Saturday, April 26, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | अब उनके दिन पूरे भए कहाने | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में

टॉपिक एक्सपर्ट
अब उनके दिन पूरे भए कहाने
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कल संझा को हम बजरिया गए रए। काय से के घरे सब्जी बढ़ा गई रई। इतवार औ बुध को तो अच्छो बजार भरत है उते, पर और दिनां बी उते सब्जी की दुकानें लगी रैत आएं। सो, हम गए सब्जी लैबे खों। उते सब्जी वारी अम्मा से हमने पूछी के लौकी का भाव दई? सो, अम्मा बोलीं,”छोटी वारी दस रुपैया औ बड़ी वारी बीस रुपैया। बाकी देख तो बाई, बे ठठरी के बंधों ने कित्तो गलत करो। उनें तो पकर के जूतई जूता मारो चाइए।” 
“कोन खों गरियां अम्मा?” हमने पूछी। बे भारी गुस्सा में दिखा रई हतीं। हमने फेर के पूछी, “कोन खों गरिया रईं?” सो, अम्मा बोलीं,”उनईं खों जोन ने उते कस्मीर में घूमबे वारों को मार डारो। कीरे परहें उनखों। मोदी जू खों चाइए के उन ओरन खों पकर के उल्टो लटका देवें।” अम्मा की जे बात सुन कुछ हमें लगो के अपने इते आतंक वारे अब ने टिक पाहें। अब उनके दिन पूरे भए कहाने। काए से जब देस के बच्चा-बूढ़ा सबई गुस्सा से खौलन लगत आएं तो कोनऊं की खैर नई रैत। औ रैनी बी नईं चाइए। बे अम्मा ठैरीं अंगूठाछाप। उन्ने सनीमा में कभऊं कश्मीर देखो हुइए, ने तो खुद तो बे उते कभऊं गई नईं, पर बे ऊकी पीरा तो समझत आएं जोन को आदमी ब्याओ के चार दिनां बाद मार दओ गओ। जोन मोड़ा ने अपने बाप खों मरत भौ देखो, बा का कभऊं चैन से सो पाहे?  अम्मा भर का, पूरो देस गरिया रओ। अब तो सबखों तभईं चैन परहे जब उन कायरों खों औ संगे उनखों पालबे वारे पाकिस्तान खों धूरा ने चटा दई जाए। जै हिंद! जै भारत!!
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Thursday, April 24, 2025

शून्यकाल | ऐसे ही कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है पाकिस्तान के विरुद्ध | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम
    शून्यकाल
ऐसे ही कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है पाकिस्तान के विरुद्ध
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                             
        पहलगाम में निर्दोष पर्यटकों का रक्त बहा कर आतंकियों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनके लिए मानवता का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जिस ढंग से आतंकियों ने पर्यटकों को धर्मगत निशाना बनाया वह तो और भी जघन्य अपराध है। बल्कि यह कहा जाए कि पाकिस्तान की ओर से एक ऐसी साज़िश है जिसमें वह एक तीर से दो शिकार करना चाहता है। वह भारतियों के दिल-दिमाग को चोट पहुंचाना चाहता है और देश के भीतर धार्मिक वैमनस्यता पैदा कर के अस्थिरता फैलाना चाहता है। कश्मीर की वर्तमान अर्थव्यवस्था को तो उसने गहरी चोट दे ही दी है। ऐसे में भारत की ओर से प्रधानमंत्री द्वारा जो कड़े कदम उठाए जा रहे हैं वे बेहद जरूरी हैं। आतंकी साज़िशों का पानी सिर के ऊपर जा पहुंचा है।
 
यह सोच कर ही दिल कांप उठता है कि वह दृश्य कैसा रहा होगा जब हाथ में हथियार थामें नृशंस आतंकियों ने निर्दोष पर्यटकों को कलमा पढ़ने को कह कर, उनका धर्म परीक्षण कर के उन्हें मौत के घाट उतार दिया होगा। क्या गुज़री होगी उनके परिजन पर, जब सारा देश इस घटना को सुन कर ही हिल गया। आतंक का वह चेहरा जो भारत की सीमा के बाहर हम देखते आए हैं, उसे अपने देश में देखना असहनीय है। ये आतंकी निरीह और निर्दोष पर्यटकों को निशाना बना कर किसी भी देश की साख, अर्थव्यवस्था तथा पर्यटन को नुकसान पहुंचा कर अपनी धाक जमाने का प्रयास करते हैं। टर्की के समुद्रतट पर पर्यटकों पर गोलियां बरसाई गई थीं। पिरामिडों के क्षेत्र मिस्र में पर्यटकों को बमम्बारी से हताहत किया गया था। अब भारत का पहलगाम भी उनके इसी कायराना कृत्य का शिकार बना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना की कड़ी निंदा की। वे साउदीअरब का अपना दौरा बीच में ही छोड़ कर वापस देश लौट आए। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा ‘‘इस जघन्य घटना के पीछे जो लोग हैं उन्हें कड़ी सजा मिलेगी। उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा।’’
इसके बाद तत्काल कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्यॉरिटी की मीटिंग बुलाई गई जिसमें सिंधु जल समझौते को तत्काल प्रभाव से रोक देने का फैसला लिया गया। साथ ही पाकिस्तान में भारतीय दूतावास बंद कर दिया गया और ऑटारी बॉर्डर भी सील कर दिए गए। पाकिस्तानी राजनयिकों को 48 घंटे में देश छोड़ने का आदेश भी दिया गया।
सन 1960 में हुई सिंधु जल संधि को तत्काल प्रभाव से स्थगित करने के फैसले पर पाकिस्तान ने वैश्विक स्तर पर गुहार लगानी शुरू कर दी। वह खुद को ‘‘बेचारा’’ साबित करने के लिए हाथ-पांव मार रहा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री और उपप्रधानमंत्री इसहाक डार ने पाकिस्तानी मीडिया से बातचीत में कहा कि ‘‘भारत इस तरह से एकतरफा फैसला नहीं कर सकता है।’’
इसहाक डार ने पाकिस्तानी न्यूज चैनल समा टीवी से बातचीत में कहा, ‘‘अतीत का जो हमारा अनुभव है, उससे हमें अंदाजा था कि भारत ऐसा कर सकता है। मैं तो तुर्की में हूँ लेकिन फिर भी पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने पहलगाम हमले की निंदा की। भारत ने सिंधु जल संधि के अलावा बाकी जो चार फैसले किए हैं, उनका जवाब तो आसानी से मिल जाएगा।’’ इसहाक डार ने आगे कहा कि ‘‘सिंधु जल संधि को लेकर भारत पहले से अड़ा है। पानी रोकने के लिए इन्होंने कुछ वाटर रिजर्व भी बनाए हैं। इसमें विश्व बैंक भी शामिल है और यह संधि बाध्यकारी है। आप इसमें एकतरफा फैसला नहीं ले सकते हैं। ऐसे में तो दुनिया में मनमानी शुरू हो जाएगी. जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाला मामला तो नहीं चल सकता। भारत के पास कोई भी कानूनी जवाब नहीं है। इस मामले का जवाब पाकिस्तान का कानून मंत्रालय देगा।’’
इसी को कहते हैं चोरी और सीना जोरी। अपने देश में आतंकियों को पनाह देते समय पाकिस्तान को कोई भी संधि क्यों नहीं याद आती? यूं भी, भारत की ओर से अभी भी इतना कड़ा कदम नहीं उठाया गया है जितना बढ़ा-चढ़ा कर पाकिस्तान चींख रहा है। ‘‘द हिन्दू’’ समाचार पत्र की डिप्लोमैटिक अफेयर्स एडिटर सुहासिनी हैदर के अनुसार,‘‘ भारत ने पाकिस्तानी मिशन छोटा कर दिया लेकिन बंद नहीं किया। सिंधु जल संधि को स्थगित किया है लेकिन निरस्त नहीं किया है। पाकिस्तान के लोगों के लिए सार्क वीजा सुविधा को बंद किया है लेकिन सभी तरह के वीजा नहीं।’’
इन तथ्यों को छिपाते हुए पाकिस्तान इस बात का अहसान जता रहा है कि उसके विदेश मंत्री ने आतंकी हमले में पर्यटकों के मारे जाने पर शोक व्यक्त किया था। कितना हास्यास्पद है यह। पहले गोली मार दो और फिर मगरमच्छी आंसू बहाओ। उनके झूठे आंसुओं से क्या उन 26 लोगों के प्राण वापस आ जाएंगे जो आतंकियों ने नृशंसतापूर्वक छीन लिए? सच तो ये है कि इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वालों से स्वयं सच्चे इस्लामिक दुखी हैं, शर्मिंदा हैं। चंद लोगों की अमानवीय हरकतें पूरे कौम को कटघरे में खड़ा कर देती है। न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद पूरी दुनिया के इस्लामियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा था। भारत के मुस्लिमों को भी अमरीका में इस संदेह को झेलना पड़ा था। इसके बावजूद इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वाले अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते हैं। दरअसल वे मौका परस्त हैं, किसी मजहब से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मानवता के दुर्भाग्य और उनके सौभाग्य से उन्हें गोद में खिलाने और उन्हें पालने वाले राजनीतिक लोग मिल जाते हैं। पाकिस्तान यही कर रहा है। भारत को कमजोर करने के लिए वह आतंकवादियों का सहारा लेता रहता है। 
भारत ने अभी तक पाकिस्तान के साथ उदारता का ही बर्ताव किया है, जिससे पाकिस्तान का दुस्साहस समय-समय पर उभर कर सामने आता रहा है। पुलवामा की घटना के ज़ख़्म आज भी ताजा हैं। पहलगाम की घटना ने तो न केवल उस दबे हुए ज़ख़्म को कुरेदा है बल्कि एक और गहरा ज़ख़्म दे दिया है। इसके बाद भी यदि कड़े कदमों को उठाए जाने का निर्णय नहीं लिया जाता तो देशवासियों के मनोबल पर विपरीत असर पड़ता। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई और इसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और विदेश मंत्री एस जयशंकर शामिल हुए थे। बैठक के बाद भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने 23 अप्रैल 2025 को रात करीब नौ बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि ‘‘1960 में हुई सिंधु जल संधि को तत्काल प्रभाव से स्थगित किया जाता है। यह स्थगन तब तक रहेगा, जब तक पाकिस्तान सीमा पार से आतंकवाद को समर्थन देना हमेशा के लिए बंद नहीं कर देता है।’’
देखा जाए तो भारत का यह फैसला अभी भी नरम है क्योंकि भारत की ओर से संधि स्थगित की गई है, रद्द नहीं। जैसाकि पाकिस्तान हाय-तौबा मचा रहा है। सच तो ये है कि इस आतंकी हमले के द्वारा पाकिस्तान जो चाहता था उसने तात्कालिक रूप से वह पा लिया। वह कश्मीर में शांति स्थापित नहीं होने देना चाहता है। वह कश्मीर की आर्थिक तरक्की नहीं चाहता है। जबकि कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद से अपेक्षाकृत शांति आती जा रही थी और पर्यटन भी अपनी पुरानी चहल-पहल के साथ लौट रहा था। इसीलिए ऐसा समय चुना गया जब पहलगाम में पर्यटन का समय था। देश भर से पर्यटक पहलगाम पहुंचे हुए थे। लगभग पूरे सीजन के लिए करोड़ों रुपयों की बुकिंग हो चुकी थी। लेकिन इस घटना ने पर्यटकों के पैर रोक दिए। बहुत-सी बुकिंग कैंसिल कर दी गई हैं। यद्यपि कुछ साहसी लोग इस आशा में बुकिंग करा रहे हैं कि जल्दी ही हालात सुधर जाएंगे और वहां से आतंक का साया हट जाएगा। फिर भी प्राणों का भय सबसे बड़ा भय होता है, वह पर्यटकों को जल्दी विश्वास में नहीं ले पाएगा। इस तरह पाकिस्तान ने न केवल कश्मीर बल्कि पूरे देश का बड़ी आर्थिक चोट पहुंचाई है। 
कश्मीर में आय का सबसे बड़ा स्रोत पर्यटन है। इस हमले से वापस स्थिर हो रही कश्मीर की आर्थिक स्थिति पटरी से उतर सकती है। कश्मीर के लोगों की इनकम पर भी गहरा असर दिखाई पड़ सकता है। अभी तक जम्मू और कश्मीर की आर्थिक प्रगति मजबूत रही है। सन 2018 में आतंकवादी घटनाओं की संख्या 228 से घटकर 2023 में सिर्फ 46 रह गई थी, जो 99ः की गिरावट है इस हमले से सबसे ज्यादा नुकसान यहां के टूरिज्म को होगा. यह एक ऐसा सेक्टर है जो कश्मीर की जीएसडीपी में 7-8 प्रतिशत का योगदान देता है। पहलगाम में आतंकी हमला ऐसे समय पर हुआ जब पर्यटकों का मौसम चरम पर था। 2020 में 34 लाख पर्यटक आए थे, जबकि 2024 में यह संख्या बढ़कर 2.36 करोड़ हुई थी, जिसमें 65,000 विदेशी पर्यटक भी शामिल थे। 2025 की शुरुआत भी अच्छी थी। श्रीनगर के ट्यूलिप गार्डन में सिर्फ 26 दिनों में 8.14 लाख पर्यटक आए थे। इस हमले का असर कश्मीर के सभी सेक्टर्स पर पड़ सकता है। 
इस समय पूरा देश भारत सरकार के कड़े कदमों का समर्थन कर रहा है। आवश्यकता पड़ने पर यदि और कठोर कदम उठाए जाते हैं तो उसके लिए भी आमजन की सहमति सरकार के साथ रहेगी। इस घटना ने हर भारतीय के मन को क्रोध और क्षोभ से भर दिया है। सभी का मानना है कि अब वह समय आ गया है जब पाकिस्तान की कुचेष्टाओं पर पूर्णविराम लगा दिया जाए। 
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बतकाव बिन्ना की | इते खों बोलो औ उते खों गओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
इते खों बोलो औ उते खों गओ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘अरे बिन्ना आज बड़ों गजब को हो गओ! तुमें पता परो?’’ मोए देखतई साथ भैयाजी ने मोसे पूंछी।
‘‘काए के बारे में कै रए आप? का हो गओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। मोए समझ में ने आई के बे काए की कै रए?
‘‘अरे तुमें पता नईं परो? पूरे मोहल्ला में बोई की बतकाव हो रई। पुलिस सोई आई रई।’’ भैयाजी अचरज दिखात भए बोले। 
‘‘कोन के इते पुलिस आई? कोऊं के इते भड़या पिड़ गए का?’’ मैंने पूछी।
‘‘येल्लो ! तुमें कछू पतो नइयां?’’ भैयाजी ई टाईप से बोले के मोए सब कछू पतो रैने चाइए।
ईपे मैंने कछू ने कई। 
‘‘अरे बिन्ना भीतरे रई हुइए सो ईको नईं पतो, आप औ दोंदरा दए फिर रए।’’ भौजी ने भैयाजी खों टोंको। 
‘‘सई में मोय नई पतो के भैयाजी काय की कै रए?’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘सुनो, हम बता रए। तुम उनको जानत हुइयो, अपने राआसरे जू, इतई नुक्कड़ पे रैत आएं।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘बेई रामआसरे जू, जोन ने अपने दोरे के बाजू से पान की ठिलिया रखा लई रई।’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ बेई, मनो उन्ने नईं रखाई रई, बा तो पान को ठिलिया वारो खुदई किराओ को पइसा ले के उनके दोरे ठाड़ो हो रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ईसे का? उन्ने तनक से किराए के लालच में अपने घरे के लिंगे पान की ठिलिया लगन दई। औ फेर कैसी पंचयात मची। कां-कां के गुर्रा रिें आ के उते ठाड़े होन लगे रए। बा तो सबने शिकायत कर के उते से ठिलिया हटवा दई ने तो कोनऊं दिना कोऊ बड़ो वारो कांड हो जातो।’’ मैंने कई।
‘‘ठिलिया तो हट गई, मनो बड़ो वारो कांड जरूर हो गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का हो गओ?’’ मैंने फेर के पूछी।
‘‘बेई रामआसरे जू आए न, उने कल्ल रात खों अपने मोबाईल पे एक मैसेज दिखानों। ऊमें लिखो रओ के आपको एटीएम संकारें लौं बंद कर दओ जैहे, सो आप अभई अपने क्रेडिट कार्ड से, ने तो डेबिट कार्ड से ईको चालू करा लेओ।ऊमें चालू कराबे के लाने रात को दो बजे तक को टेम दओ गओ रओ औ एक लिंक दई रई जीमें क्ल्कि कर के उनको अपने र्काउ की डिटेल भरनी हती।’’ भैयाजी तनक सांस लेबे खों रुके।
‘‘फेर? फेर का भओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘होने का रई। राआसने जू ने बा लिंक खोलो औ ऊमें जो-जो भरबे खों कओ गओ, बे भरत गए। ईके बाद उनको मैसेज आओ के आपकी जानकारी फीड कर दई गई आए अब दो घंटा में आपको एटीएम चालू कर दओ जैहे। रामआसरे जू ने मैसेज पढ़ के चैन की सांस लई। बे दो घंटा को इंतजार करत-करत टीवी देखबे लगे। औ को जाने कब की उनें नींद लग गई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर? उनको एटीएम चालू हो गओ?’’मैंने पूछी।
‘‘जेई तो! भुनसारे चार बजे उनकी नींद खुली सो उने खयाल आओ के बे साऊत के पैसे का कर रए हते। उन्ने तुरर्तइं मैंसेज बाॅक्स खोल के देखो के उते एटीएम खुलबे को मैसेज आ गओ हुइए। मनो उते जो उने दिखो, बा देख के तो उने चक्कर आ गओ। ऊमें उनके एकाउंट से बीस लाख रुपयै निकारे जाने को मैसेज दिखानों। जबके उन्ने तो एक पइसा नहीं निकारो रओ। कछू देर बे बेहोस से डरे रए। उत्ते में उनकी घरवारी सोई जाग गई। ऊने देखो के रामआसरे जू तो आड़े डरे तो बे घबरा के चिचियान लगीं। उनकी आवाज सुन के पास-पडोस वारे दौड़त भए उते पौंचे। रामआसरे जू खों पानी-वानी के छींटा मार के उने होस में लाओ। तब पता परी के उनके संगे का भओ। सो, सबने कई के ईकी पुलिस में बता देओ। जेई बीच कोनऊं ने पुलिस खों फोन कर दओ।घंटा खांड़ में पुलिस वारे आए। उन्ने रामआसरे जू पूछ-ताछ करी तो समझ में आओ के उनके संगे साईबर क्राईम हो गओ आए। सो थाना से आए वारे बोले के ईकी तो साईबर थाने में रपट लिखी जैहे। बेई ओरें बता पाहें को अब का हो सकत आए। सो बे कछू जने के संगे साईबर थाना गए रए। अभई पांच-सात मिनट पैलेई तो आए कहाने। उनके संगे गए वारे बता रए हते कि उन ओरन ने रपट लिख लई आए औ रामआसरे जू खों तनक डांटो सोई के जब सबरे मीडिया के जरिए बताओ जा रओ के कोनऊं झांसा में ने आओ, ने आओ! औ आप बोई में कूंद परे।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘कई तो सांची बे पुलिस वारों ने मनो डांटो नई चाइए रओ। काए से के एक तो उनके इत्ते सारे पइसा चले गए औै उपरे से अब डांट के का हुइए? रामआसरे जू खों तो ऊंसई सबक मिल गओ। अब तो बे झूठी सक, कई की लिंक बी कभऊं ने खोलहें।’’ मैंने कई।
‘‘सो अब का हुइए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘अब देखो का होत आए। काए से के पुलिस वारे कै रए हते के ई टाईप के मामलों में पइसा वापस मिलबे को चांस कम रैत आए। हो का आए के कओ पता परी के जोन ने लिंक भेजो रओ बा उते अफरीका में बैठो, सो अब ऊको का बिगार लैहो? जा तो इंटरनेट को मामलो आए। ईमें पतोई नई परत के को कां से बैठ के का कर रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! जेई सोसल मीडिया और चैट-मैट में देख लेओ न, के मुतके हरें फर्जी प्रोफाईलें बना के ठगत रैंत आएं। अपनी डीपी पे ब्रांडेड कपड़ा वारी फोटू चपका देत आएं औ पता परी के बे कोऊ कुइरिया में फटी बनियान पैन्ह के बैठे होंए। औ आजकाल तो डिजिटल अरेस्ट घांई भौत से मामले होन लगे। जेई से कोऊ पे आंख मींच के भरोसो नईं करो जा सकत। रामआसरे जू सोई तनक ऊंसई से ठैरे। ने तो का परी हती के रात ई खों बे लिंक पे अपनो पूरो डिटेल डार आए। सो, उन्ने अपनो कार्ड को पासवर्ड सोई बता दओ हुइए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘औ का? पूरो माने पूरो। अब अपने घरे की तारा-कुची खुदई भड़यों खों पकरा देओ तो बे माल-मत्ता तो उड़ाहेंई। बेई बे अपने रामआसरे जू तनक संकारे लौं ठैर जाते औॅर औ बैंक जा के पतो कर लेते तो ने गत्तंे ने बनतीं।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘अब जो होने को रऔ सो हो गओ अब उनको का, इते सबई खों सम्हल के रैने चाइए। आजकाल को कां चपत लगा जाए कछू कहो नईं जा सकत। 
‘‘अरे मैं बता रई ने आपके लाने, का भओं हमाए परिचय की एक मैडम आएं। वे आॅनलाईन शॅपिंग भौत करत आएं। एक दिनां एक आदमी आओं कूरियर वालों। उके पास एक ठइयां बोरा रओ। मनो शंका को कोनऊं गुंजाइश ने रओ। ऊने बकायदा घंटी बजा के एक ठइयां पैकेट पकराओ और पईसा ले लए। बाद में पता परी के बा पैकेट में से धजी निकरी। बा ऊ कंपनी को पैकेेटई नई हती जोन से उन्ने धुतिया मंगाई रई। पूरो पइसा पानी में चलो गओ।’’मैंने भैयाजी औ भौजी खों बताई। औ फेर उन ओरन से टाटा- बाय- बाय करी।           
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। तब लौं मनो सोचियो जरूर ई बारे में के ऐसे फेर में परे से का होत आए। काय से जे टाईप के लुटेरा पुटिया के ने तो धमका के पूछत आएं। औ जां सब कछू बताबे खों मों खोलो औ गओ सब। तो अबके जेई हो रओ के इते को मों खोलो औ उते सब कछू गओ। सो, तनक जागो रओ चाइए। 
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Wednesday, April 23, 2025

चर्चा प्लस | पृथ्वी को हमने चढ़ा रखा है अपने कर्मों के जलते चूल्हे पर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
 चर्चा प्लस
       पृथ्वी को हमने चढ़ा रखा है अपने कर्मों के जलते चूल्हे पर
         - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
कुछ साल पहले एक हिंदी फिल्म का गाना बहुत लोकप्रिय हुआ था- ‘‘हाय गर्मी, हाय-हाय गर्मी!’’ ये एक द्विअर्थी गाना था, लेकिन अब बढ़ते तापमान में इस गाने का एक ही मतलब रह गया है और वो है प्राकृतिक गर्म हवाओं का बढ़ना। घरों में कूलर रिपेयर हो चुके हैं, एसी की सर्विस भी हो चुकी है। यानि गर्मी से बचने के उपायों की दिशा में गति तेज हो गई है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये अस्थायी उपाय हमें कितने दिनों तक गर्मी से बचा पाएंगे? जब अप्रैल के मध्य में ही बैरोमीटर का पारा 40 डिग्री को पार कर जाएगा, तो ये सारे उपाय भविष्य में बौने साबित होंगे। जरूरी है कि हम अस्थायी उपायों के साथ-साथ स्थायी उपायों पर भी ध्यान दें।  
       80 वर्ष से अधिक आयु के लोगों का कहना है कि जो तापमान पहले मई-जून में होता था, वो अब मार्च-अप्रैल में है। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में ही तापमान का 40 डिग्री पार करना साफ संकेत है कि मई और जून में तापमान आसानी से 47 डिग्री को पार कर जाएगा। यह अच्छी स्थिति नहीं है। अप्रैल के मध्य तक भोपाल जैसे शहर में तापमान 40 डिग्री को पार कर गया है। चल रहे अध्ययन से यह भी पता चला है कि 103 मौसम स्टेशनों में से अधिकांश ने 1961-2020 की अवधि के दौरान अप्रैल और जून के बीच हीट वेव की आवृत्ति में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की है। इसका एक मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन माना जा सकता है। 1850 से 1900 के बीच दुनिया का औसत तापमान अब 1.15 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यानी वैश्विक तापमान इतना बढ़ गया है। यही वजह रही कि 2015 से 2022 तक सभी 8 साल बेहद गर्म रहे पिछले कुछ सालों से दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों का तापमान 40 के पार जा रहा है। वहीं, देश के दूसरे राज्यों और शहरों में 40 से 45 डिग्री तक तापमान दर्ज किया जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, हर दो दशक में तापमान में 10-14 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। 
मैंने अपने एक परिचित से पूछा कि क्या आप कभी पृथ्वी के बारे में सोचते हैं? तो उसने कहा कि पृथ्वी के बारे में क्या सोचना? अच्छी-भली तो है। फिर वो कहने लगे कि मुझे तो यही चिंता रहती है कि इस बार मुझे इंक्रीमेंट मिलेगा या नहीं? मैंने घर के लिए लोन के लिए भी अप्लाई कर दिया है। अगर लोन सेंक्शन नहीं हुआ तो इस बजट सत्र में मेरा घर बनाने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा।

 दरअसल हम ऐसी कितनी ही चीजों के बारे में चिंता करते रहते हैं, लेकिन हमें अपने ग्रह, अपनी पृथ्वी के बारे में सोचना अनावश्यक लगता है, जबकि आज सबसे पहले पृथ्वी के बारे में सोचना जरूरी है। हम तभी रहेंगे जब पृथ्वी रहने लायक रहेगी। हमने तो जंगलों को काट कर, नदियों से रेत निकाल कर, जल स्रोतों को सुखा कर अपने आत्मघाती कर्मों का एक ऐसा चूल्हा जला रखा है जिस पर पृथ्वी को चढ़ा कर उसके तप कर आग का गोला बनने का इंतजार कर रहे हैं।
‘‘हम सभी बढ़ते प्रदूषण और वनों की कटाई के बारे में जानते हैं। वनों की कटाई का मतलब है पेड़ों को काटना, जिसे किताब में बहुत अच्छे से समझाया गया है। हम प्लास्टिक की थैलियों की जगह कपड़े के थैले इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब हम इसे गंभीरता से लें।’’ ये शब्द मेरे नहीं हैं, ये शब्द तनिशी शर्मा के हैं जो उस समय सिर्फ 11 साल की स्कूली छात्रा थी। हाँ, उस समय वह 11 साल की थी, जब मैंने उससे मेरी किताब के ब्लर्ब के लिए टिप्पणी लिखने का अनुरोध किया था। दरअसल, जब मैंने अपनी किताब ‘‘ क्लाईमेट चेंज: वी केन स्लो द स्पीड’’ पूरी की, तो मैंने तय किया कि मेरी किताब के ब्लर्ब के लिए स्कूली बच्चों से लिखवाऊँगी क्योंकि हमारी धरती और धरती का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है। 
दूसरे दो युवा छात्र काव्या कटारे और आराध्य कर्मा उस समय 14 वर्ष के थे। देखिए, क्या लिखा था युवा छात्रा काव्या कटारे ने, ‘‘मैं हमेशा सोचती थी कि हमारे समाज को क्या हो गया है। हम क्यों अपने हाथों से इंसानों की जिंदगी काट रहे हैं? क्या हम कभी अपनी स्वस्थ धरती को फिर से पा सकेंगे या यह जल्द ही नष्ट हो जाएगी? लेकिन इस किताब ने मुझे हर सवाल का जवाब दिया। इस किताब ने हमारे सामने एक चुनौती रखी है। अब हमारी बारी है। बस इतना ही कहिए कि चुनौती स्वीकार है!’’ और, छात्र आराध्य कर्मा ने लिखा कि, ‘‘हम सभी को यह कड़वी सच्चाई स्वीकार करनी होगी कि तथाकथित ‘आधुनिकीकरण’ की ओर हमारे कदम लगातार धरती माता को प्रभावित कर रहे हैं। यह किताब ‘ सभी को प्रकृति के संरक्षण की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेगी। मुझे लगता है कि यह ऐसी किताब है जो हर किसी की बुकशेल्फ पर होनी चाहिए।’’ 

छात्रा, 17 वर्षीय उर्जा अकलेचा ने बहुत ही बौद्धिक ढंग से लिखा कि, ‘‘मुझे डर है कि भविष्य में, भले ही हम अपनी धरती माँ का हाथ थामने को तैयार हों, वह मना कर देगी, या अधिक संभावना है कि वह ऐसा करने के लिए बहुत बिस्तर पर होगी... यह किताब हमारे लिए एक चेतावनी है कि हम अभी जाग जाएँ, अन्यथा यह ग्रह अनंत काल तक सो जाएगा।’’

चारों छात्रों के विचारों का यहां उल्लेख करने का आशय यही है कि जिस खतरे की ओर हम बड़ी उम्र के लोग आंख मूंद कर बैठे हैं, उस ख़तरे को ये वर्तमान युवा 2022 में भली-भांति समझ रहे थे और अपनी चिंता जता रहे थे।

इस सच पर ध्यान क्यों नहीं जाता कि गर्मियों में ग्रामीण या खुले इलाकों के मुकाबले मध्यम और बड़े शहरों में हालात ज्यादा खराब हो जाते हैं। कई शहरों को अब ‘‘अर्बन हीट आइलैंड’’ या ‘‘हीट आइलैंड’’ कहा जाने लगा है। अगर हवा की गति कम हो तो शहरों को आसानी से अर्बन हीट आइलैंड बनते देखा जा सकता है। क्या आपने कभी सोचा है कि इसके क्या कारण हैं? क्योंकि शहरों में पेड़ कट रहे हैं और ऊंची इमारतें बढ़ती जा रही हैं। इन ऊंची इमारतों में तापमान बदलने वाले शीशे लगे होते हैं जिनसे गर्म लहरें परावर्तित होकर एक दूसरे में लौटती हैं। इससे इमारतों के बीच का स्थान यानी सड़क, गली आदि गर्म हवाओं का दरिया बन जाती है। वैज्ञानिक इस स्थिति को कठिन भाषा में समझाते हैं लेकिन मैं सीधे, सरल और संक्षिप्त रूप में बता रहा हूं कि हम तेज तापमान के थपेड़े खाते हुए इमारतों के बीच की गलियों से गुजरते रहते हैं। इस तरह की गर्मी देर रात तक कम नहीं होती जिससे भवन के अंदर चंद्रमा जैसी शीतलता का अनुभव होता है लेकिन भवन के बाहर मंगल ग्रह जैसी गर्मी महसूस की जा सकती है। प्रश्न उठता है कि फिर क्या हमें ऊंची इमारतें नहीं बनानी चाहिए या उनमें बड़े-बड़े ताप रोधी शीशे नहीं लगाने चाहिए? हां, बिल्कुल! हमें न तो बड़ी इमारतें बनानी चाहिए, न ताप रोधी शीशे लगाने चाहिए, न ही एयर कंडीशनर का उपयोग करना चाहिए, जब तक कि हम अपने भवनों के आसपास ऐसे पेड़ न उगाएं जो बाहर के तापमान को नियंत्रित करते हों। हमने पेड़ों को काटकर पृथ्वी की तापमान में संतुलन बनाए रखने की वर्षों की मेहनत को नष्ट कर दिया है। बिल्कुल भी, बाहर के तापमान को नियंत्रित करने के लिए किसी बड़ी तकनीक की आवश्यकता नहीं है। केवल छायादार पेड़ों की आवश्यकता है। हम वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान के माध्यम से ऐसे पेड़ शीघ्र उगा सकते हैं और इस प्रकार अपनी गलती को सुधार सकते हैं।

लगभग यही स्थिति छोटे शहरों की भी है। वहां बड़ी इमारतें तो हैं नहीं, लेकिन पेड़ भी नहीं हैं। उन्हें काट दिया गया है। जलाशयों को हमने अपनी लापरवाही के कारण नष्ट कर दिया है। इसलिए जब जमीन में नमी नहीं रहेगी और सिर पर पेड़ों की छाया नहीं होगी, तो तापमान की दर हर साल बढ़ेगी ही। विचारणीय है कि वृक्षारोपण अभियान कई दशकों से चल रहे हैं, फिर भी हम पेड़ों की संख्या नहीं बढ़ा पाए हैं। क्या यह विडंबना नहीं है? वातावरण में तापमान बढ़ने का एक और बहुत बड़ा कारण सड़कों पर वाहनों की भीड़ है। जीवाश्म ईंधन से चलने वाला लगभग हर वाहन हवा में गर्मी छोड़ता है, जिससे हवा गर्म रहती है। चूंकि गर्मी का मौसम ही गर्म होता है, ऐसे समय में वाहनों से निकलने वाली अतिरिक्त गर्मी स्थिति को और खराब कर देती है। मार्च से 21 जून तक सूर्य पृथ्वी के करीब आ जाता है।

दरअसल, वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है। वैज्ञानिक कई बार चेतावनी दे चुके हैं कि धरती का पारा बढ़ रहा है। यह हर साल बढ़ रहा है। दरअसल, हम अपने ही विकास के चक्रव्यूह में फंसते जा रहे हैं, जिसमें प्रकृति को नुकसान पहुंचाकर हमने इस धरती के लिए भी परेशानियां खड़ी कर दी हैं। बीते सालों में दुनिया भर में लगी भीषण जंगलों की आग की खबरें भुलाई नहीं जा सकी हैं। वो आग ग्लोबल वार्मिंग का ही साइड इफेक्ट थीं। इस ग्लोबल वार्मिंग के लिए हम इंसान ही जिम्मेदार हैं। गर्म! गर्म! चिल्लाने से गर्मी कम नहीं होगी, बल्कि साल दर साल बढ़ती ही रहेगी। अगर इस बढ़ते तापमान की रफ्तार को रोकना है तो जल, जंगल और जमीन पर ध्यान देना होगा। इन तीनों को हुए नुकसान की तेजी से भरपाई करनी होगी। तभी हम उस दौर में लौट सकेंगे, जब हमारे पूर्वज गर्मी के इस मौसम को खौफनाक नहीं बल्कि ठंड के बाद एक स्वागत योग्य बदलाव मानते थे। 
हमें यह समझना चाहिए कि हमारे पास कोई ‘‘प्लेनेट बी’’ नहीं है। जब तक पृथ्वी है, तब तक हजमारा अस्तित्व है। अगर पृथ्वी न होती तो हम जीवित नहीं होते। पृथ्वी के स्वास्थ्य लाभों से मनुष्य को बहुत लाभ होता है। हमारा ग्रह निश्चित रूप से ईश्वर की ओर से एक अमूल्य उपहार है। यह ग्रह पर सभी जीवित चीजों के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्वों का मुख्य स्रोत है। जीवित रहने के लिए पृथ्वी द्वारा प्रदान की जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण चीज ऑक्सीजन है। पृथ्वी सभी जीवित प्राणियों के सांस लेने के पूरे चक्र को नियंत्रित करती है। हम जो ऑक्सीजन सांस लेते हैं वह पेड़ों से आती है, और हम जो कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं वह पेड़ों द्वारा अवशोषित की जाती है। पृथ्वी हमें वह सब कुछ प्रदान करती है जिसकी हमें आवश्यकता होती है, जिसमें हम जो भोजन खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं और जिस घर में हम रहते हैं, वह शामिल है। पृथ्वी को श्माँ पृथ्वीश् के रूप में जाना जाता है, क्योंकि, हमारी माँ की तरह, वह हमेशा हमारा पालन-पोषण करती है और हमारी सभी जरूरतों को पूरा करती है। संयुक्त राष्ट्र का सुझाव है कि जलवायु परिवर्तन न केवल हमारे समय का परिभाषित मुद्दा है, बल्कि हम इतिहास के एक निर्णायक क्षण में भी हैं। मौसम के पैटर्न बदल रहे हैं और खाद्य उत्पादन को खतरा होगा, और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और दुनिया भर में विनाशकारी बाढ़ का कारण बन सकता है। देशों को प्रमुख पारिस्थितिकी प्रणालियों और ग्रहीय जलवायु को अपरिवर्तनीय क्षति वाले भविष्य से बचने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिए। इसके पहले कि हमारे करने के लिए कोई अवसर न बचे इससे पहले ही हमें अपने उन कर्मों पर लगाम लगाना चाहिए जिन्होंने पृथ्वी के तापमान को बढ़ाना शुरू कर दिया है।
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Tuesday, April 22, 2025

पुस्तक समीक्षा | प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी ग़ज़लों का पठनीय संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 22.04.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
       प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी ग़ज़लों का पठनीय संग्रह
     - समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
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ग़ज़ल संग्रह - हवा में आग
कवि       - अमन मुसाफ़िर
प्रकाशक - नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्य सोसायटी, प्लाट-91आई.पी. एक्सटेंशन, दिल्ली-92
मूल्य    - 200/-
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ग़ज़ल काव्य की एक ऐसी विधा है जो कहन में जितनी कठिन है, आकर्षण में उतनी ही अधिक लोकप्रिय है। ग़ज़ल के लिए कहा जाता है कि यह ‘कही जाती है’, लिखी नहीं जाती। अर्थात् ग़ज़ल संवेदनाओं से जन्म ले कर मानस में अवस्थित हो कर शब्दों में ढलती है और वाक्-ध्वनि के रूप में अथवा गान में ढल कर तुरंत अभिव्यक्त हो जाती है। यूं भी चाहे गद्य हो या पद्य, किसी भी विधा को साधना समय, श्रम और समर्पण की मांग करता है। निरंतर श्रम से ही विधा की प्रस्तुति में परिपक्वता आती है। युवा कवि अमन मुसाफिर के ग़ज़ल संग्रह ‘‘हवा में आग’’ की ग़ज़लें परिपक्वता की सीमा में दस्तक देती ग़ज़लों का संग्रह है। 
20 जुलाई 1999 को बहरोली, बरेली, उत्तरप्रदेश जन्मे अमन मुसाफिर किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्व विद्यालय से भौतिकी में बी.एससी (ऑनर्स), एम.ए. हिन्दी (इग्नू)य डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (अंग्रेजी-हिंदी) हैं तथा फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में भी सक्रिय रहते हैं। “हवा में आग” अमन मुसाफिर का यह पहला ग़ज़ल संग्रह है।

अमन मुसाफिर की ग़ज़लों में नूतन अनुभवजन्य एक ताज़गी है, जीवन के यथार्थ की बारीकियां हैं, बदलते युग के प्रतिमान एवं विसंगतियां हैं साथ ही रूमानियत की सुकोमल अभिव्यक्ति भी है। उन्होंने छोटी और बड़ी दोनों बहर की ग़ज़लें लिखी हैं। उनकी छोटी बहर की ग़ज़लों में शिल्प की कसावट के साथ शब्दों की सटीकता भी है। युवा ग़ज़लकार अमन मुसाफिर के इस प्रथम ग़ज़ल संग्रह में कुल 104 ग़ज़लें हैं। अमन की ये ग़ज़लें प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी हो उठती हैं। इन ग़ज़लों में समकालीन यथार्थ को गहराई से आत्मसात कर उसके आशय को शाब्दिक कैनवास पर खूबसूरती से चित्रित किया है। जैसे यह बानगी देखिए- 
जाने किसने आग लगायी पानी में 
हमने  पूरी  रात  बितायी पानी में
सबने अपने  सपने  देखे और हमें 
इक चेहरा बस दिया दिखाई पानी में
डूब समंदर के अंदर मुझ प्यासे ने 
पानी की  तस्वीर  बनायी पानी में

अपने इर्दगिर्द के परिवेश से उपजी चुनौतियां कलमकार को जहां एक ओर अव्यवस्थाओं के विरुद्ध उठ खड़े होने को प्रेरित करती हैं, तो वहीं दूसरी ओर प्रेम के वैविध्य पूर्ण उद्गार उनके सृजन को एक विशेष रोचकता प्रदान करते हैं। अमन ने अपने संग्रह के आरंभिक पृष्ठ में ही लिखा है-‘‘मैं वह किताब हूँ जीवन की जिसकी कोई भूमिका नहीं।’’ जीवन का पाठ पढ़ते हुए, अनुभवों से सीखते हुए और व्यष्टि से समष्टि को ओर उन्मुख होते हुए अमन मुसाफिर ग़ज़ल की दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं। वे इस तथ्य को महसूस कर रहे हैं कि वर्तमान समाज में किस तरह संवेदनहीनता अपने पांव पसारती जा रही है। इसी से वे द्रवित हो कर यह ग़ज़ल कहते हैं-
यहां हर आदमी सबसे यही कहता है होने दो 
किसी के साथ गर जो हादसा होता है होने दो
यहाँ सब लोग सोये हैं अकेला मैं नहीं सोया 
शहर सारा अगर बारूद पर सोता है होने दो
किसी के देखकर आँसू तुम्हें रोना न पड़ जाये 
तुम्हें क्या वो किसी भी बात पर रोता है होने दो
अमन मुसाफिर उन सारे बिन्दुओं पर भी दृष्टिपात करते हैं जिनके कारण संवेदनाओं क्षरण हुआ है और व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो गया है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण रोज़मर्रा के जीवन में देखने को मिल जाता है कि किसी भी कार्यक्रम के दौरान कुछ लोग ऐसे होते हैं जो वक्ता या कवि को सुनने के बजाए अपने मोबाईल में ऐसे व्यस्त रहते हैं मानो उनके मोबाईल न देखने से शेयर मार्केट धराशयी हो जाएगा और आर्थिक तबाही छा जाएगी। दमसरों की बातों को न सुनने की इस आदत को अपनी एक ग़ज़ल में समेटते हुए अमन मुसाफिर ने बड़ा सुंदर कटाक्ष किया है-
घर में लोगों को बिठाना बंद कर दो 
सबसे रिश्तों को निभाना बंद कर दो
या तो गंगा साफ कर दो इक तरफ से 
या तो  गंगा में  नहाना  बंद कर दो
सीरियस हो जाओ सुन लो बात मेरी 
फोन को अब तुम चलाना बंद कर दो

संग्रह में पर्यावरण एवं स्त्री के अस्तित्व के प्रति चिन्ता प्रकट करती ग़ज़लें भी हैं। जंगलों को बेतहाशा काटे जाने की व्यथा के साथ ही अमन प्रकृति की महत्ता का भी स्मरण कराते हैं कि यदि अभी भी बचे हुए जंगलों को यथास्थित छोड़ दिया जाए तो वे कटे-लुटे जंगल कुछ ही सालों में स्वयं को व्यवस्थित करने की क्षमता रखते हैं।
गये कहाँ वह सारे जंगल 
कल के प्यारे-प्यारे जंगल
छोड़ धरो दस बीस साल को 
खुद को आप निखारे जंगल
गहन चोटियों-चट्टानों उन 
झरनों के  वे  धारे जंगल

जहां तक स्त्री के अस्तित्व का प्रश्न है तो मां के गर्भ में आते ही कन्या भ्रूण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाया करता था। वह तो लिंग जांच पर कड़ी पाबंदी लगा दिए जाने से स्थिति सुधरी, अन्यथा पुरुष और स्त्री की संख्या का आनुपातिक अंतर तेजी से बढ़ता जा रहा था। बावज़ूद इसके दुभाग्य है कि कन्या के जन्म के पहले से ही उसकी नियति समाज और परिवार द्वारा प्रायः निर्धारित कर दी जाती है। इस बात को गहन मार्मिकता के साथ अमन मुसाफिर ने कहा है-
घर का काम करेगी रेखा 
सबका पेट भरेगी रेखा
जो भी उसका दुख समझेगा 
उसकी बात सुनेगी रेखा
उसकी कोख की जाँच हुई है 
जिंदा नहीं बचेगी रेखा

अमन मुसाफिर के प्रेम की ग़ज़लों की खूबसूरती प्रशंसनीय है। देखा जाए तो संग्रह की अधिकांश ग़ज़लों का मूल स्वर प्रेम ही है जो कोमल भावनाओं का सूक्ष्मता से प्रतिपादन करता है। चाहे संयोग श्रृंगार की बात हो या वियोग का संदर्भ दोनों में समान रूप से बेहतरीन ग़ज़ल कही है। उदाहरणार्थ संयोग श्रृंगार की एक बानगी जिसमें गरिमा भी है और लालित्य भी- 
छुअन को फिर छिपाकर अनछुए हो लोगे, क्या होगा?
विकल  हो  वासना को  प्यार से  तोलोगे, क्या होगा?
किसी की   याद  में  खोकर, किसी  के  सिर से जो
घूँघट, कड़े, कंगन, खनकती पायलें, खोलोगे, क्या होगा?
वहीं, वियोग की स्थिति को कुछ इस नास्टैल्जिक अंदाज़ में बयान किया है-
मिटाता ही रहा खुद को रुलाता ही रहा खुद को 
जलाकर ख़त मुहब्बत के बुझाता ही रहा खुद को
चलाकर फोन में शब भर कहीं जगजीत की गजलें 
लगाकर कश मैं सिगरेट के जलाता ही रहा खुद को
हुआ जो कत्ल ख़्वाबों का बहा आँसू का जो दरिया 
तो फिर नमकीन पानी में डुबाता ही रहा खुद को

यूं तो अमन में ग़ज़ल कहने की कला है फिर भी कहीं-कहीं वे अपने ही शब्दों और भावनाओं में उलझ गए हैं। जैसे एक उदाहरण यहां रखा जा सकता है कि नवीन प्रयोग के उत्साह में पड़ कर ‘रैदास’ के साथ ‘राग’ के औचित्य का तारतम्य नहीं बिठा पाए हैं। इस अतिउत्साह से उन्हें बचना होगा-
ईंधन जुटा लिया  गया है आग के लिए 
घर में नमक बचा नहीं है साग के लिए
मीरा के पास कृष्ण तो आयेंगे ही जरूर 
रैदास को  बुलाओ  किसी राग के लिए

वैसे इसमें कोई दो मत नहीं कि संग्रह की अमूमन ग़ज़लें बेहतरीन हैं और पूरा संग्रह पठनीय है। यदि वे अपनी ग़ज़लों के साथ इसी तरह गंभीरता से चलते रहे तो अमन मुसाफिर की यह रचनात्मक यात्रा उन्हें परिपक्वता और सफलता के मार्ग पर बहुत दूर तक ले जाएगी।     
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Saturday, April 19, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | आम को पना पियो औ टैक्स भरो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
टॉपिक एक्सपर्ट
आम को पना पियो औ टैक्स भरो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       कां तो हम चौराए पे छायरी के लाने बर्रया रये हते औ इते घाम में तपा-तपा के भुंटा से भून दये जा रए। बा बी ऐसो वारो भुंटा जो भुंजत टेम चटर-पटर लौं नईं कर सकत। इते सूरज देवता मूड़ पे ठाड़े हो के तांडव कर रये औ उते 30 अप्रैल तक को टेम दओ गओ आए टैक्स भरबे के लाने। प्रापर्टी को, पानी को, कचड़ा को। मने सबरे टैक्स। एक तरफी एनाउंसमेंट करा रये के दुफारी को 12 से 03 घरे से बायरे ने कढ़ो औ दूसरी तरफी दुफारी 11 से संझा 5 को टेम दे रये टैक्स भरबे के लाने। गजबई हो रओ, रामधई ! बाकी गजब की का कयें? प्रापर्टी टैक्स सो चलो, अपने घरे रै रये सो कोनऊं बात नईं। सई आए। कचरागाड़ी रोज की आ रई, सो ऊको टैक्स बी सई कहानो। मनो पानी को टैक्स में सो प्रानई निकार लये। गई एक साल को जो पानी को पइसा ने भर पाओ सो ऊपे पूरो 780 रुपैया पेनाल्टी ठोंक दई। जबके गई साल में राजघाट औ टाटा की कबड्डी खिलत रई। कभऊं पाईपें टूटत रईं, तो कभऊं नई लाईनें डलत रईं। मने पानी तो पूरो मिलो नईं, बाकी पईसा वसूले जा रए। 
        होने को तो जो होने चाइए रओ के मकरोनिया वारो वसूली कैम्प सुभै सात-साढ़े सात से दुफारी के 12-12:30 बजे लौं लगाओ जातो। पर ऐसो करो नई गओ। जबरा मारे औ रोन न दे घांई चल रओ। सो, मनो अब करो का जाए? जेई करो भैया-बैन हरों के आम को पना पियो औ टैक्स भरो। काए से के जे गरमी औ घाम की खुदई खों सोचने परहे।
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Thank you Patrika 🙏
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Friday, April 18, 2025

नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
शून्यकाल
     नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             
       बुंदेली संस्कृति को लेखबद्ध कर संजोने में जो नाम सबसे पहले लिया जाता है, वह स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त जी का नाम है। 01 जनवरी, 1931 को जन्मे नर्मदा प्रसाद गुप्त ने हिंदी और अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद ‘‘बुदेलखंड का मध्ययुगीन काव्य: एक ऐतिहासिक अनुशीलन’’ विषय में पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने लगभग 10 वर्ष अंग्रेजी और 25 वर्ष तक हिंदी के अध्यापन का दायित्व निभाया। सन् 1958 ई. से वे साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करते चले गए। उन्होंने अपना सृजन कार्य कविता और कहानी से प्रारम्भ किया। उनकी लगभग 35 कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनके द्वारा संपादित सबसे चर्चित पुस्तक रही ‘‘बुन्देलखंड का साहित्यिक इतिहास’’। उन्होंने ‘‘मामुलिया’’ त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन किया तथा बुन्देलखंड साहित्य अकादमी की स्थापना की। उन्हें अनेक सम्मानों से समय-समय पर सम्मानित किया गया।
डाॅ. नर्मदा प्रसाद गुप्त की कहानियों में भी बुंदेलखंड की गरिमा और नारी अस्मिता के प्रति उनका सकारात्मक आह्वान स्पष्ट दिखाई देता है। इस लेख में मैं उनकी कुछ कहानियों पर संक्षिप्त चर्चा करने जा रही हूं। इन कहानियों में बुंदेलखंड का इतिहास, वर्तमान तथा स्त्री के प्रति सामाजिक वैचारिकी को दृढ़तापूर्वक रेखांकित किया गया है। इससे सुगमता से समझा जा सकता है कि डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त बुंदेली संस्कृति के मात्र गौरव-गायक नहीं थे, वरन वे बुंदेली समाज में आए उस कलुष को भी मिटना चाहते थे जिनके कारण लगभग हर काल में स्त्रियों को अवहेलना और प्रताड़ना सहनी पड़ी। इसीलिए मैं सबसे पहले उस कहानी की चर्चा करने जा रही हूं जिसका नाम है ‘‘लाखा पातुर’’।  
बुंदेलखंड में ‘‘पातुर’’ नृत्यांगनाओं अर्थात नाचनेवालियों को कहा जाता है। इन स्त्रियों के प्रति पुरुषप्रधान सामाजिक दृष्टिकोण संतुलित नहीं रहता है। ये स्त्रि़यां कलानिपुण होते हुए भी समाज के लांछन का निशाना बनी रहती हैं। ‘‘लाखा पातुर’’ कहानी में कथाकार नर्मदा प्रसाद गुप्त ने राजाशाही के समय की एक ऐसी नृत्यांगना की कथा बुनी है जिसे एक प्रस्तर मूर्तिकार से प्रेम हो जाता है। इसी के समानांतर वर्तमान परिवेश का कथाप्रसंग भी चलता है जिसमें कथानायक एक चित्रकार है और उसे चित्रकला के लिए सम्मानस्वरूप मुख्यमंत्री से बीस हज़ार रुपए मिलते हैं। अर्थात् समानान्तर दो कालखंड किन्तु स्त्री के प्रति सोच लगभग एक जैसी, भले ही वह व्यक्ति कलानिष्णात है। पुराने कालखंड के प्रसंग के कुछ संवाद देखिए- 
‘‘देवराज तुम जानते हो कि राजनर्तकी के चारों ओर पत्थर की मोटी-मोटी प्राचीरें हैं जिनमें वह बंदी बनाकर रखी जाती है। उसका भी मन होता है कि वह खुले में नाचे, पर उसके पांव मर्यादा की रस्सियों से जकड़ी रहते हैं .... वे तभी खुलते हैं जब कोई राजा या सामंत बोली लगाए। जब बोली ही लगना है तो लाखों की लगे। न कोई लाख देगा न लाखा नाचेगी।’’
‘‘तो क्या नाचना छोड़ देगी? फिर राजनर्तकी की देह का बोझ होती रहेगी। आत्मा तो मर ही जाएगी। लोक से दूर रहकर कलाकार जीवित नहीं रह सकता इस विवाद को छोड़ो मुझे जाने दो।’’
‘‘पत्थरों में प्राण डालने वाले शिल्पी क्या तुम मुझे जीवन नहीं दे सकते?’’ लाखा फफक-फफक कर रो उठी थी।
देवराज ने जाते-जाते चेतावनी-सी दी थी, ‘‘लाखा पत्थर तो निर्दोष होते हैं उन्हें चाहे जैसा गढ़ लो।’’
‘‘तो क्या मैं पापिन हूं?’’ लाखा ने चींखकर सिर पकड़ लिया था। राजा और महात्मात्य ने तेजी से आकर स्थिति संभाल ली थी, लेकिन देवराज पहले ही जा चुका था।
जिस कलाकार से संवेदना की अपेक्षा की जाती है वह एक स्त्री की अपेक्षा पत्थर को निर्दोष मान रहा है। यह कथाकार की स्त्री-अस्मिता के प्रति संवेदना का सशक्त आह्वान है जो वस्तुस्थिति जता कर समाज को लज्जित कर, परमार्जित करना चाहता है।

दूसरी कहानी है- ‘‘एक और दुर्गावती’’। यह सती प्रथा की दूषित परंपरा का स्मरण कराते हुए पुरुषों द्वारा स्त्री की अनचाही उपेक्षा की कथा प्रस्तुत करती है। एक प्रोफेसर जो अतीत को खंगालने में इतना अधिक व्यस्त हो गया कि अपने वर्तमान में मौजूद अपनी पत्नी की आशाओं एवं आकांक्षाओं को ही भुला बैठा। ठीक वैसे ही जैसे पुराने समय में युद्धोन्मादी राजा अपनी रानियों के जीवन तक को भुला कर उनसे जौहर की आशा रखते थे। इस जौहर प्रथा को इतने महिमा मंडित रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा कि यह दूषित परंपरा सदियों तक चलती रही। इस कथा में प्रोफेसर अपने असिस्टेंट बलराम और प्रहलाद के साथ एक किले की छानबीन करते समय जौहर की घटना के साक्ष्य ढूंढने लगता है। उस समय कुछ संवाद उभर कर एक दृश्य रचते हैं। यह एक छोटा-सा दृश्य कथानक के समूचे स्वरूप की महत्वपूर्ण कड़ी के समान है-
बलराम ने अफसोस-सा जाहिर करते हुए कहा- ‘‘सर, जौहर के बाद कोई नहीं बचा और किला उजड़ गया। आज तक न जाने कितने राजा आए, पर कोई भी आबाद नहीं रह सका। लोग कहते हैं कि सती का शाप लगा है इस किले को।’’
प्रहलाद बारूदखाने की गहराई का अंदाजा लगा रहे थे और प्रोफेसर उसमें डूबने लगे थे। शाप...आखिर शाप तो उनके घर को भी लगा है। सविता उनसे ऊबकर हृदयेश का आसरा चाहती है। उसने तलाक की अरजी दे दी है। कारण कुछ नहीं, केवल इतना कि उसके पति किताबों, गुफाओं, लेखों सबके चक्कर में उसकी देखभाल नहीं कर पाते। पति का प्यार नहीं दे पाते। वह अपने ही घर में ऐसे रहती रही है, जैसे उसकी शादी न हुई हो। आज तक पत्नी की जिंदगी को तरसती रही। पत्नी की जिन्दगी....। सविता की धुंधली-सी छाया उस बारूदखाने में डोलने लगी और प्राफेसर अचानक फुसफुसा पडे-सविता...!
प्रोफेसर की आवाज सुनकर प्रहलाद ने कहा था- सर, चलें। सविता जी इंतजार कर रही होगी।
कहानी के इस अंश से स्पष्ट हो जाता है कि कथाकार ने अतीत की स्त्री के अस्तित्व के समापन और वर्तमान की स्त्री के अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष को दर्शाने के लिए जौहर की प्रथा को एक रूपक के रूप में प्रयोग किया है। 
तीसरी कहानी है-‘‘ठांड़ी जरै मथुरावाली’’। इस कहानी में सामाजिक परिवेश है, स्त्री है, पारिवारिक संबंध हैं, प्रेम संबंध हैं और लोकगीत के रूप में लोक संस्कृति भी है। जब संबंधों में उलझने पैदा होने लगें तो बुद्धि भी छटपटा कर रह जाती है। यह समझना कठिन हो जाता है कि जो कदम उठाया जा रहा है, वह सही है या नहीं? कथा का यह छोटा-सा यह अंश देखिए- 
‘‘नहीं, मुझे आज ही पहुंचना है। प्रेमा आंखों में गीलापन लिए फर्श की तरफ देखती रही। वह भी पैर के नाखून से लिखने लगा था। गोविन्द कुछ रोष में जाने लगे कि उसने द्वार तक उनको भेज दिया और नमस्कार कहकर अपने कमरे में आ बैठा। सोचने लगा कि विष-लता अब खूब लहलहा उठी है, आगे क्या होगा। मां पीछे लौटना नहीं चाहती और बाबूजी को मालूम नहीं कि कथा अपने आप बढ़ती जा रही है। गोविन्द जाने क्या-क्या कह गए, लेकिन मां बड़े संयम से सुनती रही प्रेमा ने बहुत साहस दिखाया। मुमकिन है कि उसके शब्द मां के लिए मरहम का काम करे और समस्या हल हो जाए।’’
डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त ने ओरछा की सुप्रसिद्ध नर्तकी पर कहानी लिखी है-‘‘प्रवीणराय’’। एक ऐसी नृत्यांगना जो इतिहास में स्त्री के साहस और बुद्धिकौशल की प्रतीक के रूप में दर्ज़ है। प्रवीणराय को राजनीति की शतरंज की बिसात पर एक प्यादे की भांति चलाने का प्रयास किया गया किन्तु वह एक विजयी रानी की तरह अकबर के दरबार से ओरछा लौटी, वह भी अकबर को मुंहतोड़ जवाब दे कर। लेकिन अकबर के दरबार तक पहुंचने के पहले उसे अपनी क्रोध पर किस तरह काबू में करना पड़ा इसका विवरण भी कथाकार डाॅ. गुप्त ने इस कहानी में दिया है। यह एक झलक देखिए-  
‘‘प्रवीण, युद्ध केवल तलवार से नहीं लड़ा जाता, कलम भी पैनी होती है। अपनी कलम और कला से सैकडों को जीत सकती हो। फिर एक बादशाह को नहीं? और उस बादशाह को, जो कलम और कला का सम्मान करता है। उठो तैयार हो जाओ।’’
प्रवीण ने साहस बटोर कर कहा था- ‘‘आचार्य में सबके लिए तैयार हूं पर अपनी प्रतिष्ठा और सतीत्व के मूल्य पर नहीं।’’  
‘‘किन्तु आंच आने पर तुम वहां भी कटार का सहारा ले सकती हो। अकेले सूने में मरने से क्या बनता है? ऐसे मरो कि दो-चार याद रखें।’’ इतना ही कहा था कि वह तैयारी करने लगी।
कितना विश्वास करती है प्रवीण। इंद्रजीत से भी नहीं पूछा और घोड़े पर बैठकर चल दी। पतिराम साथ था, नहीं तो और भी मुसीबत होती। किसी तरह आ ही गए, लेकिन बात रह जाए तब तो। प्रवीण का भरोसा है, वह बादशाह को कैसे जीतती कौन से दांव से नृत्य, वीणा या कविता से? अगर कविता से जीतती तो भाषा की जीत सारे देश पर छा जाएगी। कविराज ने मन ही मन एक गौरव का एहसास किया और दर्द से चारों तरफ देखकर अपनी नजरें रहीम पर गड़ा दीं।

डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त द्वारा लिखी गई अन्य कहानियों में जैसे ‘‘चौपड़’’, ‘‘पैजना के कंकरा’’ आदि में बुंदेली जीवन के अतीत और वर्तमान का तुलनात्मक दृश्य इतने मंजे हुए ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि कथाकार की कथालेखन की सिद्धहस्तता में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता है। डाॅ. गुप्त की कहानियां जिस प्रकार बुंदेली संस्कृति, समाज, राजनीति आदि के परिवेश को धरोहर के रूप में संजोती हैं, ठीक उसी प्रकार से डाॅ. गुप्त की कहानियों को संजोए रखने की महती आवश्यकता है। क्योंकि ये कहानियां महज कथारस की कहानियां नहीं है वरन नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार द्वारा लिखी गईं ऐतिहासिक एवं सामाजिक मूल्यों की कहानियां हैं।
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