Friday, October 18, 2024

शून्यकाल | चित्रकला का भारतीय रेनसां यानी पीएजी का अस्तित्व में आना | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक "नयादौर" में मेरा कॉलम "शून्यकाल" -                                                     
चित्रकला का भारतीय रेनसां यानी पीएजी का अस्तित्व में आना
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          भारतीय जीवन में चित्रकला का सदैव स्थान रहा किंतु यह भी सच है की चित्रकला भारत में अपने स्वतंत्र और मूल अस्तित्व के लिए हमेशा संघर्ष करती रही। यहां चित्रकला को एक शौक के रूप में देखा गया। शायद यही कारण था कि इसे उस तरह से मंच नहीं मिला जिस तरह कला के अन्य प्रकारों को मिला। आज भी छोटे शहरों में चित्रकला प्रदर्शनियां बहुत कम होती हैं। लोग चित्रकारों को गंभीरता से नहीं लेते हैं। उनकी कला की प्रशंसा तो करते हैं किंतु एक कलाकार के रूप में उनकी संपूर्णता को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। आज से वर्षों पूर्व पीएजी ने भारतीय चित्रकला और चित्रकारों की दशा में पुनर्जागरण लाया था।

 भारतीय सांस्कृतिक जीवन में कला का सर्वाधिक महत्व रहा है। प्राचीन भारत में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है। उन्हीं में एक है चित्रकला। भारतीय चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना है। भीमबेटका की गुफाओं में बने चित्र 5,500 ईसा पूर्व से भी ज़्यादा पुराने हैं. इन गुफाओं में बने पशुओं के चित्रांकन और रेखांकन, भारत में चित्रकला की शुरुआत का संकेत देते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग मिट्टी के बर्तनों पर चित्र बनाते थे। गुप्तकालीन चित्रकला के बेहतरीन उदाहरण अजंता की गुफाओं में मिलते हैं। प्राचीन व मध्यकाल के दौरान भारतीय चित्रकारी मुख्य रूप से धार्मिक भावना से प्रेरित थी, लेकिन आधुनिक काल तक आते-आते इसमें लौकिक जीवन भी शामिल होता गया। आज भारतीय चित्रकारी लोकजीवन के विषय उठाकर उन्हें मूर्त कर रही है। 
      पहले भारतीय समाज में स्त्री और पुरुषों दोनों के लिए चित्रकला का ज्ञान आवश्यक था। धीरे-धीरे भारतीय सामाजिक जीवन से चित्रकला एक विशेष ज्ञान और कला के रूप में सिमटती गई। परंपरागत भारतीय शैली में पाश्चात्य शैली का समावेश हुआ और एक नई छटा भारतीय चित्रकला में दिखाई देने लगी। देश की आजादी के बाद चित्रकला में नवीन प्रविधियां एवं विचारों का समावेश हुआ और इसका जिनको को श्रेय दिया जा सकता है उसमें से प्रथम पंक्ति में हैं वे कलाकार जिन्होंने प्रगतिशील कलाकार समूह (पीएजी) का गठन किया। 
      प्रगतिशील कलाकार समूह अर्थात पीएजी - प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप में भारतीय चित्रकला में रेनसां का काम किया। रेनासां का अर्थ है पुनर्जागरण जो कि यूरोप में हुए पुनर्जागरण के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। 
      देश के कुछ सक्रिय एवं प्रतिष्ठित चित्रकारों ने यह अनुभव किया कि भारतीय चित्रकला परंपरागत शैली के साथ चल रही है जिसमें आधुनिक बोध की कमी है। इस कमी को दूर करने के लिए तथा चित्रकला में नवीन विचारों एवं शैलियों का समावेश करने के लिए सन 1947 में बॉम्बे में गठित किया गया जिसने देश के आधुनिक चित्रकला के परिदृश्य को बदल दिया। यह था प्रगतिशील कलाकार समूह अर्थात 
पीएजी। इस ग्रुप के संस्थापक सदस्यों में से एक थे मुल्क राज आनंद जिन्होंने ग्रुप के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा था कि यह ग्रुप "भारतीय कला की दुनिया में एक नई सुबह के अग्रदूत है।" 
     1947 का समय सुखद भी है और दुखद भी। सुखद इस मायने में कि देश आजाद हुआ और दुखद इसलिए कि देश के बंटवारे में भीषण रक्तपात हुआ। इससे कला और कलाकार भी प्रभावित हुए। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति का एक नया उत्साह भी था। उसे दौर में प्रगतिशील विचारों का समावेश हुआ और कुछ प्रतिष्ठित कलाकारों ने ने अपने समय की रूढ़िवादी कलात्मक प्रतिष्ठानों को चुनौती दी और चित्रकला में नवीनता का संचार किया। इससे  पोस्ट-इंप्रेशनिज़्म, क्यूबिज़्म और अभिव्यक्तिवाद जैसी आधुनिकतावादी शैलियों का भारतीय चित्रकला में प्रभाव बढ़ा। इस प्रभाव का विस्तार करने और इसे स्थाई तो देने के लिए तथा इससे नवीन चित्रकारों तक पहुंचाने के लिए पीएजी शुरुआत हुई। इस ग्रुप के संस्थापक चित्रकार थे-  एस.एच. रजा, एफ.एन. सूजा, एम. एफ. हुसैन, के. एच. आरा, एच. ए. गाडे और एस.के. बाकरे । इन चित्रकारों ने बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट द्वारा गठित पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद से अलग हो कर प्रगतिशील शैली को बढ़ावा दिया जो सुचित्रा कल के वैश्विक चलन के समक्ष थी।  पीएजी ग्रुप के सदस्यों ने अपनी चित्रकला में आमजन और उसकी समस्याओं को स्थान दिया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारतीय चित्रकला ने कल्पना के साथ यथार्थ में भी प्रवेश किया। 
      इस ग्रुप की आवश्यकता का एक कारण और भी था की तत्कालीन चित्रकला समितियों  की चयन प्रक्रिया में दोष आ गया था। उनकी पारदर्शिता समाप्तप्राय थी जिससे नवीन कलाकारों को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता था। इसीलिए प्रगतिशील चित्रकारों ने पीजिए  बनाया ताकि नवीन विचारों के नवीन कलाकारों को उचित प्रोत्साहन और सही दीर्घा मिल सके।
      ग्रुप के गठन के लिए पहल की रजा, सूजा, आरा और बकरे  ने। फिर सूजा ने हुसैन को और रजा ने गाडे को शामिल किया और इस तरह, समूह अस्तित्व में आया। उन्होंने शैलीगत उलझनों से बचने के लिए शुरुआत में छह सदस्यों को ही रखने का फैसला किया। आगे चल कर   मनीषी डे, राम कुमार, तैयब मेहता, कृष्ण खन्ना, मोहन सामंत और वीएस गायतोंडे जैसे कलाकार इस समूह से जुड़ गए।  अकबर पद्मसी ने पीएजी से बाहर रहते हुए भी आजीवन इसे समर्थन दिया।
          पीएजी ने भारतीय विषयों को पश्चिमी कलात्मक तकनीकों जैसे यूरोपीय आधुनिकतावाद, पोस्ट-इंप्रेशनिज़्म, क्यूबिज़्म और अभिव्यक्तिवाद के साथ मिलकर नई प्रविधियां चलन में लाईं।
केएच आरा ने आकर्षक जल रंग और गौचे पेंटिंग बनाई जो लोक और देशी आदिवासी कला शैलियों से मिलती जुलती थी, वहीं एफएन सूजा ने रूप की अपरंपरागत विकृति को प्रदर्शित किया।
           एम.एफ. हुसैन ने लोक कला, जनजातीय कला और पौराणिक कथाओं पर अपने चित्रों को केंद्रित किया। वहीं एस.एच. रजा ने अपने चित्रों में ज्यामितीय शैली को मिलाते हुए गौचे माध्यम को चुना। गौचे शब्द का उपयोग पहली बार फ्रांस में अठारहवीं शताब्दी में पानी में घुलनशील गम में बंधे रंगद्रव्य जैसे जलरंग से बने एक प्रकार के पेंट का वर्णन करने के लिए किया गया था, लेकिन इसे अपारदर्शी बनाने के लिए इसमें सफेद रंगद्रव्य भी मिलाया गया था । गौचे पेंट पानी के रंग के समान है , लेकिन इसे अपारदर्शी बनाने के लिए संशोधित किया गया है । जैसे पानी के रंग में, बाध्यकारी एजेंट पारंपरिक रूप से गोंद अरबी रहा है , लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से सस्ती किस्मों में पीले डेक्सट्रिन का उपयोग किया जाता है । जब पेंट को पेस्ट के रूप में बेचा जाता है, उदाहरण के लिए ट्यूबों में, डेक्सट्रिन को आमतौर पर पानी की एक समान मात्रा के साथ मिलाया जाता है।
     रजा तथा पीएजी के अन्य चित्रकारों ने अभिव्यक्तिवादी शैली को अपनाया। जिससे भारतीय चित्रकला में क्यूबिज्म को प्रभावी स्थान मिला। क्यूबिज़्म 20वीं शताब्दी का एक नव-विचारक कला आंदोलन था जिसका नेतृत्व पाब्लो पिकासो और जॉर्ज बराक ने किया था, जो यूरोपीय चित्रकला और मूर्तिकला में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया और जिसने संगीत एवं साहित्य को भी संबंधित आंदोलन के लिए प्रेरित किया। क्यूबिज्म (घनवादी) चित्रकला में वस्तुओं को तोड़ा जाता है, उनका विश्लेषण किया जाता है और एक नज़रिए के बजाए फिर से पृथक रूप से बनाया जाता है, कलाकार विषय का कई अन्य दृष्टिकोणों से बड़े संदर्भ में प्रतिनिधित्व करता है। अक्सर सतह यादृच्छिक कोणों पर एक दूसरे को काटते प्रतीत होते हैं और गहराई की सुसंगत समझ को खत्म कर देते हैं। पृष्ठभूमि और वस्तुओं का समतल धरातल परस्पर अनुप्रवेश कर उथला अस्पष्ट स्थान बनाता है जो क्यूबिज़्म की खास विशेषताओं में से एक है।
         समूह में एकमात्र मूर्तिकार सह चित्रकार, सदानंद बाकरे भारतीय कला में स्वतंत्र कल्पना को पेश करने के लिए प्रसिद्ध हुए जो यथार्थवाद को अपनाने की पारंपरिक शैली से अलग थी। उनके कामों की पहचान उनकी संवेदनशील मॉडलिंग और विशिष्ट अभिव्यक्ति से थी।
        भारतीय चित्रकला में रेनसां लाने वाला पीएजी उसे समय कमजोर पड़ गया जब सन 1951 तक, PAG के तीन प्रमुख सदस्य विदेश चले गए। सूजा और बाकर लंदन चले गए, वहीं रजा पेरिस चले गए। हुसैन भी मुंबई और दिल्ली के बीच आवागमन में उलझ गए। अंततः 1956 आते-आते यह ग्रुप टूट गया।  लेकिन इस प्रगतिशील कलाकार ग्रुप की जो दिन भारतीय चित्रकला को पुनर्जागरण के रूप में मिली वह कभी विस्मित नहीं की जा सकती है क्योंकि इसी ग्रुप के प्रयासों से भारतीय चित्रकला में वैश्विक प्रविधियां मुखरता से शामिल हुईं। पीएजी के दौर में ही चित्रकला में नवीन विषयों को भी स्थान मिला जो आज तक गतिमान हैं। वस्तुत कल भी एक बहते हुए जल के समान होती है जो अगर ठहर जाए तो उसमें जड़त्व आने लगता है किंतु यदि वह लगातार चलाएं मान रहे और उसमें नवीनता का समावेश होता रहे तो वह प्रगतिशील रहती है।
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Thursday, October 17, 2024

बतकाव बिन्ना की | बिकास को चेतक खुदई कुदद्दी ने मारहे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
बिकास को चेतक खुदई कुदद्दी ने मारहे
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        कुल्ल दिनां बाद भैयाजी और भौजी से बतकाव की फुरसत मिली। काए से के पैले करै दिन रये, फेर नवरातें आ गईं और फेर दसेरा पे रावन खों जलाओ-बराओ। मनो अबे बी उत्ती फुरसत नईयां जोन पैले हती, काय से के अभईं दिवारी आई जा रई। लिपाई, पुताई, सफाई घांईं मुतके काम डरे परे। अब आप बोलहो के आजकाल के पक्के मकानों में कोन कच्चो आंगन होत आए के जोन को लीपने परे। सो का भओ? घरे जो कच्चों आंगन नईयां, सो न होय, रोडें तो आएं। तनक चार फुट आगे लौं रोड पे गोबर की लिपाई करो, छुई से ढिग धरो औ बन गओ अपनो आंगन। ऊके बिगैर सूनो लगहे। सो मुतके लोग जेई करत आएं के घरे आंगन ने होय तो रोडके किनारे की, ने तो रोड की जमीन पे लिपाई करो औ अपने घरे में मिला लेओ। बन गओ अपनो आंगन। ऊपे सातिया सोई बनाओ जा सकत आए। रोडें सो होतईं आएं कब्जा करबे के लाने। मनो त्योहार में आंगन तो लीपोई जात आए।
भैयाजी के घरे सोई पुताई को काम लगो डरो। सो कल दुफैरी को मैंने सोची के उन ओरन के लाने तनक चाय-माय बना के ले जाओ जाए। सो मैंने अच्छी-नोनी चाय बनाई औ ऊको थरमस में भरो, ताकि बा ताती रई आए। कछू बेसन के चीले बना लए औ भैयाजी के इते पौंची। उते बरहमेस घांई भैयाजी औ भौजी की गिचड़ चल रई हती।
‘‘हमने आपसे कित्ती बार कई के काम के टेम पे जे अखबार ले के ने बैठो करो। बा पुतइया उते ऊपरे पोत रओ आए। जाओ, जा के तनक हेर आओ, के बा ठीक काम कर रओ के नईं?’’ भौजी भैयाजी खों हड़का रई हतीं।
‘‘अब हम का देख आएं? का बा अपनो काम नईं जानत? जा के ऊके मूंड़ पे ठाडे हो जाओ सो उन ओरन को मूंड़ सोई भिनकन लगत आए। तुम तो और!’’ भैयाजी खिसियात भए भौजी से बोले।
‘‘हऔ, आपके लाने तो उनके मूंड़ की परी आए, काम की नईं, के बे रंग को एक कोट लगा रये के दो कोट। जो पईसा गिनाबे की बेरा आहे सो ऊ टेम पे बी ओई की सुन के गिना दइयो, चाये ऊने सलीके से काम करो होये, चाए ने होय।’’ भौजी बमकत भई बोलीं।
‘‘का चल रओ भैयाजी? औ भौजी, आप ओरन ने चाय-माय नी के नईं?’’ मैंने दोई से पूछी।
‘‘अरे आओ बिन्ना! अबे कां चाय मिली? अबे तो तुमाई भौजी से डांट खा रये।’’ भैयाजी हंसत भये बोले।
‘‘चलो तो आप ओरें पैले बेसन के चीला खाओ औ चाय पियो। फेर डांट-मांट को काम कंटीन्यू राखियो।’’मैंने सोई हंस के कई।
‘‘अरे, काय हैरान भईं? किचेन में तो आखीरी में पुताई हुइए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘तो का भओ? आप अकेली का-का करहो?’’ मोसे कै आई।
‘‘जे कई ने तुमने सई बात। सच्ची बिन्ना, जे तो संकारे से अखबार ले के बैठ जात आएं औ हमई खों सब अकेले देखने पर रओ आए’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ! औ संकारे से बा पलका औ सोफा कोन ने हटाओ रओ? कुसका लग सकत्तो। बाकी बढ़ा-चढ़ा के बोलबे को तो चलन चल रओे आजकाल।’’ भैयाजी भौजी खों याद करात भये बोले।
‘‘चलन को का मतलब?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘मतलब जो कि काम चाए कछू ने भओ होए, मनो पब्लीसिटी ऐसई करी जात आए के ने केवल काम पूरो हों गओ होय, के वैसो काम कहूं और न भओ होय।’’भैयाजी बोले।
‘‘हमें समझ ने पर रई। कछू ढंग से बताओ आप।’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘ई में ने समझ परबे वारी का बात? तुमने अपने स्कूल टेम पे एक अलंकार तो पढ़ो हुइये जोन को नांव आए अतिशयोक्ति अलंकार। ऊमें जोई तो होत आए के सब कछू बढ़ा-चढ़ा के कओ जात आए। बा एक कबित्त रओ न के -
पड़ी अचानक नदी अपार,
घोड़ा उतरे कैसे पार?
राणा ने सोचा इस पार,
तब तक चेतक था उस पार।।
तुमने सोई जे कबिता याद करी हुइए ऊ टेम पे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ करी रई न!’’ मैंने मुंडी हिलाई।
‘‘सो जेई हाल तो चल रओ ई टेम पे। सरकार कै रई के ऊको राज अच्छो चल रओ और उनई के नेता, विधायक हरें कोऊ इस्तीफा दे रओ तो कोऊ लम्बोलेट हो रओ। मनो जो सरकारी विज्ञापन में देख लेओ तो राणा को चेतक कब को कुद्दी मार के ऊ पार ठाड़ो दिखाहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो आप सई कै रये। जो सरकार की अपने अधिकारियन पे कोऊ पकर ने रै जाए तो काए को बिकास औ काए को सुशासन? अखबार देखो तो दुश्शासनों की खबरन से भरो रैत आए। मनो कोनऊं खो कानून को डर नई रै गओ? चोरी-चकारी की सो बातई छोड़ो। आप सई कै रै के दिखाबो ज्यादा हो रओ औ काम कम हो रओ।’’ मैंने भैयाजी की बात पे हामी भरी।
‘‘औ का, चाए मंदिर के लिंगे होए चाए स्कूल के लिंगे दारू को अहातो खोल रखो आए। औ अब तो उनई के विधायक हरें कै रये के जा सब बंद करो। मनो कोनऊ उनकी लौं नई सुन रओ। औ कै रए के सब कछू भौतई अच्छो चल रओ।’’ भैयाजी बोले।
हम ओरें खात-पीयत बतकाव कर रये हते के भौजी बोलीं,‘‘तुम ओरन की चाय बढ़ा जाए सो ठाड़े हो जाओ।’’
‘‘काए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘काए का? आप ऊपरे जा के देखो के बा का कर रओ औ कैसो कर रओ। औ बिन्ना तुम तनक हमाओ हाथ बंटाओ। जे सरकारी काम नोईं, जे घर को काम आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हमाई तो चाय खतम हो गई। बताओ आप के मोए का करने?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘जे हुन्ना लत्ता हम देत जा रये, इनें तुम ऊ पलका पे धरत जइयो।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ देओ!’’ मैंने कई औ मैं ठाड़ी हो गई। मैंने तो पैलई सोची हती के उनको कछू हाथ बंटा देहों।
‘‘आप सोई उठो महाराज!’’ भौजी भैयाजी से बोलीं।
‘‘भैयाजी! इते चेतक अपनई से छलांग ने लगाहे, ऊके लाने पुल बनाबे परहे।’’ मैंने हंस के भैयाजी से कई।
भैयाजी सोई हंसन लगे। फेर बोले,‘‘सरकारी काम सरकारी घांई करो जात आएं तभई तो ने तो अच्छे से होत आएं औ ने टेम पे पूरे हो पात आएं। जो उन कामन खों बी अपनो समझ के, अपने घरे घांई करो जाए तो कित्तो अच्छो होय!’’
‘‘जागत को सपनों ने देखो आप! जा के बा पुतइयां खों देखो औ संगे ऊके लाने जे चाय सोई ले आओ।’’ भौजी चाय को मग्गा भैयाजी खों पकरात भईं बोलीं।
भैयाजी ऊपरे खों कढ़ गए औ मैं भौजी को हाथ बंटान लगी। बाकी भैयाजी ने बात सांची कई रई के जो सरकारी काम घरे घांईं ईमानदारी से करे जान लगें तो सब कछू साजो हो जाए। मनो अपन सबई खों तो अत्तों में जीने की आदत परी, का करो जाए। बस, जेई सोचत रैत आएं के बिना कछू करे-धरे विकास को चेतक खुदई से ई पार से ऊ पार कुद्दी लगा जाए।      
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। औ संगे अपने घरे की सफाई करो, पुताई करो, बाकी अपने घर को  कचड़ा दूसरे के दोरे पे ने मेंकियो, कचड़ागाड़ी वारों को ई दइयो। जै राम जी की!
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Wednesday, October 16, 2024

चर्चा प्लस | और कितनी बार लगेगा प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
और कितनी बार लगेगा प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह ? 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
     न्यायपालिका अथवा उच्च प्रशासनिक स्तर पर चाहे जितने नियम-कानून बना दिए जाएं पर उन पर पूरा अमल होता नहीं दिखता है। यदि किसी पीड़ित को चिकित्सक आवश्यक सर्टीफिकेट न दे अथवा थाने में उसकी रिपोर्ट न लिखी जाए तो त्वरित न्याय अथवा पुलिस सहायता की आशा करना ही व्यर्थ है। यह कटु सत्य पिछले कुछ समय से बार-बार उजागर हो रहा है। यदि सत्ताधारी दल के विधायकों को अपने ही शासन में अपनी ही जनता के लिए न्याय मांगने हेतु अपना त्यागपत्र देने जैसा कदम उठाना पड़े तो इसी से स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है।
प्रशासनिक अव्यवस्था को अभिव्यक्ति देने वाला एक भयावह और कठोर शब्द है ‘‘जंगलराज’’। क्या हमारी प्रशासनिक व्यवस्था उसी ओर बढ़ रही है? जिला मुख्यालय अथवा संभाग मुख्यालय में स्थिति फिर भी ठीक है किन्तु तहसील या ग्रामीण क्षेत्र में हाल सही नहीं है। इसका उदाहरण उस समय सामने आया जब सागर जिले की देवरी विधानसभा सीट से बीजेपी के प्रभावशाली विधायक बृजबिहारी पटैरिया को अपना त्यागपत्र देने जैसा कदम उठाना पड़ा। यद्यपि बाद में उन्होंने त्यागपत्र वापस ले लिया किन्तु इस घटना ने प्रशासनिक व्यवस्था की पोल खोल दी। मीडिया से बातचीत में विधायक पटैरिया ने कहा कि जब पुलिस सत्ता पक्ष के विधायक की भी नहीं सुन रही तो मुझे ऐसी विधायकी नहीं करनी है। उन्होंने स्पीकर ने नाम पत्र भेजकर इस्तीफे की पेशकश की। बाद में उन्होंने मीडिया से यह कहा भी की मैंने इस्तीफा दे दिया है।  

यह मामला थाने में एक डॉक्टर के खिलाफ एफआईआर न लिखे जाने का था। एक व्यक्ति की सर्पदंश से मृत्यु हो गई। जब उस व्यक्ति के परिजन सर्पदंश के मामले की पोटमार्टम रिपोर्ट बनाने के लिए डाक्टर से निवेदन किया तो डाॅक्टर ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के देने बदले से पैसे की मांग की। इससे मृतक के परिजन परेशान हो उठे। मामला विधायक बृजबिहारी पटैरिया तक पहुंचा और वे तत्काल डाॅक्टर की इस हरकत के विरुद्ध थाने में रिपोर्ट लिखाने पहुंचे। विधायक पटैरिया की मांग थी कि पुलिस डॉक्टर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करे, लेकिन जब मामले में पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की तो रात में ही विधायक पटैरिया अपने समर्थकों के साथ एफआईआर नहीं लिखे जाने के विरोध में धरने पर बैठ गए। उनका कहना था कि जब तक डॉ. दीपक दुबे के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती, तब तक उनका धरना जारी रहेगा। फिर बीजेपी विधायक पटैरिया ने विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बताई, जिसमें उनकी बात नहीं सुनी जाने का जिक्र किया। पत्र में लिखा है कि यदि उनकी मांग नहीं मांगी जाती तो वे विधायक पद से इस्तीफा दे देंगे। स्पीकर को लिखा उनका पत्र सोशल मीडिया पर वायरल हो गया तथा समाचारपत्रों ने भी उसे प्रकाशित किया।

इस मामले को कांग्रेस ने आड़े हाथों लिया और बीजेपी विधायक पटैरिया का पत्र एक्स पर पोस्ट करते हुए कहा कि ‘‘मध्य प्रदेश में बीजेपी के जनप्रतिनिधियों की ही सुनवाई नहीं हो रही है, तो आम जनता फिर क्या ही उम्मीद कर सकती है?’’ इस बीच विधायक पटैरिया का एक वीडियो भी सामने आया, जिसमें वे कह रहे थे कि ‘‘ऐसा निर्वाचित विधायक होने का कोई मतलब नहीं है, जिसमें विधायक को पीड़ित की रिपोर्ट लिखवाने के लिए विधायक को खुद थाने आना पड़े।’’ 
इसके बाद मध्य प्रदेश बीजेपी के नेता और गढ़ाकोटा विधायक गोपाल भार्गव ने बृजबिहारी पटैरिया से बात की। उन्होंने देर रात फेसबुक पर लिखा, ‘‘अभी-अभी देर रात जानकारी लगी कि मेरी नजदीकी विधानसभा क्षेत्र देवरी के विधायक बृजबिहारी पटैरिया ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र विधानसभा अध्यक्ष को भेजा है और वे केसली थाना में धरने पर बैठ गए हैं। इसकी जानकारी लगते ही मैंने वरिष्ठ विधायक पटैरिया से चर्चा कर विषय जाना। उन्होंने मुझे जो बताया उसे सुनकर मैं स्तब्ध हूं और सोच में पड़ गया। उन्होंने बताया कि उनकी विधानसभा क्षेत्र के मेढ़की ग्राम के व्यक्ति की सर्पदंश से मृत्यु हुई, मृत्यु उपरांत ग्रामवासी एवं परिवारजन मृत सांप और मृतक के शरीर को लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे और चिकित्सक को घटना के संबंध में अवगत कराया। चिकित्सक द्वारा मृतक के परिवारजन से इस आशय का मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने के लिए 40 हजार रुपए की मांग की गई। पटैरिया ने बताया कि पीड़ित परिवारजन ने जब पूरे प्रकरण की जानकारी दी और सबंधित चिकित्सक के विरुद्ध थ्प्त् कराए जाने की कार्रवाई की मांग की, तो मैं स्वयं केसली थाना पहुंचा और डॉक्टर के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के लिए कहा, परंतु प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई।’’
इधर बृजबिहारी पटैरिया द्वारा मीडिया को बताया कि ‘‘साक्ष्यों के उपरांत जब प्राथमिकी दर्ज करने के लिए मुझे पीड़ित पक्ष के साथ धरने पर तक बैठना पड़ा और कार्रवाई नहीं हुई, तो ऐसे पद का क्या मतलब? यह घटनाक्रम दुखद है, किसी व्यक्ति मृत्यु की जैसी घटना पर भी शासकीय कर्मचारियों द्वारा मृत्यु प्रमाण पत्र बनाए जाने के लिए पैसे की मांग की जा रही है। बीजेपी की सरकार जो गरीबों के लिए ही दिन रात कार्य कर रही है, ऐसी सरकार में पुलिस के अधिकारियों या चिकित्सकों कोई भी हो जो जनता से चुने विधायक की भी न सुने उनकी ऐसी कार्यप्राणली बर्दास्त नहीं की जाएगी।’’
विधायक पटैरिया के इस्तीफा देने के बाद विधायक गोपाल भार्गव ने उनसे बात की और  फिर मीडिया को बताया कि ‘‘मैंने पटैरिया जी को समझाया है कि हमें क्षेत्र की जनता ने आशा और विश्वास के साथ चुना है, आप इस्तीफा न दें। मैं स्वयं पुलिस प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों एवं चिकित्सा विभाग के अधिकारियों से संबंधित पुलिसकर्मी और दोषी चिकित्सक के खिलाफ कार्रवाई के लिए बात कर रहा हूं। इसके बाद मैंने जिले के अधिकारियों से बात कर संबंधित दोषियों के विरुद्ध अविलंब कार्रवाई करने को कहा है, साथ ही उन्हें बताया कि प्रदेश की बीजेपी सरकार आमजन के प्रति बेहद संवेदनशील है, इस प्रकार के गैरजिम्मेदार अधिकारियों की कार्यप्रणाली और व्यवहार को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’’
अंततः दोषी थाना प्रभारी को लाईन अटैच किया गया और विधायक बृजबिहारी पटैरिया ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया। साथ ही उन्होंने कहा कि जनता के साथ होते अन्याय को देख कर मैं आक्रोश से भर उठा था और मुझे इस्तीफा देने का कठोर कदम उठाना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि बृजबिहारी पटैरिया कांग्रेस से भाजपा में आए थे। पहले वे देवरी से ही कांग्रेस के टिकट पर विधायक बन चुके थे। बीते विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मंत्री भूपेंद्र सिंह के नेतृत्व में उन्होंने भाजपा में प्रवेश किया था। शिवराज सिंह खेमे से उन्हें टिकट मिला था, जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस विधायक व पूर्व मंत्री हर्ष यादव को शिकस्त दी थी।

इस घटना के पूर्व, दशहरे से पहले भाजपा नेता पं. गोपाल भार्गव ने बालिकाओं पर होती हिंसा की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर रावण दहन के मुद्दे पर सवाल उठाए, जिससे राजनीतिक हंगामा मच गया था। उन्होंने समाज में व्याप्त विडंबना पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि एक तरफ हम देवी की पूजा करते हैं, वहीं दूसरी तरफ छोटी बच्चियों के साथ दुव्र्यवहार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उन्होंने आगे कहा था कि नवरात्रि के अवसर पर जहां एक ओर दुर्गा पूजा और कन्या पूजन हो रही है। वहीं दूसरी ओर अखबारों में छोटी छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म और हत्या की खबरें भी सामने आ रही हैं। उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि उन्हें दुनिया के किसी और देश में ऐसी खबरें देखने को नहीं मिलीं। 
एमपी कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने विधायक भार्गव के बयान का समर्थन किया। उन्होंने अपने सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए लिखा कि ‘‘गोपाल भार्गव जी आपको साधुवाद देना चाहता हूं कि आपने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर मध्य प्रदेश में बेटियों के साथ हो रहे अपराधों को स्वीकार किया है। यह मुद्दा भाजपा या कांग्रेस का नहीं है, बल्कि हमारे प्रदेश की बेटियों की सुरक्षा का है।’’ यद्यपि इसके बाद विधायक भार्गव ने सोशल मीडिया पर भी अपनी बात रखी और अपने विचारों को विस्तार से समझाया। उन्होंने अपने पुरानी पोस्ट पर हो रही राजनीति पर सफाई देते हुए कहा कि उनका उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है।

बात मात्र इन दो विधायकों की नहीं है। कुछ दिनों पहले सागर के नरयावली विधानसभा क्षेत्र के भाजपा विधायक प्रदीप लारिया अपने इलाके में अवैध शराब, जुआ-सट्टा से परेशान होकर बार-बार पुलिस को ज्ञापन देते रहे हैंे। कई महीनों तक ज्ञापन देने के बाद भी उनकी सुनवाई होती उन्हें नहीं मिली जिससे वे क्षुब्ध रहे। 
इसी तरह रीवा मऊगंज से भाजपा विधायक प्रदीप पटेल अपनी सुनवाई न होने के कारण पहले आईजी ऑफिस पहुंचकर, फिर एडीशनल एसपी के सामने दंडवत हो गए थे। यह मामला काफी चर्चा में छाया रहा। मऊगंज के बीजेपी विधायक प्रदीप पटेल का सोशल मीडिया पर यह वीडियो जमकर वायरल हुआ। इसमें वे एडिशनल एसपी के दफ्तर में दंडवत प्रणाम करते हुए दिखाई दे रहे थे। मध्य प्रदेश के बीजेपी विधायक प्रदीप पटेल ने नशे के खिलाफ पुलिस की निष्क्रियता और बढ़ रहे अपराधों को लेकर एडिशनल एसपी के सामने दंडवत प्रणाम किया। इस दौरान वे यह भी कह रहे थे कि ‘‘मुझे गुंडो से मरवा दीजिए।’’
वस्तुतः मऊगंज के बीजेपी विधायक प्रदीप पटेल नशे के खिलाफ लगातार शिकायत कर रहे हैं। उनका कहना है कि मऊगंज जिले में नशे का कारोबार लगातार बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा आपराधिक वारदातें भी बढ़ रही हैं, जिसकी शिकायत की जा रही है, लेकिन कार्रवाई नहीं हो रही है। इसी के चलते उन्होंने पुलिस के सामने दंडवत प्रणाम किया है। इस घटना पर पाटन के भाजपा विधायक अजय विश्नोई पटेल के समर्थन में उतरे और उन्होंने कहा कि ‘‘प्रदीप जी, आपने सही मुद्दा उठाया है, पर क्या करें? पूरी सरकार शराब ठेकेदारों के आगे दंडवत है।’’ इसके बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष जीतू पटवारी और नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव घेरा कि उनकी पार्टी के विधायक ही पुलिस कार्रवाई से संतुष्ट नहीं हैं। नशे के खिलाफ मध्य प्रदेश में कार्रवाई नहीं हो रही है। 

इस तरह की घटनाएं प्रशासनिक व्यवस्था पर गहरे प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। यदि सत्ताधारी दल के विधायकों को ही न्याय दिलाने के लिए जूझना पड़े तो फिर आम जनता में भय पैंठेगा ही। बहरहाल, यदि लगाम कसने वाले समय रहते नहीं चेते तो यह स्थिति मध्यप्रदेश में भावी चुनावों में स्वयं सत्ताधारी दल पर भारी पड़ सकती है।       
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Tuesday, October 15, 2024

पुस्तक समीक्षा | वह पुस्तक जिससे बुंदेलखंड के परिचय को वैश्विक विस्तार मिलेगा | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 15.10.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ. नीलिमा पिंपलापुरे द्वारा लिखित पुस्तक "बुंदेलखंड : द हार्टबीट ऑफ मध्यप्रदेश" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा 
वह पुस्तक जिससे बुंदेलखंड के परिचय को वैश्विक विस्तार मिलेगा
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक        - बुंदेलखंड : द हार्टबीट ऑफ मध्यप्रदेश
लेखिका      - डाॅ. नालिमा पिंपलापुरे
प्रकाशक     - बी बज़ मीडिया, इंडिया
मूल्य        - 1000/- (पेपर बैक)
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      बुंदेलखंड देश का वह क्षेत्र है जिसकी भौगोलिकता अपने आप में अनूठी है। इसके इतिहास में प्राचीनता है और यह कला में बेजोड़ है। प्रागैतिहासिक काल से इंसानों ने बुंदेलखंड को अपने निवास के रूप में चुना। यहां स्थित गुफाचित्र इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। मृदभाण्ड तथा तांबे के सिक्के इसकी प्राचीनता की कथा कहते हैं। बुंदेलखंड श्रीराम के वनगमन पथ का अभिन्न हिस्सा रहा है तथा प्राचीन वैश्विक व्यापार के ‘‘सिल्क रूट’’ का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। बुंदेलखंड की वर्तमान विशेषता यह है कि यह दो राज्यों मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है। बुंदेलखंड के इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति पर अकादमिक रूप से बहुत लिखा जा चुका है और लिखा जा रहा है क्योकि शोध का कोई अंत नहीं होता है। फिर बुंदेलखंड में आज भी अनेक ऐसे तथ्य हैं जिनका उजागर होना अथवा जिन्हें नवीनदृष्टि से देखा जाना शेष है। इस दिशा में सागर विश्वविद्यालय के प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी, प्रो. एस.के. वाजपेयी, प्रो नागेश दुबे, प्रो. बी.के. श्रीवास्तव, डाॅ. मोहनलाल आदि ने महत्वपूर्ण शोध एवं लेखन का काम किया है। किन्तु अकादमिक कार्य एवं पर्यटन में प्रायः दूरी बनी रहती है। पर्यटक विस्तृत जानकारी से कतराते हैं। वे संक्षेप में जानना चाहते हैं कि यदि वे बुंदेलखंड पहुंचे तो वहां उन्हें क्या-क्या देखना चाहिए। वे सुंदर आकर्षक चित्रों के रूप में पहले ही उसका परिचय पाना चाहते हैं। अतः यह पूर्ति एक पर्यटन पुस्तक ही कर सकती है। सागर निवासी डाॅ. नीलिमा पिंपलापुरे ने इस कमी को अनुभव किया। जो उन्होंने चर्चा के दौरान अपने अनुभव साझा किए उसके अनुसार,‘‘जब वे विदेश में अथवा देश के दूसरे प्रदेशों में बसे लोगों से मिलती हैं तो लोग उनसे पूछते हैं कि वे कहां रहती हैं? जब वे बताती हैं कि सागर में, तो लोग पूछते हैं यह कहां है? वे बताती हैं कि मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में। तो लोग बुंदेलखंड का नाम सुन कर उलझन में पड़ जाते हैं क्योंकि उन्हें बुंदेलखंड के बारे में जानकारी नहीं है। ऐसे ही अनुभवों से उन्हें विचार आया कि एक ऐसी पुस्तक तैयार की जाए जो लोगों को बुंदेलखंड का संक्षिप्त परिचय भी दे और उन्हें यहां पर्यटन के लिए आने को प्रेरित भी करे।’’

डाॅ. नीलिमा पिंपलापुरे ने अपने इस विचार को विदेशी धरती तक पहुंचाने के लिए अंग्रेजी भाषा के माध्यम को चुना। यद्यपि वे मराठी और हिन्दी की भी जानकार हैं। लेकिन उनका उद्देश्य था बुंदेलखंड की खूबियों को ग्लोबल (वैश्विक) करना। इस दिशा में उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई ‘‘बुंदेलखंड द हार्टबीट ऑफ इंडिया’’। यह काॅफी टेबुल बुक थी। आकार-प्रकार में बेहद आकर्षक। इसमें विश्व विख्यात फोटोग्राफर गणेश पंगारे द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ थे। यह पुस्तक चर्चा में रही। किन्तु इस पुस्तक में कई जानकारियां छूट गई थीं और काफी टेबुल बुक के रूप में यह स्वदेशी पाठकों के लिए अपेक्षाकृत मंहगी भी थी। अतः उन्होंने अपने पहली पुस्तक के कलेवर को संशोधित एवं परिवर्द्धित किया और पेपरबैक पुस्तक के रूप में तैयार किया। इसमें भी गणेश पंगारे के नयनाभिराम छायाचित्र हैं। जो पुस्तक पढ़ने वालों को आमंत्रण देते प्रतीत होते हैं कि ‘‘आइए और बुंदेलखंड के सौंदर्य को निकट से निहारिए!’’ इस पेपरबैक पुस्तक का नाम भी वही है ‘‘बुंदेलखंड: द हार्टबीट आफॅ इंडिया’’। यह मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड पर केन्द्रित है और इसमें वे तथ्य भी समाहित किए गए हैं जो काॅफीटेबुल बुक में छूट गए थे। दोनों पुस्तकों का नाम एक ही है किन्तु कव्हर और कलेवर में दोनों पुस्तकों में भिन्नता है।

लेखिका ने अपनी यह पुस्तक बुंदेलखंड के निवासियों को समर्पित की है। इस पुस्तक में जो मुख्य विषय लिए गए हैं, वे हैं- बुंदेलखंड द रीजन, एम्प्लायमेंट एंड लिवलीहुड, फोर्ट एंड टेम्पल्स तथा कल्चरल हेरीटेज। अंत में संदर्भ प्रस्तुत किए गए हैं।

प्रथम अध्याय है ‘‘बुंदेलखंड द रीजन’’ अर्थात बुंदेलखंड की भौगोलिकता का। इसका परिचय देते हुए अध्याय के आरंभ में ही लेखिका ने काव्यात्मक शब्दों में लिखा है कि -‘‘हवाओं के मंत्रमुग्ध कर देने वाले संगीत के साथ झूमते हरे-भरे खेत, नम काली मिट्टी की मीठी सुगंध, घने जंगल, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की विविधता, क्रिस्टल जैसी स्वच्छ नदियों का शुद्ध बहता पानी, शानदार पहाड़ी इलाके, हजारों वर्षों की समृद्ध विरासत और संस्कृति - यह सब और भी बहुत कुछ, यह बेहद खूबसूरत बुंदेलखंड है, जो भारत की धड़कती धड़कन है!’’ इस अध्याय में उन्होंने बुंदेलखंड की भौगोलिक स्थिति, बुंदेलखंड का मानचित्र तथा बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास दिया है। बुंदेलखंड के इतिहास में लेखिका ने इस क्षेत्र की प्राचीनता को ध्यान में रखते हुए प्रीहिस्टोरिक अर्थात प्रागैतिहासिक काल से आरंभ किया है। फिर रामायण काल, महाभारत काल, छठीं शताब्दी ईसा पूर्व, ईसा उपरांत तीसरी शताब्दी, तीसरी से चौथी शताब्दी, वाकाटकों की चैथी शताब्दी, चैथी से छठीं शताब्दी गुप्ता राजवंश, आठवीं शती गुर्जर-प्रतिहार, नवीं से तेरहवीं शती चंदेल राजवंश, चौदहवीं से सोलहवीं शती बुंदेला साम्राज्य तथा 1720 सं 1760 तक मराठाओं का बुंदेलखंड पर राजनैतिक प्रभाव का परिचय दिया गया है। इसी अध्याय में प्राचीन नगर एरण, खजुराहो के मंदिर, महाराज छत्रसाल, ब्रिटिश साम्राज्य के समय बुंदेलखंड के बारे में जानकारी है। रानी लक्ष्मी बाई के संदर्भ में झांसी का परिचय है। सागर का परिचय देते हुए यहां की लाखा बंजारा झील से जुड़ी रोचक किंवदंती तथा सागर विश्वविद्यालय का परिचय है। अंत में देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बुंदेलखंड का स्वरूप जो विंध्यप्रदेश तथा मध्यभारत के अंग के रूप में रहा तथा वर्तमान बुंदेलखंड की जानकारी है।  

दूसरे अध्याय ‘‘एम्प्लायमेंट एंड लिवलीहुड’’ में बुंदेलखंड के आर्थिक पक्ष को लिया है। यहां का आर्थिक परिचय देते हुए आरम्भ में ही डाॅ नीलिमा पिंपलापुरे ने लिखा है कि -‘‘कृषि विकास इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को गति देता है, जबकि तेंदू पत्ता संग्रहण और महुआ आज भी वन-आश्रित समुदायों के लिए आय के महत्वपूर्ण स्रोत हैं।’’ इस अध्याय में बुंदेलखंड की कृषि संबंधी तथा वनोपज की जानकारी दी गई है। चूंकि बीड़ी व्यवसाय बुंदेलखंड का एक प्रमुख व्यवसाय है अतः तेंदू पत्ता जिसका उपयोग बीड़ी निर्माण में होता है तथा बीड़ी बनाने की चर्चा की गई है। वनोपज पर आधारित दूसरा बड़ा व्यवसाय है महुआ का। महुआ बीनने तथा इसके विविध उपयोग की संक्षिप्त जानकारी दी गई है।

इसी दूसरे अध्याय में ही वाइल्ड टूरिज्म अर्थात वन्य पर्यटन की अति संक्षिप्त जानकारी है। यहां मैं कहना चाहूंगी कि यदि लेखिका ने वन्य पर्यटन को एक अलग अध्याय के रूप में रखा होता तो उसकी ओर अधिक ध्यानाकर्षण होता तथा पन्ना नेशनल पार्क और नौरादेही अम्यारण्य की विस्तृत जानकारी वे दे पातीं। यूं भी आजकल प्रकृति-पर्यटन अधिक लोकप्रिय है।  

तीसरा अध्याय है ‘‘फोर्ट एंड टेम्पल्स’’ यानी किलों और मंदिरों का। इस संबंध में लेखिका ने परिचयात्मक ढंग से अध्याय के आरंभ में ही लिखा है कि -‘‘प्राचीन संस्कृति और परंपराओं की भूमि बुंदेलखंड अपने पुरातात्विक स्मारकों और सभी धर्मों, हिंदू, मुस्लिम, जैन और बौद्धों के लिए तीर्थ स्थानों के लिए प्रसिद्ध है। शानदार किले गौरवशाली अतीत, महान राजवंशों, सम्राटों और योद्धाओं की याद दिलाते हैं।’’ इसमें कोई संदेह नहीं कि बुंदेलखंड स्थापत्य और कला का धनी है। यहां के किलों का पुराणों में उल्लेख मिलता है। डाॅ. पिंपलापुरे ने इस अध्याय में जिन किलों का उल्लेख किया है, वे हैं- कालिंजर, झांसी (यद्यपि यह वर्तमान में उत्तरप्रदेश में स्थित है), ओरछा के किले, मंदिर एवं छतरियां। साथ ही ओरछा की रानी गणेशकुंवरी, लाला हरदौल की कथा का भी उल्लेख है। इसके अतिरिक्त अजयगढ़ का किला, दतिया महल, खजुराहो, धामोनी, चंदेरी, तालबेहट, धुबेला संग्रहालय, हृदयशाह का महल तथा पन्ना के प्रसिद्ध मंदिरों का परिचय दिया गया है। वैसे खजुराहो को एक स्वतंत्र अध्याय बनाया जा सकता था तथा ‘खजुराहो और उसके आस-पास’ के रूप में उस पूरे क्षेत्र चंदला, मंड़ला, बसारी आदि को हाईलाईट किया जा सकता था।
चौथा अध्याय ‘‘कल्चरल हेरीटेज’’ अर्थात सांस्कृतिक धरोहर का है। लेखिका डाॅ नीलिमा पिंपलापुरे के शब्दों में-  ‘‘बुंदेलखंड का खूबसूरत इलाका परंपराओं का शाही इतिहास दर्ज करता है। चाहे वह विरासत हो, कला और शिल्प, हथकरघा या संस्कृति, यह अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है। बुंदेलखंड का पारंपरिक संगीत और नृत्य, त्यौहार और समारोह, साहित्य और ऐतिहासिक स्मारक बुंदेलखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के कई पहलुओं में से कुछ हैं।’’ इस अध्याय में बुंदेलखंड में प्रचलित काष्ठ एवं धातु शिल्प, चंदेरी के वस्त्र उद्योग, ताराग्राम ओरछा के हस्त निर्मित कागज उद्योग की जानकारी है। इसके साथ ही बुंदेली चित्रकला एवं बुंदली लोकनृत्यों, बुंदेली पकवानों तथा बुंदेली भाषा का संक्षिप्त परिचय है।

वस्तुतः यह एक ऐसी हैण्डबुक है जो बुंदेलखंड के बारे में जानकारी नहीं रखने वालों को बुंदेलखंड के बारे में संक्षिप्त किन्तु समग्रता से जानकारी उपलब्ध कराती है। इसका मूल उद्देश्य पर्यटकों को बुंदेलखंड की ओर आकर्षित करना है, जिसमें यह पुस्तक खरी उतरती है। पुस्तक का कव्हर, मुद्रण तथा कागज बेहतरीन है। लेखिका डाॅ. नीलिमा पिंपलापुरे ने इसे लिखने में निश्चित रूप से श्रम किया है क्योंकि जानकारी भले ही संक्षेप में दी जाए किन्तु वह जानकारी जब तक समग्रता से ज्ञात न हो सब तक उसका संक्षेपीकरण भी नहीं किया जा सकता है। बुंदेलखंड की कला एवं संस्कृति के प्रति लेखिका का प्रेम प्रशंसनीय है। इस पुस्तक से बुंदेलखंड के परिचय को वैश्विक विस्तार मिलेगा। इसकी भाषा सरल अंग्रेजी है जिससे अंग्रेजी भाषा की कम जानकारी रखने वाले भी इसे सुगमता से पढ़ सकते हैं तथा छायाचित्रों की सहायता से समझ सकते हैं। निःसंदेह यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।    ----------------------------
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Monday, October 14, 2024

कृष्णा सोबती के उपन्यास 'समय सरगम' का मनोसामाजिक महत्व - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | शोध पत्रिका 'चिंतन सृजन' में प्रकाशित शोध आलेख

आस्था भारती, दिल्ली की उच्च स्तरीय त्रैमासिक शोध पत्रिका "चिंतन-सृजन" के जुलाई सितंबर 2024 अंक में कृष्णा सोबती के उपन्यास "समय सरगम" पर केंद्रित मेरा एक शोधलेख प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है - "कृष्णा सोबती के उपन्यास 'समय सरगम' का मनोसामाजिक महत्व"। 
      मेरे शोध आलेख के प्रकाशन पर संपादक डॉ. शिवनारायण जी का हार्दिक आभार 🙏
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शोध-आलेख

कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ का मनोसामाजिक महत्व

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्राक्थन

समय यदि संगीत है तो आयु उसका आरोह और अवरोह है। जन्म से ले कर चरम युवा काल तक आरोह और फिर प्रौढ़ावस्था के लघु ठहराव के बाद अवरोह का स्वर फूटने लगता है। समय और आयु किसी की के लिए ठहरती नहीं है। समय का राग अपने अनेक स्वरों के साथ ध्वनित होता रहता हैै और आशाओं, अभिलाषाओं, आकांक्षाओं की स्वरलिपि आयु अनुरूप राग छेड़ती रहती है। तार सप्तक के बाद मंद सप्तक पर लौटना अनुभवों से भरे जीवन का गुरूतम स्वरूप होता है जिसे आरोही स्वर अवरोह का थका हुआ स्वर मान लेते हैं और अपनी स्फूर्ति पर इठलाते हुए मंद-सप्तक स्वरों को बोझ समझने लगते हैं। यही समय और आयु का सत्य है और मानव के सामाजिक जीवन का भी। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘‘समय सरगम’’ में जीवन के स्वरों के अवरोह का भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक स्पष्टता से उसी बेबाकी से किया गया है, जिसके लिए उनका लेखनकर्म ख्यातिलब्ध रहा है। समाज द्वारा गढ़े गए उस मनोविज्ञान का भी विश्लेषण इस उपन्यास में है जो वृद्धजन की सामाजिक एवं मानसिक स्थितियों से साक्षात्कार कराता है।

कृष्णा सोबती का जीवन

कृष्णा सोबती हिन्दी की लेखिकाओं में वह क्रांतिकारी नाम है जिसने खुल कर, साहस के साथ कलम चलाई और वे कभी डरी या घबराई नहीं। वे अपने लेखन के साथ समाज के कट्टरपंथियों के सामने डट कर खड़ी रहीं। कृष्णा सोबती का जन्म पंजाब प्रांत के गुजरात नामक उस हिस्से में 18 फरवरी 1925 को हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उन्होंने आरम्भ में लाहौर के फतेहचंद कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा की शुरुआत की थी, परंतु जब भारत का विभाजन हुआ तो उनका परिवार भारत लौट आया। कृष्णा सोबती की शिक्षा दिल्ली और शिमला में हुई।
कृष्णा सोबती को अपने कथापात्रों के मनोविज्ञान को अपने उपन्यासों और कहानियों में उतारने में महारत हासिल थी। उनके सभी पात्र प्रखर होते थे। विशेषरूप से उनकी कहानियों के स्त्री पात्र अपने अस्तित्व के लिए आवाज बुलंद करने वाले होते थे, जिसके कारण वे कई बार विवादों में भी रहीं। उन्होंने जिंदगीनामा, डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान, ऐ लड़की, दिल-ओ-दानिश और चन्ना जैसे उपन्यास लिखें।
लेखन में निर्भीकता, खुलापन और भाषागत प्रयोगशीलता ये तीन विशेषताएं कृष्णा सोबती को अपने समकालीन लेखिकाओं से अलग करती हैं। सामाजिक बंदिशों के समय में अपने स्त्री समाज के प्रति मुखर होना उनके आंतरिक साहस को रेखांकित करता है। सन् 1950 में कहानी ‘‘लामा’’ से अपनी साहित्यिक यात्रा आरंभ करने वाली कृष्ण सोबती स्त्री की स्वतंत्रता और न्याय की पक्षधर थीं। उन्होंने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को गढ़ा। अपने लेखन के बारे में उनका कहना है कि ‘‘मैं बहुत नहीं लिख पाती हूं। मैं तब तक कलम नहीं चला पाती हूं, जब तक अंदर की कुलबुलाहट और उसे अभिव्यक्त करने का दबाव इतना अधिक न बढ़ जाए कि मैं लिखे बिना न रह सकूं।’’
उन पर यह आक्षेप लगाया जाता रहा है कि एक स्त्री होने के बाबजूद ‘‘यारों के यार’’ और ‘‘मित्रों मरजानी’’ में उन्होंने उन्मुक्त भाषा (बोल्ड) का प्रयोग किया जबकि वे भली-भांति जानती थीं कि उन पर ‘‘अश्लील लेखन’’ के आरोप लगेंगे। अपने एक विदेशी रेडियो साक्षात्कार में उन्होंने ‘‘अश्लील लेखन’’ के आरोप पर खुल कर अपने विचार रखे थे। उन्होंने कहा था कि - ‘‘भाषिक रचनात्मकता को हम मात्र बोल्ड के दृष्टिकोण से देखेंगे तो लेखक और भाषा दोनों के साथ अन्याय करेंगे। भाषा लेखक के बाहर और अंदर को एकसम करती है। उसकी अंतरदृष्टि और समाज के शोर को एक लय में गूंथती है। उसका ताना-बाना मात्र शब्द कोशी भाषा के बल पर ही नहीं होता। जब लेखक अपने कथ्य के अनुरूप उसे रुपांतरित करता है तो कुछ ‘नया’ घटित होता है। मेरी हर कृति के साथ भाषा बदलती है। मैं नहीं, वह पात्र है जो रचना में अपना दबाव बनाए रहते हैं। ‘जिन्दगीनामा’ की भाषा खेतिहर समाज से उभरी है। ‘दिलोदानिश’ की भाषा राजधानी के पुराने शहर से है, नई दिल्ली से नहीं। उसमें उर्दू का शहरातीपन है। ‘ऐ लड़की’ में भाषा का मुखड़ा कुछ और ही है। उसकी गहराई की ओर संकेत कर रही हूं।’’
कृष्णा सोबती को सन 1980 में जिंदगीनामा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन 1981 में शिरोमणि पुरस्कार के अतिरिक्त मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया। सन 1982 में कृष्णा सोबती को हिंदी अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। सन 1996 में कृष्णा सोबती को साहित्य अकादमी फेलोशिप से पुरस्कृत किया गया। सन 1999 में, लाइफटाइम लिटरेरी अचीवमेंट अवार्ड के साथ कृष्णा सोबती प्रथम महिला बनीं जिन्हें कथा चूड़ामणि अवार्ड से नवाजा गया। सन 2008 में हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘शलाका अवार्ड’ भी उनको मिला तथा सन 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
एक दिलचस्प बात जिसके बारे में उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ सन् 1952 में लिख कर प्रकाशक के पास भेजा किन्तु प्रकाशक ने उसकी भाषा पर आपत्ति करते हुए उसमें परिवर्तन करने को कहा। कृष्णा सोबती को यह स्वीकार्य नहीं हुआ और उन्होंने उसे प्रकाशक से वापस ले लिया। अंततः वह उपन्यास सन् 1979 में प्रकाशित हुआ और उस पर उन्हें 1980 साहित्य अकादमी अवार्ड दिया गया। यद्यपि कुछ दशक बाद उन्होंने असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी अवार्ड सहित हिंदी अकादमी का ‘शलाका सम्मान’ और ‘व्यास सम्मान’ भी लौटा दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने ‘पद्मभूषण’ लेने से भी मना कर दिया था। ऐसी दृढ़ और जीवट लेखिका के बारे जानने की जिज्ञासा हर साहित्यकार के मन में होना स्वाभाविक है।
25 जनवरी 2019 को 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

‘समय सरगम’ का मनोसामाजिक विश्लेषण एवं महत्व

वृद्धावस्था जीवन की एक अनिवार्य स्थिति है। व्यक्ति जब तक युवा रहता है तब तक उसमें स्फूर्ति का सागर हहराता रहता है। किन्तु वृद्धावस्था दैहिक ऊर्जा को निरंतर क्षीण करती जाती है। उस समय उसे सबसे अधिक आवश्यकता होती है पारिवारिक एवं सामाजिक मनोबल की, अपनत्व की और सहारे की। ऐसी अवस्था में यदि किसी व्यक्ति को एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़े तो वह छोटे-छोटे सहारे को भी बड़ा मान बैठता है। वस्तुतः यह एक जटिल मानसिक स्थिति है।
‘समय सरगम’ कृष्णा सोबती का एक अनूठा उपन्यास है। यह समय की गति को उसकी नब्ज़ और सामाजिक दुरावस्थाओं के साथ जांचता है। ‘समय सरगम’ को पढ़ते हुए सहसा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का संस्मरणात्मक निबंध ‘वृद्धावस्था’ याद आता है जिसमें उन्होंने लिखा है -‘‘काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन निर्मला से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूं।’’

अवस्था चाहे कोई भी हो प्रायः किसी अन्य व्यक्ति के बोध कराने पर अनुभव होती है, वृ़़द्धावस्था तो विशेषरूप से। बच्चे आयु में कितने भी बड़े हो जाएं किन्तु माता-पिता की दृष्टि में बच्चे ही रहते हैं। पचास वर्षीय संतान को भी चोट लगती है तो मां को ठीक उतनी ही पीड़ा होती है जितनी कि उसे शैशवावस्था में चोट लगने पर पीड़ा होती थी। इसके विपरीत मां की गोद में छिप कर सारे संसार के भय, निराशा और क्रोध से मुक्ति पा लेने वाली संतान जब आत्मनिर्भर हो जाती है तब उसे अपनी वही मां अनापेक्षित लगने लगती है। वह अपनी अशक्त हो चली मां को वह संरक्षण, वह सहारा, वह स्नेह देने को तैयार नहीं होता है जो उसने अपनी मंा से पाया था।

वृद्धावस्था का अहसास उस पल पहली बार होता है जब अपनी ही संतान द्वारा अवहेलना का शिकार होना पड़ता है वहीं वृद्धावस्था समाज द्वारा ‘बेचारी’ अवस्था के रूप में देखे जाने के कारण भी व्यक्ति को तोड़ने लगती है। ‘समय सरगम’ में दो प्रमुख पात्र हैं- आरण्या और ईशान। दोनों वृद्धावस्था में पहुंच चुके हैं। वह अवस्था जिसे ‘सीनियर सिटिजन’ के सम्बोधन से खोखला सम्मान तो दे दिया जाता है किन्तु सत्यता इससे परे कटु से कटुतर होती है। ईशान बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं किन्तु उनके बेटे उन्हें अपने साथ नहीं रखते हैं। ईशान अकेले रहते हैं और इस बात की प्रतीक्षा रहती है उन्हें कि उन्हीं पोती अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उन्हें फोन करेगी और बुलाएगी। यह अल्प सुख ईशान के भीतर जीवित रहने की जिजिविषा बनाए रखता है। यह सच है कि आरण्या के साथ ने उनके जीवन में उत्साह का संचार किया। वहीं आरण्या एकाकी महिला है। जीवन जीने की दिशा में ईशान से कहीं अधिक स्फूत्र्त। वह लेखिका है। शायद इसी लिए उसका एकाकीपन उसे नैराश्य से बचाए रखता है। दोनों व्यक्ति दिल्ली महानगर में रहते हैं। दोनों दिल्ली विकास प्राधिकरण के आभारी हैं जिसने ऐसे पार्क बना रखे हैं जहां जवान, बूढ़े हर कोई घूम सकता है, हल्के-फुल्के व्यायाम करते हुए परस्पर एक दूसरे से परिचित हो सकता है। वृद्धों के लिए ऐसी जगह सबसे आरामदेह है। ‘‘बूढ़ों सयानों की टोली हर शाम इस छोटे से बगीचे में पहले टहलती है, फिर बतियाती है। डी.डी.ए. की बदौलत। नागरिक कृतज्ञ हैं इस छुटके से बगीचे में बिछी हरियाली घास के लिए। फूलों की क्यारियों और लतरों के लिए। न होता ये सुहाना टुकड़ा तो देखती रहती यह अंाखें सीमेंट के अपार्टमेंट जंगल को।’’ (पृ.89)

खुली हवा में सांस लेते हुए अपने हमउम्रों के दुख-सुख को बांटने का एक अलग ही आनन्द है। लेकिन पार्क से लौटते ही वही एकाकीपन। इस एकाकीपन के पास कृष्णा सोबती कैसे पहुंची? कैसे उन्हें उस पीड़ा का अहसास हुआ कि अकेले वृद्ध किस तरह खुशियों के एक-एक कतरे के लिए तरसते हैं? इस तारतम्य में उनका स्वयं का कथन बहुत अर्थ रखता है-‘‘मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया। यानी एक थी आजादी और एक था विभाजन। मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ़ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता और न ही सिर्फ़ अपने दुख-दर्द और खुशी का लेखा-जोखा पेश करता है। लेखक को उठना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ, इतिहास के फैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैंने देखा, जो मैंने जिया वही मैंने लिखा ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘समय सरगम’, ‘यारों का यार’ में।’’ (बीबीसी हिन्दी डाॅट काॅम, 18 अगस्त 2004)  

कथानक भले ही एकाकी वृद्धों के जीवन पर केन्द्रित हो किन्तु देश के बंटवारे का दर्द ‘समय सरगम’ में भी अपनी सम्पूर्णता के साथ दिखाई पड़ता है। ‘‘नई पुरानी दिल्ली अपनी घनी सजीली छब में हर हाल में अपनी सूरत और सीरत सम्हाले रहती। आज़ादी के साथ ही राजधानी में बाढ़ की तरह रेला उठ आया। आक्रामक विस्थापितों के ठट्ठ के ठट्ठ। यहां-वहां सब जगह। शहर के हर इलाके में। दिल्ली निवासी शरणार्थियों की भीड़ से परेशान और गंाव-कस्बों और शहरों से उखड़े हुए आक्रामक शरणार्थी-दिल्ली के सुसंस्कृत मिज़ाज में घूल भरी आंधियां चलने लगीं।’’ (पृ.43)

शरणार्थी अपने और अपनों के जीवन के लिए आक्रामक मुद्रा में भले ही थे किन्तु अधिकांश ऐसे थे जो अकेले रह गए थे। अतः अकेलेपन की चर्चा के समय देश के बंटवारे के दौरान उपजा अकेलापन भी विषयानुकूल है। पहले भरपूरा परिवार पारम्परिक और संस्कृति से ओतप्रोत फिर एक लम्बा अकेला जीवन। यह बंटवारे के समय परिस्थिति का परिणाम रहा किन्तु वर्तमान में यह प्रारब्ध बन गया है। दिल्ली जैसे महानगरों की गंगनचुम्बी इमारतों के छोटे-छोटे फ्लैट्स में एकल परिवार और अकेले बूढ़ों की वो दुनिया बस गई है जिनके बीच स्नेह की बेल सूख चुकी है। आरण्या और ईशान संयुक्त परिवार की अवधारणा के समाप्त होने पर चर्चा करते हैं तो आरण्या बोल उठती है-‘‘ईशान, मुझे संयुक्त परिवार का अनुभव नहीं। दूर-पास से जो इसकी आवाज़ें सुनीं वह सुखकर नहीं थीं। इतना जानती हूं कि परिवार की सुव्यवस्थित अस्मिता ओर गरिमा का मूल्य भी उनहें ही चुकाना होता है जिनका खाता दुबला हो। परिवार की सांझी श्री पैसे के व्यापारिक प्रबंधन में निहित है। उसकी आंतरिक शक्ति क्षीण हो चुकी है। घनी छांह की जगह घिसी हुई पुरानी चिन्दियां फरफरा रही हैं। जानती हूं ईशान, आपको यह बात ठीक नहीं लग रही, पर मैं अपनी कीमत पर इसकी पड़ताल कर रही हूं और ‘सत्य’ के  नाना-रूप में संचारित छोटे-बड़े झूठ और झूठों से बनाए गए स्वर्णिम सत्यों की ठोंक-पीट ही इस सात्विक संसार की प्रेरणा है।’’ (पृ.64)
यदि वृद्धावस्था आ गई है तो क्या चैबीस घंटे ईश्वर की स्तुति एवं धर्म-दर्शन में व्यतीत करना चाहिए? ईशान आरण्या का परिचय दमयंती से कराता है। वह भी उनकी हमउम्र है। किन्तु वह इन दोनों की भांति एकाकी नहीं है वरन् अपने बेटों-बहुओं के साथ रह रही है। उसने समाज एवं परिवार की प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप स्वयं को एक गुरु की शिष्या बना कर सत्संग के हवाले कर दिया है। ऊपर से देखने से यही लगता है कि वह अपनी इस स्थिति से प्रसन्न एवं संतुष्ट है। वास्तविकता इससे परे है। दमयंती का खान-पान गुरू के निर्देशानुसार बदल चुका है। पहनावा भी उन्हीं के अनुसार अपना लिया है। लेकिन बेटे, बहू फिर भी संतुष्ट नहीं हैं। दमयंती मानो किसी भुलावे में जी रही है। वह कहती है-‘‘आरण्या, मैं सूती कपड़ा तन को छुआती न थी। एक दिन सत्संग के बाद मेरी गुरूजी ने टोक दिया। अब सूफियाने-से सूती जोड़े बनवाए हैं। मेरे बेटों और बहुओं की सुनो। रेशम पहनो तो कहते हैं, इस उम्र में ये मचक-दमक अच्छी नहीं लगती। सूती पहनूं तो वह भी पसंद नहीं। कहते हैं कि इनमें आप हमारी मां नहीं लगतीं। तुम्हीं बताओ क्या करूं?’’ (पृ.72) लेखन और समाजहित के कार्यों के संबंध में यही दमयंती आगे कहती है-‘‘बहन, यह काम तो यहीं धरे रह जाएंगे ओर कभी पूरे न होंगे। हमें आगे का भी सोचना है।’’ कितनी दिग्भ्रमित है दमयंती। जिसने अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्हें सही और गलत का अर्थ समझाया। सही रास्ता दिखाया। जीवन का अर्थ समझाया। वहीं दमयंती वृद्धावस्था में आते ही अपने बच्चों के व्यवहार से इतनी भयाक्रांत हो गई कि उसने सही और गलत में भेद करना ही भुला दिया। परलोक के अस्तित्व के विचारों ने उसे इहलोक के उन दायित्वों से विमुख कर दिया जो अभी वह भली-भांति निभा सकती थी। अपितु ये कहा जाए कि यही वृद्धावस्था की दायित्वमुक्त आयु स्वयं को जीने की आयु होती है जिसे दमयंती जैसे व्यक्ति जीने का न तो साहस कर पाते हैं और न दसके बारे में सोच पाते हैं। परलोक के अस्तित्व की एक भेड़चाल या फिर वृद्धों को भयभीत कर रखने की वह चाल जिसमें उलझ कर वे युवाओं के जीवन में हस्तक्षेप न कर सकें।

आरण्या परलोक-भय की भेड़चाल से परे अपने रास्ते पर चल रही है। वह अपने तयशुदा दायित्वों के प्रति न केवल सजग है अपितु उन्हें निष्ठापूर्वक पूरे भी करना चाहती है। आयु को ले कर ईशान के ऊहापोह के उत्तर में आरण्या कहती है-‘‘मैं अपने को उम्र में इतना बड़ा महसूस नहीं करती जितना आप मान रहे हैं। मेरे आसपास मेरा परिवार नहीं फैला हुआ कि मैं अपने में मंा, नानी, दादी की बूढ़ी छवि ही देखने लगूं। ईशान, मुझे मेरा अपनापन निरंतरता का अहसास देता है।’’ (पृ.80) यही तो वह तथ्य है कि आयु को अनुभव करना ही आयु को से समझौता कर लेना है। आरण्या को यह समझौता स्वीकार नहीं है। वह बड़ी-बूढ़ी छवियों में उलझ कर स्वयं को बूढ़ी मान कर थकाना नहीं चाहती है। क्योंकि वह जानती है कि एकाकीपन उन रिश्तों की बूढ़ी छवियों के बीच और अधिक गहरा जाता है।

रिश्तों के एकाकीपन के तारतम्य में उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ सहसा स्मरण हो आती है। एक व्यक्ति जब रिटायर हो कर घर लौटता है तो घर में खलबली मच जाती है। उसे सदा के लिए कोई अपने बीच नहीं पाना चाहता है। घर का प्रत्येक सदस्य, यहां तक कि उसकी पत्नी भी चाहती है कि वह उसकी तरह समझौतावादी बन कर रहे अथवा फिर कहीं चला जाए। उसकी घर वापसी उसके घरवालों के लिए ही खटकने वाली हो जाती है। यही है अपनों के बीच का परायापन जो सेवानिवृत्त व्यक्ति को अकेला कर देता है। ईशान इसी अकेलेपन को जी रहा है। किन्तु आरण्या नहीं। आरण्या मंा, नानी, दादी नहीं बल्कि एक स्वावलम्बी स्त्री के रूप में जीवन जी रही है, वृद्धावस्था के फेंटे में आने के बावजूद भी। वह उन लोगों जैसी समझौतावादी नहीं है जो स्वयं को अशक्त मान लेते हैं और बहू-बेटों के तिरस्कार में भी अपने सुखों की तलाश करते शेष जीवन बिता देते हैं। बहुमंजिला इमारत में अपने फ्लैट (जो उनका अपना नहीं रहा, बहुओं-बेटों का हो चुका ) के ठीक बाहर सड़क के उस पार बने नन्हें से पार्क में उनकी दुनिया सिमट कर रह जाती है। वे यही सोच कर स्वयं को ढाढस बंधाते हैं कि ‘‘कामकाज से छुट्टी पा इसे भोगना भी सुख है जीने का। बहू-बेटों की नज़रों में रुखाई, अवज्ञा, उदासीनता कुछ भी दीखती रहे-परिवार के साथ हाने का सुख है गहरा। रहती है आत्मा शांत कि सभी कोई पास हैं। अपने साथ हैं।.....यह बात अलग है कि परिवारों में बड़े-बूढ़ों के अधिकार कमतर और ‘हां’ ‘न’ का संकोच ज्यादा है। पीढ़ी सरक जाए तो अख्तियार खुद ही आधे-पौने हो जाते हैं। बहू -बेटों की मरजी मुताबिक चलना। वे जैसा चाहें रहते रहें। हम क्यों तानाशाह बने हुक्म चलाते रहें।’’ (पृ.89-90) अपनी स्थिति को नियति मान लेना और अपने बहू-बेटों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेना इतना भी बुरा नहीं है जितना कि रिश्तेदारों के होते हुए भी अकेले पड़ जाना। ईशान की परिचित कामिनी इसी विडम्बना को जी रही है। कामिनी का भाई अपने परिवार के साथ अलग रहता है। कामिनी की सेवा-टहल के लिए ‘खूकू’ नाम की नौकरानी है। नौकरानी भी ऐसी जो कामिनी की अवस्था से तादात्म्य नहीं बिठा सकी है। वह आलमारी की चाबी के बारे में पूछने पर ईशान से कहती है-‘‘कभी मेम साहिब के पास होती है, कभी मेरे पास। उन्हें कुछ याद नहीं रहता। कहीं रख देती हैं और मुझ पर बरसने लगती हैं। क्या करूं साहिब, मुझे ऐसी नौकरी छोड़ देनी चाहिए पर इनकी हालत पर तरस आता है।’’ (पृ.99) ईशान और आरण्या दोनों समझ जाते हैं कि यह ‘तरस’ वास्तविक ‘तरस’ नहीं है। इसके पीछे निहित स्वार्थ की गंध उन्होंने स्पष्ट महसूस की। किन्तु वे उस लाचार वृद्धा के रिश्तेदार नहीं हैं जो कोई ठोस कानूनी क़दम उठा सकें। जो रिश्तेदार है अर्थात् कामिनी का भाई उसे अपनी बहन से अधिक अपनी बहन के घर से प्यार है। कामिनी ईशान और आरण्या को बताती है कि ‘‘मुझे दलाल बता गया है कि भाई ने मेरे घर का सौदा कर लिया है। बयाना ले चुका है। खूकू ने मुझे नहीं बताया पर बिल्डर घर को दो बार आगे-पीछे और अंदर से देख गया है। मैं तब सोई पड़ी थी।’’ कामिनी आगे बताती है कि ‘‘एक रात देखा तो मेरी डाक्यूमेंट फाईल में घर के पेपर नहीं थे। अगली रात यह (खूकू) बाहर ताला डाल कर चली गई तो फिर आलमारी खोली। सब खाने छान मारे फाईल खोली तो असली की जगह फोटोस्टेट काॅपी रखी थी।....असली अब मेरे पास नहीं है।’’ (पृ. 98) यह छल, वह भी अपने सगे भाई और अपनी नौकरानी के हाथों। कामिनी को यह सब सहन करना पड़ रहा था। क्यश एक वृद्धा के लिए जिसने अपना जीवन शान से सिर उठा कर, निद्र्वन्द्व हो कर जिया हो, आसान हो सकता था? कामिनी के लिए कुछ भी आसान नहीं था।

आरण्या के अपने अनुभव भी कम कटु नहीं थे। यदि वृद्ध व्यक्ति अकेला हो तो क्या उसे सुगमता से किराए का घर मिल सकता है? वह न तो युवाओं जैसी पार्टियां करेगा, न तो लड़कियों अथवा लड़कों को अपने घर लाएगा, युवाओं में प्रचलित कोई भी असमाजिक हरकत नहीं करेगा चाहे वह वृद्ध हो या वृद्धा। फिर तो मकान मालिक को ऐसे वृद्धों को किराए से मकान देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति से सुरक्षित वृद्ध का तो और पहले स्वागत किया जाना चाहिए। किन्तु इस सिक्के का दूसरा पहलू अत्यंत भयावह है। आरण्या को मकान बदलने की नौबत आती हैं वह एक अदद किराए का मकान ढूंढने निकल पड़ती है।

‘‘एक अच्छे खासे घर को दो-तीन बार देख कर उसका एडवांस देना चाहा तो ऐजेंट के साथ खड़े बुजुर्ग ने पूछा-यह बताएं कि आपकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
जिम्मेदारी? क्या मतलग?
आप अकेली रहेंगी कि कोई और भी साथ में होगा?
मैं रहूंगी और मैं ही अपने लिए जिम्मेदार हूं।
आपकी जन्म तारीख किस सन् की है?
यह क्यों पूछ रहे हैं आप? इसलिए कि हमें पूछना चाहिए। कल को चली-चलाई को कुछ चक्कर हो तो हम झमेले में क्यों पड़ें।’’ (पृ. 122)
यानी मृत्यु का आकलन करके मकान किराए पर देना तय करना। एकदम अमानवीय विचार। एकदम अमानवीय कृत्य। किन्तु यही सामाजिक सत्य है, घिनौना, स्वाभाविक सोच से परे। मृत्यु वृद्धावस्था की सगी-संगिनी हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आयु का उतार चढ़ाव नहीं देखती है। बस, अपने मतलब की संासें गिनती है और आ धमकती है। शिशु भी युवा भी, वृद्ध भी सभी इसी की छांह में सांसे लेते हैं। यदि पल भर को मान लिया जाए कि मृत्यु और वृद्धावस्था सगी बहनें हैं तो ऐसी दशा में तो वृद्ध को सहारा और सिर पर छत मिलनी ही चाहिए। किन्तु स्वार्थ और आर्थिक लोभ इंसान को पाषाणहृदय बना देता है। तभी तो जब एक अन्य फ्लैट को तय करने के लिए आरण्या एजेंट से बातचीत करती है।
‘‘एजेंट ने कंपनी लीज़ की मांग की।
कुछ देर सोचती रही फिर हामी भरी। हां, दे सकूंगी।
नाम बताइए कंपनी का। कौन है?
मेरे प्रकाशक हैं।
क्या आप लेखक हैं! किताबें लिखती हैं? ऐसा है तो कहां से ला कर देंगी किराया?
आरण्या बिना जबाव दिए नीचे उतर गई।’’ (पृ. 122)

कृष्णा सोबती यहां एक साथ दो बिन्दुओं पर प्रहार करती हैं। एक तो वृद्धों के प्रति मकानमालिक और ऐजेंट के मानवतारहित व्यवहार पर और दूसरा भारत में लेखकों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा पर। भारत में आदिकाल से लेखन को चैंसठ कलाओं में से एक कला माना जाता रहा है। किन्तु मान्यता और यथार्थ के बीच की गहरी खाई यहां हमेशा रही है। राजाओं के जमाने में राजाश्रय पा जाने वाले साहित्यकार अर्थ और समाज से प्रतिष्ठित रहते थे जबकि राजाश्रयविहीन साहित्यकार यदि पूछ ेभी जाते रहे हैं तो अपनी मृत्यु के सदियों बाद। आधुनिक युग में भी यही स्थिति है। पाश्चात्य जगत में ऐसा नहीं है। वहां साहित्यकार सिर्फ साहित्य सृजन कर के रायल्टी के दम पर अपनी रोजी-रोटी चला सकता है। किन्तु भारत में नहीं। यहां लेखक को बुद्धिजीवी की श्रेणी में भले ही गिना जाए परन्तु उसकी ‘लक्ष्मीप्रिया’ नहीं मानी जाती है। जो बुद्धि सीधे धनार्जन में लगे उसकी साख है, साहित्य में लगने वाली बुद्धि की नहीं। साहित्य का ‘मार्केट वेल्यू’ साहित्य व्यवसायी के लिए भले हो पर साहित्यकार के लिए नहीं होता है। अस्तु एक साहित्यकार की आर्थिक साख और उसके साहित्य के बल पर उसके जीवन की मूल्यवत्ता होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।

आरण्या को अपनी सहेली के घर शरण लेनी पड़ती है। तब ईशान के मन में आता है कि क्यों न आरण्या उसके घर में आ कर रहे एक साथी की तरह। आरण्या कुछ हिचकते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है। दो वृद्धजन परस्पर एक-दूसरे का सहारा बन कर जीने लगते हैं। विपरीत लिंगी होते हुए भी एक वासना रहित जीवन। विशुद्ध मैत्री पर आधारित साथ जिसमें एक-दूसरे का सुख-दुख, चिन्ता, आवश्यकताएं और पूरकता निहित है। ‘‘कितने बरस गुज़र गए। हम कहां से चले थे और कहां पहुंच गए। कहां मालूम था  िकपतझर के इस मौसम में हम लोग मिल जाएंगे, पुराने परिचितों की तरह नहीं-नए मित्रों की तरह। लंबा अरसा हो गया है इस शहर में रहते। अपने-अपने खातों को देंखें तो कहां जान पाएंगे कि कितना खोया और कितना पाया। हां, आरण्या, तुम्हें जान लेने पर यह तो लगता है कि जीना बैंक का अकाउंट नंबर नहीं, जिसका कुल जोड़ कुछ आंकड़ों में हो। मैं अब किसी असमंजस में नहीं हूं। क्यों न अपने जाने को सहज-सरल कर लें। हम दोनों में से किसी को दिक्कत न होगी।’’ (पृ.147)

जीवन से एक साझापन ही आयु के समय को आसान बना सकता है बशर्ते यह साझापन विवशता का नहीं सहजता और उत्फुल्लता का हो। अन्यथा एकाकी वृद्धों के पास अपनी बचीखुची सांसें गिनते हुए दिन काटने के सिवा कोई चारा नहीं बचता है। एक ओर कामिनी, दमयंती जैसे वृद्ध हैं जो पारिवारिक दबाव के चलते आयु के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं या फिर एक निःश्वास की भांति मंथर गति से घिसटते रहते हैं मृत्यु की ओर। ईशान जैसे वृद्ध व्यक्ति भी हैं जो परिस्थितियों को एक मध्यममार्गी की भांति स्वीकार करते हैं। वहीं आरण्या जैसे वृद्ध हैं जो बिना किसी को कष्ट पहुंचाए अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं। स्वावलंबी और स्वाभिमानी ढंग से। यद्यपि ऐसे मार्ग में अवरोध ही अवरोध हैं। एक तो स्त्री, वह भी अकेली और उस पर लेखिका। न कोई आर्थिक साख, न कोई सामाजिक सहारा। फिर भी अडिग रह कर जीवन के शेष दिनों को अपनी इच्छानुरुप ढालने का साहस। यही साहस उसे ईशान की निर्विकार मित्रता उपलब्ध कराता है। कृष्णा सोबती ‘समय सरगम’ में इसी सत्य को बखूबी सामने रखती हैं कि जीवन उतार-चढ़ावों से परिपूर्ण है। यदि तार-स्वर हैं तो मंद-स्वर भी हैं। फिर भी ये सभी एक रागों में निबंद्ध हैं।
‘समय सरगम’ की भाषा पाठक से सीधा संवाद करती है। अपनी भाषा के संदर्भ में एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती ने कहा था कि-‘‘ पात्र की सामाजिकता, उसका सांस्कृतिक पर्यावरण उसके कथ्य की भाषा को तय करते हैं। उसके व्यक्तित्व के निजत्व को, मानवीय अस्मिता को छूने और पहचानने के काम लेखक के जिम्मे हैं। भाषा वाहक है उस आंतरिक की जो अपनी रचनात्मक सीमाओं से ऊपर उठकर पात्रों के विचार स्रोत तक पहुंचता है। सच तो यह है कि किसी भी टेक्स्ट की लय को बांधने वाली विचार-अभिव्यक्ति को लेखक को सिर्फ जानना ही नहीं होता, गहरे तक उसकी पहचान भी करनी होती है। अपने से होकर दूसरे संवेदन को समझने और ग्रहण करने की समझ भी जुटानी होती है। एक भाषा वह होती है जो हमने मां-बोली की तरह परिवार से सीखी है- एक वह जो हमने लिखित ज्ञान से हासिल की है। और एक वह जो हमने अपने समय के घटित अनुभव से अर्जित की है। जिस लयात्मकता की बात आपने की, समय को सहेजती और उसे मौलिक स्वरूप देती वैचारिक अंतरंगता का मूल इसी से विस्तार पाता है।’’ उनकी भाषा की यही विशेषता कृष्णा जी के सृजन में आत्मीयता पैदा करती है। इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उनका कथानक जो ‘समय सरगम’ में ढल कर समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता है, महसूस कराता है।

निष्कर्ष

‘समय सरगम’ कृष्णा सोबती का एक ऐसा उपन्यास है जो वृद्धावस्था को प्राप्त एकाकी रह रहे स्त्री-पुरुष के विचारों, इच्छाओं, परिस्थितियों एवं हर ओर से मिलने वाली उपेक्षा व अवहेलना का मनोसामाजिक विश्लेषण करता है। यह उपन्यास वृद्धविमर्श का एक ऐसा धरातल तैयार करता है जिस पर खड़े हो गया वृद्धावस्था के कम्पन को सूक्ष्मा से अनुभव किया जा सकता है। संवेदनाओं एवं दृढ़ता की प्रचुरता को रेखांकित करने के साथ ही यह समाज से आग्रह करता है कि वृद्धों के प्रति अपने दृष्टिकोण में सुधार लाने की आवश्यकता है। वस्तुतः ‘समय सरगम’ एक सशक्त मनोसामाजिक उपन्यास है।  
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संदर्भ:
1. समय सरगम, कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, सन 2008, पेपर बैक।
2. लेख, समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता समय सरगम, लेखिका- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, सापेक्ष 60 (कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित), संपादक- महावीर अग्रवाल,प्रकाशक- सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
3. सापेक्ष 60 (कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित), संपादक- महावीर अग्रवाल,प्रकाशक- सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
4. कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित एक अनूठी पुस्तक ‘‘सापेक्ष 60’’, पुस्तक समीक्षा, समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, दैनिक ‘‘आचरण’’ सांगर संस्करण, 14.12.2012
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- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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प्रगतिशील विचारधारा परंपराओं का परिष्कार करती है - मुख्य अतिथि डॉ (सुश्री) शरद सिंह, महेंद्र फुसकेले स्मृति अलंकरण समारोह 2024

"कुछ लोग भ्रमवश प्रगतिशील विचारधारा को लोककला एवं लोक परंपरा विरोधी मान लेते हैं जबकि प्रगतिशील विचारधारा कला और परंपराओं का विरोध नहीं बल्कि परिष्कार करती है, उनमें नवीन तत्वों एवं विचारों का समावेश कर उसे विस्तार देती है। इसका उदाहरण प्रगतिशील कलाकार समूह यानी पीएजी के रूप में देखा जा सकता है जिसकी स्थापना सूजा, रजा, एमएफ हुसैन और बाकरे जैसे दिग्गज कलाकारों ने की थी। हिंदी साहित्य में प्रगतिशील विचारों के समर्थक रहे नामवर सिंह जो स्व. महेंद्र फुसकेले जी के घनिष्ठ परिचित थे।" अपने यह विचार मुख्य अतिथि के रूप में उद्बोधन देते हुए मैंने यानी आपकी इस मित्र (डॉ सुश्री शरद सिंह) ने व्यक्त किए। 
      ❗️अवसर था कल शाम, 13.10.2024 को प्रगतिशील साहित्यकार महेंद्र कुमार फुसकेले जी के तृतीय पुण्य स्मरण का आयोजन तथा सम्मान समारोह। 
      ❗️स्थानीय सरस्वती पुस्तकालय  एवं वाचनालय में आयोजित इस समारोह में तृतीय "महेंद्र फुसकेले स्मृति अलंकरण" सागर के प्रसिद्ध लोक गायक एवं कवि हरगोविंद विश्व जी को प्रदान किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता की नगर के वयोवृद्ध कवि लक्ष्मी नारायण चौरसिया जी ने। विशिष्ट अतिथि थे श्री टीकाराम त्रिपाठी जी। डॉ गजाधर सागर एवं कैलाश तिवारी विकल ने फुसकेले जी पर केंद्रित आलेख पढे। फुसकेले जी की पुत्रवधु कवयित्री श्रीमती नमृता फुसकेले ने हरगोविंद विश्व जी के परिचय का वाचन किया तथा डॉ नलिन निर्मल ने सम्मान पत्र का वाचन किया। 
    ❗️ प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई के अंतर्गत आयोजित इस समारोह में  महेंद्र फुसकेले,  प्रेमचंद तथा हरिशंकर परसाई पर केंद्रित तथा श्री मुकेश तिवारी जी द्वारा संपादित एक स्मारिका का विमोचन भी किया गया। 
    ❗️इस समारोह के संकल्पनाकार थे स्व. महेंद्र फुसकेले जी के पुत्र प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई के सचिव वरिष्ठ अधिवक्ता एवं  साहित्यकार पेट्रिस फुसकेले जी। आयोजन का कुशल संचालन किया श्रीमती निरंजन जैन जी ने।
    इस अवसर पर श्यामलम अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्र, दैनिक आचरण के संपादक एवं पूर्व विधायक सुनील जैन, पाठकमंच सागर के अध्यक्ष श्री आर के तिवारी, शायर डॉ गजाधर सागर, शायर अशोक मिजाज़, डॉ अनिल जैन गीतकार डॉ श्याममनोहर सीरोठिया, कवि एवं अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ मनीष झा, श्रीसरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय के सचिव श्री शुकदेव तिवारी, कवि पूरन सिंह राजपूत, कवि वीरेंद्र प्रधान, सुश्री सुमन झुड़ेले, श्रीमती ममता झुड़ेले, श्रीमती ममता भूरिया, श्रीमती अर्चना प्यासी, पत्रकार मनीष दुबे आदि बड़ी संख्या में साहित्यकार उपस्थित रहे।

छायाचित्र साभार : भाई डॉ. नलिन निर्मल तथा भाई एड. पेट्रिस फुसकेले 🙏
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Saturday, October 12, 2024

दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | Happy Dussehra - Dr (Ms) Sharad Singh

अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई।
जीत के इस त्योहार पर, आप सभी को हार्दिक बधाई।।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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