Friday, January 17, 2025

"आज की स्त्री किचेन से कलम तक की यात्रा में नए आयाम रच रही है " - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

"आज की स्त्री किचेन से कलम तक की यात्रा में नए आयाम रच रही है " -   डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

                दिनांक 16 जनवरी 2025 को विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में "स्त्री लेखन : चुनौतियां एवं भविष्य "विषय पर व्याख्यान तथा कथा संवाद आयोजित किया गया, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में देश की प्रतिष्ठित हिंदी कथाकार, पर्यावरणविद् और आलोचक सुश्री डॉ. शरद सिंह उपस्थित थीं। कार्यक्रम का आरम्भ मां सरस्वती व डॉक्टर गौर के माल्यार्पण व सरस्वती वंदना के साथ हुआ । स्वागत वक्तव्य प्रोफेसर राजेंद्र यादव द्वारा दिया गया जिसमें उन्होंने सागर के साहित्यकारों को याद किया। डॉ. संजय नाइनवाड़ द्वारा मुख्य अतिथि का परिचय दिया गया। अपने व्याख्यान के दौरान डॉक्टर शरद सिंह ने स्त्री की चुनौतियों के बारे में कई बिंदुओं पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि किसी भी स्त्री की  किचन से कलम तक की यात्रा चुनौती भरी रहती है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने अपनी माता से मिलने वाली प्रेरणाओं का भी उल्लेख किया । स्त्री - लेखन में सामने उपस्थित होने वाली प्रमुख  समस्याओं को उद्धृत करते हुए उन्होंने पारिवारिक समस्याओं को बहुत गहरे अर्थ से रेखांकित किया।  उन्होंने कहा कि स्त्री को स्त्री लेखिका के रूप में देखा जाए न कि केवल स्त्री के रूप में। भाषाई लिंगबोध के भेदभाव का भी उन्होंने जिक्र किया। अपने उद्बोधन के अंत में उन्होंने कहा कि समग्रता, समर्पण और विषय का पूरा ज्ञान साहित्य लेखन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। उसके पश्चात उन्होंने "दमयंती आज भी उदास है" नामक कहानी का पाठ किया।
 कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित भाषा अध्ययनशाला की डीन प्रो. चंदा बैन ने अपने वक्तव्य में बुंदेलखंड के साहित्य के साथ-हिन्दी में राष्ट्रकवि  मैथिलिशरण गुप्त द्वारा लिखित साहित्य पर बात की  । कार्यक्रम में बतौर अध्यक्ष उपस्थित हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में हिंदी में  चल रहे स्त्री लेखन और स्वानुभुति व परानुभूति पर बात रखी।   कार्यक्रम का संयोजन व संचालन  डॉ. हिमांशु कुमार  ने किया औपचारिक आभार  डॉ. अरविन्द कुमार ने दिया । 
कार्यक्रम में हिंदी विभाग के शिक्षक डॉ. अफ़रोज़ बेगम, डॉ.अवधेश कुमार, डॉ.लक्ष्मी पाण्डेय, डॉ. सुजाता मिश्र, श्री प्रदीप सौंर, इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. नागेश दुबे, संस्कृत विभाग से डॉ. शशिकुमार सिंह, डॉ. रामहेत गौतम, डॉ. किरण आर्या, भाषा विज्ञान विभाग से डॉ. बबलू रे, डॉ. अरविन्द गौतम, ईएमआरसी से माधव चंद्र तथा सागर शहर से श्री गजाधर सागर, टीकाराम त्रिपाठी, मनोहर सिरोठिया जैसे विद्वतजन उपस्थित थे।  हिंदी और संस्कृत विभाग के सभी शोधार्थी-विद्यार्थी उपस्थित रहे।

शून्यकाल | अकादमिक हिंदी, बोलचाल की हिंदी और हाशिए की हिंदी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल

    अकादमिक हिंदी, बोलचाल की हिंदी और हाशिए की हिंदी     
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

       नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं पर समुचित ध्यान दिया गया है। किन्तु इससे सर्व स्वीकार्य भाषा के रूप में हिंदी पर कोई सहमति बन पाएगी या नहीं, यह कहना जल्दबाजी होगी। भाषाओं की जिस विविधता को लेकर हम गर्व करते हैं वही विविधता कभी-कभी मुश्किलें खड़ी कर देती है। या फिर यह कहे की भाषा को लेकर हमारा आग्रह हमारी मुश्किलों को बढ़ा देता है। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र दिया गया है। त्रिभाषा सूत्र में शास्त्रीय भाषाएं जैसे संस्कृत, अरबी, फारसी, राष्ट्रीय भाषाएं तथा आधुनिक यूरोपीय भाषाएं हैं। इन तीनों श्रेणियों में किन्हीं तीन भाषाओं को पढ़ाने का प्रस्ताव है। आग्रह तो यह भी है कि हिन्दीभाषी राज्यों में दक्षिण की कोई भाषा पढ़ाई जानी चाहिए। वैसे, फिलहाल देखते हैं कि ‘हिंदी पट्टी’ में हिंदी की वर्तमान दशा कैसी है?
वर्तमान में तीन तरह की हिंदी प्रचलन में है- अकादमिक हिंदी, बोलचाल की हिंदी और हाशिए की हिंदी। अकादमिक हिंदी वह है जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा विषय के रूप में पढ़ाई जा रही है। अकादमिक हिंदी का दायित्व सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण क्योंकि यहीं से हिंदी की नींव सुदृढ़ होती है। महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन स्तर पर अनेक शोध कार्य किए जाते हैं ताकि हिंदी का विकास हो सके। फिर भी यह देखने में आता है कि उन्हीं परिसरों में हिंदी की दशा संतोषजनक नहीं रहती है। आखिर ऐसी क्या कमी हैं कि विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी की अपेक्षा हिंदी का चलन घटता दिखाई देता है। हिंदी भाषा पढ़ने में छात्रों का रुझान घटा है। इसका सबसे बड़े दो कारण हैं जो मुझे समझ में आते हैं- (1) छात्रों की शैक्षिक बुनियाद अंग्रेजी की बनी होती है। अबोध अवस्था से ही आंग्ल भाषा के विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा दिलाने के बाद हम यह कैसे आशा कर सकते हैं कि वे आगे चल कर उच्च शिक्षा में हिंदी भाषा का चयन करेंगे? जिस भाषा के संस्कार एवं शिक्षा उन्हें मिली ही नहीं, उसे वे क्यों अपनाना चाहेंगे? 
दूसरा कारण जिससे हिंदी पिछड़ती जा रही है, वह है (2) हिंदी का आर्थिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा से दूर रखा जाना। हम हिंदी पर चाहे राष्ट्रीय सम्मेलन करें अथवा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन करें, सम्मेलन में सहभागी विद्वतजन की परस्पर संपर्क भाषा अंग्रेजी ही बनी रहती है। यह सुनी-सुनाई बात नहीं, वरन मेरा स्वयं का अनुभव है कि माईक पर हिंदी की पक्षधारिता की दुंदुभी बजाने वाले हिंदी के विद्वान माईक से हटते ही मंच पर बैठ कर अपने माथे पर चिंता की रेखाएं गढ़ते हुए कहते हैं-‘‘वी नीड टू डू ए लाॅट आॅफ वर्क फाॅर हिंदी।’’ अर्थात् हमें हिन्दी के लिए बहुत काम करने की आवश्यकता है। 
यदि बात अनुवाद की जाए तो तकनीकी शब्दावली के अनुवाद ने हिंदी को कठिन बना कर उसे बहुत क्षति पहुंचाई है। तकनीकी शब्दावली में संस्कृतनिष्ठ कठिन शब्दावली के बजाए सरल पर्याय रखे जाएं तो पढ़ने वालों को तुरंत ग्राह्य होगी। उन्हें यह महसूस नहीं होगा कि इससे तो अंग्रेजी के शब्द ही अधिक आसान हैं। 
नई शिक्षा नीति में अकादमिक हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति संपर्क पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। एक त्रिभाषा फार्मूला दिया गया है। यद्यपि त्रिभाषा का सूत्र 1964 के कोठारी कमीशन में भी रखा गया था। कोठारी कमीशन ने ‘‘त्रिभाषा सूत्र’’ इस प्रकार प्रतिपादित किया था - (1) मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, (2) केन्द्र की राजभाषा या सहराजभाषा, (3) एक आधुनिक भारतीय भाषा या विदेशी भाषा जो नं. (1), (2) के अंतर्गत न चुनी गई हो और जो शिक्षा का माध्यम न हो । फिर त्रिभाषा का फार्मूला पहली बार 1968 में केंद्र सरकार द्वारा तैयार किया गया था और इसे तत्कालीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल किया गया था। योजना के पीछे का विचार यह सुनिश्चित करना था कि छात्र अधिक भाषा सीखें। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भाषा शिक्षा और भाषा को बहुभाषावाद के रूप में वर्णित करती है। एनईपी के अध्याय चार के अनुसार स्कूल में छटी कक्षा से शुरू कर कम से कम दो वर्षों के लिए संस्कृत तथा शास्त्रीय भाषाओं का अध्ययन कराया जायेगा। उच्च शिक्षा में भी संस्कृत पर बल दिया जायेगा। वर्तमान नई शिक्षानीति हिंदी के उत्थान एवं संरक्षण में कितनी सफल रहती है, यह तो भविष्य ही बताएगा। 
अब बात आती है बोलचाल की हिंदी की। इसमें कोई संदेह नहीं कि मातृभाषा के बिना व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति अधूरी है। मातृभाषा वह है जिसे बालक सबसे पहले अपनी मां से सीखता है और फिर परिजनों के साथ उसका विकास करता है। मातृभाषा के रूप में यही बोलचाल की हिंदी है जिससे हम भाषाई समृद्ध तो होते ही हैं, साथ ही दैनिक कार्यों में परस्पर संवाद को आसान बनाते हैं। लेकिन व्यवहारिक रूप में हो यह रहा है कि आंग्ल माध्यम से पढ़े-लिखे प्रबुद्धवर्ग ने दैनिक संपर्क में आने वाले हिंदी भाषियों को भी अंग्रेजी के शब्दों का सहारा लेने पर विवश कर दिया है। आज हिंदी अथवा आंचलिक भाषा का समर्थ जानकार सब्जीवाला प्रयास करता है कि वह अपनी सब्जियों का अंग्रेजी नाम ले कर उन्हें अधिक से अधिक बेंच सके। ये अंग्रेजी नाम उसके अपने ज्ञानवर्द्धन के लिए नहीं होते हैं, वह एक और भाषा का ज्ञान प्राप्त करने की लालसा से इन्हें नहीं सीखता है, अपितु उसे इस बात का विश्वास है कि यदि वह टमाटर को ‘टमैटो’, अन्नानास को ‘पाईनेप्पल’ बोलेगा तो उसके अंग्रेजीदां ग्राहक उससे खरीददारी करेंगे। यानी हम हिंदी की पैरवी में चाहे जितने राग अलाप लें किन्तु जाने-अनजाने हमने आम बोलचाल की हिंदी में भी अंग्रेजी का दबाव बना दिया है। हंा, यह जरूर है कि बोलचाल की हिंदी में बहुभाषी शब्दों के समावेश ने जो उसे लचीलापन दिया हैॅ उससे बोलचाल की हिंदी प्रवाहमान है। हिन्दी की क्रियाएं हिंदेत्तर शब्दों को आत्मसात कर के अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं। 
अब रहा प्रश्न हाशिए की हिंदी का तो जब तक हिंदी राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं पा जाएगी तब तक हाशिए पर ही रहेगी। किसी भी देश या राष्ट्र द्वारा किसी भाषा को जब अपने राजकार्य के लिए भाषा घोषित किया जाता है तो उसे उसकी राष्ट्र भाषा कहा जाता है। भारतीय संविधान में कोई भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में उल्लिखित नहीं है। कई बार हिंदी को राष्ट्रभाषा कह दिया जाता हैै, लेकिन वास्तविकता यह है कि संविधान के सत्रहवें अध्याय में हिंदी को राजभाषा अर्थात राजकाज की भाषा के रूप में अंकित किया गया है। भारतीय संविधान और भारतीय कानून किसी भाषा को देश की राष्ट्रभाषा के रूप में  परिभाषित नहीं करता है। उल्लेखनीय है कि जिस समय संविधान लागू किया जा रहा था, उस समय अंग्रेजी आधिकारिक रूप से केन्द्र और राज्य दोनो स्तरों पर उपयोग में थी। संविधान द्वारा यह परिकल्पित किया गया था कि अगले 15 वर्ष में अंग्रेजी को चरणबद्ध रूप से हटा कर विभिन्न भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी, को उपयोग में लाया जाएगा, लेकिन तब भी संसद को यह अधिकार दिया गया था कि वह विधिक रूप से उसके बाद भी अंग्रेजी का उपयोग हिन्दी के साथ केन्द्र स्तर पर और अन्य भाषाओं के साथ राज्य स्तर पर चालू रख सकती है।
भारतीय संविधान द्वारा, 1950 में, देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया। यदि संसद द्वारा तुष्टिकरण वाला निर्णय नहीं लिया जाता, तो 15 वर्षों बाद अर्थात 26 जनवरी, 1965 को अंग्रेजी का उपयोग आधिकारिक कार्यों के लिए समाप्त होना था। लेकिन अहिन्दी-भाषी राज्यों में विरोध की लहर चली। परिणामस्वरूप संसद द्वारा आधिकारिक भाषा अधिनियम के तहत आधिकारिक कार्यों के लिए अंग्रेजी के उपयोग को हिन्दी के साथ-साथ 1965 के बाद भी जारी रखने को स्वीकृति दी गई। परिणामस्वरूप, भारत की कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जबकि 22 आधिकारिक भाषाएं हैं। 
पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी गई थी। बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं। स्वतंत्र भारत में अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
हिन्दी के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमने वह वातावरण निर्मित होने दिया है जहां अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दे कर ही इस बुनियादी बाधा को दूर किया जा सकता ।                 
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Thursday, January 16, 2025

बतकाव बिन्ना की | को तै करहे ई राजनीति में का जायज औ का नाजायज? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
       को तै करहे ई राजनीति में का जायज औ  का नाजायज?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘का सोच रए भैयाजी?’’ मैंने देखो के भैयाजी मूंड़ पे हाथ धरे बैठे हते।
‘‘हम जा सोच रए के साल बदल गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, बा तो बदल गओ। औ अब तो आदो मइना गुजर गओ। ईमें कछू सोचबे को का?’’मैंने भैयाजी से पूछी।
‘सोचबे को जे के साल बदल गओ। 2024 से 2025 लग गओ, मनो हाल बदलो का?’’ भैयाजी सोचत भए बोले।
‘‘हाल का बदल जैहे? खाली कलैण्डर बदलो आए। पर की साल को उतार के नओ लटका दओ। जेई पंचांग के संगे करो। मनो पंचांग तो अबे पुरानो सोई धर लओ आए। काय से के कोनऊं पुरानी तिथी-मिथी देखबे की जरूरत पर जाए तो कहां ढूंढत फिरबी?’’मैंने भैयाजी से कई। 
‘‘जेई सो हम कै रए के कलैण्डर बदलवे से कछू नईं बदलो। सगरी प्राबलम जां के तां धरीं।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘कोन सी प्राब्लम?’’ मैंने पूछी।
‘‘एक हो तो गिनाएं, बाकी तुमई देख लेओ के ने तो सिटी की रोडन खों आवारा पशुअन से छुटकारो मिलो औ ने रोडें सई से बनीं। अबे अग्निवीर की भर्ती चल रई हती, सो ऊमें भिंड-मुरैना के मुतके लड़का आए रहे। आजकाल तो चार ठो जांगा के लाने चार से चौदह हजार मोड़ा आ ठाड़े होत जात आएं। ई ठंडी में उन ओरन ने खींब दौड़े लगाईं। जे तो कओ अच्छो रओ के कछू दान करबे वारन ने उनकी मुफत में पंगत करा दई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘तो सई तो करो। अखीर बे ओरें बी तो कोनऊं के बच्चा आएं। उनके मताई-बाप हरों खों तनक तो सहूरी भई हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘काए, तुम का सोचत आओ जे अग्निवीर के बारे में? जे भर्ती होन चाइए के नईं?’’ भैयाजी ने अचानक मोसे पूछ लओ।
‘‘हमाए बिचार में तो जो सई आए। कुल्ल देसों में सो सैनिक शिक्षा सबको लेने परत आए, फेर बे चाए बड़े सेलीबिरटी होंए चाए कोनऊं पब्लिक होए। सो हमाई जान में तो जे सई आए। ईंसे जे जो आजकाल सबसे ज्यादा जो बिगड़े जा राए अपने मोड़ा हरें, उनमें कछू तमीज आहे।’’ मैंने कई।       
‘‘हऔ सई कई। आजकाल अपने ज्वान हरें दो टाईप के भए जा रए। एक तो मोबाईल ले के बैठे रैबे वारे, जोन खों हाथ-गोड़े हलाबे में पहाड़ टूटत आएं। उनसे बाप-मताई कछू काम करबै की कैत आएं सो बे ठन्न से कै दैत आएं के, हमाए पास अबे टेम नईयां!’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ दूसरे टाईप के?’’ मैंने पूछी।
‘‘दूसरे टाईप के बे ओरे आएं जोन खों अपनी बौडी बनाबे से फुरसत नईयां। कऊं जिम जैहें औ कऊं बो का कहाऊत आए... हौ, बा मैंगी-मैंगी प्रोटीन ड्रिंक पीहें। जो उनसे कओ के भैया हरों अम्मा ने हींग के बघार वारी अच्छी दार बनाई आए, तनक बा खा लेओ, सो नांक-मों बनन लगत आएं। उनखों दार को प्रोटीन नईं पुसात। औ जो कोनऊं काम करबे की कओ सो उने सोसल मीडिया पे अपनी रील बनाबे औ पैलबे से फरसत नइयां। सई में ऐसे मोड़ा हरों खो तो कछू टेम के लाने फौज में भेजो जाने चाइए। फेर जां रैहें, तरीका से रैहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बाकी एक बात तो आए भैयाजी!’’मैंने कई औ तनक सस्पेंस बनाबे खों इत्तई बोल के चुप रै गई।
‘‘कोन सी बात?’’ भैयाजी पूछे बिगर नईं रै सके।
‘‘कछू तो बदलाव दिखान लगो आए जे नए साल में।’’ मैंने कई।
‘‘तुमें कोन सो बदलाव दिखान लगे?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘आपने नईं देखो का?’’ मैंने पूछी।
‘‘कां? हमें तो कछू नओ नई दिखानो।’’ भैयाजी बोले।
‘ऐल्लो, मने आप अपडेट नई रैत आओ!’’ मैंने तनक चिकोटी-सी लई।
‘‘काए की अपडेट? अब बुझौव्वल ने बुझाओ, इते कोनऊं केबीसी नईं हो रओ।’’ भैयाजी झुंझलात भए बोले।
‘‘कोन ने कई के इते केबीसी हो रओ? मैं तो उन खबरन की कै रई जोन में कओ गओ के अपने इते की राजनीति में नई खेप आ गई।’’ मैंने कई।
‘‘राजनीति में नईं खेप? जो सब का कै रईं, हमें तो कछू समझ नईं पर रओ।’’ भैयाजी अपनो मूंड़ खुजाउन लगे।
‘‘नई खेप मने अपने नेता हरन के बाल-बच्चा अब राजनीति के मैदान में कूंद परे आएं।’’ मैंने तनक और साफ कर के बताई।
‘‘सो ईमें नओ का आए? अपने शिवराज भैया मने अपने पुराने वारे मुख्यमंत्री के बेटा जू सो पैलेई आ चुके आएं। उन्ने चुनाव में प्रचार बी करो रओ और भषन-माषन बी दओ रओ।’’ भैयाजी मोरे सस्पेंस की हवा निकारत भए बोले।
‘‘मैं उनकी नईं कै रई। बे सो पैले आ गए। मनो अब अपने दूसरे नेता हरों के बच्चा हरें बी उद्घाटन-मुद्घाअन में दिखान लगे। मने अब जे साफ दिखान लगो के उनके बच्चा हरों में से कोन खों लांच करो जा रओ औ कोन खों बैकफुट में रखो गओ आए।’’ मैंने भैयाजी खों तनक औ समझाई।
‘अच्छा हऔ, हम समझ गए के तुम कोन-कोन के लाने कै रईं। मनो, सुनो बिन्ना! अब तुमई सोचो के डाक्टर अपने बच्चा खों डाॅक्टर बनाबो चात आए, कलेक्अर अपने बच्चा खों कलेक्टर बनाओ चात आए, एक्टर अपने बच्चा खों एक्टर बनाबो चात आए तो जो नेता अपने बच्चा खों नेता बनाबे की सोचें सो ईमें बुराई का?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘बुराई कछु नईयां। काय से जोन लड़कोरे से राजनीति के अंगना में गुलली-डंडा खेल रए होंए उनके लाने उते काम करबो आसान रैहे। हम तो कै रए के ऐसे होबे में कोनऊं बुराई नइयां।’’मैंने कई।
‘‘सो फेर ईमें बतकाव करबे की का आए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बतकाव करबे की जे आए के जो उनके अपने बच्चा राजनीति में आएं सो बा जनसेवा कहाई, कहाई के नईं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। 
‘‘हऔ तो? ईमें का?’’
‘‘ईमें जे के बा कहनात आए ने के जो ‘अपनो घर कांच को बनो होए, सो दूसरों के घर पे पथरा नईं मैकों जात आए’, सो दूसरन के बंसबाद पे बतकाव करत समै जे सोई ध्यान रखो चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘तुम तो गजबई कर रईं बिन्ना! ऐसो कैत भए तुमें डर नईं लगत?’’ भैयाजी चैंक परे।
‘‘काय को डर? हम का गलत कई? जो गलत कई होय सो कओ आप!’’ मैंने भैयाजी खों चैलेंज करो।
‘‘नईं, कै तो तुम सांची रईं, मगर बिन्ना कभऊं-कभऊं सांची बात कोऊं-कोऊं खों करई लगन लगत आए। सो सोच के बोलो करो।’’ भैयाजी ने मोए समझाओ।
‘‘आपने बा कहनात सोई सुनी हुइए के साहित्य समाज को दरपन होत आए, ओ मैं ठैरी साहित्य वारी। सो, दरपन दिखाए बिगर मोए सोई चैन कां परहे। औ फेर गलत का कै रई? मैं तो जे कै रई के जा राजनीति के मैदान में खेलो औ खेलन देओ। जो तगड़ो हुइए बा जीत जैहे। होन देओ खुल के नूरा कुश्ती। सई की टांग खैंचो, झूठी नईं।’’ मैंने कई।
‘‘अब जेई पे तुम सोई बा कैनात याद कर लेओ के ‘प्यार औ लड़ाई में सब जायज रैत आए’। राजनीति में अपनो चित्त, सो चित्त रैत आए औ दूसरो चित्त बी पट्ट कओ जात आए।’’भैयाजी ने अब मोए समझाओ।
‘‘ठीक कई भैयाजी आपने।’’ मोए भैयाजी की कई मानने परी। बे सोई सांची कै रए हते।   
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में, को तै करहे ई राजनीति में का जायज औ नाजायज?
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Wednesday, January 15, 2025

चर्चा प्लस | पहले ख़बर हो कर बेखबर रहते हैं, बाद में चौंकते हैं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
       पहले ख़बर हो कर बेखबर रहते हैं, बाद में चौंकते हैं  
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘हमें का करने!’’ यह एक बहुप्रचलित उद्गार है किसी भी मुद्दे पर। विशेषरूप से आज जनहित के मसलों पर आमजन से ही ये शब्द सुनने को मिल जाते हैं। इसी को कहते हैं जानकर भी बेख़बर रहना। कुछ मुद्दे ऐसे भी होते हैं जिनके बारे में सरकार बाकायदा पूर्व घोषणा करती है, आमजन से विचार भी आमंत्रित करती है लेकिन पता नहीं क्यों लगभग हर मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा मान कर आमजन समय रहते अपनी राय भी प्रकट नहीं करता है और जब निर्णय लागू कर दिया जाता है तो प्रतिक्रिया होती है कि-‘‘अरे ये कब हो गया? हमें तो पता ही नहीं चला!’’ कहीं यही हाल न हो जाए प्रदेश में होने वाले नए परिसीमन को लेकर।

        अब कोई कहे के ये परिसीमन की बात कहां से और कब आ गई तो यह सुन कर शायद प्रदेश सरकार की आंखों से भी आंसू छलक पड़ें। तारीख 01 नवंबर 2024 मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने प्रदेश में नए परिसीमन आयोग के गठन का ऐलान कर दिया था। उसी समय बताया गया था कि नए परिसीमन आयोग की जिम्मेदारी रिटायर्ड एसीएस स्तर के अधिकारी मनोज श्रीवास्तव को सौंपी गई है। इस आयोग का गठन प्रदेश के संभागों और जिलों की सीमाओं की विसंगतियों को दूर करने के लिए किया गया। यह भी बताया गया था कि इस नवीन परिसीमन के अंतर्गत कई विसंगतियों को दूर कर कई स्थानों को आस-पास के जिलों से जोड़कर लोगों की बेहतरी के लिए काम किया जाएगा। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कहा स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, ‘‘जब हमने सरकार बनाई तो इस बात पर ध्यान दिया कि भौगोलिक दृष्टि से भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य होने के नाते मध्य प्रदेश का अपना क्षेत्रफल तो है लेकिन समय के साथ इसमें कुछ कठिनाइयां भी आई हैं। जिले तो बढ़ गए, लेकिन जिलों की अपनी सीमाएं हैं। कई विसंगतियां हैं। कई संभाग बहुत छोटे हो गए हैं। ऐसी कई विसंगतियों के लिए हमने नया परिसीमन आयोग बनाया है, जिसके माध्यम से आस-पास के स्थानों को आस-पास के जिलों से जोड़कर लोगों की बेहतरी के लिए काम किया जाएगा।’’
एक-एक बात स्पष्ट और खोल कर बताई गई। आयोग को जिम्मेदारी दी गई है कि प्रदेश में संभाग, जिले, तहसील, विकासखंडों की नए सिरे से सीमांकन की रूपरेखा बनाकर प्रस्ताव तैयार करें। यह बात अलग है कि उस समय राज्य सरकार ने दावा किया कि प्रशासनिक पुनर्गठन का काम 2 माह में पूरा कर लिया जाएगा। यद्यपि विशेषज्ञों ने कहा कि दो महीने में ऐसे काम पूरे होने संभव नहीं हैं। कम से कम  एक साल का समय तो लगेगा ही। ये छोटा नहीं, बहुत बड़ा है। मध्यप्रदेश में कुल 10 संभाग, 56 जिले और 430 तहसीलें हैं। नई सीमाएं तय करने के लिए हर संभाग, जिला, तहसील स्तर के साथ ब्लॉक स्तर से कई प्रकार की रिपोर्ट मांगी जाएंगी। उनका अध्ययन किया जाएगा। यह देखा जाएगा कि जिला मुख्यालय से तहसील मुख्यालय व ब्लॉक की दूरियां कितनी हैं और किस तहसील और ब्लॉक मुख्यालय की सीमाएं किस जिले के नजदीक हैं। साथ ही भौगोलिक आधार पर किस मुख्यालय में क्या-क्या विसंगतियां हैं। आयोग को ये भी देखना पड़ेगा कि सभी जिलों में आयोग राजस्व, वन, नगरीय निकाय और पंचायत विभाग का समन्वय किस हिसाब से किया जा सकता है। सभी सीमाओं का विस्तृत अध्ययन करने के बाद ही अंतिम प्रारूप तय हो सकेगा। राज्य सरकार ने भले ही परिसीमन दो माह में पूरा करने का दावा किया था लेकिन यह समय सीमा किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं थी। आयोग पहले तो जिला मुख्यालय के साथ ही तहसील मुख्यालय और हर ब्लॉक की सीमाओं के साथ जनसंख्या, नए जिले और नई तहसीलें गठित होने के बाद दिख रही विसंगतियां क्या हैं, इसका पता करेंगा। इस बारे में ब्लॉक लेवल से लेकर संभाग लेवल तक अफसरों को रिपोर्ट तैयार करके आयोग को देनी होंगी।  इसके साथ ही आयोग और हर जिले के प्रशासनिक अफसरों को सभी जनप्रतिनिधियों की आपत्तियों का भी निकारकरण करना है. इतना काम करने में एक साल से अधिक का समय लगेगा। फिर एक समस्या यह भी आई कि केंद्र सरकार ने 1 जनवरी 2025 से राष्ट्रीय जनगणना शुरू करने की योजना घोषित कर दी थी, जिसके लिए सभी राज्यों को 31 दिसंबर 2024 तक जिला, तहसील और ब्लॉक की सीमाएं फिक्स करने का आदेश जारी किया गया। इस प्रकार मध्यप्रदेश के परिसीमन में और ज्यादा समय लगने की संभावना है।
यह समय प्रशासनिक दृष्टि से भले ही ज्यादा हो लेकिन आमजन की राय के लिए सीमित और कम है, बशर्ते आमजन अपनी राय देने की जागरूकता का परिचय दे। सरकार अपने ऐसे हर बड़े निर्णय पर दावा, आपत्तियां और राय आमजन से आमंत्रित करती है लेकिन आमजन को मानो उस मुद्दे से कोई वास्ता नहीं रहता है। फिर जब उसे लगता है कि जो हुआ वह गलत हुआ है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ऐसा लगता है कि आम जनता अपनी आवश्यकताओं को समझती तो बाखूबी है लेकिन उसके लिए अपनी राय प्रकट करने में झिझकती है। जबकि सरकार स्वयं आगे बढ़ कर राय देने का आह्वान करती है। पहले राय मांगे जाने पर ध्यान नहीं देना और फिर बाद में उलाहने गठरी पीठ पर लाद कर घूमना कि हमसे किसी ने पूछा नहीं, खबर होते हुए भी बेखबर रहने की निशानी है।
                दूर जाने के बजाए सागर जिला मुख्यालय के ही कुछ उदाहरण पुनः याद कर लीजिए। जब डाॅ. करी सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर को केन्द्रीय विश्वविद्यालय में बदलने की कवायद शुरू हुई तो यह बात स्पष्ट थी कि इससे सागर के छात्रों के लिए सीटें कम हो जाएंगी तथा बाहर के छात्रों के लिए अवसर बढ़ जाएंगे। कुछ छुटपुट विरोध के बाद विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय बन जाने दिया गया। जब पूरी प्रक्रिया सम्पन्न हो गई तब बात उठी कि इससे तो पहले ही ठीक था अतः इसे पुनः पुरानी स्थिति में लौटा दिया जाए। एकदम व्यावहारिक मांग। खैर, यही हाल हुआ जिला अस्पताल और बीएमसी के आपस में मर्ज होने का। दावा, आपत्तियों एवं राय देने के समय झपकियां लेते रहने और बाद में अचानक जाग उठने से सब कुछ नहीं पलटा जा सकता है।
        सागर का एक परिसीमन हुआ था कुछ वर्ष पूर्व। उस समय मकरोनिया नगर पालिका बनाई गई और सागर नगर सागर नगरनिगम के आधीन रह गया। रजाखेड़ी जो कभी प्रदेश की सबसे बड़ी पंचायत हुआ करती थी मकरोनिया बुजुर्ग नगरपालिका के आधीन चली गई। उस समय बात आई थी कि मकरोनिया को नगर निगम में शामिल रखा जाए लेकिन मांग का स्वर कमजोर था। ऐसे अनेक लोग थे जो ‘‘हमें का करने?’’ की भूमिका में थे। अब एक   बार फिर समय है जब प्रशासन के सामने अपनी मांगों को रखते हुए अपनी राय से सरकार को अवगत कराया जा सकता है। परिसीमन आए दिन होने वाली प्रक्रिया नहीं है। इसलिए समय रहते यह तय नहीं किया गया कि मकरोनिया को सागर और उसकी स्मार्ट सिटी का हिस्सा बनना है या फिर विकास के लिए अपने सीमित साधनों के साथ जूझते रहना है।  
         मध्यप्रदेश क्षेत्रफल की हिसाब से देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। यहां पर पहले ही जिला, तहसील और ब्लॉक को नए सिरे से गठन की मांग की जा रही है। क्योंकि इनकी सीमाओं पर विसंगतियां हैं.। प्रदेश में बीते कुछ सालों से नए जिलों और नई तहसीलों का गठन किया गया। इस कारण ये विसंगतियां और बढ़ गईं। भौगोलिक विसंगतियों के कारण आम लोगों को प्रशासनिक कार्य कराने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
            परिसीमन के दौरान कुछ और नए जिलों के साथ ही नई तहसीलें बन सकती हैं। भौगोलिक विसंगितयों के कारण ही बीना (सागर), खुरई (सागर), जुन्नारदेव (छिंदवाड़ा), लवकुशनगर (छतरपुर) और मनावर (धार) को जिला बनाने की मांग लगातार उठती रही है। प्रशासनिक पुनर्गठन आयोग बनने से अब इस पर विचार किया जा सकता है। क्योंकि सीएम कह भी चुके हैं कई टोले, मजरे और पंचायतों के लोगों को जिला, संभाग, तहसील, विकासखंड जैसे मुख्यालयों तक पहुंचने के लिए 100 से 150 किमी का चक्कर लगाना पड़ रहा है, जबकि ऐसे क्षेत्रों से दूसरे जिले, संभाग, विकासखंड और तहसील मुख्यालय नजदीक हैं। कई संभाग बड़े-छोटे हो गए हैं। ऐसी विसंगतियां दूर करने के लिए नया परिसीमन आयोग बनाया गया है। लेकिन सवाल वही है कि आमजन इस परिसीमन प्रक्रिया को ले कर कितनी जागरूक है? इच्छानुरूप तभी सबकुछ हो सकता है जब समय रहते आमजन अपनी राय प्रकट करे। वरना जब चिड़िएं खेत चुग जाएं फिर हाय-तौबा मचाने से क्या होगा?                   
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Tuesday, January 14, 2025

पुस्तक समीक्षा | समाज में व्याप्त वैचारिक विसंगतियों की अंतर्कथा कहती लघुकथाएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 14.01.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित 
पुस्तक समीक्षा  
समाज में व्याप्त वैचारिक विसंगतियों की अंतर्कथा कहती लघुकथाएं
         - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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लघुकथा संग्रह - पंछी मुण्डेर के
लेखक       - एस.एम. अली
प्रकाशक     - इंक पब्लिकेशन, 333/1/1के, नयापुरा, करेली, प्रयागराज, उ.प्र.    
मूल्य        - 220/- 
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लघुकथा हिन्दी साहित्य की एक सशक्त विधा है। कम शब्दों में किसी कथानक को प्रस्तुत करने की बेहतरीन कला। यह अंग्रेजी कह शार्ट स्टोरी से अलग है। यह उसकी अपेक्षा अधिक छोटी और कम से कम शब्दों में होती है। लघुकथा को जितने कम शब्दों में कहा जाए, वह उतनी ही अधिक प्रभावी और उत्तम मानी जाती है। कई विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानी जाने वाली माधवराव सप्रे की कहानी ‘‘एक टोकरी भर मिट्टी’’ को भी लघुकथा की श्रेणी में रखते हैं। किन्तु लघुकथा की विधा को लोकप्रियता मिली कमलेश्वर, बलराम, एवं राजेन्द्र यादव के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं ‘‘सारिका’’, ‘‘हंस’’ आदि से। उस दौर में लघुकथा के विधान तय किए गए और बहुसंख्यक लघुकथाएं लिखीं गईं। लघुकथा की सबसे बड़ी विशेषता मानी गई उसके व्यंजनापूर्ण कथन शैली।
‘‘पंछी मुण्डेर के और अन्य लघुकथाएं’’ कथाकार एस.एम. अली का लघुकथा संग्रह है। इसमें उनकी सौ लघुकथाएं हैं। एक लम्बे समय से वे कथा लेखन में संलग्न हैं। इस संग्रह से पूर्व कथाकार अली के दो कहानी संग्रह मुझे पढने का अवसर मिल चुका है किन्तु यह लघुकथा संग्रह उनके पूर्व संग्रहों से अधिक प्रभावी और सशक्त है। एस. एम. अली लघुकथाओं के माध्यम से अपनी बात कहने में अधिक आश्वस्त दिखाई पड़ते हैं। इस संग्रह में संग्रहीत उनकी लघुकथाओं में जीवन की अंतर्कथा मौज़ूद है। वर्तमान जीवन में भूख, संत्रास, गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, जाति और धर्म के नाम पर बंटवारा एवं अविश्वास के साथ ही सबसे चिंतनीय स्थिति है घटती हुई संवेदनशीलता। इन समस्त विसंगतियों पर कथाकार अली की पैनी नज़र है। वे इन विसंगतियों को अपनी लघुकथाओं में सामने रखते हैं किन्तु मात्र समस्या अथवा प्रश्न के रूप में नहीं, अपितु वे उनका हल भी प्रस्तुत करते चलते हैं। अर्थात लेखक परिस्थितिजन्य कठिनाइयों एवं विडंबनाओं से भयाक्रांत नहीं है, बल्कि वह रास्ता भी सुझाता है कि स्थितियों को कैसे अनुकूल बनाया जा सकता है। यूं तो संग्रह की पहली लघुकथा ‘‘प्रार्थना’’ है किन्तु मैं उसके पहले दो लघुकथाओं की बात करना चाहूंगी जिनमें पहली है ‘‘शैतान’’। यह लघुकथा मात्र तीन पंक्तियों एवं 26 शब्दों की है। किन्तु इसका कथानक जीवन का पूरा एक आख्यान व्यक्त कर देता है। यह लघुकथा इस प्रकार है- 
‘‘शिक्षक: अनिल, शैतान की परिभाषा बताओ।’’
अनिल: सर अदृश्य शैतान तो एक व्यक्ति को परेशान करता है, पर मानव रूपी शैतान सरेआम सबको परेशान करता है।’’ 
दूसरी लघुकथा जिसे मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगी, वह है ‘‘मज़हब’’। धर्म यानी मज़हब हमारे समाज का सबसे संवदेनशील मुद्दा होता है। हर मज़हब परस्पर मिलजुल का रहने की शिक्षा देता है किन्तु हर कट्टर अनुयायी अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को निम्न ठहराने की जुगत में लगा रहता है। यही परस्पर टकराव का कारण भी बनता है। कथाकार अली ने ‘‘मज़हब’’ लघुकथा में मात्र 30 शब्दों में उस कटुप्रसंग को प्रस्तुत कर दिया है जिसमें मानवता नहीं धर्म प्रधान होता है और धर्म को पहचान बना कर अनावश्यक रक्तपात किया जाता है। इस लघुकथा पर दृष्टिपात कीजिए-
‘‘एक आतंकी ने एक युवक पर गन मशीन तानते हुए पूछा-‘‘बोल तेरा नाम क्या है?’’
युवक ने निर्भीकता से कहा-‘‘पहले तू ही बता, तू हिन्दू है या मुसलमान।’’
एस.एम. अली शब्दों की सटीकता को पहचानते हैं। उनकी लघुकथाओं में प्रत्येक शब्द ठीक उसी तरह से नपेतुले ढंग से प्रस्तुत होता है जैसे कविताओं में शब्द सटीकता रची-बसी होती है। डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि -‘‘अली साहब समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों, संकीर्ण मानसिकता का विरोध करने वाले सादगी सम्पन्न, सहज, सरल, ईमानदार व्यक्ति हैं। लेखक का व्यक्तित्व और दृष्टिकोण उसकी रचनाओं में झलकता ही है। अली साहब की रचनाएं दर्शाती हैं कि वे समाज के गरीब, पिछड़े, अभावग्रस्त लोगों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। उनका लेखन समष्टिगत एवं लोकमंगल के लिए है। उनकी भाषा सहज, सरस, प्रवाहमयी है। क्योंकि वे आवश्यकतानुसार हिन्दी के तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी रूपों के साथ उर्दू, अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। यही कारण है कि उनका लेखन जीवंतता की अनुभूति कराता है।’’
कहानी में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग उसमें सहजता का संचार करती है। पात्रानुसार संवाद शिल्प पात्र को चारित्रिक स्पष्टता देता है तथा कथानक को भी बाखूबी व्याख्यायित करता है। कथाकार अली की लघुकथाओं में शाब्दिक सम्पन्नता सशक्त रूप में मौजूद है। वे सामाजिक शांति, परस्परिक सौहाद्र्य एवं गंगा-जमुनी तहज़ीब के हिमायती हैं। यह बात उन्होंने ‘‘अपनी बात’’ में लिखी ही है, साथ ही उनकी कई कथाओं में उनके ये विचार पूरी तीव्रता से मुखर हुए हैं। वस्तुतः एक साहित्यकार का दायित्व भी यही होता है कि वह भ्रम में पड़े हुए लोगों का भ्रम दूर करे और उन्हें उचित-अनुचित में भेद करने के लिए प्रेरित करे। इस संदर्भ में एस.एम. अली की एक लघुकथा है ‘‘चबूतरा’’। यह एक रोचक एवं महत्वपूर्ण लघुकथा है जो चबूतरे को एक स्वस्थ समाज के प्रतीक के रूप में स्थापित करती है। गांव का चबूतरा कभी किसी एक धर्म या समुदाय का नहीं रहा। वह एक सार्वजनिक स्थान होता है जहां सभी बैठ का आपस में दुख-सुख साझा करते हैं। लेकिन यदि उस चबूतरे पर अधिकार को ले कर विवाद होने लगे तो मूर्खतापूर्ण टकराव ही हाथ आता है। यह लघुकथा इसी तथ्य को रेखांकित करती है-  
‘‘एक चबूतरा लगभग सौ साल पहले लोगों ने सार्वजनिक स्थान पर बैठने के लिए बनवाया था।
उस पर न तो मुस्लिम समुदाय का कब्जा था, और न ही हिन्दू समुदाय का।
अब समय ऐसा बदला है कि सामान्य-सी चीजों पर दो समुदाय में हिंसा भड़क उठती है।
चबूतरे पर हिन्दू समुदाय ने अपना दावा ठोका तो मुसलमानों ने अपना।
इसी बात को लेकर नगर में हिंसा भड़क उठी। कई लोगों की जान चली जाने के साथ ही अनेकों घरों में आगजनी के कारण लोग बेघर हो गए थे।
चबूतरा यथावत खड़ा मूर्खों पर आंसू बहा रहा था।
विनोवा भावे ने कहा था - दो धर्मों का कभी झगड़ा नहीं होता। सब धर्मों का अधर्म से ही झगड़ा है।’’
धार्मिक सम्भाव की आकाक्षां से लिखी गई एक और लघुकथा है जो बड़ी सहजता से इस तथ्य को सामने रखती है कि कोई भी धर्म, कोई भी रंग मानवता से बड़ा नहीं होता है। रंग सुंदरता का पर्याय होना चाहिए कट्टरता का नहीं। यही बात कहती है लघुकथा ‘‘भगवा रंग’’। कथा इस प्रकार है-
‘‘हनीफ साहब दावत का लुत्फ उठाते हुए बातचीत के दौरान बोले - ‘मुसलमानों को भगवा रंग से परहेज करना चाहिए।’
रियाज साहब प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति हैं। उनसे न रहा गया ‘माफ करना हनीफ साहब, आप जो भगवा रंग का जरदा (मीठे चावल) खा रहे हैं। आपका अपने बारे में क्या ख्याल है?’
इतना सुनकर हनीफ साहब का चेहरा मलीन हो गया।’’
विशेषता यह भी हैॅ कि लेखक ने अपनी किसी भी लघुकथा में किसी को उलाहना नहीं दिया है अपितु सच को सामने रखते हुए सच को पहचानने का आग्रह किया है। एस.एम. अली कहीं-कहीं कथाकार असगर वज़ाहत की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते हैं। उनकी कथाओं में समसामयिक चेतना है। वे अपने समकालीन परिवेश से भली-भांति परिचित हैं। वे परिवेश को मात्र जीते नहीं हैं वरन उसका विश्लेषण करते हैं और उसकी पूरी पड़ताल करते हैं। हर परिस्थिति को देखने और सोचने समझने का कथाकार अली का अपना एक दृष्टिकोण है जो समय की मांग पर खरा उतरता है। उनकी लघुकथाएं व्यापक अनुभव जगत से पाठक का साक्षात्कार कराने में सक्षम हैं। उनका बारीक विश्लेषण तर्क की कसौटी भी आसानी से पार कर लेता है। उनकी ये लघुकथाएं हमारे समाज की संवेदनहीन हो रही स्थिति पर सोचने के लिए पाठक को अवश्य बाध्य करेंगी। जैसे एक लघुकथा है ‘‘दिव्यांग’’ इसमें मनुष्यता की गिरावट का कटु दृश्य है-
एक दिव्यांग व्यक्ति ने मंत्री जी से गिड़गिड़ाते हुए कहा - ‘‘साब, मेरे जीते जी शासन की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।’’
मंत्री जी से अपनी पार्टी की बुराई नहीं सुनी गई। फिर उन्होंने खिन्नता भरे लहजे में कहा ‘‘ठीक है, मरने के बाद ऊपर वाले से लाभ ले लेना।
और अंत में संग्रह की शीर्षक कथा की चर्चा करना भी आवश्यक है क्योंकि यह उस देशीय समस्या के साथ-साथ वैश्विक समस्या की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है जिसके कारण आज बसे-बसाए देश खण्डहर में तब्दील हो रहे हैं। युद्ध और हिंसा धर्म और जाति को ले कर होती है किन्तु उससे प्रभावित होेते हैं पशुपक्षी भी। ‘‘पंछी मुण्डेर के’’ लघुकथा में एक पुराना मेहराब है जिसमें पंछियों ने अपनी बस्ती बसा ली है लेकिन विभिन्न धर्मों के लोग उस पर आना-अपना दावा करके आपस में झगड़ते हैं और अंत में उसे नेस्तनाबूद कर देते हैं। परिणामतः पंछियों की बस्ती ढंह जाती है, उजड़ जाती है और बेघर हुए पंछी इंसानों को कोसते हुए नए ठिकाने की तलाश में भटकने लगते हैं। इसमें दो मत नहीं है कि कथाकार एस.एम. अली एक संवेदनशील और सजग लेखक हैं। उन्होंने अपनी लघुकथाओं में न केवल लघुकथा के शिल्पगत मानकों को पूरा किया है बल्कि गंभीर और चुनौती भरे कथानकों को बड़ी सहजता से लिख डाला है। उनका यह लघुकथा संग्रह निश्चित रूप से पढ़े जाने योग्य है और उनकी भावी कथायात्रा के प्रति आश्वस्त करता है।                
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Saturday, January 11, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | तनक पैले चालू हो जाए मास्टर प्लान औ परिसीमन को काम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
तनक पैले चालू हो जाए मास्टर प्लान औ परिसीमन को काम
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
      अपनों सागर तरक्की कर रओ। मनो बरया बर के। तनक एक जांगा बैठ के मूंड़ पे हाथ दे के सोचो तो सबरे कच्चे चिट्ठा खुलन लगहें। जबसे हमने ई अखबार में जा ख़बर पढ़ लई के जोन शहरों के विकास के लाने नए मास्टर तै करे गए आएं,  ऊमें अपनों सागर को नांव सोई आए। जा पढ़ के अच्छो बी लगो औ फिकर बी भई। फिकर ऐसी के सागर के लाने जो मास्टर प्लान आए बा 2035 से लागू हुइए। मने ठीक दस साल बाद। जे दस साल को टेम काए के लाने छोड़ो गओ? काए से के ज्यादा छोड़ा-छाड़ी में काम बिलुर जात आएं। हमाई ने मानों तो तनक पांछू को रिकॉर्ड देख लेओ। 
        अपने इते स्मार्ट सिटी की घोषणा भई के ऊके पैले सिटी को परिसीमन कर के मकरोनिया खों नगरनिगम में ने राख के अलग से नगरपालिका बना दई गई। अब ईमें कोन की पासें गिरीं जा में अबे हम नईं पर रए। बाकी जो मकरोनिया नगरपालिका बनी सो पैदा होतई साथ ‘बुजुर्ग’ कहा गई। चलो, कोई नईं! लेकन, सिटी में स्मार्ट सिटी लागू भई ओ मकरोनिया खों ठेंगा। अब जबे स्मार्ट सिटी के लाने पइसा तै कर दए गए, तो मास्टर प्लान के लाने जल्दी को पूछ रओ। औ जो मास्टर प्लान के पैले नगर की सीमा को फेर के परिसीमन ने करो गओ औ मकरोनिया ऊमें ने मिलाई गई तो जे सबसे बड़ी वारी अत्त हुइए। ऊंसई आरओबी को काम चालू भओ तो औ कोरोना आ गओ तो।  जीमें आरओबी देखे बिगैर बिचारे मुतके निपट गए। औ बा अबे लौं पूरी ने भईं। सो, दस बरस में को रैहें, को नईं रैहें, का पतो? सो जा मास्टर प्लान औ नओ परिसीमन तनक जल्दी चालू हो जातो तो अच्छो रैतो। काय सई आए के नईं!  
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, January 10, 2025

शून्यकाल | धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 'शून्यकाल'

      धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
   आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।
हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है?  भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।   
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। 
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है? 
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं। 
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे? 
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की। 
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे। 
(यह चर्चा लम्बी है अतः शेष आगामी कड़ी में।)                ----------------------------
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