Monday, December 1, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | जो नओ बढ़ाहो सो पुरानो को का हुइए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | जो नओ बढ़ाहो सो पुरानो को का हुइए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट | जो नओ बढ़ाहो सो पुरानो को का हुइए?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
     का भओ के अबे परों हम एक पैचान वारे के इते मिलबे खों गए रए। उनके इते उनको ढाई-तीन साल को पोता कापी में डिराइंग बना रओ तो। ऊके दद्दा जू ने ऊकी डिराईंग देखी तो बे ऊको डांटन लगे के जो का बना दओ? का कऊं रोडें ऐसी होत आएं? जो का पहड़ियां, पहड़ियां सो बना दओ? हमने सोई ऊकी डिराइंग देखी सो हमें कै आओ के जा ईने गलत नईं बनाओ। अपनी मकरोनिया की रोडें फ्यूचर में ऐसईं दिखाहें। मोड़ा के दद्दा ने पूछी के “का मतलब?” सो हमें उने मतलब समझाने परी।
      हमने सुनी हती के मकरोनिया के टिरेफिक की पिराबलम हल करबे खों फ्लाईओवर बनाओ जैहे। ऊके बाद अब सुनो आए के बा फ्लाईओवरन की लंबाई बढ़ाबे की बात करी गई आए। सो जा सोचियो तनक के मनों जां पे अबई चालू भाई नईं आरओबी खतम हुइए उते से कछू दूरी से फ्लाईओवर सुरू हो जैहे। फेर जां नओ बनबे वारो फ्लाईओवर खतम हुइए वां से कछू दूरी से पुरानो फ्लाईओवर सुरू हो जाहे। तीन कूबड़ वारे ऊंट घांईं। सो, अब बताओ के मोड़ा ने का गलत बनाओ? जा तो भई रेलवेस्टेशन से बहेरिया तिगड्डा वारी रोड की दसा। बाकी की आप खुदई सोंस लेओ। जा सुYन के मोड़ा के दद्दा को मों खुलो के खुलो रओ गओ। हमने उनसे कई के इत्ते ने चकरयाओ! खुदई सोचो के जो नओ बनहे, तो पुरानो को का हुएई? बे बी ऐसे पुराने नइयां। एक चारेक साल पुरानो आए सो दूसरे खों अबे चार मईना नईं भए। सो, आबे वारे समै में कोनऊं खों ऊंट देखबे के लाने राजस्थान ने जाने परहे, इतई तीन कूबड़ वारी रोड देख के ऊंट देखे से ज्यादा मजो आ जैहे। कओ, गिनीज बुक में मकरोनिया को नांव लिखा जाए। रामधई !
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Sunday, November 30, 2025

बतकाव बिन्ना की | कछू जने बरहमेस दिलों में रैत आएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | कछू जने बरहमेस दिलों में रैत आएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की            

कछू जने बरहमेस दिलों में रैत आएं               - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

“काय भौजी का हो गओ? उदासी-सी दिखा रईं।” मैंने भौजी से पूछी।

‘‘हऔ, जी अच्छो-सो नईं लग रओ।’’ भौजी बोलीं।

‘‘ठंड-मंड लग गई का?’’ मैंने फेर के पूछी।

‘‘नईं ठंड तो नईं लगी, मनो ठंड बढ़ गई कहानी। आज सो सीत लहर चल रई।’’ भौजी ऊंसई मरी-मरी सी बोलीं।

‘‘आपकी तबीयत ठीक नई लग रई। कछू दवा-दारू ला देवें?’’ मैंने भौजी से पूछी।

‘‘नईं दवाई की जरूरत नइयां औ दारू कोनऊं ई घरे पियत नइयां।’’ पांछू से भैयाजी की आवाज सुनाई परी।

मैंने मुड़ के देखी। भैयाजी कऊं से चले आ रए हते। 

‘‘आप कां चले गए रए? इते भौजी कित्ती उदासी बैठीं। कऊं इनकी तबीयत तो नईं बिगर गईं?’’ मैंने भैयाजी से गई।

‘‘ने कऊं! बस, इतई लौं गए हते मोंमफली लेबे के लाने।’’ भैयाजी बोले। 

‘‘जे कोन सो टेम आए मोंमफली खाबे को? मोंमफली सो संझा खों अच्छी लगत आए।’’ मैंने कई।

‘‘जे लेओ! इनकी सुनो! मोंमफली खाबे को बी भला कोनऊं टेम होत आए? बा तो जब मन करे सो मसक लेओ।’’ कैत भए भैयाजी ने मोंमफली को पुड़ा खोलो औ उतई एक स्टूल पे फैला दओ।

‘‘लेओ चलो खाओ।’’ भैयाजी बोले।

‘‘हऔ आप खों तो बस खाबे की परी रैत आए। जे नईं देखत के कोऊ खों जी कैसो हो रओ।’’ भौजी तुनकत भईं बोलीं।

‘‘अब हम का करें ई में? हम तो कै रए के तुम सोई अपनो जी सम्हारो।’’ भैयाजी ने भौजी से कई औ फेर मोसे कैन लगे,‘‘तुमई बताओ बिन्ना के जियत-मरत पे भला कोन को बस आए?’’

‘‘काए का हो गओ?’’ मैंने पूछी।

‘‘तुमाई भौजी धर्मेन्द्र जू की बड़ी फैन रईं, सो उनके जाबे से जे भौतई दुखी आएं। अब हम सोई फैन रए, आज भी फैन आएं, मनो हमें बी दुख हो रओ के बे अब नई रए, पर ऐसे जी दुखाबे से का हुइए? जाने सो सबई खों एक ने एक दिन आए। उनको बी टेम आ गओ रओ। जा तो जे सोचो के कछू बुरौ में बी कछू अच्छाई होत आए। बे पैली बेर अस्पताल में भरती भए सो कोनऊं ने गलत खबर उड़ा दई के बे चल बसे। सबई खों झटका सो लगो। सबई ने भौतई दुख जताओ। फेर खबर मिली के बे तो जिन्दा आएं। सबई ने झूठी खबर वारन खों जी भर के गरियाओ। मनों ईको दूसरो पहलू सोई देखों जाए सो पतो परहे के धर्मेन्द्र जू खों अपने जीयत में एक दार फेर के पता पर गई हुइए के उनके चाउने वारे आज बी उने कित्तो जबरदस्त चाऊत आएं। उने जे जान के अच्छो बी लगो हुइए। ने तो चाए कित्तो भी बड़ो फिलम वारो होए सबके भाग ऐसे नईं होत के परदे से रिटायर होबे के बाद बी उने कोऊ याद रखे औ इत्तो चाहे, जा कम ई होत आए।’’ भैयाजी बोले।

‘‘बात सो आप सांची कै रए। बाकी चैनल वारों खों तनक जांच लओ चाइए रओ। बाकी जा आपने सई कई के कोऊ-कोऊ ऐसो भाग वारो होत आए जोन को बाद में बी ऊके चाउने वारे पूछत रएं। न जाने कितेक हीरो-हिरोईन आज कां जी खा रए, के मर खप गए पतो ई नईयां। कोऊ-कोऊ को तो अखीर समै भौत बुरौ रओ। ‘दस्तक’ जैसी फिलिम से हिट भईं औ फेर मुतकी फिल्में करीं बा रेहाना सुल्तान बड़े बुरए दिन गुजार रईं। पर की साल खबर छपी रई के उनके दिल को कोनऊं इलाज होने रओ मगर उनके पास पइसा ना हतो, सो तब जावेद अख्तर ने उनकी पइसा से मदद करी। ने तो एक टेम रओ के उनकी फिलम के लाने लोगन की लेन लगी रैत्ती। औ कओ जात आए के अपने टेम की सबसे बड़ी हिरोईन मीना कुमारी सोई बड़ी गरीबी में मरीं। जोन अस्पताल में बे मरीं उते को बिल देबे जोग पइसा उनके पास ने हतो।’’ मैंने भैयाजी से कई।

‘‘हऔ जा तो हमने सोई पढ़ो रओ। औ एक हती हिरोइन विम्मी। बे ‘हमराज’ फिलम में सुनीलदत्त के संगे आई रईं। औ बी फिलम करी उन्ने। उनकी बी दसा भौत खराब रई। उनके मरे के बाद तो उनकी ठठरी खों हाथ-ठिलिया पे धर के ले जाओ गओ रओ। जब के बे सुपरहिट हिरोइन रईं। ऐसई सी दसा परवीन बाबी की भई रई। बे इत्ती अकेली पड़ गई रईं के उनकी लहास तीन दिनां तक उनके घरे डरी रई औ कोनऊं ने खबरई ने लई।’’ भैयाजी ने बताई।

‘‘जा सब सुन के अच्छो सो नई लगत। काए से के जो का आए के जब कोऊ की मार्केट वैल्यू रए सो ऊको देवी-देवता बना के पूजो औ जबे मार्केट वैल्यू ने रए तो ऊकी खबरई ने लेओ, जो का आए?।’’ मैंने कई।

‘‘जे ई तो दुनिया आए बिन्ना! चढ़त सूरज के संगे सबई ठाड़े रैत आएं औ डूबत सूरज के संगे कोऊ रैनो नईं चात।’’ भैयाजी बोले।

‘‘बड़े पते की बात करी आपने।’’ मैंने भैयाजी से कई।

‘‘जेई सो हम तुमाई भौजी खों समझा रए के धर्मेन्द्र जू अच्छे से रए औ अच्छे से गए। उनके चाउने वारे उने बरहमेस चाऊत रए। जा भौत बड़ी बात आए। औ आगे बी उने कोऊ ने भूल पाहे। सो इत्तो गम्म ने करो। बाकी जे हम मानत आएं के गम्म तो होत आए। हमें तुमें, सबई खों गम्म हो रओ। बाकी हम जे सोई चात आएं के औ हीरो हिराईनों खों सोई पब्लिक को ऐसई प्यार मिलो चाइए। जा भौत बड़ी औ भाग वारी बात आए।’’ भैयाजी बोले।

‘‘हऔ हम सोई समझ रए, मगर का करें जी दुखी सो हो गओ आए।’’भौजी बोलीं।

‘‘तुम तो बिहार में भए चुनाव औ ऊके बाद बोले जा रए बोलन पे ध्यान देओ, तुमाए सबरे दुख दूर हो जैहें। कओ गुस्सा में तुम फनफनान लगो।’’ भैयाजी हंसत भए बोले। 

‘बोलन की ने कओ, ऊमें तो अत्तें मचीं। जी के मन में जो आ रओ, बा बोई अल्ल-गल्ल बोलत फिर रओ।’’ भौजी बोलीें।

भौजी को मूड तनक ठीक सो दिखान लगो। बे सोई मोंमफली उठा के चटकान लगीं।     

बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जोन में कछू अच्छो करबे की दम होत आए बे कछू जने बरहमेस दिलों में रैत आएं। सांची कई के नईं?

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Saturday, November 29, 2025

शून्यकाल | डॉ. हरीसिंह गौर : जिन्होंने स्वप्न देखा और उसे पूरा किया | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | डॉ. हरीसिंह गौर : जिन्होंने स्वप्न देखा और उसे पूरा किया | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल : डॉ. हरीसिंह गौर : जिन्होंने स्वप्न देखा और उसे पूरा किया
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह 
                                                                                   यूं तो हर व्यक्ति कोई न कोई स्वप्न देखता है और चाहता है कि उसका सपना पूरा हो। लेकिन सिर्फ़ चाहने से सपने पूरे नहीं होते। अपना सपना पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास करना भी जरूरी होता है। बुंदेली सपूत डॉ. हरीसिंह गौर ने भी एक स्वप्न देखा और उसे पूरा करने के लिए अपना तन, मन, धन सब न्योछावर कर दिया। यूं भी उनका स्वप्न एक ऐसा लोकव्यापी स्वप्न था जो सबकी आंखों में बसा हुआ था। बस, उसे साकार करना डॉ. हरीसिंह गौर जैसे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति के वश में ही था।

      डॉ. हरीसिंह गौर ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, महान दानी, देशभक्त थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। वह स्वप्न था बुंदेलखण्ड को शिक्षा का केन्द्र बनाना। वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की भांति एक विश्वविद्यालय की स्थापना बुंदेलखण्ड में करना चाहते थे। जिस समय वे बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा केन्द्र का सपना देखा करते थे, उन दिनों बुंदेलखण्ड विकट दौर से गुज़र रहा था। गौरवपूर्ण इतिहास के धनी बुंदेलखण्ड के पास आत्मसम्मान और गौरव से भरे ऐतिहासिक पन्ने तो थे किन्तु धन का अभाव था। अंग्रेज सरकार ने बुंदेलखण्ड को अपने लाभ के लिए छावनियों के उपयुक्त तो समझा लेकिन यह कभी नहीं चाहा कि यहां औद्योगिक विकास हो जबकि यहां आकूत प्रकृतिक संपदा मौजूद थी। ठग और पिण्डारियों के आतंक को कुचलने वाले अंग्रेज कभी इस बात को महसूस नहीं कर सके कि वह अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता ही थी जिसने ठग और पिण्डारियों को जन्म दिया। अंग्रेजों ने कभी यह नहीं सोचा कि बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा का कोई केन्द्र भी स्थापित किया जा सकता है जिसमें पढ़-लिख कर बुंदेली युवा आमदनी के नए रास्ते पा सकता है।

अनेक युवा नहीं जानते थे कि स्कूल की चार कक्षाएं पढ़ लेने के बाद आगे क्या कर सकते हैं? किसी कार्यालय में चपरासी बनना अथवा किसी प्रायमरी स्कूल में शिक्षक बनना सबकी चाहत नहीं हो सकती थी। अपने जीवन को सफल बनाते हुए दूसरों से आगे कौन नहीं बढ़ना चाहता है? हर व्यक्ति एक सफल व्यक्ति का जीवन जीना चाहता है। डॉ. हरीसिंह गौर ने इस चाहत को समझा और उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वे बुंदेलखण्ड में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करेंगे जहां दुनिया भर से विद्वान आ कर शिक्षा देंगे और बुंदेलखण्ड के युवाओं को विश्व के शैक्षिकमंच तक ले जाएंगे। उनका यह सपना विस्तृत आकार लिए हुए था। उसमें बुंदेली युवाओं के साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले युवाओं और विदेशी युवाओं तक के लिए जगह थी। बल्कि वे विश्व के विभन्न क्षेत्रों के युवाओं में परस्पर संवाद और मेलजोल को ज्ञान के प्रवाह का एक अच्छा माध्यम मानते थे।

    डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना ‘सागर विश्वविद्यालय’ के नाम से डॉ. हरीसिंह गौर ने की थी। परतंत्र देश में अपनी इच्छानुसार कोई शिक्षाकेन्द्र स्थापित करना आसान नहीं था। डॉ. हरीसिंह गौर ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी इच्छा प्रकट की। ब्रिटिश सरकार को विश्वविद्यालय स्थापित किए जाने की अनुमति देने के लिए मनाना टेढ़ीखीर था। अंग्रेज तो यही सोचते थे कि अधिक पढ़ा-लिखा भारतीय उनके लिए कभी भी सिरदर्द बन सकता है। किन्तु एक सकारात्मक स्थिति यह थी कि उस समय तक ब्रिटिश सरकार को इतना तो समझ में आने लगा था कि अब भारत से उनका दाना-पानी उठने वाला है। एक तो द्वितीय विश्वयुद्ध के वे दुष्परिणाम जिन्हें झेलना ब्रिटेन की नियति बन चुका था और दूसरे भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बढ़ते हुए आंदोलन। अंततः डॉ. हरीसिंह गौर अपने स्वप्न को साकार करने की दिशा में एक क़दम आगे बढ़े और उन्हें ब्रिटिश सरकार से अनुमति मिल गई। लेकिन शर्त यह थी कि सरकार उस उच्चशिक्षा केन्द्र की स्थापना का पूरा खर्च नहीं उठाएगी। डॉ. हरीसिंह गौर चाहते तो देश के उन पूंजीपतियों से धन हासिल कर सकते थे जो उनकी विद्वता के कायल थे। लेकिन उन्होंने किसी से धन मांगने के बदले स्वयं एक उदाहरण प्रस्तुत करना उचित समझा और अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की। आगे चल कर वसीयत द्वारा अपनी पैतृक संपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया।
डॉ. हरीसिंह गौर ने ‘सागर विश्वविद्यालय’ के स्थापना करके ही अपने दायित्वों की समाप्त नहीं समझ लिया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इसके विकास के लिए संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसे सहेजने में अपना पूरा श्रम अर्पित किया। अपनी स्थापना के समय यह भारत का 18वां विश्वविद्यालय था। सन 1983 में इसका नाम डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। 27 मार्च 2008 से इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की श्रेणी प्रदान की गई है। विंध्याचल पर्वत शृंखला के एक हिस्से पथरिया हिल्स पर स्थित सागर विश्वविद्यालय का परिसर देश के सबसे सुंदर परिसरों में से एक है। यह करीब 803.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। विश्वविद्यालय परिसर में प्रशासनिक कार्यालय, विश्वविद्यालय शिक्षण विभागों के संकुल, ब्वायज़ हॉस्टल, गर्ल्स हॉस्टल, स्पोर्ट्स कांप्लैक्स तथा कर्मचारियों एवं अधिकारियों के आवास हैं। डॉ. सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा का।

         डॉ. सर हरीसिंह गौर का जन्म महाकवि पद्माकर की नगरी सागर में 26 नवम्बर 1870 को एक निर्धन परिवार में हुआ था। डॉ. गौड़ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। प्राइमरी के बाद इन्होनें दो वर्ष मेँ ही आठवीं की परीक्षा पास कर ली जिसके कारण इन्हेँ सरकार से 2 रुपये की छात्रवृति मिली जिसके बल पर ये जबलपुर के शासकीय हाई स्कूल गये। लेकिन मैट्रिक में ये फेल हो गये जिसका कारण था एक अनावश्यक मुकदमा। इस कारण इन्हें वापिस सागर आना पड़ा दो साल तक काम के लिये भटकते रहे फिर जबलपुर अपने भाई के पास गये जिन्होने इन्हें फिर से पढ़ने के लिये प्रेरित किया।
डॉ. गौर फिर मैट्रिक की परीक्षा में बैठे और इस बार ना केवल स्कूल मेँ बल्कि पूरे प्रान्त में प्रथम आये। इन्हें 50 रुपये नगद एक चांदी की घड़ी एवं बीस रूपये की छात्रवृति मिली। मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। पूरे कॉलेज में अंग्रेजी एव इतिहास मेँ ऑनर्स करने वाले ये एकमात्र छात्र थे। उन्होंने छात्रवृत्ति के सहारे अपनी पढ़ाई का क्रम जारी रखा। सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् 1892 में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर 1896 में एम.ए., सन 1902 में एल. एल. एम. और अन्ततः सन 1908 में एल. एल. डी. किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी की पढ़ाई करते थे। उन्होंने अंतर- विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। 

डॉ. सर हरीसिंह गौर ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह ‘‘दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स’’ और ‘‘रेमंड टाइम’’ की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।

सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में अतिरिक्त सहायक आयुक्त के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल मे वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। 1902 में उनकी ‘‘द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया’’ पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष 1909 में ‘‘दी पेनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया (वाल्यूम २)’’ प्रकाशित हुई। प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके इस ग्रंथ की प्रशंसा की थी। इसके अतिरिक्त डॉ. गौर ने बौद्ध धर्म पर ‘‘दी स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म’’ नामक पुस्तक लिखी। उस समय तक डॉ. हरीसिंह गौर की प्रसिद्धि चतुर्दिक फैल चुकी थी। उन्हें ‘सर’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था।
डॉ. हरीसिंह गौर ने 20 वर्ष तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन सन 1920 में महात्मा गांधी से मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे 1935 तक विधान परिषद् के सदस्य रहे। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। 25 दिसम्बर 1949 को डॉ. हरीसिंह गौर का निधन हुआ।

डॉ. गौर के जन्म के समय किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि गरीबी में जन्मा बालक एक दिन पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा और अनेक निर्धन छात्रों के लिए उच्चशिक्षा के द्वार खोल देगा। डॉ. गौर के जीवन के अनेक ऐसे पक्ष हैं युवाओं को सफलता से जीने का रास्ता दिखा कसते हैं। स्मरणीय हैं ये पंक्तियां जो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने डॉ. हरीसिंह गौर की प्रशंसा में लिखी थीं -
‘‘सरस्वती-लक्ष्मी दोनों ने दिया तुम्हें सादर जय-पत्र,
साक्षी है हरीसिंह ! तुम्हारा ज्ञानदान का अक्षय सत्र! “
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Wednesday, November 26, 2025

चर्चा प्लस | अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 
चर्चा प्लस
अपनी समसामयिक महत्ता एवं प्रासंगिकता है भागवत कथा आयोजनों की

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
                                                                       इन दिनों भागवत कथा का आयोजन लगभग हर गांव, शहर, कस्बे में होता रहता है। भागवत कथा सुनाने के लिए कथा वाचकों को आमंत्रित किया जाता है। सामर्थ्य के अनुसार प्रसिद्धिवान कथावाचक बुलाए जाने का चलन है। जिस स्थान पर कथा होती है, वहां से कई-कई किलोमीटर दूर से श्रवणकर्ता भागवत कथा सुनने आते हैं। वे श्री कृष्ण की कथाएं सुनते हैं। कथावाचक द्वारा गाए जाने वाले भक्तिमय गानों पर झूमते-थिरकते हैं। हमारी सांस्कृतिक परंपराओं के अनुरूप होता है उत्सवी वातावरण। किन्तु धर्म का मर्म कितने लोग समझ पाते हैं यह कहना कठिन है।   

अभी हाल ही में मेरे शहर में भागवत कथा का बहुत बड़ा आयोजन हुआ। जिसमें सुप्रसिद्ध कथावाचक ने सात दिन तक कथा सुनाई। अपार जनसमूह उमड़ा रहा। इसी प्रकार के पिछले वर्ष के आयोजन में मैं भी कथा सुनने तथा उत्सवी वातावरण को महसूस करने कथा-स्थल पर गई थी। इस बार कतिपय कारणोंवश जाना नहीं हो सका। मेरे एक परिचित को जब यह ज्ञात हुआ कि मैं नहीं जा पाई तो उन्होंने भारी शोक प्रकट किया। उन्होंने इस प्रकार मुझे जताने का प्रसास किया कि मैंने जीवन का एक बहुत सुनहरा अवसर गवां दिया है। अफसोस मुझे भी था किन्तु जीवन के अन्य जरूरी काम भी छोड़े नहीं जा सकते हैं। फिर वह आयोजन स्थल मेरे घर से बहुत दूर था, शहर के दूसरे छोर पर। मैंने जब उन सज्जन से ढेर सारे उलाहने सुन लिए तब उकता कर मैंने उनसे पूछा कि क्या प्रहलाद चरित्र भी सुनाया गया था? यदि सुनाया गया था तो किस दिन? उनका उत्तर था, ‘‘अब ये तो याद नहीं है। बाकी, कथावाचक बड़े सुंदर ढंग से कथा कह रहे थे।’’
‘‘हर कथावाचक सुंदर ढंग से कथा कहते हैं, फिर ये तो बहुत प्रसिद्ध कथावाचक थे। मैं तो यह जानना चाहती हूं कि आपने क्या सुना और क्या गुना?’’ मैंने सीधे-सीधे पूछा।
‘‘अब हम सुनबे खों गए रहे, रटबे खों थोड़ी?’’ वे सज्जन खिसिया कर बुंदेली में बोले।
मैंने इसके आगे उनसे कुछ नहीं कहा। मुझे लगा कि चलो कथा न सही उत्सव का सुख तो इन्होंने पा ही लिया है, यही बहुत है। फिर मुझ लगा कि जो भी जन भागवत कथा सुनने जाते हैं क्या वे भागवत कथा का सही अर्थ समझ पाते हैं? या भक्ति के वातावरण में मात्र डुबकी लगा कर चले आते हैं? आखिर क्या है भागवत कथा?
वस्तुतः भागवत कथा, श्रीमद्भागवत पुराण पर आधारित 7 दिवसीय एक धार्मिक आयोजन है, जिसमें एक कथावाचक भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं और शिक्षाओं को सुनाते हैं। इसका मुख्य विषय भक्ति योग है, जिसमें भगवान कृष्ण को सर्वोपरि देव माना गया है। कथा के माध्यम से ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का संदेश दिया जाता है। यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का मार्ग दर्शाती है, जिसके श्रवण से आध्यात्मिक विकास और मन की शांति प्राप्त होती है। इस आयोजन का उद्देश्य भक्तों को भगवान कृष्ण के जीवन से जोड़ना और उन्हें जीवन के कष्टों से मुक्ति दिलाना है। यह आध्यात्मिक उत्थान और मन की शांति लाती है। इसे धार्मिक दृष्टि से कलियुग में पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का एक सरल साधन माना जाता है। यह भगवान के प्रति भक्ति को गहरा करती है और जीवन के उद्देश्य की समझ बढ़ाती है।
श्रवण मात्र से ही पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इससे भी बढ़ कर यह जीवन जीने की एक अद्भुत शैली सिखाती है। बशर्ते कोई इसके वास्तविक मर्म को समझ ले।
पुराण का अर्थ है - जो प्राचीन होते हुए भी सदा नवीन है अर्थात “पुरा अपि नवं इति प्रमाणं”। पुराण में 5 लक्षण होते हैं परन्तु श्रीमद्भागवत पुराण नहीं, अपितुय महापुराण है, जो सर्गादि 10 लक्षणों से युक्त है। इसमें गायत्री का महाभाष्य, जिसमें वृत्रासुर के वध की कथा है ।
यत्राधिक्षुत्र गायत्रीं वर्ण्यते धर्म विस्तर।
वृत्रासुर वधोपेतं तदवै भागवतं विदुः।।
इसमें जीवन जीने की एक अद्धभुत शैली है। यह महापुराण विशिष्ट है। श्रीमद्भागवत महापुराण  को भगवान श्रीकृष्ण का शब्दमय विग्रह, आध्यात्मिक रस की अलौकिक सरिता, असंतोष जीवन को शान्ति प्रदान करने वाला दिव्य संदेश तथा नर को नारायण बनाने वाली दिव्य चेतना से युक्त माना गया है । इसमें 12 स्कन्ध एवं 335 अध्याय हैं। इसे श्रीमद्भागवतं या केवल भागवतं भी कहा जाता है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का यह महान ग्रन्थ है। श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान नारायण के अवतारों का ही वर्णन है। 
नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने श्रीमद्भागवत महापुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण के चैबीस अवतारों की कथा कही है। श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक रूप का ही वर्णन किया गया है। यह माना जाता है कि इसके पठन एवं श्रवण से भोग और मोक्ष तो सुलभ हो ही जाते हैं, मन शुद्ध होता है और चेतना जाग्रत होती है। 
एक कथा के अनुसार एक बार भगवान् श्रीकृष्ण के सखा उद्धवजी ने श्री कृष्ण से एक प्रश्न किया कि ‘‘हे श्रीकृष्ण! जब आप सदेह अपने धाम चले जायेंगे, तब आपके भक्त इस धरती पर कैसे रहेंगे? वे किसकी उपासना करेंगे?’’ इस पर श्री कृष्ण ने उत्तर दिया कि ‘‘निर्गुण की उपासना करेंगे।’’ तब उद्धव ने पूछा,‘‘ भगवान! निर्गुण की उपासना में बहुत कष्ट है, अतः हे भगवन ! इस विषय में भली प्रकार से आप विचार करें।’’
मान्यता है कि उद्धव की बात का स्मरण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य देह के तेज को श्रीमद्भागवत महापुराण के ग्रन्थ में प्रवेश कर प्रतिष्ठित दिया और ‘‘पद्मपुराणान्तर्गत श्रीमद्भागवत माहात्म्य’’ के अनुसार उसी दिन से श्रीमद्भागवत महापुराण भगवान श्री कृष्ण का ही शरीर माना जाता है-
स्वकीयं यद्भवेत्तेजसतच्च भागवतेदधात् ।
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद्भागवतार्णवम।।
सात दिन चलने वाली भागवत कथा में प्रत्येक दिन के लिए विषय निर्धारित रहते हैं।-
प्रथम दिन - श्रीगणेश पूजन, श्रीमद्भागवत माहात्म्य, मंगलाचरण, भीष्म-पाण्डवादि चरित्र, परीक्षित जन्म एवं श्री शुकदेव प्राकट्य की कथाएं।
दूसरे दिन - ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, भगवान् विराट का प्राकट्य, विदुर-मैत्रेय संवाद, कपिलोपाख्यान
तीसरे दिन -सती चरित्र, ध्रुव चरित्र, जड़भरत व प्रह्लाद चरित्र की कथाएं।
चौथे दिन  - गजेंद्र मोक्ष, समुद्र मंथन, वामन अवतार, श्रीराम चरित्र एवं श्रीकृष्ण प्राकट्योत्सव
पांचवें दिन - श्रीकृष्ण बाल लीलायें, श्रीगोवर्धन पूजा एवं छप्पनभोग का आनन्द।
छठें दिन  - महारासलीला, श्रीकृष्ण मथुरा गमन, गोपी-उद्धव संवाद एवं रुक्मिणी मंगल।
सातवें दिन - सुदामा चरित्र, श्रीशुकदेव विदाई, व्यास पूजन, कथा विश्राम एवं हवन पूर्णाहुति। 
  - इस प्रकार सात दिनों के लिए कथाओं तथा अनुष्ठानों का निर्धारण किया जाता है। कथावाचक कथाओं की निरंतरा से उत्पन्न होने वाली बोरियत को दूर रखने के लिए भक्ति गीतों का सहारा लेते हैं जिससे रोचकता बनी रहती है तथा श्रवणकर्ताओं में उत्साह बना रहता है।
भागवत कथा की अपनी समसामयिक प्रासंगिकता है जिसे स्वीकार करना अनेक प्रगतिवादी व्यक्तियों के लिए कठिन होगा किन्तु यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो साहित्य चाहे धार्मिक हो अथवा सामाजिक, पुरातन हो अथवा अधुनातन, दोनों की अपनी-अपनी मूल्यवत्ता होती है। जिसे सुन कर, पढ़ कर मन शांति, आनन्द एवं सदमार्ग को चुने जाते हैं जो श्रवणीय ही होती हैं। आज जब समाज से नैतिकता घटती जा रही है, ऐसे कठिन समय में यदि एक कथावाचक भागवत कथा के द्वारा  नैतिक और व्यावहारिक मार्गदर्शन देता है तो, भागवत कथा की उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। कथावाचक समकालीन मुद्दों को सामने रखकर प्राचीन शिक्षाओं को प्रासंगिक बनाते हैं, जिससे श्रोता अपने जीवन में समानताएं खोज सकते हैं। भागवत की शिक्षाएं इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सिखाती हैं तथा स्वार्थरहित होकर करने कर्तव्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। भागवत कथा मानसिक शांति प्रदान करती है। कथा परिसर का उत्सवी वातावरण नैराश्य भरे जीवन में उत्साह का संचार करता है। जीवन के प्रति राग उत्पन्न करता है तथा अतिशयता की स्थिति में बुरे कर्मों के प्रति वैराग्य भी उत्पन्न करता है। ऐसे आयोजन आज के युग में भौतिकवाद और आध्यात्मिक विवाद के दौर में उचित विचार-विमर्श की क्षमता जगाते हैं। भागवत कथाएं कभी भी धार्मिक कट्टरता को स्थान नहीं देती हैं वरन उनका आयोजन समरसता का वातावरण गढ़ता है, बशर्ते कट्टरता अथवा अतिप्रगतिवाद के चश्में को परे रख कर इन आयोजनों की ओर देखा जाए। इन्हें सुनने वाले भी यदि मन लगा कर कथाओं का मर्म आत्मसात करें तो जीवन सरस और सार्थक प्रतीत होगा।      
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(दैनिक, सागर दिनकर में 26.11.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, November 25, 2025

पुस्तक समीक्षा | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - रश्मियों का अपहरण
कवि            - ज.ल. राठौर ‘प्रभाकर’
प्रकाशक     - शिवराज प्रकाशन, म.न. 1/1898, गीता गली, मानसरोवर पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य       - 395/-
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हिन्दी काव्य ने अपनी परम्पराओं को सहेजते हुए सदा नूतनता को स्वीकार किया है। यही कारण है कि हिन्दी काव्य आज भी निरन्तर समृद्ध होता जा रहा हैं। हिन्दी में गजल के प्रभाव से उर्दू शब्दों का समावेश अधिक हो गया था किन्तु सजल ने हिन्दी काव्य को हिन्दी भाषा के वास्तविक स्वरूप से पुनः जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। जहां तक हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ भाषाई सौंदर्य का प्रश्न है तो व्यक्तिगत रूप से मेरा यह  मानना रहा है कि यदि हिन्दी के भाषाई सौंदर्य से साक्षात्कार करना है तो जयशंकर प्रसाद के काव्य को पढ़ना चाहिए। यह इसलिए कि प्रसाद ने संस्कृतनिष्ठ परिष्कृत हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया। दैनिक संवाद में भले ही अंग्रेजी और उर्दू के शब्द सहज रूप से आ जाते हैं किन्तु जब बात साहित्य की हो तो भाषाई शुद्धता का आग्रह अनुचित नहीं है। हर भाषा का अपना एक सौंदर्य होता है और यह सौंदर्य तभी पूर्णरूप से प्रकट होता है जब उसमें मौलकिता हो, शुद्धता हो। हिन्दी की नई काव्य विधा सजल ने इस आग्रह को दृढ़ता से स्थापना दी है। यद्यपि अब सजल विधा नूतनता के प्रथम सोपान पर नहीं है, वरन यह कई सोपान चढ़ती हुई अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है। इसका श्रेय है डाॅ. अनिल गहलौत जी को।
रोचक तथ्य यह है कि सजल विधा अधुनातन तकनीक के गवाक्ष से हो कर साहित्य के प्रांगण में पहुंची है। इस संबंध में डाॅ. अनिल गहलौत ने अपनी पुस्तक ‘‘सजल और सजल का सृजन विज्ञान’’ में लिखा है कि -‘‘हमारे मोबाइल के वाट्स एप ग्रुप ‘‘गजल है जिंदगी’’ के साथियों से हमने सन 2016 में हिंदी को बचाने की अपनी इस चिंता को साझा किया। हमने कहा कि क्यों न गजल के समकक्ष हम हिंदी की एक अपनी विधा लाएँ जिसकी भाषा और व्याकरण के तथा शिल्प के अपने मानक हों। हमारे ग्रुप में अनेक हिंदी के विद्वान कवि, गजलकार, प्रोफेसर, समीक्षक और समाजसेवी जुड़े हुए थे। एक माह के सघन विचार-मंथन के उपरांत सहमति बनी। सजल विधा के नाम पर तथा सजल के अंग-उपांगों के हिंदी नामों पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। सजल की भाषा, व्याकरण और शिल्प के मानक भी सुनिश्चित किए गए। सजल की लय का आधार हिंदी छंदों की लय को मान्य किया गया। उसके उपरांत 5 सितंबर 2016 को उस ग्रुप पर सजल विधा के हिंदी साहित्य में पदार्पण की घोषणा की गई और ग्रुप का नाम बदलकर ‘‘सजल सर्जना’’ कर दिया गया। इस विमर्श में हमारे सहयोग और समर्थन में, श्रम और समय देकर सजल विधा को रूपायित करने में, प्रारंभ में जिनकी प्रमुख भूमिका रही उनके नाम हैं- वाराणसी के डॉ.चन्द्रभाल ‘‘सुकुमार’’, डॉ.रामसनेहीलाल शर्मा ‘‘यायावर’’, श्री विजय राठौर, श्रीमती रेखा लोढ़ा ‘‘स्मित’’, श्री विजय बागरी ‘‘विजय’’, डॉ० मोरमुकुट शर्मा, श्री संतोष कुमार सिंह, डॉ.बी.के.सिंह, डॉ० रामप्रकाश ‘‘पथिक’’, डॉ० राकेश सक्सेना, श्री रामवीर सिंह, श्री ईश्वरी प्रसाद यादव, श्री महेश कुमार शर्मा, श्रीमती कृष्णा राजपूत, एड. हरवेन्द्र सिंह गौर तथा डॉ.एल.एस.आचार्य आदि। (पृष्ठ 42-43)
ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजलों पर चर्चा करने से पूर्व सजल के उद्भव पर दृष्टिपात कर लेना मुझे इसलिए उचित लगा कि यदि इस संग्रह के जो पाठक सजल विधा से भली-भांति परिचित न हों, उन्हें भी इस नूतन विधा के उद्भव की एक झलक प्राप्त हो जाए। इस विधा को अस्तित्व में आए दस वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। यह सुखद है। किसी भी विधा का विकास तभी संभव होता है जब उसके प्रति साहित्य जगत में विश्वास हो और उसका स्वागत किया जा रहा हो। सजल विधा से गहराई से जुड़े सागर, मध्यप्रदेश निवासी ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी में सजल को ले कर मैंने सदैव असीम उत्साह देखा है। वे सजल विधा के प्रति आश्वस्त हैं, आस्थावान हैं तथा सतत सृजनशील रहते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के इस सजल संग्रह में उनके द्वारा संग्रहीत सजलों को पढ़ते समय उनके वैचारिक एवं भावनात्मक विस्तार से भली-भांति परिचय हुआ जा सकता है। ‘प्रभाकर’’ जी अपने सजलों में शांति, अहिंसा, प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्यता आदि विविध बिन्दुओं पर चिंन्तन करते दिखाई देते हैं। वर्तमान में सबसे अधिक पीड़ादायक हैं आतंकी गतिविधियां जो सम्पूर्ण मानवता पर प्रहार कर के प्रत्येक मानस को विचलित कर देती हैं। इस संदर्भ में ‘प्रभाकर’’ जी के एक सजल की कुछ पंक्तियां देखिए-
आँधी करने लगी आक्रमण ।
दीप-शिखा संकट में हर क्षण।
बाढ़ विकट उन्मादी आई ।
डूबा शांति-क्षेत्र का कण-कण।
‘‘प्रभाकर’’ जी स्थिति की विषमताओं का अवलोकन कर के ठहर नहीं जाते हैं वरन वे उन कारणों पर भी चिंतन करते हैं जो समस्त अव्यवस्था के मूल में है। वे लिखते हैं-
तिमिरण इतना पसरा क्यों है।
सूरज अभी न सँवरा क्यों है ।
तुम करते विघटन की बातें 
मन में इतना कचरा क्यों है ।
कवि को पता है कि अव्यवस्थाओं का कारण छल, छद्म और भ्रष्टाचार है। इसीलिए कवि के हृदय में क्रोध भी उमड़ता है और वह अपनी लेखनी के द्वारा सब कुछ जला कर भस्म कर देना चाहता है, जिससे एक ऐसे संसार की रचना हो सके जिसमें सुख और शांति का वातावरण हो। इसीलिए कवि ‘‘प्रभाकर’’ उपचार की बात भी लिखते हैं -
आग लिखता हूँ सदा, अंगार लिखता हूँ।
ओज से परितप्त कर, ललकार लिखता हूँ।
अंधकारों का नहीं, साम्राज्य बढ़ पाए।
रश्मियों की मैं सतत, बौछार लिखता हूँ।
कवि इस बात से व्यथित भी हो उठता है कि अपात्र सुपात्र बने घूम रहे हैं तथा अयोग्य व्यक्ति छद्म के सहारे योग्यता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हैं। भाषाई संदर्भ में वे पाते हैं कि स्वयं हिन्दी भाषी हिन्दी की अवहेलना कर रहे हैं। यह सब कवि के लिए दुखद है, असहनीय है -
कैसा हुआ जगत का हाल !
चलता काग हंस की चाल !!
सूखा कहीं, कहीं है बाढ़ ।
मौसम ने बदले सुर-ताल ।।
ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी ने अतीत के संदर्भों के आधार पर वर्तमान का आकलन भी किया है। जैसे वे अपने एक सजल में कुन्ती पुत्र कर्ण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
जन्म से वह कर्ण कौन्तेय था।
नियति ने बना दिया. राधेय।।
समय को समझ सका है कौन ?
समय है अटल, सचल, अविजेय ।।
राष्ट्रहित-चिंतन से हम दूर ।
निजी हित-पोषण पहला ध्येय ।।
जब निज हित पोषण की भावना प्रबल हो जाती है तो प्रकृति तक का हनन होने लगता है। वनों का अवैध निर्बाध काटा जाना, पर्वतों को खण्डित किया जाना, बढ़ते प्रदूषण को अनदेखा किया जाना कवि के हृदय को सालता है। कवि ‘‘प्रभाकर’’ की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
धरती पर बढ़ रही घुटन है।
सहमा-सहमा आज गगन है।।
सिसक रही हैं सबकी साँसें ।
बहका-बहका रुग्ण पवन है।।
देखा जाए तो कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ अपने सजलों के माध्यम से जहां मार्ग के कंटकों के प्रति ध्यान आकर्षित करते हैं तो वहीं वे कंटकों के उन्मूलन तथा पीड़ा का  निदान और उपचार भी सुझाते हैं। यह कवि के भीतर उपस्थित सकारात्मकता की द्योतक है। यूं भी प्रत्येक सृजनकार को आशावादी होना ही चाहिए। निराशा का उच्छेदन आशा से ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ‘‘प्रभाकर के सजल हिन्दी काव्य की वैचारिकी को परंपरागत रूप से समृद्ध करते हैं। ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजल शिल्प की दृष्टि से डाॅ. अनिल गहलौत द्वारा स्थापित किए गए सजल के सृजन-विज्ञान के मानक पर भी खरे उतरते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के सजलों का भाषाई सौंदर्य काव्यात्म तत्वों का रसास्वादन कराता है तथा विन्यास सजल विधा में उनकी पकड़ को दर्शाता है। यह सजल संग्रह पाठकों को काव्य की एक नई विधा का सुरुचिपूर्ण आस्वाद कराएगा।        
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Saturday, November 22, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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ब्याओ में ने करियो अन्न की बरबादी 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
     ब्याओ को सीजन सुरू होतई साथ न्योते सोई आन लगत आएं। कछू जने जेई लाने परखे रैत आएं के कबे न्योतो आए औ बे ब्यौहार निभाबे के लाने पौंचे। फेर अकेले ब्यौहार निभाबे की बात नोंई रैत। न्योते में जीमबे मने ‘स्वरुचि भोज’ की ब्यबस्था सोई रैत आए। पैले तो का होत्तो के पंगत लगत्ती। बराती, घराती, मैंमान हरें सबई पंगत में जीमत्ते। परसबे वारे पूंछ-पूंछ के बड़े प्रेम से सबरे ब्यंजन परसत जात्ते। ने कम, ने ज्यादा। मनो कोनऊं खों अफरत लौं खाने होय सो बा तब लौं खा सकत्तो जब लौं अफर ने जाए। बाकी एक नियम रैत्तो के पत्तल पे जूठो ने बचो चाइए। ऊको अन्न को अनादर मानो जात्तो। सो, ईसे जूठो अन्न न बचत्तो औ ने फिंकत्तो। 
        अब आजकाल का आए के बिदेसन की नकल में चल गओ आए बुफे। कायदों ऊको बी जेई आए के जित्तो जो खाने हो उत्तई अपनी प्लेट पे लेओ। मनो होत का आए के स्टालन पे मची रैत आए गदर सी। सो, सबई जने सोचत आएं के जित्ती बने प्लेट भर लेओ औ कऊं पसर के जीमों जाए। अब कोऊ ब्यंजन अच्छो लगत आए कोऊ नईं लगत। कोऊ पूरो खा लेत, तो कोऊ की प्लेट में मुतको बचो रै जात आए। बा जूठो कोऊ के काम को नईं रैत। जो बनाबे वारे या फेर परसत वारे बासन में साजो खाना बचे तो बा कोऊ गरीब-गुरबा, ने तो कोनऊं संस्था में भेजबे के काम आ जात आए। सो, अब कोनऊं ब्याओ के न्योतो में जाओ सो, खयाल राखियो के खाना की बरबादी ने होने पाए। जी भर के खाइयो, मनो प्लेट में उत्तई लेत जाइयो जित्ते में फिंके ना। काए से के अन्न से बढ़ के कछू नईंयां।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, November 21, 2025

चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 


चर्चा प्लस
धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
                
  आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।


हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है?  भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।  
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है?
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे?
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की।
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे।        
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(दैनिक, सागर दिनकर में 21.11.2025 को प्रकाशित) 
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