Saturday, December 21, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | तनक बचके रहियो सायबर फ्राडियन से | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
..................................
टाॅपिक एक्सपर्ट
तनक बचके रहियो सायबर  फ्राडियन से,
इनके बैकावे में बिल्कुल ने आएं!
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    ऊं दिनां हमाए मोबाईल पे फोन आओ। बोलबे वारी घनी पढ़ी-लिखन घांई बोली के “आपने लोन के लाने एप्लाई करो रओ, सो आपको लोन पास हो गओ है। अपनों बैंक को डिटेल हमें बताओ जीसे लोन को पइसा आपके खाते में डरवाओ जा सके।” हमने ऊसे कई के “मैडम जी, हमें चूना लगाबे को प्रयास ने करो! हम उल्लू ने बनहें। काय से के हमने लोन के लाने कऊं एप्लाई ने करो आए।” जा सुन के बा मैडम जू ने तुरतईं फोन बंद कर दओ। ऐसई एक दार एक भैया जू फोन पे कैन लगे के “हम फलां बैंक से बोल रए। आपको डेबिट कार्ड बंद होबे वारो है, अपने कार्ड को नंबर औ पिन फौरन बताओ ने तो जे बंद भओ जा रओ।” हमने ऊसे कई के “ठठरी के बंधे, हो जान दो बंद हमाओ कार्ड! औ जो तुमने फेर के हमें फोन करो तो हम सायबर पुलिस के इते शिकायत कर देबी।” ऊने तुरतईं फोन काटो।
    सो, आजकाल जो हो रओ। इत्तोई नोंईं, पुलिस केस के नांव पे डिजिटल अरेस्ट सोई करो जा राओ। नौकरी लगवाबे के नांव पे ठगो जात है। सो जरूरी आए के अपन ओरें सावधान रएं। डरें नोंई। जे सायबर  फ्राडियन के बैकावे में ने आएं। लालच में ने परें। कोनऊं बैंक के नांव के धोका में ने आएं। औ जरूरत लगे सो तुरतईं पुलिस की मदद लें। काए से के चौकन्नों रै के इनसे बचो जा सकत आए। जो कभऊं ठगई जाओ तो तुरतईं सायबर पुलिस के इते रपट लिखाओ। ईसे ठगो गओ रुपैया वापस बी मिल सकत है। सो, चौकन्नों रओ, सुरच्छित रओ!
-------------------------
Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
#टॉपिकएक्सपर्ट  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #DrMissSharadSingh  #पत्रिका  #patrika #rajsthanpatrika  #topicexpert  #बुंदेली  #बुंदेलीकॉलम

Friday, December 20, 2024

शून्यकाल | महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन अर्थात ‘द ब्यूटीफुल ट्री’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -  
शून्यकाल
महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन अर्थात ‘द ब्यूटीफुल ट्री’
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

   राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा अति आवश्यक है। वे जिस शोषण-विहीन समाज की स्थापना का स्वप्न देखते थे, उसके लिए सभी का शिक्षित होना आवश्यक था। वे मानते थे कि शिक्षा के अभाव में एक स्वस्थ समाज का निर्माण असम्भव है। अतः महात्मा गांधी ने जो शिक्षा के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों की व्याख्या की, ‘बुनियादी शिक्षा योजना’ उसी का मूर्त रूप है। शिक्षा के प्रति महात्मा गांधी का अद्वितीय योगदान है।

     महात्मा गांधी भारतीय शिक्षा को ‘द ब्यूटीफुल ट्री’ कहा करते थे। इसके पीछे कारण यह था कि उन्होंने भारत की शिक्षा के बारे में जो कुछ देखा, पढ़ा और पाया था, उससे उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला था कि भारत में शिक्षा सरकारों के बजाय समाज के अधीन थी। वे भारतीय शिक्षा को भारतीय परिवेश एवं आवश्यकता के अनुरूप ढालना चाहते थे। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उन्होंने बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत प्रतिपादित किए। 
शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त
गांधी जी ने शिक्षाशास्त्रियों से निवेदन करने के बदले स्वयं चिन्तन किया। उन्होंने अपने प्रगाढ़ अनुभवों एवं देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया-
(1) 7 से 14 वर्ष की आयु के बालकों की निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा हो।
(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।
(3) साक्षरता को शिक्षा नहीं कहा जा सकता।
(4) शिक्षा बालक के मानवीय गुणों का विकास करना है।
(5) शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के शरीर, हृदय, मन और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण विकास हो।
(6) सभी विषयों की शिक्षा स्थानीय उपलब्ध माध्यमों से दी जाए।
(7) शिक्षा ऐसी हो जो नवयुवकों को बेरोजगारी से मुक्त कर सके।
सारांशतः गांधीजी के अनुसार शिक्षा का अर्थ- बालक के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में पाए जाए जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का चहुंमुखी विकास करना है। अतः बालक के सर्वांगीण विकास हेतु उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक गुणों का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए और शिक्षा में इन सबका समावेश होना चाहिए।
शिक्षा के उद्देश्य
महात्मा गांधी ने शिक्षा के उद्देश्यों पर समुचित प्रकाश डाला है। उनके अनुसार-
(1) जीविकोपार्जन का उद्देश्य- इसे महात्मा गांधी ने ‘तात्कालिक उद्देश्य’ भी कहा। उनके अनुसार शिक्षा ऐसी हो जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे, आत्मनिर्भर बनाए तथा बेरोजगारी से मुक्त करे।
(2) सांस्कृतिक उद्देश्य- महात्मा गांधी ने शिक्षा को संस्कृति का आधार माना। उनके अनुसार मानव के व्यवहार में उसकी संस्कृति तभी परिलक्षित होगी जब व्यक्ति सुशिक्षित होगा।
(3) पूर्ण विकास का उद्देश्य- महात्मा गांधी के अनुसार सच्ची शिक्षा वह है जिसके द्वारा बालकों का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो सके।
(4) नैतिक अथवा चारित्रिक विकास का उद्देश्य-महात्मा गांधी ने चारित्रिक एवं नैतिक विकास को शिक्षा का उचित आधार माना है।
(5) मुक्ति का उद्देश्य- महात्मा गांधी मानते थे कि शिक्षा ही हमें समस्त बन्धनों से मुक्ति दिलाती है। अतः गांधीजी शिक्षा के द्वारा आत्मविकास के लिए आध्यात्मिक स्वतंत्रता देना चाहते थे। शिक्षा के सर्वोच्च उद्देश्य के अंतर्गत वे सत्य अथवा ईश्वर की प्राप्ति पर बल देते थे अर्थात् शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्य को दूषित भावनाओं एवं अनुपयोगी बन्धनों से मुक्ति दिलाने का होना चाहिए।
बुनियादी शिक्षा
सन् 1937 में महाराष्ट्र के वर्धा में ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन’ हुआ। इस सम्मेलन में महात्मा गांधी ने अपनी बुनियादी शिक्षा (बेसिक एजुकेशन) की नयी योजना को प्रस्तुत किया, जो कि मैट्रिक स्तर तक अंग्रेजीरहित तथा उद्योगांे पर आधारित थी। इसी तारतम्य में डाॅ. जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में ‘जाकिर हुसैन समिति’ का निर्माण किया गया तथा महात्मा गांधी के शिक्षा सम्बन्धी सुझावों तथा सम्मेलन द्वारा पारित किए गए प्रस्तावों के आधार पर ‘बुनियादी शिक्षा’ की योजना तैयार की गयी। यह योजना ‘वर्धा शिक्षा योजना’ के नाम से भी जानी जाती है। सन् 1938 में हरिपुर के अधिवेशन में योजना को स्वीकृति दे दी गयी।
बुनियादी शिक्षा के लिए जो विशेषताएं निर्धारित की गई थीं, वे इस प्रकार हैं-
(1) बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम की अवधि 7 वर्ष की हो।
(2) 7 से 14 वर्ष के बालकों एवं बालिकाओं को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाए।
(3) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रहे। हिन्दी भाषा का अध्ययन बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य रखा जाए।
(4) सम्पूर्ण शिक्षा का सम्बन्ध आधारभूत शिल्प (स्किल्स) से होता है। चुने हुए शिल्प की शिक्षा देकर अच्छा ‘शिल्पी’ बनाकर स्वावलम्बी बनाया जाए।
(5) शिल्प की शिक्षा इस प्रकार दी जाए कि बालक उसके सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व को समझ सके।
(6) शारीरिक श्रम को महत्त्व दिया जाए ताकि सीखे हुए शिल्प के द्वारा जीविकोपार्जन करने के योग्य बन सके।
(7) शिक्षा बालकों के जीवन, घर, ग्राम तथा ग्रामीण उद्योगों, हस्तशिल्पों और व्यवसाय घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हो।
(8) विद्यालय में बालकों द्वारा बनाई गई वस्तुओं का प्रयोग करें एवं उनको बेचकर विद्यालय के ऊपर कुछ व्यय करे।
(9) बालकों एवं बालिकाओं का समान पाठ्यक्रम रखा जाए।
(10) छठवीं और सातवीं कक्षाओं में बालिकाएं आधारभूत शिल्प के स्थान पर गृहविज्ञान ले सकती हैं। 
(11) पाठ्यक्रम का स्तर मैट्रिक के समकक्ष हो।
इस प्रकार तैयार की गई बुनियादी शिक्षा राष्ट्रीय सभ्यता, संस्कृति के निकट थी। इसके साथ ही यह सामुदायिक जीवन के आधारभूत व्यवसायों से सम्बद्ध थी एवं सीखे हुए आधारभूत शिल्प की द्वारा व्यक्ति जीवकोपार्जन कर सकता था। अतः यह शिक्षा हमारे जीवन के बुनियाद या आधार से जुड़ी हुई थी, इसलिए इसका नाम ‘बुनियादी शिक्षा’ रखा गया।
बुनियादी शिक्षा का पाठ्क्रम
महात्मा गांधी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्क्रम के अंतर्गत आधारभूत शिल्प को स्थान दिया। इनमें कृषि, कताई-बुनाई, लकड़ी, चमड़े, मिट्टी का काम, पुस्तक कला, मछली पालन, फल-सब्जी की बागबानी, बालिकाओं हेतु गृहविज्ञान तथा स्थानीय एवं भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षाप्रद हस्तशिल्प आदि थे। इसके अलावा मातृभाषा, गणित, सामाजिक अध्ययन एवं सामान्य विज्ञान, कला, हिन्दी, शारीरिक शिक्षा आदि को रखा।
शिक्षण विधि
महात्मा गांधी के अनुसार शिक्षण विधि सदैव व्यावहारिक होनी चाहिए। छात्रों को विभिन्न विषयों की शिक्षा किसी आधारभूत शिल्प के माध्यम से दी जाए। कार्य करके सीखना, अनुभव द्वारा सीखना तथा क्रिया के माध्यम से सीखने पर बल दिया जाए। गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा में सीखने की समवाय पद्धति को उपयोगी बताया, जिसके अंतर्गत उन्होंने समस्त विषयों की शिक्षा किसी कार्य या हस्तशिल्प के माध्यम से दिए जाने की अनुशंसा की।
सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने ऐसी शिक्षा पद्धति को सामने रखा जो पूरी तरह भारतीय परिवेश के अनुरूप थी। उन्होंने भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए छात्रों में मानवीय गुणों का विकास करने पर बल दिया। उन्होंने शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाए जाने को आवश्यक ठहराया। एक उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री की भांति महात्मा गांधी ने भारत की आधारभूत शिक्षा के लिए ‘आधार शिक्षा’ अथवा ‘बुनियादी शिक्षा’ का सिद्धान्त दिया जो सदैव प्रासंगिक रहेगा। 
----------------------------
#DrMissSharadSingh #columnist #डॉसुश्रीशरदसिंह #स्तम्भकार #शून्यकाल  #कॉलम #shoonyakaal #column #नयादौर

Thursday, December 19, 2024

बतकाव बिन्ना की | मुतकी किसां आएं जा गुरसी की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
------------------------
बतकाव बिन्ना की
मुतकी किसां आएं जा गुरसी की
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    जाड़ो आओ औ गुरसी की याद आन लगत आए। कोऊ ईको गुरसी कैत आए तो कोऊ ईको गोरसी कैत आए। नांव कोनऊं लेओ मनो, काम एकई रैत के जो ठंडी से बचाउत आए। संकारे भौजी को संदेसा आओ के संझा खों उनके घरे मोए पौंचने। काय से के उनके इते गुरसी जलाई जैहे। बे गुरसी जला भी सकत आएं, काय से के उनके घर के भीतर को खुलो आंगन ईके लाने भौतई बढ़िया आए। ऊपर से खुलो होबे से दम घुटबे को डर नईयां। ने तो बंद कमरा में गुरसी जला लेओ तो कओ दम घुट जाए। 
संझा के जब मैं भैयाजी के इते पौंची तो उते देख के जी खुस हो गओ। उते नओ औ पुरानो को गजब को मेल दिखानो। भौजी ने उते खटिया और कुर्सियां डाल रखी हतीं। खटिया पे अच्छी पतरी सी पल्ली बिछी हती औ कुर्सियिन पे सोई गदरियां धरी हतीं। जीसे नैचे से ठंडो ने लगे। बा खटिया औ कुर्सियन के बीचो-बीच घड़ा रखे की तिपाई घांई एक तिपाई धरी हती। ओई तिपाई पे घड़ा की जांगा गुरसी धरी हती। मने कुर्सी औ खटिया पे बैठ के आगी तापो औ मजे करो। इत्तई नईं, उतई एक कुर्सी के लिंगे एक टेबल धरी हती जीपे मोंपफली और कछू औ खाबे की चीजें धरी हतीं। उतई नैंचे एक टुकनिया धरी हती जीमें मोमफली को छिलका मैंको जा सकत्तो। इत्तो नोनो इंतजाम देख के तो मोरो जी गार्डन-गार्डन हो गओ।
‘‘भौजी, आपने सो इते गजबई को इंतजाम कर रखो आए। इत्तो तो मैंने सोचई ने हतो।’’ मैंने भौजी की तारीफें करीं।
‘‘अरे हमने सोची के अब ज्यादा देर कोनऊं से नैचे नईं बैठो जात, सो काए ने ऊपर बैठबे को इंतजाम करो जाए। जेई से हमने गुरसी ऊपर जमा लई आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हमने इने जे सब जमात देखो तो हम दौड़ के मोंमफली ले आए। गुरसी के ऐंगर बैठ के भुनी मोंमफली खाबे को मजोई कछू औ रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोय ने पता रई, ने तो मैं सोई कछू ले आती।’’ मोय उते की व्यवस्था देख के तनक सकोंच सो लगो।
‘‘इते सब आए, तुमें कछू लाबे की जरूरत नईं हती। हम तो चाय बनाबे को बी जुगाड़ करे बैठे। चलो, आओ बैठो, जिते बैठने होय।’’ भौजी बोलीं।
मैंने एक कुर्सी पकड़ी औ ऊपे जम गई। गुरसी में अच्छे बड़े-बड़े कंडा धरे हते। संगे चैलियां सोईं लपट दे रई हतीं। मैंने अपनी गदेलियां गुरसी के आंगू कर दईं। रामधई बड़ो अच्छो लगो, गरम-गरम।
‘‘बिन्ना तुमें पता के शहरन में जे गुरसी को चलन कैसो चलो।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नईं, मोय नईं पतो। बाकी मैंने कछू किसाएं तो सुन रखी आएं।’’मैंने भैयाजी से कई।
गुरसी को घेर के बैठे हों औ किसां-कहानी की बतकाव ने चले, भला जे कैसे हो सकत?
‘‘चलो हम तुमें एक किसां सुनात आएं।’’ कैत भए भैयाजी किसां सुनान लगे। बे बतान लगे के एक राजा हतो। ऊको भौतई बड़ो महल रओ। इत्तो बड़ो के ऊमें सौ ठइयां हाथी समा जाएं। राजा के सोबे के लाने अच्छी गद्दा-पल्ली बिछी करत्ती। उनके कमरा में मुतकी मशालें जला दई जात्तीं जोन से उनको कमरा जड़कारे में गरम रैत्तो। एक दार का भओ के राजा चलो शिकार खेलबे के लाने। जंगल में पौंच के बा दिन भर शिकार के पांछू-पांछू इते-उते भगत रओ सो ऊको ठंड ने लगी। मनो संझा होत-होत बा थक गओ औ ऊको ठंड लगन लगी। तभई ऊको समझ आई के बा तो रास्ता भटक गओ आए। ऊके सबरे सिपाई को जाने कां रै गए। अब राजा करे तो का करे? अंदियारो घिरबे के संगे ऊको औ जाड़ो लगन लगो। तभई बा भटकत-भटकत एक झोपड़ी के लिंगे पौंचो। ऊने झोपड़ी को दरवाजा खटखटाओ। दरवाजा खुलो तो ऊमें एक डुकरिया निकरी।
‘‘तुम को आ? औ इते काए आए?’’ डुकरिया ने राजा से पूछी।
‘‘हम इते के राजा आएं। निकरे हते शिकार के लाने, मनो अब भटक के तुमाए दोरे आ गए। घनो जाड़ो लग रओ। जो तुमने हमें झोपड़ी में जांगा ने दई तो हमाए प्रान कढ़ जैहें।’’ राजा ने डुकरिया से कई।
‘‘सो, कढ़ आओ भीतरे।’’ डुकरिया एक तरफी हटत भई बोली।
राजा झोपड़ी के भीतरे पौंचो तो ऊको जा देख के भौतई अचरज भओ के उते ऊके राजमहल से ज्यादा गरम हतो। बाकी गरमी पा के राजा के प्रान लौटे। 
‘‘लेओ तुम हमाए पलका पे सो जाओ। काय से के तुमसे नैंचे ने सोत बनहे। औ हमाए इते एकई पलका आए।’’ डुकरिया ने अपने पलका की तरफी इसारा करो।
राजा ने देखो के बो कैबे भर को पलका हतो। चार ठों लकरियां के ऊपरे पटिया बांध के पलका बना लओ गओ हतो। ऊपे तनक सो भूसा बिछो हतो। डुकरिया ने राजा के लाने बा भूसा पे अपनो एक फटो सो हुन्ना बिछा दओ। औ दूसरो हुन्ना चदरा घांई ओढ़बे खों दे दओ। राजा पलका पे लेट गओ। उते ऊको औ गरम लगो। उते एकऊ मशालें ने हतीं। बस, एक छोटी सी ढिबिया जल रई हती। फेर जे गरमी कां से आ रई? राजा सोचन लगो।
राजा खों सोच-फिकर में परो देख डुकरिया ने ने ऊसे पूछी के को सोच रए? तो राजा ने पूछई लओ के जे गरमी कां से आ रई? जा सुन के डुकरिया मुस्कान लगी। ऊने राजा से कई के तनक पलका के नैंचे झांक के देखो। राजा ने पलका के नैचे  झांक के देखो तो उते ऊको एक मिट्टी को तसला घांई बरतन दिखानो। ऊ बरतन में गोबर के कंडा सुलग रए हते। बोई की गरमी से पूरी झुपड़िया गरमा रई हती। राजा बा देख के दंग रै गओ। ऊने पूछी के जे का आए? तो डुकरिया ने बताई के जे गुरसी आए। मिट्टी में भुसा मिला के बनत आए। ईको गोबर से लीपो जात आए। ईमें कंडा औ चैलियां जलाई जात आएं। जा जान के राजा भौत खुस भओ। बा थको हारो तो हतई, सो कछू देर में ऊको गहरी नींद आ गई। भुनसारे ऊकी नींद खुली तो ऊने डुकरिया को ईनाम में अपनी अंगूठी देनी चाही, पर डुकरिया ने लेबे से मना कर दई। तब राजा ने ऊसे कई के तुम हमाई अंगूठी भर नोईं हमाई माला बी रख लेओ, मनो हमें अपनी गुरसी दे देओ। डुकरिया ने राजा ने ऊकी कछू चीज ने लई औ अपनी गुरसी ऊको भेंट में दे दई। तब लौं राजा के सिपाई ऊको ढूंढत भए उते आ गए। संगे एक मंत्री सोई हतो। 
राजा ने मंत्री से कई के जा जांगा देख लेओ औ ई डुकरिया के लाने इते अच्छो सो मकान बना देओ। कछू नौकर-चाकर बी रखवा दइयो, जोन को खर्चा हम देबी। ईके बाद राजा गुरसी ले के अपने महल चलो गओ। महल में पौंच के ऊने दिन भर अपनो जरूरी काम-काज करो औ संझा होतई सात गुरसी ले के अपने कमरा में बैठ गओ। ऊने कंडा मंगाए, गुरसी जलवाई औ तापन लगो। कछू देर में जा बात ऊके पूरे राज में फैल गई। फेर का हतो, सबने गुरसी बनाई औ जला-जला के तापन लगे। ई तरां से डुकरिया की गुरसी को चलन चल निकलो। आज की बोली में कई जाए के डुकरिया की गुरसी वायरल हो गई औ हिट हो गई। 
‘‘सो, जा हती गुरसी की किसां।’’ - भैयाजी बोले।            
‘‘भौतई नोनी हती। हमें सोई एक किसां पता। बाकी बा कल सुनाबी।’’ मैंने कई।
‘‘हमें सोई पतो। हम परों सुनाबी।’’ भौजी बोलीं।
‘‘औ का, जा गुरसी की मुतकी किसां आएं।’’ भैयाजी बोले।  
फेर हम ओरें मोंमफली खात भए, चाय पियत भए इते-उते की बतियात रए। रात के बारा बजत-बजत भैयाजी मोए पौंचाबे के लाने मोरे घर लौं आए। भौजी ने तो कई रई के उनई के इते रै जाओं, लेकन मैंने मना कर दई। भैयाजी के जाबे के बाद मैं सोचन लगी के गुरसी के संगे कित्ती बतकाव हो गई। जबके आजकाल टीवी औ मोबाईल के आगूं मों बांध के सबरे बैठे रैत आएं।                                                                                                                   
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के ई बारे में, के जे गुरसी कैसे सबखों जोड़े राखत रई।   
 -----------------------------   
#बतकावबिन्नाकी  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat

Wednesday, December 18, 2024

चर्चा प्लस | बुंदेलखंड की लाईफ लाइन है दशार्ण उर्फ़ धसान नदी | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस
बुंदेलखंड की लाईफ लाइन है दशार्ण उर्फ़ धसान नदी
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
      नदीजल में कारखानों का विषाक्त पानी और शहरों की तमाम गंदगी मिलते रहने से, वह न केवल प्रदूषित हो रहा है वरन जलजन्तुओं के लिए भी घातक हो चला है। गंगा, शिप्रा आदि की सफाई पर ध्यान दिया जाता रहा है किन्तु दशार्ण उर्फ़ धसान नदी अपनी प्राचीनता के गौरव को सहेजती हुई अपने वर्तमान के अस्त्वि के लिए जूझ रही है। दशार्ण आज भी बुन्देखण्ड की लाईफ लाइन है। यह वही नदी है जिसके तट पर प्रागैतिहासिक कालीन मनुष्यों ने अपनी बस्तियां बसाईं और अपना राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विकास किया।


‘‘धसान’’ शब्द ‘‘दशार्ण’’ का ही अपभ्रंश है। यह उस क्षेत्र का भी नाम रहा है जो दशार्ण नदी के तट पर स्थित था। इस क्षेत्र में प्रागैतिहासिक काल से मनुष्य ने अपना निवास बनाया। इससे पता चलता है कि उस समय दशार्ण नदी बहुत विस्तृत रही होगी जिससे उन मनुष्यों के सभी कार्यों के लिए पर्याप्त जलापूर्ति होती रही होगी। इस नदी की प्राचीनता का उल्लेख पुराणों से भी ज्ञात होता है। मार्कण्डेय पुराण (57/20) में मंदाकिनी और नर्मदा की भांति दशार्ण को श्रेष्ठ बताया गया है-
शोणो महानदश्चात्र नर्मदा सुरसरि क्रिया
मंदाकिनी दशार्णा च चित्रकूटस्त थैव च।

‘‘महाभारत’’ के विराट पर्व में नकुल की विजय के संदर्भ में दशार्ण नदी का भी उल्लेख है।
शान्ति रम्याः जनपदा बहन्नाः पारितः कुरून।
पांचालश्चेदिमत्स्याश्च शूरसेनाः पटचराः।
दशार्ण नवराष्ट्रं च मल्लाः शाल्वा युगंधरा।
‘‘महाभारत’’ काल में दशार्ण के शासक हिरण्य वर्मा की पुत्री हिरण्यमयी का विवाह द्रुपद के कथित पुत्र शिखण्डी से हुआ था। इस तरह महाभारत काल में दशार्ण का राजनीतिक महत्व बहुत अधिक था।
कालिदास ने अपने मेघदूत (पूर्वमेघ, 24-25) में विदिशा शहर को दशार्ण की राजधानी के रूप में उल्लेख किया है। कालिदास ने ‘‘मेघदूत’’ में दशार्ण का उल्लेख इस प्रकार किया है-
त्वयासन्ने परिणत फल जम्बू बनान्ताः,
संपन्स्यन्ते कतिपय दिनं स्थायि हंसा दशार्णाः।
बुन्देलखण्ड का दशार्ण नाम तेरहवीं शताब्दी तक रहा। चंदेल शासक परमर्दि देव (1165-1203 ई.) को ‘दशार्णाधिपति’, नाम से जाना जाता रहा है। दशार्ण जनपद को अकारा के नाम से भी जाना जाता था और रुद्रदामन प्रथम ने अपने जूनागढ़ शिलालेख में इस क्षेत्र को इसी नाम से संदर्भित किया है। महाभारत के अनुसार, चेदि राज्य के राजा वीरबाहु या सुबाहु की रानी और विदर्भ के राजा भीम की रानी (दमयंती की माँ) दशार्ण के राजा की बेटियां थीं। एरिच से प्राप्त एक ईंट का शिलालेख से दशार्ण के राजा, आशादमित्र और उसके पूर्वजों के बारे में जानकारी मिलती है। इस शिलालेख में, आशादमित्र, जिसने खुद को सेनापति बताया था, को सेनापति मूलमित्र (जो दशार्ण के राजा भी थे) का पुत्र, सेनापति आदिमित्र का पोता और सेनापति शतानीक का परपोता बताया गया है। इसी क्षेत्र में आशादमित्र का एक सिक्का भी मिला है जिसमें उसने खुद को अमात्य और दशार्ण का राजा बताया है।
वर्तमान भौगोलिक मानचित्र के अनुसार रायसेन जिला के जसरथ पर्वत से निकलकर धसान नदी सिलवानी तहसील की सिरमऊ, बेगमगंज तहसील की पिपलिया जागीर, बील खेड़ा, रतनहारी, सुल्तानागंज, उदका, टेकापार कलो, बिछुआ, सनेही, पडरया, राजधर, सोदतपुर ग्रामों के समीप से प्रवाहित होकर सागर जिले के नारियावली के उस पार तक बहती है। सागर जिले में यह सिहोरा, नरियावली, उल्दन, धामौनी, मैंहर, ललितपुर की (महारोनी तहसील) वनगुवा के तीन किलोमीटर पूर्व प्रवेश करती हुई यह टीकमगढ़ के दतना और छतरपुर की 70 किलोमीटर की सीमा बनाती हुई झांसी हमीरपुर और जालौन के संधि स्थल के नीचे बेतवा में मिल जाती है।
सिरमऊ पहला स्थान है जो धसान के किनारे बसा हुआ है। धसान नदी उत्तर में बहुत दूर तक सागर और ललितपुर जिलों के मध्य की सीमा की विभाजन रेखा है। टीकमगढ़ जिले में धसान नदी के किनारे पर स्थित या आस-पास स्थित लगभग ग्यारह गाँव हैं, जिनके नाम हैं- ककरवाहा, भैंसवारी, बड़ागाँव, धसान, मौखरा, सुजारा, पटौरी, चंदपुरा, पचेर, कोटरा और आलमपुर। छतरपुर से टीकमगढ़ या प्राचीन बिजावर राज्य से ओरछा राज्य तक धसान 70 किलोमीटर की सीमा बनाती है। धसान का पूर्वी किनारा नैसर्गिक रूप से छतरपुर जिले की बिजावर तहसील की सीमा रेखांकित करता है। इसके तटवर्ती ग्राम सोरखी, खरदूती और देवरान हैं। देवरान में इसकी सहायक नदी बीला (काठन) दशार्ण में विसर्जित हो जाती है। यह नदी बुंदेलखण्ड में लगभग 352 किलोमीटर तक प्रवाहमान रहती है।
धसान नदी की घाटियों एवं तट के आसपास पाषाण काल से लेकर मौर्य युग तक के पुरातत्व प्रमाण मिले है। पुरातात्विक खोजों के आधार पर दशार्ण नदी के आसपास घाट कोपरा, विरगुवां, देवरी, इमलौटा आदि ग्रामीण इलाकों में प्राचीन बस्तियों और ग्रामीण अंचल मारकुआं, इमलौटा, खेड़ों आदि घाटी वाले इलाकों में मनुष्यों के खेती करने के प्रारंभिक दौर का पता चलता है। प्रतिहार, चंदेल काल के मंदिर, मूर्तियां भी इस क्षेत्र से प्राप्त होती हैं जिससे अनुसार धसान का ऐतिहासिक महत्व ज्ञात होता है।
धसान के संबंध में धार्मिक मान्यनाएं भी हैं। इस नदी का जल गंगा एवं नर्मदा की भांति पवित्र माना जाता है। मान्यता है कि इस नदी के तट में तर्पण करने से मनुष्य दस ऋणों से मुक्त होता है। यह कहा जाता है कि पूर्वजों को तर्पण, श्राद्ध आदि का कार्य नदी के तट पर होना चाहिए इससे पूर्वजों को माक्ष मिलता है।
सागर जिले के मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर सिहौरा के पास दशार्ण नदी के निकट ‘पाषाण युगीन’ एक उद्योगशाला प्राप्त हो चुकी है। इसी नदी के किनारे सागर से 29 किलोमीटर की दूरी पर धामौनी दुर्ग स्थित है। जहाँ धसान दो गहरी खाइयों के बीच से दो धाराओं में बहती है। उल्दन नामक गाँव में भाण्डेर नदी इसी नदी में मिल जाती है। यह स्थान बण्डा से 16 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। भाण्डेर के धसान के संगम पर मकर संक्रांति के पर चार दिवसीय परंपरागत मेले का आयोजन किया जाता है। धसान के ही किनारे सागर-ललितपुर मार्म पर मेहर गाँव में हिंगलाज देवी का मंदिर है। दशार्ण और बीला काठन के संगम पर मठ, मंदिर और प्रतिमाओं के भग्नावशेष, बछरानी गाँव के पूर्वी तट पर गुप्तकालीन दो मंदिर, ईसानगर, कुर्रा रामपुर, गर्रौली और आलीपुरा के किले दशार्ण और कुकड़ेश्वर नदियों के संगम पर, अचट्ट में खजुराहो के समान चंदेलकालीन मूर्तियाँ एवं पुरावशेषों की धसान सदियों से साक्षी रही है। यह सभी स्थान छतरपुर जिले के अन्तर्गत आते हैं। इतना ही नहीं इसी जिले में धसान के ही समीप देवरा गाँव में दो स्थान प्राचीन भित्तिचित्रों के पाये जाते हैं। जिन्हें ‘पौर का दाता’ और ‘पुतली की दाता’ के नाम से जाना जाता है
टीकमगढ़ जिले में दशार्ण के तट पर मौखरा गाँव में गुप्तकालीन शिखर विहीन मंदिर, दूबदेई देवी का मंदिर, पचेर का किला, ककरवाहा और बड़ागाँव धसान के बीच गुर्जर प्रतिहार कालीन ऊमरी का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर, शिव मठ, जैन मंदिर, छौटा सा दुर्ग और हनुमान जी का विग्रह आदि स्थल स्थित हैं। दशार्ण के नजदीक लघु दुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की शरणस्थली रहा है।
उत्तरप्रदेश में हमीरपुर और झाँसी जिलों के मिलन बिन्दु पर लहचूरा बाँध और गाँव के समीप लगभग 2 किलोमीटर क्षेत्र में पाषाणयुगीन औजार प्राप्त हुए हैं। झाँसी से ही 18 किलोमीटर दशार्ण के बाँयें किनारे गरौठा गाँव से 10 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में दो पुराने महादेव मंदिर, चंदेला बैठक, दशार्ण नदी में आकंठ डूबी विश्वमित्र की प्राचीन पाषाण प्रतिमा आदि दर्शनीय स्थान है। इस स्थान पर प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा एवं मकर संक्रान्ति को मेला भरता है।
धसान के तट पर मानव सभ्यता ने विकास किया। सांस्कृतिक विकास के साथ तत्कालीन मनुष्यों ने मंदिर, महन तथा अन्य स्मारक बनाए। उत्तर प्रदेश के ललितपुर की महरौनी तहसील के गिरार गाँव के किनारे कुछ खूबसूरत मंदिरों के अवशेष हैं। जिनमें राम और शिव के मंदिर प्रमुख हैं। यहाँ एक पहाड़ी की गुफा में भी शिव मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि यह गोंडों ने बनवाये थे। यहाँ मार्च में प्रतिवर्ष एक मेला भी लगता है। झाँसी जिले में धसान पर लहचूरा बाँध बना है। इस नदी पर देवरी में भी एक बाँध बनाया गया है-राठ-उरई सड़क मार्ग से 18 किलोमीटर दूर मुहाना घाट से 2 किलोमीटर बायीं ओर धसान नदी के गहरे स्थाई दोहों में मगरों का आश्रस्थल देखा जा सकता है। हो सकता है कि मगरों के कारण ही इस गाँव का नाम मगरौठ पड़ा है। मगरौठ को विनोबा भावे के भू-दान अभियान के अन्तर्गत ‘प्रथम ग्राम दान गाँव’ का सम्मान मिला था।
आज जब देश की विभिन्न नदियों की भांति बुंदेलखंड की नदियां भी संकट के दौर से गुजर रही हैं तथा मानवजनित प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेल रही हैं, धसान नदी भी इसी दौर से गुजर रही है। ये नदी जो सदैव बुंदेलखंड की लाईफ लाइन मानी जाती रही है, उसे आज स्थान-स्थान पर स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इसके तटों पर मौजूद वन संपदा और ग्रामीण जीवन को ध्यान में रखते हुए धसान नदी का संरक्षण भी उतना ही जरूरी है जितना गंगा या यमुना का।
-----------------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

हार्दिक आभार " दैनिक भास्कर " मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" के लोकार्पण के समाचार को प्रमुखता से स्थान देने के लिए

हार्दिक आभार " दैनिक भास्कर " मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह  "सांची कै रए सुनो, रामधई" के लोकार्पण के समाचार को प्रमुखता से स्थान देने के लिए 🙏

#डॉसुश्रीशरदसिंह  #DrMissSharadSingh  #पुस्तकलोकार्पण #श्यामलम  #shyamlam  #bookrelease  #बुंदेलीग़ज़लसंग्रह  #bundelighazalsangrah  #sanchikeresunoramdhai
#दैनिकभास्कर #DainikBhaskar

Tuesday, December 17, 2024

पुस्तक समीक्षा | ‘‘गंगोत्री’’ जहां से प्रवाहित है भावनाओं की गंगा | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 17.12.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई क्लीं जायसवाल राय जी के काव्य संग्रह "गंगोत्री" की समीक्षा।
-----------------------------
पुस्तक समीक्षा  
‘‘गंगोत्री’’ जहां से प्रवाहित है भावनाओं की गंगा
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-------------------
काव्य संग्रह   - गंगोत्री
कवयित्री     - क्लीं जायसवाल राय
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर   
मूल्य        - 175/- 
-------------------
    गंगोत्री, गंगा नदी का उद्गम स्थान है एवं उत्तराखंड के चार धाम तीर्थयात्रा में चार स्थलों में से एक है। नदी के स्रोत को भागीरथी कहा जाता है। देवप्रयाग के बाद से यह अलकनंदा में मिलती है, जहां से गंगा नाम से जानी जाती है। गंगा के धरती पर अवतरण की रोचक कथा है जिसके अनुसार भगीरथ ने अपने परिजन के तर्पण के लिए कठोर तपस्या कर के गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए मना लिया लेकिन गंगा का प्रवाह इतना तेज था कि वह पृथ्वी पर टिक ही नहीं पा रही थी। तब भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं पर धारण किया और फिर वहां से वेग को नियंत्रित कर गंगा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। जिस स्थान पर गंगा धरती पर प्रकट हुई वह स्थान गंगोत्री कहलाया। अर्थात् वह स्थान जहां से इस पवित्र नदी का उद्गम है। ‘‘गंगोत्री’’ नाम से प्रकाशित हुआ है कवयित्री क्लीं जायसवाल राय का काव्य संग्रह। संग्रह की कविताओं को पढ़ने के उपरांत संग्रह के नाम की सार्थकता को समझा जा सकता है।  
क्लीं जायसवाल राय का जन्म अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था किन्तु विवाह के उपरांत वे सागर आ गईं। क्लीं जायसवाल राय ने बी फार्मा, एम फार्मा, एमबीए, पीजीडीपीएचएम, पीजीडीआईपी, टी एंड डी आईएसटीडी की उपाधियां प्राप्त की हैं। वे बाल कल्याण समिति, महाकोशल प्रांत प्रमुख, महिला प्रकल्प, भारतीय शिक्षण मंडल, किशोर न्याय बोर्ड आदि अनेक संस्थाओं में सक्रिय हैं। सामाजिक कार्यों में उनकी रुचि उनकी भावनाओं को निश्चित रूप से विस्तार देती होगी। अब बात ‘‘गंगोत्री’’ में संग्रहीत कविताओं की। कवयित्री क्लीं जायसवाल राय के काव्य संग्रह ‘‘गंगोत्री’’ में भावनाओं की गंगा की अभिव्यक्ति है। भावनाएं ही वे संवेग हैं जो मनुष्य के विचारों एवं चरित्र का आईना होती हैं। सद्भावनाएं दूसरों को अच्छा संदेश देती हैं, हृदय में कोमलता का संचार करती हैं और जीवन की सार्थकता से परिचित कराती हैं। क्लीं जायसवाल राय की कविताएं भी जीवन से रागात्मकता का आग्रह करती हैं। संग्रह में कुल 80 कविताएं हैं। इन कविताओं आध्यात्मिक दर्शन की प्रधानता है। संग्रह की प्रथम कविता है ‘‘मातृ स्तुति’’-
करूं करबद्ध प्रणाम तुझे स्वीकार कर मां कालिके
करूं करबद्ध प्रणाम तुझे स्वीकार कर मां कालिके
विश्व मोहिनी ज्ञान दायिनी, 
करूं प्रणाम हे सृजन स्वामिनी 
मोहभंग कर ज्ञान दे मां, ले ले मेरी करांजलि, 
इस कर की हर रेखा में, देखा करूं तेरी ही छवि 
करूं करबद्ध प्रणाम तुझे, स्वीकार कर मां कालिके 

प्रकृति को पढ़ना और समझना भी एक कला होती है। जो व्यक्ति संवेदनशील है वह प्रकृति को पढ़ सकता है। कवयित्री क्लीं ने भी प्रकृति की ध्वनियों को सुना है और गुना है। उनकी ‘‘लहरें’’ शीर्षक कविता समुद्र की थाह लेती प्रतीत होती है, जब वे समुद्र की जुबान की बात करती हैं और समुद्र की विवशता को उल्लेख करती हैं- 
लहरें समंदर की जुबान होती हैं, 
अनगिनत लहरें अनगिनत जुबानें, 
लेकिन समंदर को बोलने की मनाही है 
लहरें कितना भी मचलें, कितना भी तड़पें, 
समंदर कभी कुछ कह नहीं पाता। 
प्रकृति और स्त्री एक अनूठा साम्य है दोनों में। दोनों में कोमलता भी होती है और असीम सहनशक्ति भी। कवयित्री ने स्त्रीत्व को परिभाषित करते हुए उसकी विशिष्टताओं को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। स्त्री विषयक कविताओं में नारी के मनप्राण के नैसर्गिक स्पंदन को सजीवता से प्रकट किया गया है। कविता है ‘‘हाँ, स्त्री हूँ मैं’’। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
हाँ, स्त्री हूँ मैं !!! 
कोई कोमलांगी नहीं, 
कभी तुलना मत करना मेरी... किसी षोडशी से, 
क्योंकि.. जैसे अंडे को तोड़कर चूजा बाहर निकल आता है न, 
मैं भी तोड़ चुकी हूँ षोडशी होने का वह त्वक, 
भर सकती हूँ मैं भी अब अपनी उड़ान, 
मेरे घर को मेरा पिंजरा मत समझना, 
वहीं खिड़की पर बैठकर मैं देती हूँ ऊँची उड़ान का हौसला, 
बच्चों को ऊँची उड़ान की समझाइश, 
जहाँ जहाँ मुझ से चूक हुई वहाँ संभलने की समझाइश, 
गर्व होता है मुझे अपने स्त्रीत्व पर। 
कवयित्री क्लीं की कविताओं पर चूरू (राजस्थान) की अर्थशास्त्र की सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रो. (श्रीमती) हिमांशु सेंगर ने भूमिका लिखते हुए उचित टिप्पणी की है कि -‘‘गंगोत्री का रूप-शिल्प व भाषापक्ष संप्रेषणीय है, सहज प्रवाह लिए। कहीं बिम्बात्मक शब्दसंयोजन लालित्य गुण से सुसज्जित है जो सीधे पाठक हृदय में उतर जाता। जहाँ कविताएँ दार्शनिकता लिए हैं, वहां दार्शनिक शब्दावली कहन की गहनता को और सघन कर रहीं। छंद मुक्त कविताएँ भी ध्वनि और लय पर नृत्यरत हैं। क्लीं जी समाज की धड़कनें चीन्ह भारतीय संस्कृति के दार्शनिक रूप को उकेरने में सफल रहीं हैं।’’
‘‘गंगोत्री’’ की कविताओं में देश, समाज, प्रकृति, परिवेश, आध्यात्म के साथ ही कवयित्री के मन के संसार को भी अभिव्यक्ति मिली है। अपनी हर कविता में कवयित्री जीवन और जगत से संवाद रचती दिखाई देती हैं।  सागर के सेवानिवृत चिकित्सक गीतऋषि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने कवयित्री  के उद्गारों के शब्दों, शिल्प तथा भावनाओं पर सटीकता से दृष्टि डालते हुए भूमिका के रूप में लिखा है कि- ‘‘कवयित्री ने गंगोत्री में मुक्त छंद की रचनाएँ रखीं है अतः पाठक मन को विधा के स्थान पर भाव पक्ष की श्रेष्ठता अधिक प्रभावित करती है। कविताओं में जीवन की विविधवर्णी स्थितियों, परिस्थितियों की भावनात्मक अभिव्यक्ति बड़ी सहजता से की गई है। व्यापक वैश्विक विषयों से लेकर निजी स्तर तक कविताओं के संग्रह गंगोत्री में सकारात्मकता का सौंदर्य बोध पाठक को अपने आप से साक्षात्कार का अवसर भी देता है।’’
जीवन के लिए क्या जरूरी है, यह ज्ञात होना बहुत महत्व रखता है। कहा जाता है न कि मन के हारे हार है, अर्थात जीने के लिए सबसे पहले हौसले की जरूरत होती है। इस विषय पर ‘‘सुन जिंदगी’’ कविता को रेखांकित किया जा सकता है-
जंग खाती तलवार से ज्यादा, 
कमान से छूटता तीर जरूरी है। 
श्रृंगार की सजती कविताओं से ज्यादा, 
रणभेरी गान जरूरी है।
पर अनेकों शर संधान से, 
एक वरदान कहीं ज्यादा जरूरी है,
जैसे जिंदा रहने के लिए, 
सांसों से कहीं ज्यादा जज़्बा जरूरी है।
प्रेम एक पवित्र अनुभूति है यदि उसमें आध्यात्म जुड़ जाए तो प्रेम के दर्शन का स्तर कई सीढ़ियों ऊपर पहुंच जाता है। प्रेम जहां मन में उमंग भरता है, वहीं आध्यात्म ठहराव देता है। एक अद्भुत संतुलन जो अनुभूति को प्रगाढ़ बना देता है। ‘‘गुरबानी’’ कविता में कवयित्री क्लीं की आध्यात्मिक पकड़ की गहराई बखूबी अनुभव की जा सकती है-
कब तक भटकन जीवन में, नयनों में गंगा का पानी, 
प्रेम नहीं यह संगत है, उस अनंत को पाने की, 
हद बेहद के पार है चलना, सीखा तुझसे यही जुबानी, 
तुम से ही तो जाना मैंने, प्रीत की क्या होती गुरबानी।
आध्यात्म जब विवेक की उंगली थाम कर सांसारिकता के बीच विचरण करता है तो स्वयं के अस्तित्व का भान होने लगता है। इस अस्तित्व में पूर्णता एवं अपूर्णता दोनों व्याख्यायित होते हैं। ‘‘तुम से ही मैं हूँ पूर्ण’’ की ये चंद पंक्तियां विचारणीय हैं जो पूर्णता रूप में ब्रह्म का घोष करती हैं-
तुम से ही तो पूर्ण हूँ मैं, 
तुम बिन नितांत शून्य हूँ मैं, 
तुम से एकल अनंत हूँ मैं, 
पूर्ण अपूर्ण सब तुम में हूँ मैं
क्लीं जायसवाल राय की कविताओं में आध्यात्मिक गहराई है और सांसारिक आकलन है जो उनकी अभिव्यक्ति को उच्चता के शिखर पर पहुंचाता है। कवयित्री भली-भांति जानती हैं कि वे क्या कह रही हैं और किन शब्दों में किस प्रकार कह रही हैं। क्लीं राय की कविताओं को पढ़ना जीवन के झंझावात में शीतल पुरवाई को अनुभव करने के समान है। इनकी कविताओं का वैचारिक स्तर सघन है जिसमें सतही मन से कोई प्रवेश नहीं कर सकता है। संग्रह की कविताओं को पढ़ने के लिए पाठक के भीतर एक आंतरिक आग्रह होना चाहिए। संग्रह पठनीय है क्योंकि इसमें भावनात्मक सामग्री के साथ वैचारिक संवाद भी निहित है।
----------------------------
#पुस्तकसमीक्षा  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer  #आचरण #DrMissSharadSingh

हार्दिक आभार सागर मीडिया मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" के लोकार्पण के समाचार को प्रमुखता से स्थान देने के लिए

हार्दिक आभार सागर मीडिया मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह  "सांची कै रए सुनो, रामधई" के लोकार्पण के समाचार को प्रमुखता से स्थान देने के लिए 🙏
हार्दिक आभार श्यामलम संस्था एवं संस्था के सभी सदस्यों को जिन्होंने मेरे बुंदेली गजल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" के लोकार्पण को एक सफल आयोजन का स्वरूप दिया🙏