चर्चा प्लस
सुगठित पारिवारिक संरचना थी प्राचीन भारत में
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है इसकी परिवार संरचना। परिवार वह इकाई थी जिसमें रक्तसंबंधियों का समूह अलिखित पारस्परिक दायित्वों एवं कर्तव्यों का निर्वाह करता था। सबके काम बंटे हुए थे। सब अपने हिससे के दायित्वों का निर्वहन कर परिवार को सुगठित बनाए रखता था। परिवार की यह संचरना अन्य संस्कृतियों में टूटती चली गई किन्तु भारतीय संस्कृति में यह परंपरा सदियों तक निर्बाध रूप से बहती रही। किन्तु आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव की बढ़त के कारण परिवार अर्थगामी हो गया है। जिस परिवार में प्रत्येक सदस्य धनार्जन कर रहा हो, वह सबसे सुखी और पूर्ण माना जाने लगा है। भले ही देखभाल के अभाव में बच्चे जुवेनाइल एक्ट में जेल जा रहे हों और वृद्धजन वृद्धाश्रम में जाने को विवश हो रहे हों। ऐसे में देखते हैं अपनी प्राचीन पारिवारिक संस्था का गठन।
प्राचीन काल में परिवार के सुगठित संगठन की भांति था जिसमें हर सदस्य के काम बंटे होते थे। ठीक किसी राज्य संरचना की भांति। राजा के स्थान पर पिता। सलाहकार के स्थान पर घर के बुजुर्ग, गहमंत्री के रूप में गृहवामिनी तथा परिवार की रक्षा का दायित्व परिपार के हर युवा पर होता था। परिवार का गठन वैवाहिक संबंधों पर आधारित होता था। विवाह को गृहस्थाश्रम की नींव कहा जाता था। विवाह के उपरान्त पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों पर परिवार की संरचना निर्भर रहती थी। ऋग्वैदिक काल में दाम्पत्य जीवन पति-पत्नी की बराबरी पर आधारित था। ऋग्वेद के विवाह सूक्त के अनुसार पत्नी का अपने देवर तथा सास-ससुर पर नियंत्रण रहता था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि वह अपने देवर अथवा सास-ससुर की अवहेलना करे। यह उसका कत्तर््ाव्य था कि वह अपने सास-ससुर की सेवा करे, उनका आदर करे तथा अपने देवर का ध्यान रखे। पत्नी को अपने पति के साथ सभी धार्मिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने का अधिकार था। पत्नी को यह स्वतंत्रता थी कि वह समारोहों में भाग ले सके तथा अन्य पुरुषों से वार्तालाप कर सके। ऋग्वैदिक काल में प्रायः एक-पत्नी प्रथा का चलन था। कन्याओं को स्वयं पति चुनने की छूट थी। अतः पत्नी को इच्छानुसार पति मिल सकता था।
बृहदारण्यक उपनिषद में परिवार की सुख-समृद्धि के लिए पति और पत्नी दोनों के समान महत्व को आवश्यक बताया गया है। गृह्य-सूत्रें में दाम्पत्य जीवन के बारे में विस्तुत जानकारी मिलती है। दाम्पत्य जीवन का प्रारम्भ ब्रह्मचर्य समाप्त होने के बाद विवाह होने के साथ प्रारम्भ हो जाता था। पति को सदा पत्नी और संतानों के साथ मेल-मिलाप का व्यवहार रखना चाहिए।
अंगुत्तर निकाय में योग्य पत्नी के गुणों का वर्णन किया गया है -
(1) पति की आज्ञाकारिणी। (2) पति से मधुर सम्भाषण करने वाली। (3) पति की इच्छानुसार कार्य करने वाली। (4) पति के गुरुजनों का सम्मान करने वाली। (5) उत्साहपूर्वक अतिथियों की सेवा करने वाली। (6) वस्त्रें की कताई-बुनाई में दक्ष। (7) गृहकार्य एवं गृहस्थी की देख-भाल में दक्ष। (8) दास-दासियों एवं अनुचरों का ध्यान रखने वाली। (9) पति द्वारा अर्जित किए जाने वाले धन को सहेज कर रखने वाली। (10) उदार की भावना वाली।
बौद्धकाल में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। मगध के राजा बिम्बसार की पांच सौ रानियां होने का उल्लेख मिलता है। बहुपत्नी विवाह की भांति बहुपति विवाह के उदाहरण भी मिलते हैं । कौशल देश की राजकुमारी कन्हा के द्वारा स्वयंवर में पांच पुरुषों को पतियों के रूप में स्वीकार करने की कथा कुणाल जातक में मिलती है। यद्यपि इस प्रथा का प्रचलन सीमित रहा। विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह का भी चलन था। पति के वर्षों तक घर न लौटने, युद्ध में मारे जाने अथ्वा अन्य किसी कारण से मुत्यु हो जाने पर उसकी विधवा पत्नी का विवाह उसके पति के भाई अथवा किसी अन्य पुरुष के साथ किया जा सकता था।
मौर्य काल में पतियों की स्वतंत्रता अपेक्षाकृत कम हो गई थी। विवाहिताओं को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी। उन्हें घर के अन्दर रहना पड़ता था। पत्नी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकती थी। कौटिल्य के अनुसार -‘यदि कोई पत्नी पति के कुल (घर)से बाहर जाए तो उसे छः पण का दण्ड दिया जाए। यदि पति के राकने पर भी वह घर से बाहर जाए तो उसे बारह पण का दण्ड दिया जाए।’ यदि पति किसी द्वेष भावना के कारण पत्नी को बाहर जाने से रोके तो पत्नी पर दण्ड विधान लागू नहीं होता था। मौर्यकाल में पर्दे की प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु विवाहिताओं का जीवन बंधनकारी अवश्य था।
पति का दायित्व था कि वह अपनी पत्नी की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखे। गर्भावस्था में उसे किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाए। मातृत्व धारण करने वाली पत्नी का सम्मान करे। यदि पत्नी कोई गलत कार्य करने को उद्यत हो तो उसे पहले समझाए। यदि समझाने पर भी वह न समझे तो उसे दण्डित करे। स्वयंवर के निर्णय को स्वीकार करते हुए पत्नी को स्वीकार करे तथा उसे प्रेम से रखे।
महाभारत में पांचों पांडवों का विवाह द्रौपदी से होने पर संयम पूर्वक पति का धर्म निभाने की कथा मिलती है। प्राचीन भारत में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी। इस प्रथा के अंतर्गत पत्नी निम्नलिखित परिस्थितियों में किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पन्न कर सकती थी -
(1) पति की मृत्य हो चुकी हो।
(2) चिरकाल के लिए विदेश चला गया हो तथा उसकी कोई सूचना न हो।
(3) पति संतान उत्पन्न करने के योग्य न हो।
उपरोक्त परिस्थितियों में पत्नी अपने देवर अथवा पति के सगोत्र किसी निकट संबंधी से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती थी। नियोग को भी विवाह के समान मान्यता प्राप्त थी तथा नियोग से उत्पन्न संतानों को वैध संतान माना जाता था। गुप्त काल तथा गुप्तोत्तर काल में दाम्पत्य जीवन पत्नी की समर्पित भावना पर आधारित हो गया था। मनुस्मृति के अनुसार -‘पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति की सेवा करे, उसके आदेशों का पालन करे तथा दासी की भांति उसके पैर दबाए और सेवा करे।’ इसके साथ ही पति के लिए यह अनिवार्य था कि - ‘ चाहे पति को सौ पाप करने पड़ें किन्तु वह पत्नी का भरण-पोषण करे।’
पत्नी को पति के अत्याचारों के विरुद्ध राजा से शिकायत करने का अधिकार था । यदि पति बिना किसी पर्याप्त कारण के पत्नी का त्याग कर दे तो उसे चोर की भांति दण्डित किए जाने का विधान था।
पुत्र की स्थिति -प्राचीन भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली थी। अनेक सदस्यों वाले परिवार में पिता परिवार का मुखिया होता था। पिता की अनुपस्थिति में बड़ा तथा बालिग पुत्र पिता के स्थान पर दायित्वों को निभाता था। गौतम सूत्र के अनुसार पिता की मृत्यु के बाद छोटे भाइयों को अपने बड़े भाई के नियंत्रण में रहते थे। छोटे भाई अपने बड़े भाई के प्रति उसी प्रकार आदन भावना रखते थे जैसे वे अपने पिता के प्रति आदर भावना रखा करते थे। पुत्र के जन्म पर पुत्री की अवहेलना नहीं की जाती थी। यद्यपि पुत्र का जन्म वंशवृद्धि के लिए आवश्यक माना जाता था। महाभारत के अनुसार -‘पुत्र के जन्म से एक मनुष्य सारे संसार को जीत सकता है। पुत्र का जन्म अत्यंत पवित्र कार्य है क्योंकि पुत्र ही वंश आगे बढ़ाता है।‘ मनुस्मृति के अनुसार - ‘यदि मनुष्य मोक्ष प्राप्त करना चाहता है तो उसे पुत्र प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।’ मनु ने बड़े पुत्र को धर्म से उत्पन्न पुत्र तथा शेष पुत्रों को कामेच्छा से उत्पन्न संतान कहा है। बड़े पुत्र का यह कत्र्तव्य होता था कि वह अपने छोटे भाई-बहनों का पालन-पोषण करे, उन्हें प्रेम दे, उन्हें अपने अनुशासन में रखे तथा उनके साथ एक आचार्य की भांति व्यवहार करे। सभी पुत्रो से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने माता-पिता का सम्मान करें, उनकी सेवा करें तथा उनकी आज्ञा के अनुसार काम करें। पिता की मृत्यु हो जाने पर माता की सेवा-सुश्रुषा करें।
पुत्री की स्थिति - पुत्रियों को देवी लक्ष्मी का प्रतिनिधि माना जाता था। महाभारत के अनुसार -‘परिवार में लक्ष्मी की साक्षात उपस्थिति पुत्रियों के रूप में होती है। अतः पुत्रियों की अवहेलना अथवा अनादर नहीं करना चाहिए।’ पुत्री का उचित पालन-पोषण माता-पिता तथा परिवार का दायित्व होता था। उचित समय पर पुत्री का विवाह करना पिता का कत्र्तव्य होता था। जहां एक बार विवाह तय कर दिया जाता वहीं पुत्री का विवाह किया जाता। स्वयं प्रथा के अंर्तगत पुत्री को अपनी इच्छानुसार पति चुनने का अधिकार था। कभी भी धन ले कर पुत्री का विवाह नहीं किया जाता था। पुत्र की अपेक्षा पुत्री का महत्व कम होने पर भी उसका समुचित ध्यान रखा जाता था। पुत्री की उपेक्षा नहीं की जाती थी। पुत्री को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार होता था। पुत्री से अपेक्षा की जाती थी कि वह माता-पिता, भाइयों तथा गुरुजनों का आदर करे। सूत्रकाल में पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियों का महत्व कम हो गया था । किन्तु पुत्रियों की उपेक्षा नहीं की जाती थी। मौयोत्तर काल में पु़ित्रयों का विवाह कम आयु में किया जाने लगा। जिससे पुत्रियों की शिक्षा-दीक्षा का स्तर घट गया। परिवार में भी पुत्रियों का महत्व कम होने लगा। फिर भी उनकी इतनी अवहेलना नहीं की जाती थी कि उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अवसर ही न मिले। पुत्रियां पिता के कुल का वह प्रतिनिधि मानी जाती थीं जो दूसरे कुल में जा कर अपने पितृ- कुल की गरिमा बनाए रखे।
वृद्धों की स्थिति - परिवार में वृद्धों का विशेष स्थान था। वैदिक युग में गृहस्थाश्रम की अवधि पूरी होने पर पुरुष वानप्रस्थ में चले जाते थे। वे वन में जा कर कुटी बना कर रहते तथा ईश्वर की आराधना करते थे। वे विद्यार्थियों को पढ़ाते भी थे। पति के साथ पत्नी स्वेच्छा से साथ रहती थी। आश्रम की व्यवस्था दोनेां मिल कर करते थे। वानप्रस्थ समाप्त होने पर कुछ पुरुष सन्यास आश्रम में प्रवेश करते थे। इस अवस्था में उन्हें पत्नी का साथ छोड़ कर अकेले सन्यासी बन जाते थे। कई वृद्ध परिवार के साथ रहते हुए जीवनयापन करते थे। परिवार के सभी सदस्यों का यह कत्र्तव्य था कि वे वृद्धों की सेवा करें।
इस प्राचीन व्यवस्था में प्रतिकूल प्ररिवर्तन कब और कैसे आरम्भ हुए इसका आकलन करना भी आवश्यक है। यह जानना जरूरी है कि इन व्यवस्थाओं की त्रुटिपूर्ण व्याख्या कैसे और कब से आरम्भ हुई। इसके बाद ही हम वर्तमान परिवेश में पारंपरिक पारिवारिक व्यवस्था को सर्वोचित ठहरा सकेंगे।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 24.12.2025 को प्रकाशित)
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