपड़ी से बाहर आ गया था। यह दृश्य मुझे भीतर तक हिला गया। मुझे उबकाई आने लगी। एक पुलिसवाले ने हंसते हुए मुझ पर तंज किया,‘‘आप जीप में जा कर बैठ जाइए। आपके बस का नहीं है यह सब देखना।’’
उसकी बात सच थी, मगर मुझे चुभी। उस पुलिसवाले पर गुस्सा भी आया लेकिन उबकाई के कारण उसे पलट कर जवाब नहीं दे सकी। सच्चाई यही थी कि मैं उस दृश्य को देख कर झेल नहीं सकी। इससे पहने मैंने कभी कोई क्षत-विक्षत लाश नहीं देखी थी। मैंने उसी घड़ी तय किया कि मैं अब कभी इन्काउंटर के बाद लाशें देखने नहीं जाऊंगी। लेकिन आज जब दुनिया के अशांत क्षेत्रों से महिला पत्रकारों को रिपोर्टिंग करते हुए देखती हूं तो मुझे लगता है कि वह मेरे लिए एक जीवट अनुभव था जो मुझे बहुत कुछ सिखा गया। ग्रामीण अंचलों की जमीनी पत्रकारिता बहुत धैर्य और संवेदना के साथ एक ऐसी असंवेदना की भी मांग करती है जो सच्चाई को समाने लाने के लिए जरूरी होती है।
Press Conference of Union Minister H.K.L. Bhagat (who blemed for 1984's roits) and Journalist Miss Sharad Singh |
उन दिनों अनुबंध के आधार पर रिपोर्टिंग के अंतर्गत कलकत्ता (कोलकाता) से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘रविवार’ के लिए खजुराहो महोत्सव पर मेरे फीचर सहित विभिन्न विषयों पर मेरी स्टोरीज़ प्रकाशित हुई थीं, जिनमें डायमण्ड माइन्स, पन्ना नेशनल पार्क तथा पन्ना में बस गए पत्थर से चक्की, सिलबट्टा बनाने वाले बंजारा समुदाय के जीवन पर स्टोरीज़ शामिल थीं। परिस्थितिवश मैं जमीनी पत्रकारिता से दूर होती गई। आज मैं पीछे मुड़ कर देखती हूं तो तब से अब तक समूचे बुंदेलखंड में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण आंचलिक क्षेत्रों में जमीनी पत्रकारिता से जुड़ी सक्रिय महिला पत्रकार गिनती की ही दिखाई देती हैं, उनमें भी अधिकांश स्थानीय समाचारपत्रों से ही संबद्ध हैं। राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्रों में अपनी रिपोर्ट देने का जज़्बा उनमें कम ही देखने को मिलता है।
आज देश के आंचलिक क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के उपाधि पाठ्यक्रम चल रहे हैं, कई निजी पत्रकारिता महाविद्यालय भी संचालित हैं लेकिन इनसे पढ़ कर निकलने वाली महिला पत्रकार ग्रामीण अंचल की जमीनी पत्रकारिता पर कम ही टिक रही हैं। बात की जाए यदि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल की तो वहां कुछ समय पूर्व एक धमाका हुआ था जब ‘खबर लहरिया’ नाम का अखबार प्रकाशित होना शुरू हुआ। आकलनकत्र्ताओं ने इसे ‘वैकल्पिक मीडिया’ कहा। ‘खबर लहरिया’ ग्रामीण मीडिया नेटवर्क में अपनी पहचान बनाने में सफल रहा क्योंकि कई जिलों में इसके लिए सिर्फ़ महिला रिपोटर्स रखी गईं। चालीस से अधिक महिलाओं द्वारा चलाया जानेवाला ये अख़बार उत्तर प्रदेश और बिहार से स्थानीय भाषाओं में छपता है। ‘ख़बर लहरिया’ को संयुक्त राष्ट्र के ’लिट्रेसी प्राइज़’ समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। ‘खबर लहरिया’ की पत्रकार सुश्री कविता चित्रकूट के कुंजनपुर्वा गांव के एक मध्यमवर्गीय दलित परिवार से आती हैं। बचपन में उनकी पढ़ाई नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो जिंदगी में कभी पत्रकार बनेंगी। वर्ष 2002 में उन्होंने ’खबर लहरिया’ में पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। वे कहती हैं कि ‘मेरे पिताजी ने बचपन से मुझे पढ़ाया नहीं और कहा कि तुम पढ़कर क्या करोगी, तुम्हे कलेक्टर नहीं बनना है। मैने छुप-छुप कर पढ़ाई की। पहले था कि मैं किसी की बेटी हूं या फिर किसी की पत्नी हूं। आज मेरी खुद की पहचान है।’
इस अख़बार से पत्रकार के रूप में महिलाओं का जुड़ाव होने पर भी जो पुरुष-मानसिकता सामने आई वह चौंकाने वाली थी क्योंकि इन महिला पत्रकारों को अनजान नंबरों से लगातार अश्लील संदेश और धमकियां मिलने लगीं। इस तथ्य का पता चलने पर मुझे लगा कि जिन दिनों मैं जमीनी पत्रकारिता से जुड़ी हुई थी, उन दिनों आंचलिक पत्रकारिता के लिए महिला पत्रकार अपवाद का विषय थीं फिर भी उन्हें सकारात्मक माहौल मिलता था। प्रशासन से ले कर समस्याग्रस्त क्षेत्र तक सम्मान और सहयोग मिलता था। या फिर मध्यप्रदेशीय बुंदेलखंड में आज भी वह माहौल है जहां महिला पत्रकारों को इस प्रकार की ओछी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता है। वैसे यहां प्रश्न क्षेत्र का नहीं मानसिकता का है क्योंकि उत्तरप्रदेशीय बुंदेलखंड में ही एक ऐसी महिला पत्रकार हुईं जिन्होंने अपने पति की बात को झुठलाते हुए दबंग पत्रकारिता की और जेल भी गईं। बांदा की पहली महिला पत्रकार के रूप में विख्यात मधुबाला श्रीवास्तव एक दबंग व्यक्तित्व की महिला रहीं। वे अपने संस्मरण सुनाते हुए अपने पत्रकार बनने के विषय में बताया करती थीं कि एक बार जब वे मंदिर गईं तो वहां यह चर्चा आई कि शहर में कोई महिला पत्रकार नहीं है। यह बात उनके पति ने इस भाव से कही थी कि गोया महिलाएं पत्रकारिता कर ही नहीं सकती हैं। तब वे आगे आ कर बोलीं कि ‘‘हम हैं महिला पत्रकार।’’ इस तरह उन्होंने पत्रकारिता जगत में कदम रखा। एक बार उन्होंने अपने पत्रकार पति के विरुद्ध भी भाषण दिया था। मधुबाला श्रीवास्तव ने ‘अमर नवीन’, ‘क्रांति कृष्णा’ तथा ‘पायोनियर’ के लिए भी पत्रकारिता की। मीसा एक्ट के तहत उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। किंतु उन्हें भी अश्लील संदेशों अथवा ऊटपटांग धमकियों का सामना नहीं करना पड़ा था। इसका अर्थ यही है कि ग्ररमण अंचलों में जहां आज समय के साथ चलते हुए जमीनी पत्रकारिता में महिलाओं की बहुसंख्या दिखनी चाहिए थी वहां अल्पसंख्यक स्थिति है।
कुछ दशक पहले पत्रकारिता में महिलाओं की स्थिति की तसवीर कुछ और ही थी। ‘दी स्टेट्समैन’ के तत्कालीन संपादक कुलदीप नैय्यर ने एक समारोह में कहा था कि ‘‘हम महिलाओं को प्रेफर नहीं करना चाहते क्योंकि प्रशिक्षित करने के बाद वे शादी करके चली जाती हैं। उनके लिए नौकरी वेटिंग रूम की तरह होता है।’’ लेकिन 70 के दशक में महानगरों में यह तस्वीर बदली। तब कुलदीप नैय्यर के विपरीत ‘‘दी स्टेट्समैन’’ के तत्कालीन संपादक सी.आर. ईरानी कहा कि ‘‘हम महिलाओ को पत्रकारिता में प्रेफर करते हैं क्योंकि वो सीरियस, समर्पित और भरोसेमंद होती हैं।’’
पुरुष प्रधान समाज और उस पर पुरुष प्रधान कार्यक्षेत्र में स्वयं को साबित करना और पुरुषों का भरोसा जीतना, ये दो लक्ष्य थे जिसे महिलाओं ने पाना शुरू कर दिया। अब तक एक लम्बी सूची बन चुकी है शहरी क्षेत्र में पत्रकारिता करने वाली महिलाओं की जिनमें शुभा सिंह, अन्नू आनंद, पारुल, सेवंती नैनन, मनिका चोपड़ा, मृणाल पाण्डेय, नग़मा सहर आदि का नाम लिया जा सकता है। ये सब उनके लगातार किए गए संघर्ष और श्रम का परिणाम है। लेकिन ग्रामीण अंचल की तस्वीर अधिक नहीं बदली। यह देश का वह क्षेत्र है जहां महिला पत्रकारों की सबसे अधिक जरूरत रही है। आज भी सबसे अधिक शोषित ओर दमित महिला समुदाय ग्रामीण अंचल में ही जीवनयापन कर रहा है, जहां अशिक्षा का बोलबाला है। ऐसे स्थानों में महिलाओं से जुड़ी समस्याओं को खुल कर सामने लाने के लिए जमीनीतौर पर महिला पत्रकारों की जरूरत हमेशा रही है। मैं यहां ‘जमीनीतौर’ शब्द का प्रयोग इसलिए कर रही हूं कि आजकल जो ट्रेंड है कि जब ग्रामीण अंचल में कोई बड़ी घटना घटित होती है तो उसके बाद इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की दुनिया से महिला रिपोर्टर्स की फौज घटनास्थल पर जा धमकती है। उनके द्वारा तूफानी अंदाज़ में रिपोर्टिंग कर ली जाती है और फिर वह क्षेत्र रह जाता है यथावत उपेक्षित। अधिक हुआ तो एक-दो दिन फालोअप में जगह दे दी जाती है लेकिन उसके बाद उस ग्रामीण अंचल की तरफ तभी देखा जाता है जब वहां कोई और बड़ी वारदात हो। मसला यह है कि महानगरों में अथवा बड़े शहरों में केन्द्रित इलेक्ट्राॅनिक मीडिया सुदूर अंचल की समस्याओं पर सतत निहाग नहीं रख सकते हैं। इसके लिए क्षेत्रीय पत्रकारिता जरूरी होती है। उस पर महिलाओं से जुड़े मसले तभी सामने आ पाते हैं जब क्षेत्रीय महिलाएं पत्रकारिता कर रही हों। महलिाओं ही नहीं वरन अनेक अन्य संवेदनशील मुद्दों पर भी महिलाएं कहीं अधिक बेहतर तरीके से सच्चाई सामने लाने में सक्षम होती हैं।
जहां चकाचौंध और तड़क-भड़क होती है वहां, अपने-आप भावनाओं का सौदा होने लगता है। यदि समाचार जगत सिनेनगरी में बदलने लगे तो ‘कास्टिंग काउच’ की घटनाएं होने लगती हैं। घर से बाहर निकल कर पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं को ‘‘फ्लर्ट’’ मान लिया जाता है। वहीं, कुछ महिलाएं पुरुषों की इस मानसिकता का अपनी सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल करने लगती हैं।
Pachakaudi - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh |
सन् 2007-8 में जब मैं अपना उपन्यास ‘‘पचकौड़ी’’ लिख रही थी (जो कि सन् 2009 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ) तो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का एक ऐसा पात्र मेरे जे़हन में आया जो सच्चाई का पक्षधर है, दुस्साहसी है, महत्वाकांक्षी है और साथ ही पुरुषों की दूषित मानसिकता को अपने लाभ की दिशा में मोड़ने में निपुण है। वह पात्र टीवी न्यूज रिपोर्टर ‘‘शेफाली’’ के रूप में मेरे उपन्यास में प्रवेश कर गया और उसने उपन्यास के मुख्यपात्र ‘‘पचकौड़ी’’ की राजनीतिक दिशा ही मोड़ दी। लेकिन पचकौड़ी से मिलने के पूर्व उसने एक चर्चित टीवी चैनल में जिस रास्ते से काम पाया उसे सामने से मैं स्वयं को रोक नहीं सकी- ‘‘ अश्विन ने अपने वादे के अनुरूप शेफाली को हर वो काम दिया जो उसे लगा कि वह उनके न्यूज़ चैनल की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। शेफाली ने उन्हें सफलतापूर्वक पूरा भी किया। अश्विन नाईक और शेफाली के इस गुणा-भाग से उनके न्यूज़ चैनल का टी.आर.पी. सबसे ऊपर जा पहुंचा। सुजीत पालीवाल को इससे अधिक और क्या चाहिए था? वह अश्विन और शेफाली के संबंधों को देख कर भी अनदेखा करता था। यूं भी ऐसे क्षेत्र महानगरों के उन फ्लैट्स की तरह होते हैं जहंा एक को इस बात पर आपत्ति नहीं होती है कि दूसरा किसे अपने घर ला रहा है। ..... शेफाली और अश्विन नाईक का सोना-सुलाना धीरे-धीरे स्वयं ही कम होता चला गया। यह भावनात्मक संबंध तो था नहीं कि दोनों में से किसी भी ओर से इस क्रम को बनाए रखने का का दबाव होता अथवा विशेष आग्रह होता। शेफाली को जो चाहिए था वह मिल रहा था और अश्विन नाईक को भी उसके न्यूज़ चैनल में काम करने के लिए आने वाली नई-नई तितलियों को आकर्षित करने का सुख मिल रहा था। बात बराबर थी। यह सही अर्थों में उन्मुक्त जीवन था। .... न्यूज़ चैनल में काम करते हुए शेफाली की अपनी रेटिंग भी उच्च शिखर पर जा पहुंची। न्यूज चैनल के दर्शक उसे पसंद करते थे। विश्वविद्यालयों और महाविद्याालयों में पत्राकारिता पढ़ने वाली लड़कियां शेफाली जैसी सफल होने का सपना देखती थीं। यह बात और है कि इस आडिएलिज्म से परे पत्रकार जगत् में उसके प्रति लोगों का दृष्टिकोण कुछ और ही था।’’ इस प्रकार ‘‘शेफाली’’ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के एक यथार्थ पक्ष को खुलकर सामने लाई।
ग्रामीण पत्रकारिता इस उन्मुक्तता से कोसों दूर ही रही है। लेकिन पिछले दो दशक में तेजी से परिवर्तन आया है जब से स्थानीय टीवी चैनल्स काम करने लगे हैं। लगभग हर दूसरे शहर में निजी पत्रकारिता महाविद्यालय खुल गए हैं और स्थानीय टीवी चैनल्स की एंकर्स की फौज तैयार होने लगी है। लेकिन सुदूर ग्रामीण अंचल अभी भी इस परिदृश्य से गायब है।
बहरहाल, ग्रामीण अंचल में महिला पत्रकारिता के पांव अभी जम भी नहीं पाए कि महानगरों में पत्रकारिता जगत की वे अंतर्कथाएं बाहर आने लगीं जो नारी के यौन-शोषण का बयान दे रही थीं। ‘‘हैशटैग मी टू’’ कैम्पेन ने जो प्लेटफाॅर्म दिया उस पर ‘‘शेफाली’’ के अनेक संस्करण सामने आने लगे। जिन्हें अपने जीवन में कुछ करना था तो अनचाहे समझौतों से गुज़रना पड़ा। ’द वायर’ समाचार वेबसाइट में रिपोर्टर अनु भुयन उन औरतों में से हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर अपने यौन उत्पीड़न के अनुभव लिखने शुरू कर दिए-‘‘07 अक्तूबर 2018 अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के बारे में खुलकर बोलने में कोई शर्म नहीं है, बल्कि मुझे लगा कि बोलने से जो शर्म और गिल्ट... कि क्या ये मेरी ग़लती से तो नहीं हुआ था... जिसे मैं अपने अंदर महसूस करती रही थी उससे निकल पाऊंगी और जिसे शर्मिंदा होना चाहिए उसे समाज की नज़र में ला पाऊंगी।“
अनु ने बिसनेस स्टैंडर्ड अख़बार के पत्रकार मयंक जैन का नाम लेकर अपने ट्वीट में लिखा कि उन्होंने उनसे यौनसंबंध की मांग की थी क्योंकि उन्हें लगा कि अनु ’वैसे टाइप की लड़की हैं’। यानी एक पुरुष ने एक महिला ककी ‘टाईप’ तय किया और उसके सामने अनैतिक मांग रख दी। अनु भुयन के द्वारा खुलासा किए जाने के बाद ’फ़ेमिनिज़्म इन इंडिया’ नाम की वेबसाइट चलानेवाली जपलीन पसरीचा समेत कई कई महिलाओं ने मयंक पर बुरे बर्ताव के कई आरोप लगाए। इस बीच ऑनलाइन समाचार वेबसाइट ‘‘स्क्रोल’’ ने अपने एक लेख में बताया है कि जिस व़क्त मयंक उनके साथ काम कर रहे थे, उनके खिलाफ़़ यौन उत्पीड़न की शिकायत की गई थी। शिकायतकर्ता ने औपचारिक शिकायत ना करने का तय किया था जिसके कारण मयंक को लिखित चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था।
दरअसल, कामकाजी क्षेत्र में महिलाओं का यौन शोषण एक खामोशी की चादर के नीचे होता रहा। स्वयं महिलाएं इसके विरुद्ध आवाज़ उठाने में झिझकती रहीं। कारण यही था कि जो महिला आवाज़ उठाएगी, उंगलियां उसी पर उठेंगी। मगर ‘‘हैशटैग मी टू’’ कैम्पेन ने भारतीय महिलाओं की इस झिझक को तोड़ा और उन्हें अपनी अतीत की पीड़ा को भी बाहर लाने का साहस दिया। यद्यपि अन्य कामकाजी क्षेत्र में महिलाओं के पक्ष में समय-समय पर महत्वपूर्ण कानून बनाए जाते रहे हैं। सन् 2012 में ज्योति सिंह के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद यौन हिंसा के विरुद्ध़ बनाए क़ानून को और व्यापक किया गया और उसमें यौन उत्पीड़न के लिए तीन साल की जेल की सज़ा और जुर्माने का दंड शामिल किया गया। काम की जगह पर यौन उत्पीड़न के लिए सन् 1997 में बनाए गए दिशा निर्देश को 2013 में क़ानून का रूप दिया गया, जिसके तहत संस्थानों को अपने यहां शिकायत समितियां बनाने के लिए बाध्य किया गया। क़ानून के तहत यौन उत्पीड़न की शिकायत किए जाने पर संस्था की ज़िम्मेदारी है कि वो एक शिकायत कमेटी का गठन करे जिसकी अध्यक्षता एक महिला करे, उसकी आधी से ज़्यादा सदस्य महिलाएं हों और उसमें यौन शोषण के मुद्दे पर काम कर रही किसी बाहरी ग़ैर-सरकारी संस्था की एक प्रतिनिधि भी शामिल हो। स्त्री अधिकारों की पैरवी करने वाली लक्ष्मी मूर्ति के अनुसार वे ऐसी कई समितियों में बाहरी प्रतिनिधि के तौर पर रहीं और उन्होंने महसूस किया कि ये क़ानून बहुत अहम हैं। ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए अपराधी को कुछ सज़ा दिलाने का हौसला देते हैं।
महिला पत्रकार, आंचलिक पत्रकारिता और ‘‘हैशटैग मी टू’’ कैम्पेन की त्रिकोणात्मकता किसी ‘बारमूडा ट्रैंगल’ से कम नहीं है। इस बारमूडा ट्रैंगल में आंचलिक क्षेत्र की जुझारू जमीनी महिला पत्रकारिता डूबती जा रही है। उस पर सोशल मीडिया ने एक अलग ही हंगामा खड़ा कर रखा है। श्ूं भी आजकल स्मार्टफोन का जमाना है। ऐसे में लोगों का एक-दूसरे से संवाद करने का तरीका भी बदल गया है। लोग अब ‘फेस टू फेस’ बातचीत करने के बजाय वॉट्सऐप और ईमेल पर ज्यादा संवाद करते हैं। ज्यादा से ज्यादा वे फोन कॉल कर लेते हैं। व्यवहार में इस तरह का व्यवहार कार्यस्थल के साथ ही निजी जिंदगी में भी असर डाल रहा है। विश्वसनीयता घट गई है और दिखावा बढ़ गया है। ‘‘यू ट्यूब न्यूज चैनल्स’’ की भरमार हो गई है जिसमें चमकते चेहरे तो हैं लेकिन विश्वसनीयता की कमी रहती है। उनमें प्रस्तुत किए जाने वाले कई समाचारों को ‘‘क्रॅास एक्जामिन’’ नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसी सोशल मीडिया ने महिला पत्रकारों को अपने उत्पीड़न पर मुखर होने का भी अवसर दिया। महिला पत्रकार आपस में ही ऐसे अनुभव बांटती रही हैं और सोशल मीडिया पर शुरू हुई इस चर्चा के बाद भी कई हैं जो अपनी बात सार्वजनिक तौर पर कहने की हिम्मत नहीं महसूस कर पाती थीं।
वरिष्ठ पत्रकार रश्मि सक्सेना ने अपने एक लेख में अपने अनुभव साझा करते हुए लिखा कि-‘‘ इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कैसे न्यूज़रूम के भीतर चर्चाओं के साथ सिगरेट के कश शामिल हो गए। इसी न्यूज़रूम को हम किसी मंदिर की तरह मानते थे जहां लैंगिक समानता, खुली बहसें और आपसी मेल-मिलाप का माहौल था और जहां हर कोई अपने-अपने स्तर पर कहानियां तलाशने की कोशिश किया करते थे।.....आखिर इतना ख़ूबसूरत न्यूज़रूम किसी शिकार के मैदान में कैसे तब्दील हो गया? इस सवाल का जवाब तलाशते हुए मैं दो अक्टूबर 1971 की यादों में खो गई। जब मैंने पहली बार एक न्यूज़रूम में क़दम रखा था। या यूं कहूं कि आदमियों की दुनिया में गई थी। ये हिंदुस्तान टाइम्स का दफ़्तर था और मैं एक ट्रेनी थी। मुझे लग रहा था कि जैसे मैने पूरा संसार जीत लिया है। इसके बाद मेरे न्यूज़ एडिटर की वो कड़क आवाज़ मेरे लिए पहला सबक था। मुझे याद है उन्होंने कहा था, “तुम, कल से साड़ी पहन कर आओगी। मैं नहीं चाहता कि मेरे लड़कों का ध्यान तुम्हें देखकर भटके। ....मेरी लड़ाई यहां से शुरू हो चुकी थी. हालांकि मुझे लगा कि यह इतना बुरा भी नहीं है, क्योंकि दुश्मन तो बहुत ही कमज़ोर है। इनके लड़के तो मेरे चूड़ीदार कुर्ते से ही घायल हो रहे हैं। मैने बस सहमति में सिर हिलाया और अपनी सीट पर बैठ गई। उसके बाद एक दोस्ताना हाथ ने मेरी ओर चाय का कप बढ़ा दिया। कई दिन गुज़रने के साथ ही वो सख़्त दिखने वाले न्यूज़ एडिटर मेरे सबसे अच्छे गुरु बन गए। उनके वो लड़के हमेशा मेरी मदद के लिए तैयार रहते। ... जिस दिन मेरी पहली बड़ी बाइलाइन ख़बर लगी उस दिन उन्ही न्यूज़ एडिटर ने ख़ुद लेमन-टी का ऑर्डर दिया। उन दिनों में लेमन-टी दूध वाली चाय के मुक़ाबले ज़्यादा महंगी होती थी। ... कुछ-कुछ यही हाल तब भी रहा जब मैं रिपोर्टिंग के लिए गई। वहां भी जो लड़ाई थी वह किसी के व्यवहार से नहीं थी। बल्कि कई बार तो मुझे इस बात के लिए लड़ना पड़ जाता था कि मेरे साथी मेरी इतनी ज़्यादा चिंता क्यों करते हैं। .... मुझे ख़ुद को साबित करने के लिए लड़ना पड़ता था, मुझे बताना पड़ता था कि मैं बिना किसी की मदद लिए बाहर से होने वाले कामों को भी बेहतरीन तरीक़े से कर सकती हूं।’’
Dr (Ms) Sharad Singh Honored by Rameshwar Guru Best Editor Award 2017 at Madhav Rao Sapre News Paper Museum and Research Foundation Bhopal |
लड़ कर जीतने और घुटने टेक कर जीतने में बुनियादी अंतर होता है। लड़ कर जीतने वाला सिर उठा कर जीता है जबकि घुटने टेक कर जीतने वाले के न केवल घुटने मुड़े रह जाते हैं, वरन् सिर भी झुका रह जाता है। लड़कर जीतने वाली तस्वीर ही आंचलिक पत्रकारिता में महिलाओं को जमीनी रिपोर्टिंग से जोड़ सकती है। जिसकी महती आवश्यकता है। महिला पत्रकारिता को ले कर बना हुआ संशय और भ्रमजाल टूटना जरूरी है। आंचलिक क्षेत्र में महिला पत्रकारों को सम्मान पाने योग्य बनने के लिए अपनी जीवटता को उभारना होगा। आज पत्रकारिता का अर्थ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की चकाचैंध पर केन्द्रित होता जा रहा है जिससे आंचलिक जमीनी पत्रकारिता से महिलाओं को दूर कर ‘‘स्क्रीन की वस्तु’’ बनाता जा रहा है। यह बिगड़ा हुआ माहौल तभी सुधर पाएगा जब इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की चकाचैंध में पड़ कर एंकरिंग से परे भी ज़मीनी पत्रकारिता की ओर सुशिक्षित, प्रशिक्षित और दबंग महिला पत्रकारों की नई खेप कदम रखेगी।
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