चर्चा प्लस
रामकथा में पर्यावरणीय चेतना
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
फिल्म ‘‘आदिपुरुष’’ रिलीज हुई। हंगामा हुआ। संवाद को ले कर, कथानक में तोड़-मरोड़ को ले कर, पहनावे को ले कर। इस तरह कई घंटे, कई दिन हमने सोच-विचार, बहसें कीं, एक अदद फिल्म के बारे में। लेकिन क्या हमारी चर्चाओं में रामकथा के वे पक्ष तत्परता से रखे जाते हैं जिन्हें अगर हम समझ लें तो अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं? रामकथा मात्र एक कथा नहीं है, वह एक ऐसी जीवन शैली है जिसमें प्राकृतिक तत्वों की महत्ता को कदम-कदम पर स्थापित किया गया है। इस कथा में प्रत्येक जड़-चेतन का पारस्परिक महत्व और उसमें संतुलन को पात्रों के रूप में सामने रखा गया है। यदि हम तुलसीदास की ‘‘रामचरित मानस’’ के ही दोहों और चौपाइयों का समरण कर लें तो समस्त जड़-चेतन के साथ मनुष्य के अंतर्संम्बंधों का ज्ञान हो जाता है। पाषाण बनी अहिल्या, वनवासी मनुष्य, वानर, जटायु जैसे पक्षी आदि का प्रसंग यूं ही नहीं है, अपितु इनके द्वारा संदेश दिया गया है प्रकृति की महत्ता को समझने का। चलिए डालते हैं एक संक्षिप्त दृष्टि-
आज जब हम ग्लोबल वार्मिंग के भय से आक्रांत हो कर पर्यावरण चेतना को बढ़ावा देने की बात करते हैं वहीं हमारे वेदों, पुराणों, उपनिषदों एवं महाकाव्यों में पर्यावरण के संतुलन का संदेश निहित है । ‘‘रामायण’’ तथा ‘‘रामचरित मानस’’ में वर्णित रामकथा पर्यावरण के एक-एक तत्व के महत्व को प्रस्तुत करते हैं । वस्तुतः रामकथा धर्म और आस्था से जुड़ी हुई कथा ही नहीं है वरन् उसमे पर्यावरणीय चेतना का अद्भुत स्वरूप देखने को मिलता है।
पर्यावरण का सीधा संबंध प्रकृति से है, जहां समस्त जीवधारी प्राणियों और निर्जीव पदार्थों में सदा एक दूसरे पर निर्भरता और समन्वय की स्थिति रही है। पर्यावरण शब्द का निर्माण पऱिआवरण से हुआ है जिसका सामान्य अर्थ है घेरनेवाला। पर्यावरण के अंतर्गत वह सब कुछ आता है जो पृथ्वी पर और उसके चारों और दृश्य एवं अदृश्य रूप में विद्यमान है। हमारे चारों ओर का अवरण अर्थात हमारा भौतिक एवं सामाजिक परिवेश जिससे समस्त जैविक एवं अजैविक घटक प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पर्यावरण का निर्माण उन सभी जैविक एवं अजैविक घटकों से हुआ है जो इस पृथ्वी और इसके चारों ओर उपलब्ध है। पर्यावरण के अंतर्गत पृथ्वी, आकाश, जल, अधि और वायु सम्मिलित है। पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियां, जीव-जन्तु पर्वत, नदियां, खनिज पदार्थ आदि सभी कुछ पर्यावरण के है । वस्तुतः पर्यावरण की अवधारणा अत्यंत व्यापक है। इसमें पृथ्वी और पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जैव एवं अजैव घटकों के पारस्परिक संबंध, उपस्थिति, सह जीवन, संतुलन एवं संयोजन का समावेश रहता है। पर्यावरण वह है जिसका स्वस्य एवं संतुलित स्वरूप पृथ्वी के अस्तित्व एवं जैव विविधता का निर्धारण करता है। जहां संतुलित पर्यावरण नहीं है वहां जीवन अथवा जैव विविधता भी नहीं है। पृथ्वी पर जीवन का महत्वपूर्ण अंग है मनुष्य । अतः पर्यावरण के संतुलन एवं संरक्षण में मनुष्य की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्य सर्वाधिक क्रियाशील प्राणी है। उसकी क्रियाएं पर्यावरण पर सीधा प्रभाव डालती है। इसीलिए पर्यावरण के अंतर्गत समस्त जैव-अजैव घटको के साथ-साथ मानव क्रियाओं के समस्त रूपों का भी अध्ययन एवं आकलन आवश्यक होता है।
रामकथा में जैव, अर्जव अर्थात् जड़ और चेतन सभी तत्वों को मानवीय दृष्टिकोण से देखा गया है। जैसा कि तुलसीदास ने लिखा है- "सियाराम मय सब जग जानी। करहु प्रनाम और जुग पानी ।।" श्रीराम के भक्तों में पशु और पक्षी दोनों वर्ग के प्राणि है। वानर, हरिण, हाथी, घोडे, ऊंट, खच्चर आदि पशुओं का उल्लेख है। इसी प्रकार मोर, चकोर, तोते, कबूतर, सारस, हंस, कौआ, गिद्ध, गरुड़ आदि पक्षियों का महत्वपूर्ण स्थान है।
पर्णकुटी के आसपास हरिणों के घूमने तथा स्वर्णमृग का वर्णन जहां वन्य पशुओं की उपस्थिति दर्शाता है वहीं स्वर्णमृग की घटना हरिण के आखेट के दुष्परिणाम को सामने रखती है।
हमहि देखि मृग निकर पराही।
मृगी कहहिं तुम्ह कह भय नाहीं।
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए।
कंचन मृग खोजन ए आए।।
सीता का रावण द्वारा अपहरण कर लिए जाने पर श्री राम व्याकुल हो कर प्रत्येक प्राकृतिक तत्व से सीता का पता पूछते हैं।
हा गुन खानि जानकी सीता।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता।।
लछिमन समुझाए बहु भाँति।
पूछत चले लता तरु पाँती
अर्थात् श्री राम विलाप करते हुए कहते हैं कि हे गुणों की खान जानकी! हे रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! तुम कहां हो? लक्ष्मणजी उन्हें बहुत प्रकार से समझाते हैं फिर भी श्री राम लताओं और वृक्षों की से पूछते हैं-
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
खंजन सुक कपोत मृग मीना।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना।।
अर्थात हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल तुम्हीं बताओ कि तुमने सीता को देखा हैं?
कुंद कली दाड़िम दामिनी।
कमल सरद ससि अहिभामिनी।।
बरुन पास मनोज धनु हंसा।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा।।
रामकथा में कौए और गरुड़ को विशेष स्थान दिया गया है। ये दोनों वन्य एवं नगरीय पक्षियों के प्रतिनिधि समान हैं। कागमुशुण्डि, जटायु, संपाति तथा गरुड़ के रूप में पक्षियों के महत्व को निरूपित किया गया है। कागभुशुण्डि तो वह चरित्र हैं जिसने पक्षीराज गरुड के संदेह निवारण के लिए उन्हें रामकथा सुनाई -
कहेछु न कछु करि जुगति विषेखी।
यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ।।
जटायु ने रावण से सीता को छुड़ाने के लिए अपने प्राण भी दांव पर लगा दिए। यह भी मानव जीवन में पक्षियों के महत्व को सिद्ध करने वाला प्रसंग है। जब रावण सीता का हरण करके लंका ले जा रहा था तो जटायु ने सीता को रावण से छुड़ाने का प्रयत्न किया था। इससे क्रोधित होकर रावण ने उसके पंख काट दिये थे जिससे वह भूमि पर जा गिरा। जब राम और लक्ष्मण सीता को खोजते-खोजते वहां पहुंचे तो जटायु से ही सीता हरण का पूरा विवरण उन्हें पता चला। स्मरण रहे कि जटायु गिद्ध प्रजाति का था। अर्थात् रामकथा हमें बताती है कि जिस पक्षी को हम मृतपशुओं का मांस खाने वाला पक्षी कह कर हेय दृष्टि से देखते हैं, वह भी मानव जीवन के लिए हितकारी है। यदि वैज्ञानिकदृष्टि से देखा जाए तो गिद्ध उच्चकोटि का सफाईकर्मी है।
रामकथा में अहिल्या की कथा जड़ तत्व के रूप में पाषाण के महत्व को उद्घाटित करती है।
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।
- भावार्थ यह है कि श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री राम को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से प्रेम और आनंद के आंसुओं की धारा बहने लगी।
यदि अहिल्या की कथा को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पृथ्वी के अजैविक घटकों के निर्माण में जैविक घटकों के पाए जाने की प्रक्रिया मिलती है। विशालकाय वृक्ष गिर कर भूमि में दब जाने पर लाखों, करोड़ों वर्ष में पाषाण में बदल जाते हैं। अहिल्या भी पहले जीवित स्त्री थी जो शापग्रस्त हो कर शिला में परिवर्तित हो गई थी। श्रीराम के चरणों का स्पर्श पाकर वह पुनः जीवन्त हो उठी। जिस प्रकार वातावरणीय अनुकूलकता पा कर चट्टानों से भी अंकुरण फूट पड़ते हैं।
जिन कूपों, नदियो, सरोवरो एवं समुद्र आदि जलाशयों का उल्लेख रामकथा में किया गया है वे सभी पानी से लबालब भरे हुए है, किसी में भी पानी के कम होने का संकेत नहीं है। इन जलाशयों का त्यानी मी स्वच्छ एवं जलचरों से युक्त है। अर्थात त्रेतायुग में जल संरक्षण जीवनचर्या का अभिन्न अंग था। किसी को भी जल की कमी का राकट नहीं झेलना पड़ता था। रामकथा में सुरम्य उपानहै जिसमें सीता श्री राम के प्रथम दर्शन करती है। ऐसा उपवन जहां सरोवर भी है, कमल भी है, पक्षी कल कल कहे हैं और भौंरे गुनगुना रहे हैं।
वन्य-उत्पादन आज तेजी से घटता जा रहा है। जब वन ही कम होते जा रहे हैं तो वनोपज अधिक कहां से होगी? शहरों के फैलाव ने भी पर्यावरण को अपार क्षति पहुंचाई है। किन्तु रामकथा में शहरों के साथ-साथ गांवों एवं वनवासियों का भी समान रूप से वर्णन है।
सीता लखन सहित रघुराई।
गांव निकट जब निकसहिं जाई।
लगभग सभी ऋषि-मुनि अरण्य में कुटी बना कर निवास करते थे। निषाद, शबरी आदि वनवासी कुटियों में अपने परिवार और समूहों के साथ रहते थे-
काचर कोल किरात बिचारे के बिलोकि पनिक हियं हारे।।
आज हम समुद्र के तटों को सुखा कर उस पर अपनी बस्तियां फैलाते जा रहे हैं। यह अतिक्रमण है सागरीय जल-भूमि पर। इसी संदर्भ में उस प्रसंग को याद करना जरूरी है जब श्री राम समुद्र की तीन दिन तक स्तुति करते हैं किन्तु समुद्र पार जाने के लिए रास्ता नहीं देता है। तब श्री राम मानवीय अवतार के वशीभूत समुद्र पर क्रोध करते हैं और उसे सुखा देने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लेते हैं। तब समुद्र प्रकट होता है और श्री राम से कहता है कि आप सर्वशक्तिमान हैं, आप चाहें तो मुझे पल भर में सुखा सकते हैं किन्तु सूखना मेरी प्रकृति नहीं है। अतः इसमें आपका यश नहीं होगा। तब श्री राम समुद्र से कहते हैं कि तुम्हीं कोई उपाय सुझाओ। ‘‘रामचरित मानस’’ में दिया गया संवाद देखिए-
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाइ।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाइ।।
सुनत बिनीत बचन अति। कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु। तात सो कहहु उपाइ।।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
इस पर समुद्र रामनाम की शिलाओं को जल में तैराने का उपाय बताता है। जिस पर अमल करते हुए वानर और भालुओं की सेना शिलाओं पर श्री राम का नाम लिख कर ‘‘रामसेतु’’ बना देती है। अर्थात् रामकथा यही कहती है कि चाहे समुद्र हो या नदी, प्रकृति को क्षति पहुंचाए बिना विकास का रास्ता ढूंढना चाहिए।
रामकथा में किसी भी स्थान पर पर्यावरण असंतुलन अथवा पर्यावरण को क्षति पहुंचाए जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। जब लक्ष्मण क्रोधवश अपने बाण से जल में आग लगा देने को उद्यत हो उठते हैं वहां भी जलदेवता जलचरों की रक्षा का स्मरण कराते हैं और जलचरों को क्षति नहीं पहुंचती है । अतः यदि रामकथा के पर्यावरणीय मर्म को आत्मसात किया जाए तो पर्यावरण के संरक्षण के रास्ते में आने वाली बाधाएं सुगमता से दूर हो सकती हैं तथा बड़ी आसानी से जन सामान्य में पर्यावरण चेतना का संचार हो सकता है।
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