Wednesday, December 24, 2025

चर्चा प्लस | सुगठित पारिवारिक संरचना थी प्राचीन भारत में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस
सुगठित पारिवारिक संरचना थी प्राचीन भारत में
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
 
      भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है इसकी परिवार संरचना। परिवार वह इकाई थी जिसमें रक्तसंबंधियों का समूह अलिखित पारस्परिक दायित्वों एवं कर्तव्यों का निर्वाह करता था। सबके काम बंटे हुए थे। सब अपने हिससे के दायित्वों का निर्वहन कर परिवार को सुगठित बनाए रखता था। परिवार की यह संचरना अन्य संस्कृतियों में टूटती चली गई किन्तु भारतीय संस्कृति में यह परंपरा सदियों तक निर्बाध रूप से बहती रही। किन्तु आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव की बढ़त के कारण परिवार अर्थगामी हो गया है। जिस परिवार में प्रत्येक सदस्य धनार्जन कर रहा हो, वह सबसे सुखी और पूर्ण माना जाने लगा है। भले ही देखभाल के अभाव में बच्चे जुवेनाइल एक्ट में जेल जा रहे हों और वृद्धजन वृद्धाश्रम में जाने को विवश हो रहे हों। ऐसे में देखते हैं अपनी प्राचीन पारिवारिक संस्था का गठन।     

 

      प्राचीन काल में परिवार के सुगठित संगठन की भांति था जिसमें हर सदस्य के काम बंटे होते थे। ठीक किसी राज्य संरचना की भांति। राजा के स्थान पर पिता। सलाहकार के स्थान पर घर के बुजुर्ग, गहमंत्री के रूप में गृहवामिनी तथा परिवार की रक्षा का दायित्व परिपार के हर युवा पर होता था। परिवार का गठन वैवाहिक संबंधों पर आधारित होता था। विवाह को गृहस्थाश्रम की नींव कहा जाता था। विवाह के उपरान्त पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों पर परिवार की संरचना निर्भर रहती थी। ऋग्वैदिक काल में दाम्पत्य जीवन पति-पत्नी की बराबरी पर आधारित था। ऋग्वेद के विवाह सूक्त के अनुसार पत्नी का अपने देवर तथा सास-ससुर पर नियंत्रण रहता था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि वह अपने देवर अथवा सास-ससुर की अवहेलना करे। यह उसका कत्तर््ाव्य था कि वह अपने सास-ससुर की सेवा करे, उनका आदर करे तथा अपने देवर का ध्यान रखे। पत्नी को अपने पति के साथ सभी धार्मिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने का अधिकार था। पत्नी को यह स्वतंत्रता थी कि वह समारोहों में भाग ले सके तथा अन्य पुरुषों से वार्तालाप कर सके। ऋग्वैदिक काल में प्रायः एक-पत्नी प्रथा का चलन था। कन्याओं को स्वयं पति चुनने की छूट थी। अतः पत्नी को इच्छानुसार पति मिल सकता था।

बृहदारण्यक उपनिषद में परिवार की सुख-समृद्धि के लिए पति और पत्नी दोनों के समान महत्व को आवश्यक बताया गया है। गृह्य-सूत्रें में दाम्पत्य जीवन के बारे में विस्तुत जानकारी मिलती है। दाम्पत्य जीवन का प्रारम्भ ब्रह्मचर्य समाप्त होने के बाद विवाह होने के साथ प्रारम्भ हो जाता था। पति को सदा पत्नी और संतानों के साथ मेल-मिलाप का व्यवहार रखना चाहिए।
अंगुत्तर निकाय में योग्य पत्नी के गुणों का वर्णन किया गया है -
           (1) पति की आज्ञाकारिणी। (2) पति से मधुर सम्भाषण करने वाली। (3) पति की इच्छानुसार कार्य करने वाली।  (4) पति के गुरुजनों का सम्मान करने वाली। (5) उत्साहपूर्वक अतिथियों की सेवा करने वाली। (6) वस्त्रें की कताई-बुनाई में दक्ष। (7) गृहकार्य एवं गृहस्थी की देख-भाल में दक्ष। (8) दास-दासियों एवं अनुचरों का ध्यान रखने वाली। (9) पति द्वारा अर्जित किए जाने वाले धन को सहेज कर रखने वाली। (10) उदार की भावना वाली।
बौद्धकाल में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। मगध के राजा बिम्बसार की पांच सौ रानियां होने का उल्लेख मिलता है।  बहुपत्नी विवाह की भांति बहुपति विवाह के उदाहरण भी मिलते हैं । कौशल देश की राजकुमारी कन्हा के द्वारा स्वयंवर में पांच पुरुषों को पतियों के रूप में स्वीकार करने की कथा कुणाल जातक में मिलती है। यद्यपि इस प्रथा का प्रचलन सीमित रहा। विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह का भी चलन था। पति के वर्षों तक घर न लौटने, युद्ध में मारे जाने अथ्वा अन्य किसी कारण से मुत्यु हो जाने पर उसकी विधवा पत्नी का विवाह उसके पति के भाई अथवा किसी अन्य पुरुष के साथ किया जा सकता था।
मौर्य काल में पतियों की स्वतंत्रता अपेक्षाकृत कम हो गई थी। विवाहिताओं को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी। उन्हें घर के अन्दर रहना पड़ता था। पत्नी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकती थी। कौटिल्य के अनुसार -‘यदि कोई पत्नी पति के कुल (घर)से बाहर जाए तो उसे छः पण का दण्ड दिया जाए।  यदि पति के राकने पर भी वह घर से बाहर जाए तो उसे बारह पण का दण्ड दिया जाए।’  यदि पति किसी द्वेष भावना के कारण पत्नी को बाहर जाने से रोके तो पत्नी पर दण्ड विधान लागू नहीं होता था। मौर्यकाल  में पर्दे की प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु विवाहिताओं का जीवन बंधनकारी अवश्य था। 
पति का दायित्व था कि वह अपनी पत्नी की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखे। गर्भावस्था में उसे किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाए। मातृत्व धारण करने वाली पत्नी का सम्मान करे। यदि पत्नी कोई गलत कार्य करने को उद्यत हो तो उसे पहले समझाए। यदि समझाने पर भी वह न समझे तो उसे दण्डित करे। स्वयंवर के निर्णय को स्वीकार करते हुए पत्नी को स्वीकार करे तथा उसे प्रेम से रखे।
महाभारत में पांचों पांडवों का विवाह द्रौपदी से होने पर संयम पूर्वक पति का धर्म निभाने की कथा मिलती है। प्राचीन भारत में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी। इस प्रथा के अंतर्गत पत्नी निम्नलिखित परिस्थितियों में किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पन्न कर सकती थी -
(1) पति की मृत्य हो चुकी हो।
(2) चिरकाल के लिए विदेश चला गया हो तथा उसकी कोई सूचना न हो।
(3) पति संतान उत्पन्न करने के योग्य न हो।
उपरोक्त परिस्थितियों में पत्नी अपने देवर अथवा पति के सगोत्र किसी निकट संबंधी से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती थी। नियोग को भी विवाह के समान मान्यता प्राप्त थी तथा नियोग से उत्पन्न संतानों को वैध संतान माना जाता था। गुप्त काल तथा गुप्तोत्तर काल में दाम्पत्य जीवन पत्नी की समर्पित भावना पर आधारित हो गया था। मनुस्मृति के अनुसार -‘पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति की सेवा करे, उसके आदेशों का पालन करे तथा दासी की भांति उसके पैर दबाए और सेवा करे।’ इसके साथ ही पति के लिए यह अनिवार्य था कि - ‘ चाहे पति को सौ पाप करने पड़ें किन्तु वह पत्नी का भरण-पोषण करे।’
पत्नी को पति के अत्याचारों के विरुद्ध राजा से शिकायत करने का अधिकार था । यदि पति बिना किसी पर्याप्त कारण के पत्नी का त्याग कर दे तो उसे चोर की भांति दण्डित किए जाने का     विधान था।
पुत्र की स्थिति -प्राचीन भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली थी। अनेक सदस्यों वाले परिवार में पिता परिवार का मुखिया होता था। पिता की अनुपस्थिति में बड़ा तथा बालिग पुत्र पिता के स्थान पर दायित्वों को निभाता था। गौतम सूत्र के अनुसार  पिता की मृत्यु के बाद छोटे भाइयों को अपने बड़े भाई के नियंत्रण में रहते थे। छोटे भाई अपने बड़े भाई के प्रति उसी प्रकार आदन भावना रखते थे जैसे वे अपने पिता के प्रति आदर भावना रखा करते थे। पुत्र के जन्म पर पुत्री की अवहेलना नहीं की जाती थी। यद्यपि पुत्र का जन्म वंशवृद्धि के लिए आवश्यक माना जाता था। महाभारत के अनुसार -‘पुत्र के जन्म से एक मनुष्य सारे संसार को जीत सकता है। पुत्र का जन्म अत्यंत पवित्र कार्य है क्योंकि पुत्र ही वंश आगे बढ़ाता है।‘ मनुस्मृति के अनुसार - ‘यदि मनुष्य मोक्ष प्राप्त करना चाहता है तो उसे पुत्र प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।’  मनु ने बड़े पुत्र को धर्म से उत्पन्न पुत्र तथा शेष पुत्रों को कामेच्छा से उत्पन्न संतान कहा है। बड़े पुत्र का यह कत्र्तव्य होता था कि वह अपने छोटे भाई-बहनों का पालन-पोषण करे, उन्हें प्रेम दे, उन्हें अपने अनुशासन में रखे तथा उनके साथ एक आचार्य की भांति व्यवहार करे। सभी पुत्रो से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने माता-पिता का सम्मान करें, उनकी सेवा करें तथा उनकी आज्ञा के अनुसार काम करें। पिता की मृत्यु हो जाने पर माता की सेवा-सुश्रुषा करें।
   
पुत्री की स्थिति - पुत्रियों को देवी लक्ष्मी का प्रतिनिधि माना जाता था। महाभारत के अनुसार -‘परिवार में लक्ष्मी की साक्षात उपस्थिति पुत्रियों के रूप में होती है। अतः पुत्रियों की अवहेलना अथवा अनादर नहीं करना चाहिए।’ पुत्री का उचित पालन-पोषण माता-पिता तथा परिवार का दायित्व होता था। उचित समय पर पुत्री का विवाह करना पिता का कत्र्तव्य होता था। जहां एक बार विवाह तय कर दिया जाता वहीं पुत्री का विवाह किया जाता। स्वयं प्रथा के अंर्तगत पुत्री को अपनी इच्छानुसार पति चुनने का अधिकार था। कभी भी धन ले कर पुत्री का विवाह नहीं किया जाता था। पुत्र की अपेक्षा पुत्री का महत्व कम होने पर भी उसका समुचित ध्यान रखा जाता था। पुत्री की उपेक्षा नहीं की जाती थी। पुत्री को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार होता था। पुत्री से अपेक्षा की जाती थी कि वह माता-पिता, भाइयों तथा गुरुजनों का आदर करे। सूत्रकाल में पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियों का महत्व कम हो गया था । किन्तु पुत्रियों की उपेक्षा नहीं की जाती थी। मौयोत्तर काल में पु़ित्रयों का विवाह कम आयु में किया जाने लगा। जिससे पुत्रियों की शिक्षा-दीक्षा का स्तर घट गया। परिवार में भी पुत्रियों का महत्व कम होने लगा। फिर भी उनकी इतनी अवहेलना नहीं की जाती थी कि उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अवसर ही न मिले। पुत्रियां पिता के कुल का वह प्रतिनिधि मानी जाती थीं जो दूसरे कुल में जा कर अपने पितृ- कुल की गरिमा बनाए रखे।
वृद्धों की स्थिति - परिवार में वृद्धों का विशेष स्थान था। वैदिक युग में गृहस्थाश्रम की अवधि पूरी होने पर पुरुष वानप्रस्थ में चले जाते थे। वे वन में जा कर कुटी बना कर रहते तथा ईश्वर की आराधना करते थे। वे विद्यार्थियों को पढ़ाते भी थे। पति के साथ पत्नी स्वेच्छा से साथ रहती थी। आश्रम की व्यवस्था दोनेां मिल कर करते  थे। वानप्रस्थ समाप्त होने पर कुछ पुरुष सन्यास आश्रम में प्रवेश करते थे। इस अवस्था में उन्हें पत्नी का साथ छोड़ कर अकेले सन्यासी बन जाते थे। कई वृद्ध परिवार के साथ रहते हुए जीवनयापन करते थे। परिवार के सभी सदस्यों का यह कत्र्तव्य था कि वे वृद्धों की सेवा करें।
इस प्राचीन व्यवस्था में प्रतिकूल प्ररिवर्तन कब और कैसे आरम्भ हुए इसका आकलन करना भी आवश्यक है। यह जानना जरूरी है कि इन व्यवस्थाओं की त्रुटिपूर्ण व्याख्या कैसे और कब से आरम्भ हुई। इसके बाद ही हम वर्तमान परिवेश में पारंपरिक पारिवारिक व्यवस्था को सर्वोचित ठहरा सकेंगे।
---------------------------
(दैनिक, सागर दिनकर में 24.12.2025 को प्रकाशित) 
------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

Tuesday, December 23, 2025

पुस्तक समीक्षा | संवाद-पुरुष मुन्ना शुक्ला : सम्पूर्ण व्यक्तित्व का होलोग्राम प्रस्तुत करता एक स्मृति-ग्रंथ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा | संवाद-पुरुष मुन्ना शुक्ला : सम्पूर्ण व्यक्तित्व का होलोग्राम प्रस्तुत करता एक स्मृति-ग्रंथ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
संवाद-पुरुष मुन्ना शुक्ला : सम्पूर्ण व्यक्तित्व का होलोग्राम प्रस्तुत करता एक स्मृति-ग्रंथ
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
पुस्तक  - संवाद-पुरुष मुन्ना शुक्ला
संपादक     - डाॅ. कविता शुक्ला
प्रकाशक     - प्रज्ञा भारती 1/11314, गली नं.4 सुभाष पार्क, शाहदरा दिल्ली-110032
मूल्य       - 821/-
---------------------

कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व परिवार के लिए होता है, कुछ का समाज एक हिससे के लिए और कुछ का सकल समाज के लिए। जो सकल समाज के व्यक्तित्व होते हैं वे भौतिक रूप से पंचतत्वों में विलीन हो कर भी संस्मरणों के रूप में स्मृतियों में सदा बने रहते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के संबंध में उनसे परिचित हर व्यक्ति अपने उद्गार व्यक्त करना चाहता है, वह बताना चाहता है जो व्यक्ति कल था और आज नहीं है, वह उसके लिए आज भी कितना महत्व रखता है। इन उद्गारों को जब एक पुस्तक के रूप में ढाल दिया जाता है तो एक ऐसा भावनात्मक स्मृति ग्रंथ बनता है जिससे उस दिवंगत व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व किसी ‘‘होलोग्राम’’ की भांति हमारे सामने आ खड़ा होता है। ऐसा ही एक संस्मरणात्मक ग्रंथ है ‘‘संवाद-पुरुष मुन्ना शुक्ला’’।
सागर शहर में कला और संस्कृति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो मुन्ना शुक्ला से परिचित नहीं होगा। यहां तक कि प्रापर्टी के क्षेत्र के लोग भी मुन्ना शुक्ला यानी मुन्ना भैया को भलीभांति जानते हैं। वे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। साहित्य और कला, पशु एवं वनस्पति, मौसम विज्ञान तथा लगभग प्रत्येक विषय पर गहरी पकड़ उनकी खूबी थी। ऐसे व्यक्तित्व पर जब स्मृति ग्रंथ प्रकाशित करने का उनकी अद्र्धांगिनी डाॅ कविता शुक्ला ने निर्णय लिया तो 109 लेख इस ग्रंथ के लिए निर्धारित समय सीमा में आ गए। इसके बाद भी अनेक लोगों को मलाल रहा कि वे समय पर अपने संस्मरण साझा नहीं कर सके। यह मुन्ना शुक्ला के चुंबकीय व्यक्तित्व का प्रतिफलन रहा। इस ग्रंथ के प्रधान सम्पादक हैं डॉ. छबिल कुमार मेहेर, प्रबन्ध सम्पादक श्री उमाकान्त मिश्र तथा सम्पादक हैं डॉ. कविता शुक्ला।
यह वृहद कार्य बिना संपादक मंडल के संभव नहीं था अतः इस कार्य में सम्पादकीय सहयोग रहा डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, डॉ. शाम्भवी शुक्ला मिश्रा, डॉ. सिद्धार्थ शंकर शुक्ला एवं श्री अभिषेक ‘‘ऋषि’’ का। परामर्श मण्डल में प्रो. दिनेश अत्रि, श्री गुंजन शुक्ला, श्री बृजेश मिश्र एवं डॉ. अलका सिद्धार्थ ने अपना परामर्श दे कर ग्रंथ को एक सुचारु रूप दिया।
‘प्रधान सम्पादक की कलम से’ में छबिल कुमार मेहेर ने ‘‘संवाद-पुरुष मुन्ना शुक्ला’’ शीर्षक से अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किए है कि ‘‘दरअसल, एक भरी-पूरी संस्कृति और आदर्श जीवन-शैली का दूसरा नाम था ‘मुन्ना शुक्ला’ कला, साहित्य और संस्कृति के संगम का पर्याय। आज के इस कठिन समय में उन जैसे सहृदय का साथ छूट जाना मेरा व्यक्तिगत नुकसान है। ‘क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यों चेहरा कुम्हलाया है’ शब्दों में बयान नहीं कर सकता। पुस्तक में सम्मिलित 109 आलेख इस बात का प्रमाण हैं कि वे कितने लोगों को श्संवाद-रसश् चखा गये हैं और आज भी उनके चाहनेवाले खोए हुए हैं उनकी याद में। ‘‘स्मृति-ग्रन्थ’’ प्रकाशन के अवसर पर इस कालजयी बातूनी-आत्मा को शत-शत नमन, इस संवाद-पुरुष की स्मृति को सलाम।’’
उमाकान्त मिश्र ने “स्मृतियों का संगम” शीर्षक से लिखा है कि ‘‘आज हम एक ऐसे व्यक्तित्व को याद करने जा रहे हैं, जिन्होंने अपनी उपस्थिति से हमारे जीवन को समृद्ध बनाया। मुन्ना भैया जिनके साथ हमने अनगिनत पल बिताए, वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं। शिवचंद्र उर्फ ‘मुन्ना भैया’ एक ऐसा नाम था, जो हमारे जीवन में एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक था। उनकी मुस्कान, उनकी बातचीत, और उनके साथ बिताए गए पल हमें हमेशा याद रहेंगे। उन्होंने हमें जीवन के हर पहलू में प्रेरित किया और हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस पुस्तक के माध्यम से, हम उन्हें श्रद्धांजलि के साथ उनके साथ बिताए गए पलों को याद करना चाहते हैं। हमें उम्मीद है कि यह पुस्तक उनके जीवन और कार्यों को एक नए तरीके से पेश करेगी व परिजनों और मित्रों को सांत्वना प्रदान करेगी। इस पुस्तक में, उनके मित्र, परिवार के सदस्यों और सहयोगियों ने मुन्ना भैया के साथ बिताए गए पलों को संजोया है, अपने अनुभव और संस्मरण साझा किए हैं, जो मुन्नाजी के व्यक्तित्व और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को दशति हैं। जिसके लिए हम आपका आभार व्यक्त करना चाहेंगे।’’
सत्य है! मुन्ना शुक्ला प्रतीक थे आकांक्षाओं के, कर्तव्यों के, कर्तव्यनिष्ठा के तथा संभावनाओं के। वे स्वप्नद्रष्टा थे। मेरी तो उनसे जब भी बात होती थी वे कला, साहित्य, व्यक्ति आदि पर लम्बी चर्चाएं करते हुए अंत में यही आकांक्षा प्रकट करते थे कि उनका सागर शहर साहित्य एवं संस्कृति का केन्द्र बने। वे ‘‘भारत भवन’’ जैसा कुछ सागर के लिए चाहते थे।
सबसे गहन भावनात्मक स्थिति होती है उस अद्र्धांगिनी की जो अपने दिवंगत पति पर केन्द्रित संस्मरणों का संपादन हेतु पठन करती है। डाॅ. कविता शुक्ला ने सचमुच एक दृढ़निश्चयी स्त्री होने का प्रमाण देते हुए इस स्मृति ग्रंथ का कुशल संपादन किया है। ‘‘संपादक की कलम से’’ के अंतर्गत “प्रणाम” शीर्षक से डाॅ कविता शुक्ला ने लिखा है कि ‘‘शुक्ला जी हमेशा लोकप्रियता और सम्मानों से दूर रहे। अनुशासित व्यक्तिव के धनी शुक्ला जी ने कभी मूल्य व सिद्धान्तों के साथ समझौता नहीं किया। वे सदैव खरा और स्पष्ट बोलते थे। गलत या व्यक्ति विशेष के आगे कभी झुके नहीं। लोकप्रियता, सम्मान और प्रसिद्धि की राह से सर्वथा स्वयं को दूर रखा। गंभीर और कर्तव्यनिष्ठ शुक्ला जी सदैव अपनों के संपर्क में रहते थे और अपनी सूझ-बूझ और दूरदर्शिता से जीवन के हर अनुभव को यथायोग्य व्यक्ति से साझा भी करते थे। परिवार और प्रियजनों के लिये यह सम्मान, गर्व और संतुष्टि का विषय है कि हम इस पुस्तक के मार्फत ऐसे संवेदनशील और विलक्षण व्यक्तित्व के बारे में और भी जान पा रहे हैं और नव पीढ़ी से अप्रतिहत संवाद का रास्ता खोल रहे हैं ताकि हमारी तरह वे भी ऐसे संवेदनशील और विलक्षण व्यक्तित्व का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें।’’
सम्पादक मण्डल की ओर से दो वक्तव्य हैं जिनमें एक मुन्ना शुक्ला जी की पुत्री शाम्भवी शुक्ला मिश्रा का है जो स्वयं कथक की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘‘पापा का व्यक्तित्व जितना विशाल, उतना ही मृदु हृदयय ऐसी आत्माएँ बहुत कम होती हैं जो दूसरों के दुख में दुखी हों जिसके साक्षी हम स्वयं हैं। पापा ने संगीत, कला और अन्य विषयों के क्षेत्र में गूढ़ ज्ञान अर्जित किया जिसका शायद दस प्रतिशत ही हम और सिद्धार्थ सीख पाए होंगें...हम सौभाग्यशाली हैं कि ऐसे माता-पिता के घर, ईश्वर ने हमें जन्म दिया और सतत प्रयत्नशील भी कि जो विरासत में मिला है उसे संजोकर, सँभालकर उसमें ईश कृपा, मातृ-पितृ व गुरु कृपा द्वारा और विस्तार कर सकें... उनके बारे में लिखना सूरज को दीपक दिखाने की तरह है...।.
दूसरा वक्तव्य काव्यात्मक है, मुन्ना शुक्ला जी के पुत्र सिद्धार्थ शंकर शुक्ला का। उनकी पंक्तियां हैं-
एक पिता की विडंबना यह होती है,
कि पिता अपने वारिसों को यह सिखाता है,
कि वारिस,
पिता के बगैर कैसे इस संसार को बरतेंगे।
आपने वह सिखाया।
आपके सपनों को साकार होते हुए,
आपको,
मैं अपनी आँखों से दिखाऊँगा।
आपका पुत्र ही नहीं, धरोहर हूँ मैं।
जैसाकि मैंने आरम्भ में ही लिखा कि इस भावनात्मक स्मृति ग्रंथ में कुल 109 लेख हैं जो विविध आयामों से मुन्ना शुक्ला जी के व्यक्तित्व पर समुचित प्रकाश डालते हैं। इनमें मेरा एक लेख है- ‘‘भाई मुन्ना शुक्ला ईंट-गारे से जुड़े रह कर भी साहित्यिक घर बनाना जानते थे’’। ग्रंथ में सहेजा गया हर लेख अपने शीर्षक से ही मुन्ना शुक्ला जी के व्यक्तिव का स्पष्ट खाका खींचना शुरू कर देता है क्योंकि उनका व्यक्तित्व सरल, सहज एवं लोक को समर्पित था। जो उनसे मिलता वे उन्हें अपने जैसे प्रतीत होते। सभी लेखों का शीर्षक यहां दे पाना संभव नहीं है। अतः बानगी के तौर पर कुछ शीर्षक देखिए-‘‘मुन्ना शुक्ला एक सितारा - श्री आर.के. तिवारी, मेरे दोस्त मुन्ना शुक्ला-जनाब अब्दुल रफीक गुनी, दोस्त, भाई और मित्र-मुन्नाजी-डॉ. लता सिंह मुंशी, कला और संस्कृति के समर्पित साधक-शिवचंद शुक्ला ‘‘मुन्ना’’-डॉ. सतीश चैबे, आदरणीय जीजाजी- डॉ. संगीता चैबे, बेबाक और निष्पक्ष-मुन्ना शुक्ला- डॉ. हर्ष मिश्रा, कला, साहित्य मर्म विभूति मुन्ना भैया- डॉ. मनीष झा, मेरे जीवन स्तंभ-मुन्ना भैया- डॉ. दिलीप जैन, एक अलहदा व्यक्तित्व: मुन्ना शुक्ला-डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, डी.लिट., मुन्ना भाई साहब!-डॉ. शशिप्रभा तिवारी भाई, मुन्ना शुक्ला, संगीतमय व्यक्तित्व मुन्ना शुक्ला जी - श्रीमती अलका श्रीवास्तव, स्मृति जो सदैव साथ रहेगी- श्रीमती राजलक्ष्मी शुक्ला, महान व्यक्तित्व के धनी-मुन्ना शुक्ला जी - श्री दामोदर अग्निहोत्री, इनसाइक्लोपीडिया मुन्ना भैया- डॉ. रजनीश जैन आदि।
इस ग्रंथ के प्रत्येक लेख को पढ़ने के बाद पाठक को यही लगेगा कि उसने न केवल एक व्यक्त्वि के बारे में अपितु उस व्यक्तित्व के समय के बारे में भी समग्रता से जान लिया है। इस दृष्टि से इस ग्रंथ की उपादेयता द्विगुणित हो जाती है। इस हेतु संपादक डाॅ कविता शुक्ला एवं ग्रंथ का सम्पूर्ण संपादक मंडल साधुवाद के पात्र हैं।
---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer
#पुस्तकसमीक्षक #पुस्तक #आचरण #DrMissSharadSingh

Monday, December 22, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह की 60 वीं पुस्तक "लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर"

सुखद समाचार... मेरी पुस्तक "लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर" नव वर्ष 2026 के आरम्भ में सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली से आ रही है ... यह मेरी 60 वीं पुस्तक होगी... और 7 वीं जीवनी- पुस्तक... आशा है आप सबका स्नेह  इस पुस्तक को मिलेगा और विलक्षण व्यक्तित्व की महिला के लोकमाता देवी अहिल्याबाई होल्कर के जीवन संघर्ष से आप अवगत होंगे...🚩
🙏 हार्दिक धन्यवाद सामायिक प्रकाशन  पुस्तक का कव्हर रिलीज कर शुभ सूचना देने के लिए 🙏🚩🙏
 #डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #जीवनी #लोकमाता #देवीअहिल्याबाई #सामायिकप्रकाशन  #biography #samayikprakashan
Good news... My book "Lokmata Devi Ahilyabai Holkar" is coming out from Samayik Prakashan, New Delhi at the beginning of the new year 2026... This will be my 60th book... and my 7th biographical book... I hope you all will shower your love on this book and learn about the life struggles of the extraordinary woman, Lokmata Devi Ahilyabai Holkar...🚩
🙏 Hearty thanks to Samayik Prakashan for releasing the book cover and sharing this good news 🙏🚩🙏
#DrMissSharadSingh #Biography #Lokmata #DeviAhilyabai #SamayikPrakashan

Friday, December 19, 2025

शून्यकाल | क्यों नहीं देख पा रहे हैं कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | क्यों नहीं देख पा रहे हैं कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल
क्यों नहीं देख पा रहे हैं कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

       हम जिस ओर बढ़ रहे हैं वह चिंता जनक है। विश्व धार्मिक कट्टरपंथियों से घबराया रहता है। वहीं यदि सारी कट्टरता मिटा दी जाए तो मानवता का प्रकाश जगमगाता मिलेगा। रेशम का कीड़ा रेशम से अपना घर यानी कोकून गढ़ता है और उसी के भीतर जीवन बिताता है उसे पता ही नहीं चलता कि कोकून के बाहर अनंत प्रकाश है। कहीं हम खुद को अनंत सुविधाओं के रेशम में खुद को लपेटते जा रहे हैं, मानवता के प्रकाश को भुलाते हुए? दरअसल ये लेख है "सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक में प्रकाशित बतौर कार्यकारी संपादक मेरे संपादकीय का अंश। क्या तब से अब तक में कुछ बदला?... यदि बदला तो क्या और कितना?


आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
है कहां वह आग जो मुझको जलाए
है कहां वह ज्वाल मेरे पास आए
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
       - हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां दशकों बाद भी आह्वान करती हैं उस दीपक को जलाने का जिसके अभाव में सकल मानवता अपने भविष्य के प्रति बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह उठाए खड़ी है। यह प्रश्न चिन्ह उस पृथ्वी से भी भारी है जिसे कच्छप अपनी पीठ पर ढो रहा है अथवा उससे भी अधिक भारी जिसे हर्लक्युलिस अपने कांधे पर उठाए हुए है। यह प्रश्नचिन्ह आकार ही न ले पाता यदि हम सजग होते कि कब संवेदनाओं का तेल हमारे हदय के दिए से कम होने लगा और बाती शुष्क हो चली है। यदि हमारा व्यवहार किसी अनार्की की तरह होने लगे तो यह ठहर कर सोचने का विषय है। आत्ममुग्धता इस हद तक बढ़ जाए कि व्यक्ति अनर्गल विचारों की सार्वजनिक घोषणा करने लगे तो चिन्तनीय है। कभी-कभी लगता है कि वर्तमान दौर विवादों को सप्रयास जन्म देने का दौर है। गोया एक घायल सड़क पर पड़ा है और यदि कोई उस घायल से सबका ध्यान हटाना चाहता है तो उसे करना सिर्फ़ इतना ही है कि सबकी नज़र बचा कर भीड़ पर एक गिट्टी उछाल दे और फिर होने दे तू-तू, मैं-मैं। कहीं हम इसी दूषित सोच की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? हमारी दृष्टि का वह परिष्कार कहां गया जिसमें ताजमहल हमें कला की अनुपमकृति दिखाई देता था और खजुराहो को हम कलातीर्थ की संज्ञा देते थे। कोई भी नवीन शोध दृष्टिकोण के नए रास्ते प्रशस्त करता है किन्तु पूर्वाग्रहपूर्ण रास्तों पर चलते हुए कोई नवीन शोध हो ही नहीं सकता है। नवीन शोध अपने आप में एक ऐसी प्रविधि होती है जो जीवन के प्रत्येक बिन्दु को प्रभावित करती है। इस तथ्य को समझने के लिए दृष्टिपात किया जा सकता है प्रो. चोम्स्की के भाषा संबंधी शोधकार्य पर।
  मेसाचुएटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी के सेवानिवृत्त  प्राध्यापक, भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक एवं राजनैतिक एक्टीविस्ट प्रो. एवरम नोम चोम्स्की। प्रो. चोम्स्की के भाषा विज्ञान से कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग भाषाओं को समझने में सुगमता होती है। विकासवादी मनोविज्ञान और गणित के क्षेत्र में भी चोम्स्की के भाषाई सिद्धांतों से मदद ली जाती है। चोम्सकी ने मनोविज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बी. एफ. स्कीनर की पुस्तक ‘वर्बल बिहेवियर’ की आलोचना की, जिसके बाद संज्ञानात्मक (काग्नीटिव) मनोविज्ञान के क्षेत्रा में मानो क्रांति ही हो गई और दशाओं को समझने के नवीन सिद्धांत सामने आए। सन् 1984 में चिकित्सा विज्ञान एवं शरीर विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता नील्स काज जेरने ने चोम्स्की के जेनेरेटिव माडल का प्रयोग मानव शरीर में स्थित प्रोटीन संरचनाओं के गठन एवं शरीर की प्रतिरक्षा में उसके महत्व को समझाने के लिए किया था। अपने शोध ‘द जेनेरेटिव ग्रामर ऑफ इम्यून सिस्टम’ में जेरने ने प्रो. चोम्स्की के सिद्धांतों को आधार बना कर जेटेरेटिव व्याकरण प्रतिपादित किया। यदि प्रो. चोम्स्की के उदाहरण को लें तो यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि भाषा और साहित्य जीवन की प्रत्येक चेष्टाओं को प्रभावित एवं प्रेरित करते हैं। बशर्ते शोध ईमानदारी से किए गए हों। यूं भी जीवन और साहित्य सिक्के के दो पहलू हैं अथवा यूं भी कहा जा सकता है कि ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन से साहित्य उपजता है और साहित्य से जीवन को दिशा मिलती है। भारत विभाजन की त्रासदी और उस त्रासदी की पीड़ा को इतिहास के पन्नों से कहीं अधिक खुल कर साहित्य के पन्नों ने मन-मस्तिष्क के करीब पहुंचाया।
   डोमेनिक लैपियर एवं लैरी कॉलिंस के ‘फ्रीडम एट मिड नाईट’, खुशवंत सिंह के ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, सलमान रुश्दी के ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’ और सआदत हसन मंटो के कथा साहित्य जैसे इतर भाषा के साहित्य के उदाहरणों से परे हिन्दी साहित्य में ही देखा जाए तो प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल का दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘झूठा सच’ विभाजन की त्रासदी पर हिन्दी में लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इसे विराट ऐतिहासिक, राजनीतिक फलक पर सामने रखता है। बदीउज्जमा का ‘छाको की वापसी’ और कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ भी विभाजन पर हिन्दी में लिखे गए उल्लेखनीय उपन्यास हैं। विभाजन को लेकर लिखा गया भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ भी पाठकों को कालयात्रा कराते हुए अंतस तक सिहरा देता है। राही मासूम राजा का ‘आधा गांव’ भी विभाजन से पहले की घटनाओं और इसके कारण प्रभावित सामाजिक ताने-बाने से परिचित कराता है। हिन्दी की शीर्षस्थ कथाकार कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ ने पाकिस्तान स्थित पंजाब के गुजरात से विस्थापित होकर पहले दिल्ली में शरणार्थी के रूप में आने और फिर भारत स्थित गुजरात के सिरोही राज्य में वहां के राजकुमार की गवर्नेस के रूप में नौकरी करने वाले पात्र की कहानी है। विशेष बात यह है कि यह उपन्यास कथानक की खांटी सच्चाई को उजागर करता है क्योंकि अकसर उपन्यासों के कथानक के संबंध में लेखक का कथन होता है कि उपन्यास के पात्र और वर्णित घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन इसमें लिखा गया कि इसके सभी पात्र और घटनाएं वास्तविक और ऐतिहासिक हैं। उपन्यास का पात्र सिकंदरलाल विभाजन पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि ‘यह तवारीख़ का काला सितारा सियासत पर यूं ग़ालिब हुआ कि जिन्ना ने दौड़ाए इस्लामी घोड़े और गांधी, जवाहर ने पोरसवाले हाथी।’ कृष्णा सोबती के इस उपन्यास से पहले भी कई उपन्यास आए जिन्होंने विभाजन और शरणार्थियों की त्रासदी के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण प्रस्तुत किए। इसी तारतम्य में स्मरण की जा सकती है ‘अज्ञेय’ की वे दो कविताएं जो उन्होंने 12 अक्तूबर 1947 से 12 नवंबर 1947 के बीच लिखी थीं। पहली कविता इलाहाबाद में और दूसरी मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर। इसमें ‘शरणार्थी’ शीर्षक वाली यह लंबी कविता ग्यारह खंडों में है और उस समय की त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्राण करती है।
   शरणार्थी होने की त्रासदी झेल रहे हैं रोहिंग्या भी। म्यांमार के सबसे ग़रीब प्रांत रख़ाइन में 10 लाख से ज़्यादा रोहिंग्या रहते थे  और उन्हें वहां का नागरिक नहीं माना गया। राष्ट्र संघ के आंकड़ों के मुताबिक 40,000 रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार की सीमा पार कर बांग्लादेश पहुंचे। नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई ने सवाल किया, ‘अगर उनका घर म्यांमार में नहीं है तो उनकी पीढ़ियां कहां रह रही थी? उनका मूल कहां है?’ उन्होंने कहा, ‘रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता दी जाए। वह देश जहां वे पैदा हुए हैं।’
    क्या सभी देशों को द्रवित होने के लिए उस तस्वीर की प्रतीक्षा है जो एलन कुर्दी की थी। वह कुर्दी मूल का तीन वर्षीय सीरियाई बालक था जिसके शव की तस्वीर पूरे विश्व को कंपकपा गई थी। एलन का परिवार सीरियाई गृहयुद्ध से बचने के लिए 2 सितंबर 2015 को एक नौका में तुर्की से ग्रीस जाने की कोशिश कर रहा था, पर नौका के डूबने से एलन की मौत हो गई और उसका शव लावारिस की तरह समुद्र तट पर पड़ा मिला। यह तो तय करना ही होगा कि ऐसी मौतें और नहीं हों।

और अंत में मेरी यह कविता -
बुन रखा है हमने
अपनी जातीयता, अपनी राजनीति
अपने समाज, अपने अर्थशास्त्र
और नितांत अपनी आकांक्षाओं का कोकून
जिसके भीतर है 
साम्राज्य गहन अंधकार का,
इससे पहले कि
घुट जाए दम आंखों का,
समझना होगा-
कोकून के बाहर फैला है अनंत प्रकाश
जो बना सकता है हमें
प्रकृति की तरह,
सार्वभौमिक, सर्वहितकारी
घुटनरहित, कुण्ठारहित, द्वंद्वरहित।
  ------------------------
#DrMissSharadSingh #columnist #डॉसुश्रीशरदसिंह  #स्तम्भकार #शून्यकाल #कॉलम #shoonyakaal #column  #नयादौर

Thursday, December 18, 2025

बतकाव बिन्ना की | कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
बतकाव बिन्ना की            
कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो                               
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
           
‘‘काए भैयाजी का कर रए? का धूप दिखाबे के लाने जे सब निकारे आएं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। बे पलकां पे गरम कपड़ा बगराए बैठे हते। 
‘‘अरे नईं, धूप दिखाबे के लाने नोंई, जा तो छांटबे के लाने निकारे आएं। का है के कछू तो भौतई पुराने हो गए के अब इने पैन्हबे को जी नईं करत। औ कछू ओछे परन लगे। टाईट से होत आएं। हमें तो समझ नईं पर रई के इनको का करो जाए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘कछू ने करो! धरे रऔ! चार पीढ़ी के बाद कोनऊं के काम आई जैहें।’’ भौजी ने भैयाजी खों टोंट मारी।
‘‘अरे तो का करिए? तुमई बताओ।’’ भैयाजी झल्लात भए भौजी से बोले।
‘‘हम तो बता रए के हम तुमाए लाने नोंन, तेल औ हरदी ल्याए दे रए, इनको अथानों डार देओ। फेर चाट-चाट के खात रहियो।’’ भौजी ने एक टोंट औ जड़ दओ।
‘‘तुमसे तो कछू कैबोई फजूल आए।’’ भैयाजी बड़बड़ात भए बोले।
‘‘आप ओंरे काए गिचड़ रए? का हो गओ?’’ मैंने पूछी। बाकी मोए कछू-कछू समझ में तो आ रई हती के मामलो का आए। फेर बी उन ओरन से बुलवाबो तो बनत्तो।
‘‘का आए बिन्ना के तुमाए भैयाजी के जे जो गरम कपड़ा आएं। ईमें से कछू इने ओछे होन लगे, कछू पुराने होबे के कारन इनसे पैन्हने नईं जा रए। अब सल्ल जे आए के इनको का करो जाए। हमने तो कई के कोनऊं गरीब-गुरबा खों दे देओ। बा तुमाए पांव परहे औ खुसी-खुसी पैन्ह लैहे। पर इनकी मति सो अलगई चलत आए। जे कैत आएं के हमाए पुराने कपड़ा को लैहे?’’ भौजी मोए बतात भई बोलीं।
‘‘औ का! को ले रओ पुरानो हुन्ना? सबई खों नए चाऊंने। अबे कऊं दान वारी जांगा में जाओ सो बे सोई कैंहे के जे का पुराने-सुराने उठा ल्याए, नए ल्याते!’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसो कछू नइयां भैयाजी! अपने इते सबई जांगा मुतके लोग ऐसे आएं जोन के पास गरम का, सादे कपड़ा बी पूरे नईयां पैन्हबे जोग। उनके लाने तो जा जड़कारो जीबे-मरबे को मामलो आए। आप जो उने जे अपने पुराने हुन्ना दे देओ सो उनके लाने तो ठंडी से बचबे को सहारो हो जाए। कओ उनके प्रान बच जाएं।’’ मैंने भैयाजी से गई।
‘‘नईं, पैले तो लेत्ते पुराने हुन्ना, मनो अब कोऊ लैहे बी के नईं?’’ भैयाजी के मन की संका ने गई।
‘‘काए ने लैहे। मैंने कई ने के जोन के लिंगे कछू नइयां उनके लाने तो आपके जे पुराने हुन्ना ई सब कछू हो जैहे। तनक दे के तो देखो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘जेई सो हम कै रए। पर जे हमाई माने तब न!’’ भौजी मुंडी हिलाउत भई बोलीं।
‘‘काए बिन्ना! तुम हमें तो सिखापन दे रईं मनो तुम खुदई हर साल नए कंबल ले के बांटत आऔ।’’ भैयाजी ने मोए टुंची करी।
‘‘नए जेई लाने खरीदने परत आएं के पुराने कंबल घरे नईं धरे। जो धरे होते सो ओई खों देत फिरती। का आए के मोरी मताई कैत्तीं के जड़कारे में गरम कपड़ा बांटे से बड़ो पुन्न मिलत आए। सो तनक पुन्न कमाबे की कोसिस करत रैत हों। बाकी ज्यादा तो मोरी हैसियत नोंई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कैत्तीं अम्मा जी! जड़कारे में कोनऊं को पैन्हत को, ओढ़त-बिछात को गरम कपड़ा दे देओ, कभऊं ठंड से ठिठुरत भओं को मुफत में चाय-माय पिला देओ सो ईसें भौत दुआएं मिलत आएं। जेई से तो हम तुमाए भैयाजी से कै रए के अब इनें फेर के पुटरियां बांद के ने धरियो। इनमें से जोन खों काम में नईं लाने उने कोऊ जरूरत वारे खों दे देओ। पर जे हमाई सुने तब न!’’ भौजी बोलीं।
‘‘सईं तो कै रईं भौजी। भैयाजी, अब आप सोच-संकोच छोड़ो औ देबे वारे गरम हुन्ना अलग रख लेओ। आजई रात खों चलबी औ अपन तीनों चल के बांट आबी। देखियो कित्तो अच्छो लगहे।’’ मैंने भैयाजी से कई। 
‘‘जा हम सोई जानत आएं, बाकी हमें जेई की हिचक लग रई हती के पुराने हुन्ना देख के कोनऊं बिगर ने परे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘को बिगरहे? औ काए बिगरहे? आज आप ग्यारा-बारा बजे रात को मोरे संगे चल के देखो के जोन के पास कछू गरम हुन्ना ने आएं बे कैसे ठिठुरत रैत आएं। आप से उनकी दसा देखी ने जैहे। फेर कइयो के बे आपके पुराने हुन्ना काए ने लैहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, कै तो ठीक रईं तुम! चलो हमाए दिल की टांटा मिटी। तो तुम चलहो ने संगे?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, काए ने चलबी। मोए तो ई सब में भौत अच्छो लगत आए। मैं सोई अबे जा के कछू देख लैहों। हो सकत के मोरो एकाद पुरानो सूटर कढ़ आए। बाकी कंबल सो कोनऊं दिनां देने ई आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘औ का बिन्ना, बात जरूरत की होत आए, नए-पुराने की नईं। पैले घरई में जा चलत्तो के बड़ी भैन को छोंटबे वारी फ्राक छोटी वारी खों दे दई जात्ती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हम सोई अपनी पुरानी किताबें अपने से छोटी क्लास वारों खों दे देत्ते।’’ भैयाजी जोस में आके बतान लगे।
‘‘सो ऐसई तो जे मामलो आए के जो आप के काम की ने होए बा सामान ऊको दे देओ जोन के पास कछू नइयां। औ मुतकी संस्था ऐसी आएं जो ‘नेकी की दीवार’ नांव से रैक खड़ो कर देत आएं जीमें जोन चाए वो अपने पुराने हुन्ना, लत्ता उते जा के धर सकत आए। जोन खों जरूरत रैत आए बे उते से उठा लेत आएं। मैंने तो खुदई मईना भर पैले ऐसई इक दीवार पे अपने कछू हुन्ना धरे हते। बाकी गरम कपड़ा तो सूधे उनईं खों दए जा सकत आएं जोन खों ईकी जरूरत होए। जब बे अपनी आंखन के आंगू ऊको पैन्हत आएं, ने तो ओढ़त आएं तो बड़ो चैन सो मिलत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कै रईं तुम दोई! आज रातई खों अपन चलबी औ जड़कारे में ठिठुरत भओं को जा सुटर-मूटर बांट आबी।’’ भैयाजी जोस से भरत भए बोले।
‘‘जे भई ने बात! चलो, जेई बात पे हम पैले तुम दोई को जड़कारो मिटाएं तुम ओरन खों चाय पिला के।’’ कैत भईं भौजी हंस परीं। बे खुस हो गईं के भैयाजी अखीर मान तो गए। 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जोन हुन्ना-लत्ता आपके काम के ने होएं उनको घरे पुटरिया बांद के सड़न देबो अच्छो आए के ठिठुरत भओं को दे देबो?
---------------------------
बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
---------------------------
#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat  

चर्चा प्लस | वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस | वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 


चर्चा प्लस


वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही


- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                
  हमें अपनी भारतीय संस्कृति पर इस लिए गर्व होता है कि हमारी संस्कृति एक विस्तृत दृष्टिकोण रखती है। इसका आधारभूत सूत्र है-‘‘वसुधैव कुटुबंकम’’- अर्थात पूरी पृथ्वी एक कुटुंब है। जिस वैश्विकता की अवधारणा को हम आज डिजिटल क्रांति से जोड़ कर देखते हैं, उस अवधारणा को प्राचीन भारतीय मनीषियों ने पहले ही आत्मसात कर लिया था। सच तो यह है कि हम उस अवधारणा को बोल रहे हैं अपना नहीं रहे हैं। क्योंकि जहां कुटुंब ही छोटे-छोटे परिवारों के रूप में बंटता जा रहा हो वहां वसुधा यानी पृथ्वी को कुटुंब मानने की की बात स्वयं को धोखा देने जैसी बात है।           

          आज लगभग हर परिवार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता जा रहा है। पहले पति, पत्नी और बच्चों वाली लघु इकाई और फिर बच्चों के बड़े हो कर अपनी पढ़ाई और कैरियर के लिए चले जाने पर बुजुर्ग प्रौढ़ या पति, पत्नी वाली अत्युत छोटी इकाई। आज आधुनिक परिवार का स्वरूप यही है तो फिर बसुधैव कुटुंबकम कहना क्या थोथापन नहीं है? रिश्तेदार मात्र शादी-विवाह आदि के उत्सवों एकत्र होते हैं जहां धन के दिखावे के सामने संवेदनाएं दम तोड़ती रहती हैं। बड़े-बुजुर्ग वसीयत के कागजों तक उपयोगी रहते हैं अन्यथा प्रेम का प्रवाह वीडियो काॅल तक सीमित हो कर रह जाता है। कम से कम यह तो नही थी हमारी सांस्कृतिक पारिवारिक अवधारणा। आज तो एक पडा़ेसी भी दूसरे पड़ोसी से बिना स्वार्थ के हलो-हाय नहीं करता है। जबकि प्राचीन काल में परिदृश्य इसके एकदम उलट था। प्राचीन भारतीय समाज में परिवार को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था। प्राचीन ग्रंथों से तत्कालीन पारिवारिक संरचना एवं उसके संगठन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मानव जीवन मं दाम्पत्य जीवन का संतति की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व था। परिवार में पुत्र तथा पुत्री की स्थिति निर्धारित रहती थी। वृद्धों के प्रति प्राचीन भारतीय समाज में परम्परागत विचार थे।
           परिवार का संगठन - परिवार मानव सभ्यता के विकास का वह रूप है जो मनुष्य को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आपसी सहयोग की भावना से रहना सिखाता है। परिवार को समाज का एक ऐसा लघु रूप कहा जा सकता है जिसमें हर आयु वर्ग के, विभिन्न विचारों वाले मनुष्य एक साथ रहते हैं तथा परस्पर सहयोग के द्वारा अपना संगठन बनाए रखते हैं। इस संगठन का आधार प्रायः रक्त संबंध तथा वैवाहिक संबंध होता है। परिवार के संबंध में आधुनिक समाजशास्त्रियों के जो विचार हैं लगभग वही विचार प्राचीन भारतीय समाज में भी पाए जाते थे।
          बर्गेस एवं लॅाक के अनुसार-‘ परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त अथवा गोद लेने के संबंधों द्वारा संगठित है। एक छोटी-सी गृहस्थी का निर्माण करता है और पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रूप में एक दूसरे से अंतःक्रियाएं करता है तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण और देख-रेख करता है।’
          प्राचीन भारत में परिवार का बहुत अधिक महत्व था। परिवार का मुख्य उद्देश्य संतति होता था। समाज की इकाई के रूप में भी परिवार महत्वपूर्ण होता था। परिवार के कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य थे -
           (क) परिवार मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था।
           (ख) यह सामाजिक संरचना को बल प्रदान करता था।
           (ग) यह चारो पुरुषार्थों का निर्वाह करने में सहायता प्रदान करता था।
           (घ) परिवार गृहस्थाश्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर प्रदान करता था।
           (ङ) यह संतति तथा संतान के लालन-पालन के लिए उचित वातावरण प्रदान करता था।
           (च) परस्पर सहयोग का वातावरण प्रदान करता था।

          युवा स्त्री तथा युवा पुरूष विवाह करके परिवार का निर्माण करते थे। वे संतानोत्पत्ति करते थे तथा अपने वंश को आगे बढ़ाते हुए सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। आयु बढ़ने के साथ-साथ वे अपनी संतानों पर निर्भर होते जाते थे। वृद्धावस्था में वे अपने घर में अपने परिवार के बीच रह कर जीवन व्यतीत कर सकते थे अथवा वानप्रस्थ में जा सकते थे । वे सन्यास ग्रहण करके देशाटन भी कर सकते थे।
          मुखिया -परिवार में एक साथ कई सदस्य रहते थे- माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधुएं, पौत्र, पौत्री, बंधु, बंधु-पत्नी आदि। परिवार का स्वरूप संयुक्त कुटुम्ब का होता था। परिवार का सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वेद में परिवार के मुखिया के लिए ‘कुलपा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।  प्रायः पिता परिवार का मुखिया होता था। पितामह (पिता के पिता) के साथ रहने पर पितामह परिवार का मुखिया माना जाता था। परिवार का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों को एकसूत्र में बंाधे रखने का कार्य करता था। उसके आदेश का पालन करना सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य होता था। सभी सदस्यों द्वारा उसे सम्मान दिया जाता था। वह सभी सदस्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता था। परिवार का मुखिया परिवार के किसी भी सदस्य को उसकी उद्दण्डता के लिए दण्डित कर सकता था। यह दण्ड संपत्ति में भागीदारी से अलग कर दिए जाने का भी हो सकता था। परिवार की संपत्ति पर परिवार के मुखिया का अधिकार होता था। प्राचीन विद्वानों ने परिवार के मुखिया की मुत्यु के पूर्व अथवा पिता की मृत्यु के पूर्व संतानों में संपत्ति के विभाजन को अनुचित माना है। गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार -‘पिता के जीवित होते हुए पुत्र का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है।’
      स्मृति ग्रंथों में संपत्ति के अधिकार के संबंध में संतानों के लिए ‘अनीश’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ होता है जो संपत्ति का स्वामी न हो। कौटिल्य ने भी पिता के जीवनकाल में पुत्रों को संपत्ति का स्वामी नहीं माना है तथा ऐसे पुत्रों के लिए ‘अनीश्वर’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘अनीश्वर’ अर्थात्  संपत्ति पर जिसका अधिकार न हो।
         पिता - प्राचीन भारतीय परिवारों में पिता परिवार का मुखिया होता था। वह अपने परिवार के लालन-पालन करता था। परिवार के सभी सदस्य  उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसके परामर्श पर ही कोई कार्य करते थे। पिता का यह दायित्व होता था कि वह अपनी पत्नी अर्थात् परिवार की माता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखे। वह अपनी संतानों की शिक्षा, पोषण तथा बहुमुखी विकास के लिए उत्तरदायी होता था। ऐतरेय बाह्मण के अनुसार पिता का पुत्र पर पूरा अधिकार रहता था। वह उसे प्रेम कर सकता था तथा दण्डित कर सकता था। पिता का दायित्व होता था कि वह अपने परिवार के सदस्यों में अनुशासन बनाए रखे। इसके लिए उसे कठोर कदम उठाने के भी अधिकार थे। वह अपने परिवार के सदस्यों को उनकी त्रुटियों, उद्दण्डता अथवा पारिवारिक नियमों की अवहेलना करने के अपराध में दण्डित कर सकता था। पारिवारिक न्याय करते समय वह संबंधों को महत्व नहीं दे सकता था। ऋग्वेद में ऋजाश्व की कथा का उल्लेख मिलता है। ऋजाश्व की लापरवाही के कारण सौ भेड़ों को भेड़िए ने खा लिया। इस घटना से क्रोधित हो कर ऋजाश्व के पिता ने उसे अंधा कर के दण्डित किया।  मनुस्मृति में भी कठोर दण्ड का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति के अनुसार- ‘पत्नी, पुत्र, भाई अथवा दास यदि कोई अपराध करे तो उन्हें रस्सी के कोड़े अथवा बेंत से पीठ पर मार कर दण्डित करना चाहिए।’ यह व्यवस्था दायित्वों के सही निर्वाह को बनाए रखने के लिए थी न कि पिता द्वारा तानाशाही के लिए, जैसा कि प्रायः गलत ढंग से व्याख्यायित कर दिया जाता है।
          माता - प्राचीन भारतीय परिवार में पिता के उपरान्त माता को ही सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। माता का दायित्व होता था कि वह अपने पति तथा अपनी संतानों की उचित देख-भाल करे। अपनी संतानों को प्रेम करे तथा उनसे आदर प्राप्त करे। ऋग्वेद के अनुसार पुत्रवती माता का परिवार में उच्च स्थान होता था। ऋग्वेद में सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है। जिससे पता चलता है कि विधवा होने पर माता का सम्मान कम नहीं होता था।
         संतान तथा अन्य संबंधी - संतान तथा अन्य संबंधियों का परिवार के प्रति उत्तरदायित्व होता था। परिवार में संगठन बनाए रखना, एक दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम तथा आदर की भावना रखना, संकट के समय परस्पर एक-दूसरे की सहायता करना तथा मिलजुल कर अन्न उगाना अथ्वा शिकार करना आदि संतानों तथा अन्य निकट संबंधियों के लिए अनिवार्य था। संतानों से अपेक्षा की जाती थी कि वे परिवार के मुखिया, माता, अपने बड़े भाई-बहन का आदर करें। परिवार के मुखिया तथा माता का कहना मानें। परिवार के मुखिया के घर पर न होने पर घर के बड़े पुत्र का कहना मानें।
          इस प्रकार प्राचीन भारत में पारिवारिक संगठन को बनाए रखने के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता था। तत्कालीन परिवर का स्वरूप मुख्य रूप से केन्द्रीकृत था। संयुक्त अर्थात् अधिक सदस्यों वाले परिवार अच्छे माने जाते थे। इसीलिए प्राचीन ग्रंथों में परिवार को ‘कुल’ अथवा ‘कुटुंब’ कहा गया है। आज कुटुंब की अवधारणा को फिर ये समझने और उसे अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि परिवार के बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया के बिना पलने, बढ़ने वाले बच्चे स्वच्छंदता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं और इससे समाज में उद्दण्डता बढ़ रही है।
  ---------------------------
(दैनिक, सागर दिनकर में 18.12.2025 को प्रकाशित) 
------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

Tuesday, December 16, 2025

पुस्तक समीक्षा | आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा 
आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
पुस्तक  - चांद गवाह-उर्मिला शिरीष : स्त्री, प्रेम और प्रकृति का पर्याय 
संपादक        - डाॅ. बिभा कुमारी
प्रकाशक     - अमन प्रकाशन, 104-ए/80 सी, रामबाग, कानपुर-208012 (उप्र)
मूल्य       - 525/-
---------------------
    हाल ही में लेखिका डाॅ बिभा कुमारी के संपादन में एक पुस्तक आई है -‘‘ चांद गवाह-उर्मिला शिरीष : स्त्री, प्रेम और प्रकृति का पर्याय’’। यह हिन्दी साहित्य की सुपरिचित कथाकार उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पर केन्द्रित है। किसी पुस्तक का लिखा जाना, उसका प्रकाशित हो कर पाठकों तथा समालोचकों तक पहुंचना एवं उस पर लोगों के विचार तय करते हैं कि वह पुस्तक कालजयी तत्वों से युक्त है या नहीं। यह प्रक्रिया किसी त्वरित टिप्पणी की अपेक्षा अधिक समय की मांग करती है तथा उसका महत्व भी त्वरित टिप्पणी से कहीं अधिक एवं विश्वसनीय होता है। मिथिला विश्वविद्यालय के विश्वेश्वर सिंह जनता महाविद्यालय, राजनगर में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डाॅ बिभा कुमारी द्वारा संपादित यह पुस्तक उन सभी लेखों एवं समीक्षाओं का संकलन है जो उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पर हैं। इस उपन्यास पर मैंने भी अपनी समीक्षात्मक कलम चलाई थी और ‘‘आचरण’’ के इसी काॅलम में वह समीक्षा प्रकाशित हुई थी। मेरी वह समीक्षा भी इस पुस्तक में शामिल की गई है। उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ का आकलन करते हुए मैंने लिखा था कि ‘‘फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘‘मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा रहता है।’’ यह प्रसिद्ध कथन उनकी पुस्तक ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में मौजूद है। सोशल कांट्रेक्ट अर्थात् सामाजिक अनुबंध या और सरल शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक बंधन। यह सामाजिक बंधन प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अनुरूप जीने को बाध्य करता है। सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सबसे बड़ी व्यवस्था है वैवाहिक संबंध। समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह विषमलिंगी व्यक्तियों के परस्पर मिलन से कहीं अधिक गंभीर अर्थ रखता है। विवाह वह संस्था है जो बच्चों को जन्म देकर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती है। विवाह पुरुषों और स्त्रियों को परिवार में प्रवेश देने की संस्था है। विवाह के द्वारा स्त्री और पुरुष को यौन सम्बन्ध बनाने की सामाजिक स्वीकृति और कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। विवाह परिवार का प्रमुख आधार है, जिसमें संतान के जन्म और उसके पालन-पोषण के अधिकार एवं दायित्व निश्चित किये जाते हैं। समाजशास्त्री जाॅनसन का मानना है कि ‘‘विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थाई सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं।’’ वहीं बोगार्ड्स मानते हैं कि ‘‘विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।’’ भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पश्चिमी समाजों की अपेक्षा विवाह का सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए भारतीय समाजशास्त्रियों मजूमदार और मदान का कहना है कि ‘‘विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।’’ लेकिन क्या हमेशा वैसा ही होता है जैसा कि समाजशास्त्र की संकल्पनाओं, धारणाओं, व्यवस्थाओं और परिभाषाओं में लिखा हुआ है? नहीं, हमेशा इस प्रकार की नियमबद्धता नहीं रह पाती है क्योंकि विवाह मात्र एक कानूनी अनुबंध नहीं होता है अपितु इससे बढ़ कर मानसिक अनुबंध होता है जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और भावनाओं का सम्मान करने की बुनियादी शर्त होती है। इसीलिए बेमेल अथवा इच्छाविरुद्ध विवाह की स्थिति में वैवाहिक संबंध बिखरते चले जाते हैं। जब टूटन सारी सीमाएं लांघ जाती हैं तो विवाह-विच्छेद ही विकल्प बचता है। किन्तु भारतीय समाज में विवाह-विच्छेद आसान नहीं है। कानून एक निश्चित अवधि के ‘‘सेपरेशन पीरियड’ के बाद विच्छेद पर मुहर लगा देता है किन्तु समाज का रुख हमेशा कठोर रहता है। विशेषरूप से स्त्री के पक्ष में। भारतीय समाज एवं परिवार स्त्री को विवाह-विच्छेद की अनुमति सहजता से नहीं देता है। स्त्री को ही हर तरह से विवश किया जाता है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को हरहाल में निभाए। इस संबंध में बड़ा दकियानूसी-सा डाॅयलाॅग हुआ करता था जिसका भारतीय सामाजिक सिनेमा में बहुतायत प्रयोग किया जाता था, जब पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते हुए कहता था कि ‘‘अब तू पराई हो गई। जिस घर में तेरी डोली जा रही है वहां से तेरी अर्थी ही उठना चाहिए।’’ यानी वह हर विषम परिस्थिति को झेलती हुई अपनी ससुराल में जीवन पर्यन्त टिकी रहे। इसी धारणा के चलते दहेज हत्याओं के प्रकरण बहुसंख्यक रहे हैं। 
ये सभी समाजशास्त्रीय विवरण तब अपने आप जागृत हो उठे जब हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष का ताजा उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पढ़ा। स्त्रीपक्ष के उन संदर्भों को इस उपन्यास में उठाया गया है जो मानसिक प्रताड़ना का एक कोलाज़ सामने रखते हैं। उस कोलाज़ को देखते हुए यही प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या एक स्त्री अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी सकती है? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। समाज की पहली पंक्ति में मौजूद अपनी सफलता की कहानियां अपनी अंजुरी में उठाई हुई स्त्रियों को देख कर यह भ्रम होता है कि वे अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी पा रही हैं। जबकि सच्चाई इससे ठीक उलट होती है। विवाह के ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में सबसे अधिक समझौते स्त्री को ही करने पड़ते हैं। उस पर यदि यह संबंध दबाव डाल कर थोप दिया गया हो तो एक घुटन भरी ज़िन्दगी उनके नाम दर्ज़ हो जाती है। अधिकांश स्त्रियां हालात से समझौता कर लेती हैं किन्तु कुछ विद्रोह का साहस जुटा लेती हैं। उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ को पढ़ते हुए विद्रोही नायिका दिशा का विद्रोह अनेक बार असमंजस में डाल देता है। क्योंकि हम परंपरावादी समाज में रहते हैं और जब वैवाहिक परंपराएं टूटती हैं तो संबंध कांच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं और उसकी किरचें देह एवं आत्मा को लहूलुहान करती रहती है।’’ 

उर्मिला जी का यह उपन्यास अपने आप में अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण है। इसमें स्त्रीविमर्श के साथ गाढ़ा समाज विमर्श भी है। बिभा कुमारी ने पुस्तक की भूमिका ‘‘स्त्री अस्तित्व का दायरा पर्यावरण, पृथ्वी, पानी, आकाश से चाँद की गवाही तक’’ में ‘‘चाँद गवाह’’ के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘समाज तो सदियों से ऐसा ही है। उपन्यास में भी तो वहीं प्रतिक्रियाएं, टिप्पणियाँ व्यक्त हुई हैं जो समाज में होती हैं। दिशा का भाई ही कह देता है कि तुम संदीप से शादी कर लो तो पति कह देता है कि असली खसम तो संदीप ही है। लेखिका ने कुछ भी अपनी तरफ से कहाँ जोड़ा है, उन्होंने तो समाज की कटु सच्चाई को उपन्यास में ज्यों का त्यों पिरो दिया है। दिशा का चरित्र उपन्यासकार ने जिस दृढ़ता से गढ़ा है, वह अत्यंत प्रेरणादायी है। इतने प्रश्नचिन्हों में घेर दिए जाने पर भी वह अपने लक्ष्य से हटती नहीं है। चरित्र निर्माण भी उत्तम शिल्प की पहचान है। उपन्यास का विषय जितना सामयिक और सशक्त है, शिल्प भी उतना ही सुगढ़ है। सरल सहज, संक्षिप्त संवादों के माध्यम से उपन्यासकार ने जो प्रभाव उत्पन्न किया है, वह पाठकों को जैसे नींद से जगाने का कार्य करता है। दिशा एक असाधारण स्त्री के रूप में पाठकों के सामने आ उपस्थित होती है। संवादों में सम्प्रेषण की क्षमता भरपूर है। शैली अपनी नवीनता से भी पाठकों की रुचि को संतुष्ट करता है, उपन्यास अपने कलेवर के भीतर नाटक, कविता, कहानी इत्यादि विधाओं को इतनी भली-भाँति सजाकर पाठकों के सामने परत दर परत खुलकर अपना प्रदर्शन करता है जैसे वह कोई पहुँचा हुआ कलाकार हो, जिसकी कलाकारी से प्रभावित हुए बिना कोई रह न सके। उपन्यास में कविता की भाँति बिम्ब की उपस्थिति है। चाक्षुष, श्रव्य, घ्राण, स्पर्श लगभग सभी बिंबों का प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है। बेशक उपन्यास की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज है पर उपन्यास के भीतर से संपूर्ण विश्व की कटु सच्चाई समझ में आती है कि संपूर्ण विश्व का समाज पुरुष प्रधान है, ये बात अलग है कि भारतीय स्त्री के सामने सामाजिक विसंगतियां विकसित देशों की स्त्रियों की तुलना में अधिक हैं। परिवार और समाज में अपने सभी दायित्वों का निर्वहन करती स्त्री के भीतर के व्यक्ति को जीवित रख पाने की कोशिश को दिशा बखूबी साकार करती है। मित्रता के विशुद्ध मायने ढूँढने का विकल्प एक स्त्री रख सकती है, यह किसी को सहजता से स्वीकार कहाँ हो पा रहा है। दिशा को झुकाने और तोड़ने के प्रयास जब विफल हो जाते हैं तब पाठक भी जैसे सुकून की गहरी साँस लेते हैं, क्योंकि दिशा सचमुच जीवन को सकरात्मकमक दिशा प्रदान करने में सफल हुई है।’’
डाॅ बिभा कुमारी अपनी भूमिका में ही अंत में लिखती हैं कि ‘‘उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प में जब इतना उम्दा हो तो उस पर प्रतिक्रियाएं भी उतनी ही सशक्त आएंगी। इस उपन्यास को पढ़कर पाठकों, समीक्षकों, आलोचकों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूरी समझा। यह जरूरी भी है कि पुस्तक को पढ़ने के बाद उस पर विस्तार से चर्चा भी की जाए। इस उपन्यास पर भी मुझे लोगों की भरपूर प्रतिक्रियाएं टिप्पणी और समीक्षा के रूप में दिखाई पड़ती रहीं। मुझे ये प्रतिक्रियाएं इतनी महत्वपूर्ण लगीं कि मैंने इन्हें संकलित करना आरंभ कर दिया, और जब ये प्रतिक्रियाएं पर्याप्त संख्या में संकलित हो पाईं तो इन्हें एक पुस्तक के रूप में संपादित करने की तैयारी में जुट गई।’’ 
जिन आलेखों एवं समीक्षाओं को पुस्तक में शामिल किया गया है वे हैं- उर्मिला शिरीष के उपन्यास की अवधारणा- अरविंद त्रिपाठी, स्त्री के जीवन में प्रेम- आनंद प्रकाश त्रिपाठी, प्रेम के आयतन को व्यापकता प्रदान करने वाला उपन्यास- अरुण होता, प्रेम और ग्राहस्थ जीवन के सवालों का गवाह चाँद अरुणाभ सौरभ, स्त्री स्वाधीनता और प्रेम की अभिव्यक्ति अर्चना त्रिपाठी, बयान दर्ज हुआ है चाँद की गवाही में बिभा कुमारी, स्त्री के लिए चाँद की गवाही का अर्थात है प्रेम चन्द्रकला त्रिपाठी, स्त्री के वजूद और सपनों को दर्ज करता चाँद गवाह हरियश राय, नारीवादी चेतना का अभिनव विस्तार- हीरालाल नागर, चाँद गवाह की हरित आभा के. वनजा, गिद्धों की पहरेदारी से मुक्त होती स्त्री की कहानी चाँद गवाह कांता राय, सामाजिक परिवर्तन की उत्कट अभिलाषा- महेश दर्पण, चाँद पाने का संघर्ष है चाँद गवाह मनीष वैद्य, चाँद ने कही स्त्री के दिल की बातें ममता तिवारी, पारम्परिक माइंडसेट को तोड़कर नये मूल्य स्थापित करता उपन्यास - नीतू मुकुल, मुक्ति के लिए छटपटाती एक स्त्री की कथा- नेहल शाह, चाँद की गवाही में कुकून से निकली नई स्त्री- नीलम कुलश्रेष्ठ, स्त्री संघर्ष की यात्रा चाँद गवाह प्रज्ञा, अनसुलझे सवालों के घेरे में रजनी गुप्त, हरी पृथ्वी का समरस गान- रूपा सिंह, नारी इयत्ता का खुलता आसमान चाँद गवाह - शशिकला त्रिपाठी, स्त्री विमर्श ही नहीं समाज विमर्श भी शरद सिंह, स्त्री स्वाधीनता का वैकल्पिक संसार शशिभूषण मिश्र, समय से आगे की बात करता चाँद गवाह - सुषमा मुनीन्द्र, स्त्री का गीत गाती पृथ्वी और उसका गवाह चाँद - स्मृति शुक्ल, स्त्री मुक्ति का संघर्ष चाँद गवाह सुनीता अवस्थी, सवालों के रू-ब-रू - सूर्यनाथ, चाँद गवाह में स्त्री मुक्ति चेतना सुनील कुमार, प्रेम को जीने की कोशिश चैद गवाह उर्मिला शुक्ल, मदन भारद्वाज सम्मान समारोह के अवसर पर निर्णायक मण्डल की अध्यक्ष के रूप में उपन्यास पर मेरी प्रशस्ति- रोहिणी अग्रवाल।
पुस्तक में ‘‘चांद गवाह ’’ पर चार टिप्पणियां भी हैं-चाँद गवाह रू एक पठनीय और दिलचस्प उपन्यास-धीरेन्द्र अस्थाना, चाँद गवाह : संघर्ष और सौन्दर्य का संगम- गंगाशरण सिंह, पुरुष सत्ता को चुनौती देती दिशा निर्मला भुराड़िया, मुक्ति का निर्णय स्त्री कभी भी ले सकती है- सुधांशु गुप्त। अंत में ‘‘चांद गवाह’’ पर उसकी लेखिका उर्मिला शिरीष से बिभा कुमारी की बातचीत भी है जो ‘‘चांद गवाह’’ की प्रकृति और दृष्टिकोण के बारे में उर्मिला जी के विचारों को और भी अधिक स्पष्टता से समझने में मदद करती है।
डाॅ. बिभा कुमारी ने जितने श्रम के साथ सामग्री को एकत्र कर जितनी कुशलता से संपादन किया है वह प्रशंसनीय है। यह पुस्तक उर्मिला शिरीष के उपन्यास की बारीकियों से परिचित करती हुई एक कृति के आकलन की समग्रता को प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि से यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए विशेष लाभप्रद है। साहित्यिक पुस्तकों का इस तरह आकलन एवं उनका प्रकाशन सतत रूप से किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसी पुस्तकें पुस्तकों, रचनाकारों, पाठकों एवं शोधार्थियों के बीच एक गहरा अंतर्संबंध स्थापित करती है। इसीलिए डाॅ. बिभा कुमारी की यह पुस्तक विशेष अर्थवत्ता रखती है।     
 ---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer 
#पुस्तकसमीक्षक #पुस्तक #आचरण #DrMissSharadSingh