Saturday, December 26, 2020

गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह | लेख | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

लेख

गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह

 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


भारतीय इतिहास में एक ऐसा वैश्विक व्यक्ति हुआ जिसने राजनीति को सात्विक बनाने के लिए अपने जीवन की कभी परवाह नहीं की। वे व्यक्ति थे महात्मा गांधी अर्थात् मोहन दास करमचंद गांधी अर्थात् राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। गांधी जी गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरु मानते थे। यह मान्यता उन्होने गोखले के सानिंध्य में तीन माह व्यतीत करने के बाद दी। गांधी जी प्रथम दृष्टि में धारणा बना लेने वाले व्यक्तियों में से नहीं थें वे जांच-परख कर, परिस्थितियों एवं विचारों को अनुभूत करने के बाद ही कोई धारणा निर्धारित करते थे। 

सन् 1906 को दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के बाइसवें अधिवेशन में शामिल होने के लिए गांधी जी कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता अधिवेशन के अनुभव उनके लिए प्रियकर तो नहीं रहे किन्तु उन्हें अनेक ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने उनके सम्पूर्ण जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। अधिवेशन के उपरांत अन्य कांग्रेसी नेता अपने-अपने क्षेत्रों में लौट गए किन्तु गांधी जी कलकत्ता में ही रुके रहे। वे वहां रुककर दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के पक्ष में समर्थन जुटाना चाहते थे। गांधी जी कुछ दिन ‘इंडिया क्लब’ में ठहरे। गोपाल कृष्ण गोखले ने युवा गांधी की योग्यता को पहचान लिया। वे गांधी जी को हठपूर्वक अपने साथ अपने निवास पर ले गये। लगभग तीन माह तक गांधी जी गोखले के घर रुके। इस दौरान गांधी जी ने जो अनुभव प्राप्त किए, वे उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे। उन अनुभवों ने गांधी जी के विचारों को एक नया मोड़ दिया। गोखले के निवास पर व्यतीत किए गए अपने तीन महीनों के अनुभवों के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-

पहला महीना 

Mahatma Gandhi and Gopal Krishna Gokhale

‘‘पहले ही दिन गोखले ने मुझे यह अनुभव न करने दिया कि मैं मेहमान हूं। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा। मेरी सब आवश्यकताएं जान लीं और उनके अनुकूल सारी व्यवस्था कर दी। सौभाग्य से मेरी आवश्यकताएं थोड़ी ही थीं। मैंने अपना सब काम स्वयं कर लेने की आदत डाली थी, इसलिए मुझे दूसरों से बहुत थोड़ी सेवा लेनी होती थी। स्वावलम्बन की मेरी इस आदत की, उस समय की मेरी पोशाक आदि की, सफाई की, मेरे उद्यम की और मेरी नियमितता की उन पर गहरी छाप पड़ी थी और इन सबकी वे इतनी तारीफ करते थे कि मैं घबरा उठता था।

‘मुझे यह अनुभव न हुआ कि उनके पास मुझसे छिपाकर रखने लायक कोई बात थी। जो भी बड़े आदमी उनसे मिलने आते, उनका मुझसे परिचय कराते थे। ऐसे परिचयांे में आज मेरी आंखांे के सामने सबसे अधिक डाॅ. प्रफुल्लचन्द्र राय आते हंै। वे गोखले के मकान के पास ही रहते थे और कह सकता हूं कि लगभग रोज ही उनसे मिलने आते थे।

‘ये प्रोफेसर राय हैं। इन्हें हर महीने आठ सौ रुपये मिलते हैं। ये अपने खर्च के लिए चालीस रुपये रखकर बाकी सब सार्वजनिक कामों में देते हैं। इन्होंने ब्याह नहीं किया है और न करना चाहते हैं।’ इन शब्दों में गोखले ने मुझसे उनका परिचय कराया।

‘आज के डाॅ. राय और उस समय के प्रो. राय में मैं थोड़ा ही फर्क पाता हूं। जो वेश-भूषा उनकी तब थी, लगभग वही आज भी है। हां, आज वे खादी पहनते हैं, उस समय खादी थी ही नहीं। स्वदेशी मिल के कपड़े रहे होंगे। गोखले और प्रो. राय की बातचीत सुनते हुए मुझे तृप्ति ही न होती थी, क्योंकि उनकी बातें देशहित की ही होती थीं अथवा कोई ज्ञानचर्चा होती थी। कई दुःखद भी होती थीं क्योंकि उनमें नेताओं की टीका रहती थी। इसलिए जिन्हें मैंने महान योद्धा समझना सीखा था, वे मुझे बौने लगने लगे।

‘गोखले की काम करने की रीति से मुझे जितना आनन्द हुआ, उतनी ही शिक्षा भी मिली। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। मैंने अनुभव किया कि उनके सारे काम देशकार्य के निमित्त से ही थे। सारी चर्चाएं भी देशकार्य की खातिर ही होती थीं। उनकी बातों में मुझे कहीं मलिनता, दम्भ अथवा झूठ के दर्शन नहीं हुए। हिन्दुस्तान की गरीबी और गुलामी उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी। अनेक लोग अनेक विषयों में उनकी रुचि जगाने के लिए आते थे। उन सबको वे एक ही जवाब देते थे, आप यह काम कीजिए। मुझे अपना काम करने दीजिए। मुझे तो देश की स्वाधीनता प्राप्त करनी है। उसके मिलने पर ही मुझे दूसरा कुछ सूझेगा। इस समय तो इस काम से मेरे पास एक क्षण भी बाकी नहीं बचता।

‘रानाडे के प्रति उनका पूज्यभाव बात-बात में देखा जा सकता था। ‘रानाडे यह कहते थे’, ये शब्द तो उनकी बातचीत में लगभग ‘सूत्र वाक्य’ जैसे हो गए थे। मैं वहां था, उन्हीं दिनों रानाडे की जयन्ती (अथवा पुण्यतिथि, इस समय ठीक याद नहीं है) पड़ी थी। ऐसा लगा कि गोखले उसे हमेशा मनाते थे। उस समय वहां मेरे सिवा उनके मित्र प्रो. काथवटे और दूसरे एक सज्जन थे, जो सब-जज थे। इनको उन्होंने जयन्ती मनाने के लिए निमंत्रित किया और उस अवसर पर उन्होंने हमें रानाडे के अनेक संस्मरण सुनाए। रानाडे, तैलंग और मांडलिक की तुलना भी की। मुझे स्मरण है कि उन्होंने तैलंग की भाषा की प्रशंसा की थी। सुधारक के रूप में मांडलिक की स्तुति की थी। अपने मुवक्किल की वे कितनी चिन्ता रखते थे, इसके दृष्टान्त के रूप में यह किस्सा सुनाया कि एक बार रोज की ट्रेन छूट जाने पर वे किस तरह स्पेशल ट्रेन से अदालत पहुंचे थे और इस तरह रानाडे की चैमुखी शक्ति का वर्णन करके उस समय के नेताओं में उनकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध की थी। रानाडे केवल न्यायमूर्ति नहीं थे, अर्थशास्त्री थे, सुधारक थे। सरकारी जज होते हुए भी वे कांग्रेस में दर्शक की तरह निडर भाव से उपस्थित होते थे। इसी तरह उनकी बुद्धिमत्ता पर लोगों को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। यह सब वर्णन करते हुए गोखले के हर्ष की सीमा न रहती थी।

गोखले घोड़ागाड़ी रखते थे। मैंने उनसे इसकी शिकायत की। मैं उनकी कठिनाइयां समझ नहीं सका था। पूछा, ‘‘आप सब जगह ट्राम में क्यांे नहीं जा सकते? क्या इससे नेतावर्ग की प्रतिष्ठा कम होती है?’’

कुछ दुःखी होकर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम भी मुझे पहचान न सके? मुझे बड़ी धारासभा से जो रुपया मिलता है, उसे मैं अपने काम में नहीं लाता। तुम्हें ट्राम में घूमते देखकर मुझे ईष्र्या होती है पर मैं वैसा नहीं कर सकता। जितने लोग मुझे पहचानते हैं, उतने ही जब तुम्हें पहचानने लगेंगे, तब तुम्हारे लिए भी ट्राम में घूमना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाएगा। नेता जो कुछ करते हैं, सो मौज-शौक के लिए ही करते हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं है। तुम्हारी सादगी मुझे पसन्द हैं। मैं यथासम्भव सादगी से रहता हूं पर तुम निश्चित मानना कि मुझ जैसों के लिए कुछ खर्च अनिवार्य है।’’

‘‘इस तरह मेरी यह शिकायत तो ठीक ढंग से रद्द हो गयी पर दूसरी जो शिकायत मैंने की, उसका कोई सन्तोषजनक उत्तर वे नहीं दे सके। मैंने कहा पर आप टहलने भी तो ठीक से नहीं जाते। ऐसी दशा में आप बीमार रहे तो इसमें आश्चर्य क्या? क्या देश के काम में से व्यायाम के लिए भी फुरसत नहीं मिल सकती?’’

जवाब मिला, ‘‘तुम मुझे किस समय फुरसत में देखते हो कि मैं घूमने जा सकूं?’’

मेरे मन में गोखले के लिए इतना आदर था कि मैं उन्हें प्रत्युत्तर नहीं देता था। ऊपर के उत्तर से मुझे सन्तोष नहीं हुआ था, फिर भी चुप रहा। मैंने यह माना है और आज भी मानता हूं कि कितने ही काम होने पर भी जिस तरह हम खाने का समय निकाले बिना नहीं रहते, उसी तरह व्यायाम का समय भी हमें निकालना चाहिए। मेरी यह नम्र राय है कि इससे देश की सेवा अधिक ही होती है, कम नहीं।


दूसरा महीना

Mahatma Gandhi and Gopal Krishna Gokhale

‘गोखले की छायातले रहकर मैंने सारा समय घर में बैठकर नहीं बिताया। दक्षिण अफ्रीका के अपने ईसाई मित्रें से मैंने कहा था कि मैं हिन्दुस्तान के ईसाइयों से मिलूंगा और उनकी स्थिति की जानकारी प्राप्त करूंगा। मैंने कालीचरण बैनर्जी का नाम सुना था। वे कांग्रेस के कामों में अगुआ बनकर हाथ बंटाते थे, इसलिए मेरे मन में उनके प्रति आदर था। साधारण हिन्दुस्तानी ईसाई कांग्रेस से और हिन्दू-मुसलमानों से अलग रहा करते थे। इसलिए उनके प्रति मेरे मन में जो अविश्वास था, वह कालीचरण बैनर्जी के प्रति नहीं था। मैंने उनसे मिलने के बारे में गोखले से चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वहां जाकर क्या पाओगे? वे बहुत भले आदमी हैं पर मेरा विचार है कि वे तुम्हें सन्तोष नहीं दे सकेंगे। मैं उन्हें भलीभांति जानता हूं। फिर भी तुम्हें जाना हो तो शौक से जाओ।’’

‘‘मैंने समय मांगा। उन्होंने तुरन्त समय दिया और मैं गया। उनके घर उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्या पर पड़ी थीं। घर सादा था। कांग्रेस अधिवेशन में उनको कोट-पतलून में देखा था पर घर में उन्हें बंगाली धोती और कुर्ता पहने देखा। यह सादगी मुझे पसन्द आई। उन दिनों मैं स्वयं पारसी कोट-पतलून पहनता था, फिर भी मुझे उनकी यह पोशाक और सादगी बहुत पसन्द आई। मैंने उनका समय न गंवाते हुए अपनी उलझनें पेश कीं।

उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘आप मानते हैं कि हम अपने साथ पाप लेकर पैदा होते हैं?’’

मैंने कहा, ‘‘जी हां।’’

‘‘तो इस मूल पाप का निवारण हिन्दू धर्म में नहीं है, जबकि ईसाई धर्म में है।’’ यूं कहकर वे बोले, ‘‘पाप का बदला मौत है। बाइबल कहती है कि इस मौत से बचने का मार्ग ईसा की शरण है।’’

मैंने ‘भगवद्गीता’ के भक्तिमार्ग की चर्चा की पर मेरा बोलना निरर्थक था। मैंने इन भले आदमी का उनकी भलमनसाहत के लिए उपकार माना। मुझे संतोष न हुआ, फिर भी इस भेंट से मुझे लाभ ही हुआ।

मैं यह कह सकता हूं कि इसी महीने मैंने कलकत्ते की एक-एक गली छान डाली। अधिकांश काम मैं पैदल चलकर करता था। इन्हीं दिनों मैं न्यायमूर्ति मित्र से मिला। सर गुरुदास बैनर्जी से मिला। दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्हीं दिनांे मैंने राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी के भी दर्शन किए।

कालीचरण बैनर्जी ने मुझसे काली-मन्दिर की चर्चा की थी। वह मन्दिर देखने की मेरी तीव्र इच्छा थी। पुस्तक में मैंने उसका वर्णन पढ़ा था। इससे एक दिन मैं वहां जा पहुंचा। न्यायमूर्ति का मकान उसी मुहल्ले में था। अतएव जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन काली-मन्दिर भी गया। रास्ते में बलिदान के बकरों की लम्बी कतार चली जा रही थी। मन्दिर की गली में पहंुचते ही मैंने भिखारियांे की भीड़ लगी देखी। वहां साधु-संन्यासी तो थे ही। उन दिनांे भी मेरा नियम हृष्ट-पुष्ट भिखारियांे को कुछ न देने का था। भिखारियों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया था।

एक बाबाजी चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा, ‘‘क्यों बेटा, कहां जाते हो?’’

मैंने समुचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे और मेरे साथियों को बैठने के लिए कहा। हम बैठ गए।

मैंने पूछा, ‘‘इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते हैं?’’

‘‘जीव की हत्या को धर्म कौन मानता है?’’

‘‘तो आप यहां बैठकर लोगों को समझाते क्यांे नहीं?’’

‘‘यह काम हमारा नहीं है। हम तो यहां बैठकर भगवद् भक्ति करते हैं।’’

‘पर इसके लिए आपको कोई दूसरी जगह न मिली?’

बाबाजी बोले, ‘‘हम कहीं भी बैठंे, हमारे लिए सब जगह समान है। लोग तो भेंड़ांे के झुंड की तरह हैं। बड़े लोग जिस रास्ते ले जाते हैं, उसी रास्ते वे चलते हैं। हम साधुआंे को इससे क्या मतलब?’’

मैंने संवाद आगे नहीं बढ़ाया। हम मन्दिर में पहुंचे। सामने लहू की नदी बह रही थी। दर्शनांे के लिए खड़े रहने की मेरी इच्छा न रही। मैं बहुत अकुलाया, बेचैन हुआ। वह दृश्य मैं अब तक भूल नहीं सका हूं। उसी दिन मुझे एक बंगाली सभा का निमंत्रण मिला था। वहां मैंने एक सज्जन से इस क्रूर पूजा की चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘हमारा खयाल यह है कि वहां जो नगाड़े वगैरह बजते हैं, उनके कोलाहल में बकरों को चाहे जैसे भी मारो उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती।’’

‘उनका यह विचार मेरे गले न उतरा। मैंने उन सज्जन से कहा कि यदि बकरांे को जबान होती तो वे दूसरी ही बात कहते। मैंने अनुभव किया कि यह क्रूर रिवाज बंद होना चाहिए। बुद्धदेव वाली कथा मुझे याद आयी पर मैंने देखा कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है। उस समय मेरे जो विचार थे, वे आज भी हैं। मेरे ख्याल से बकरों के जीवन का मूल्य मनुष्य के जीवन से कम नहीं है। मनुष्य देह को निबाहने के लिए मैं बकरे की देह लेने को तैयार न होऊंगा। मैं यह मानता हूं कि जो जीव जितना अधिक अपंग है, उतना ही उसे मनुष्य की क्रूरता से बचने के लिए मनुष्य का आश्रय पाने का अधिक अधिकार है, पर वैसी योग्यता के अभाव में मनुष्य आश्रय देने में असमर्थ है। बकरांे को इस पापपूर्ण होम से बचाने के लिए जितनी आत्मशुद्धि और जितना त्याग मुझमें है, उससे कहीं अधिक की मुझे आवश्यकता है। जान पड़ता है कि अभी तो उस शुद्धि और त्याग का रटन करते हुए ही मुझे मरना होगा। मैं यह प्रार्थना निरन्तर करता रहता हूं कि ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष और ऐसी कोई तेजस्विनी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातक में से मनुष्य को बचाए, निर्दोष प्राणियों की रक्षा करे और मन्दिर को शुद्ध करे। ज्ञानी, बुद्धिशाली, त्यागवृत्तिवाला और भावना-प्रधान बंगाल यह सब कैसे सहन करता है?

तीसरा महीना 

Mahatma Gandhi, Gopal Krishna Gokhale and Sarojani Nayadu

‘कालीमाता के निमित्त से होनेवाला विकराल यज्ञ देखकर बंगाली जीवन को जानने की मेरी इच्छा बढ़ गयी। ब्रह्मसमाज के बारे में तो मैं काफी पढ़-सुन चुका था। मैं प्रतापचन्द्र मजूमदार का जीवनवृतान्त थोड़ा जानता था। उनके व्याख्यान मैं सुनने गया था। उनका लिखा केशवचन्द्र सेन का जीवनवृत्तान्त मैंने प्राप्त किया और उसे अत्यन्त रसपूर्वक पढ़ गया। मैंने साधारण ब्रह्मसमाज और आदि ब्रह्मसमाज का भेद जाना। पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन किए। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के दर्शनों के लिए मैं प्रो. काथवटे के साथ गया पर वे उन दिनों किसी से मिलते न थे, इससे उनके दर्शन न हो सके। उनके यहां ब्रह्मसमाज का उत्सव था। उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर हम लोग वहां गए थे और वहां उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुन पाए थे। तभी से बंगाली संगीत के प्रति मेरा अनुराग बढ़ गया।

‘ब्रह्मसमाज का यथासम्भव निरीक्षण करने के बाद यह तो हो ही कैसे सकता था कि मैं स्वामी विवेकानन्द के दर्शन न करूं? मैं अत्यन्त उत्साह के साथ बेलूर मठ तक लगभग पैदल पहुंचा। मुझे इस समय ठीक से याद नहीं है कि मैं पूरा चला था या आधा। मठ का एकान्त स्थान मुझे अच्छा लगा था। यह समाचार सुनकर मैं निराश हुआ कि स्वामीजी बीमार हैं, उनसे मिला नहीं जा सकता और वे अपने कलकत्तेवाले घर में हैं। मैंने भगिनी निवेदिता के निवास स्थान का पता लगाया। चैरंगी के एक महल मैं उनके दर्शन किए। उनकी तड़क-भड़क से मैं चकरा गया। बातचीत में भी हमारा मेल नहीं बैठा।

गोखले से इसकी चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वह बड़ी तेज महिला हैं। अतएव उससे तुम्हारा मेल न बैठा, इसे मैं समझ सकता हूं।’’

फिर एक बार उनसे मेरी भेंट पेस्तन जी के घर हुई थी। वे पेस्तन जी की वृद्धा माता को उपदेश दे रही थी, इतने में मैं उनके घर जा पहुंचा था। अतएव मैंने उनके बीच दुभाषिए का काम किया था। हमारे बीच मेल न बैठते हुए भी इतना तो मैं देख सकता था कि हिन्दू धर्म के प्रति भगिनी का प्रेम छलका पड़ता था। उनकी पुस्तकों का परिचय मैंने बाद में किया।

मैंने दिन के दो भाग कर दिए थे। एक भाग में दक्षिण अफ्रीका के काम के सिलेसिले मैं कलकत्ते में रहनेवाले नेताआंे से मिलने में बिताता था, और दूसरा भाग कलकत्ते की धार्मिक संस्थाओं और दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं को देखने में बिताता था।

एक दिन बोअर-युद्ध में हिन्दुस्तानी शुश्रूषा-दल में जो काम किया था, उस पर डाॅ. मलिक के सभापतित्व में मैंने भाषण किया। ‘इंग्लिशमैन’ के साथ मेरी पहचान इस समय भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। मि. सांडर्स उन दिनों बीमार थे पर उनकी मदद तो सन् 1896 में जितनी मिली थी, उतनी ही इस समय भी मिली। यह भाषण गोखले को पसन्द आया था और जब डाॅ. राय ने मेरे भाषण की प्रशंसा की तो वे बहुत खुश हुए थे।

यूं, गोखले की छाया में रहने से बंगाल में मेरा काम बहुत सरल हो गया था। बंगाल के अग्रगण्य कुटुम्बांे की जानकारी मुझे सहज ही मिल गयी और बंगाल के साथ मेरा निकट सम्बन्ध जुड़ गया। इस चिरस्मरणीय महीने के बहुत से संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उस महीने में मैं ब्रह्मदेश का भी एक चक्कर लगा आया था। मैंने स्वर्ण-पैगोडा के दर्शन किए। मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियां जल रही थीं। वे मुझे अच्छी नहीं लगी। मन्दिर के गर्भगृह में चूहों को दौड़ते देखकर मुझे स्वामी दयानन्द के अनुभव का स्मरण हो आया। ब्रह्मदेश की महिलाआंे की स्वतंत्रता, उनका उत्साह और वहां के पुरुषों की सुस्ती देखकर मैंने महिलाओं के लिए अनुराग और पुरुषांे के लिए दुःख अनुभव किया। उसी समय मैंने यह भी अनुभव किया कि जिस तरह बम्बई हिन्दुस्तान नहीं हैं, उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नहीं है और जिस प्रकार हम हिन्दुस्तान में अंग्रेज व्यापारियों के कमीशन एजेंट या दलाल बने हुए हैं, उसी प्रकार ब्रह्मदेश में हमने अंग्रेजांे के साथ मिलकर ब्रह्मदेशवासियांे को कमीशन एजेंट बनाया है।

‘ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैंने गोखले से विदा ली। उनका वियोग मुझे अखरा पर बंगाल अथवा सच कहा जाए तो कलकत्ते का मेरा काम पूरा हो चुका था।

‘‘मैंने सोचा था कि धन्धे में लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करूंगा और तीसरे दर्जें में यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूंगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हँसकर उड़ा दिया पर जब मैंने इस यात्र के विषय मैं अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी। मुझे पहले तो काशी जाना था और वहां पहुंचकर विदुषी ऐनी बेसेंट के दर्शन करने थे। वे उस समय बीमार थीं।’’

कलकत्ता में गोपाल कृष्ण गोखले के साथ कुछ दिन व्यतीत करना  गांधी जी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। सन् 1912 में गांधी जी के आमंत्रण पर गोखले स्वयं दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद का विरोध किया। गांधी जी ने गोखले को हमेशा अपना ‘राजनीतिक गुरु’ माना। 

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महात्मा गांधी के जीवन पर मेरी पुस्तक -

Rashtravadi Vyaktitva Mahatma Gandhi written by Dr (Miss) Sharad Singh 
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