Wednesday, November 6, 2024

चर्चा प्लस | लोक कथाओं में रचे-बसे हैं गहरे मानव मूल्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
लोक कथाओं में रचे-बसे हैं गहरे मानव मूल्य
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        लोक कथाएं वाचिक परंपरा की अनमोल देन हैं। वाचिक अर्थात लिखित नहीं, वरन वचनों के द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित। दुर्भाग्यवश अब कथाएं कहने-सुनने का चलन कम होता जा रहा है। परिवार के विखंडन ने बच्चों से वे बुजुर्ग छीन लिए हैं जो उन्हें कथाएं सुनाते। सुनाई जाने वाली यही कथाएं लोक में प्रचलित हो कर लोककथा बन जाती हैं। ये भोली-भाली रोचक कथाएं अपने भीतर गहरे मानव मूल्य समेटे रहती हैं। तभी तो इन्हें सुनते हुए बड़े होने वाले व्यक्ति अधिक संवेदनशील हुआ करते थे। एक बार फिर आवश्यकता है लोक से मिली कथाओं को लोक को लौटाने की।  
     लोक कथाएं मानव मूल्यों पर ही आधारित होती हैं और उनमें मानव- जीवन के साथ ही उन सभी तत्वों का विमर्श मौजूद रहता है जो इस सृष्टि के के आधारभूत तत्व हैॅं और जो मानव-जीवन की उपस्थिति को निर्धारित करते हैं। जैसे- जल, थल, वायु, समस्त प्रकार की वनस्पति, समस्त प्रकार के जीव-जन्तु आदि।
लोक कथाओं में मानव मूल्य को परखने के लिए पहले उनकी विशेषताओं को देखना जरूरी है - 1.लोक कथाएं संस्कृति की संवाहक होती हैं। 2.लोक कथाओं की अभिव्यक्ति एवं प्रवाह मूल रूप से वाचिक होती है। 3. इसका प्रवाह कालजयी होता है यानी यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी प्रवाहित होती रहती है। 4. सामाजिक संबंधों के कारण लोककथाओं का एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्तार होता जाता है। 5. एक स्थान में प्रचलित लोक कथा स्थानीय प्रभावों के सहित दूसरे स्थान पर भी कही-सुनी जाती है। 6. लोकथाओं का भाषिक स्वरूप स्थानीय बोली का होता है। 7. इसमें लोकोत्तियों एवं मुहावरों का भी खुल कर प्रयोग होता है जो स्थानीय अथवा आंचलिक रूप में होते हैं। 8. कई बार लोक कथाएं कहावतों की व्याख्या करती हैं। जैसे बुन्देली सौंर कथा है-‘ आम के बियाओं में सगौना फूलो’। 9. लोक कथाओं में जनरुचि के सभी बिन्दुओं का समावेश रहता है। 10. इन कथाओं में स्त्री या पुरुष के बुद्धिमान या शक्तिवान होने के विभाजन जैसी कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है। कोई कथा नायक प्रधान हो सकती है तो कोई नायिका प्रधान। 11. विशेष रूप से बुन्देली लोक कथाओं में नायिका का अति सुन्दर होना या आर्थिक रूप से सम्पन्न होना पहली शर्त नहीं है। एक मामूली लड़की से मेंढकी तक कथा की नायिका हो सकती है और एक दासी भी रानी पर भारी पड़ सकती है। 12. लोक कथाओं का मूल उद्देश्य लोकमंगल हेतु रास्ता दिखाना और ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना होता है जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को महत्व मिल सके। 13. कथ्य में स्पष्टता होती है। जो कहना होता है, वह सीधे-सीधे कहा जाता है, घुमा-फिरा कर नहीं। 14. उद्देश्य की स्पष्टता भी लोक कथाओं की अपनी मौलिक विशष्टिता है। सच्चे और ईमानदार की जीत स्थापित करना इन कथाओं का मूल उद्देश्य होता है, चाहे वह मनुष्य की जीत हो, पशु-पक्षी की या फिर बुरे भूत-प्रेत पर अच्छे भूत-प्रेत की विजय हो। 15. असत् सदा पराजित होता है और सत् सदा विजयी होता है। 16. आसुरी शक्तियों मनुष्य को परेशान करती हैं, मनुष्य अपने साहस के बल पर उन पर विजय प्राप्त करता है। वह साहसी व्यक्ति शस्त्रधारी राजा या सिपाही हो याह जरूरी नहीं है, वह गरीब लकड़हारा या कोई विकलांग व्यक्ति भी हो सकता है। 17. जो मनुष्य साहसी होता है, बड़ा देव, पीपर देव, दोज महारानी, आसमाई और देवता पुलुगा (अंडमानी जनजाति के देवता) भी उसकी सहायता करते हैं। 18. लगभग प्रत्येक गंाव में एक न एक ऐसा विद्वान होता है जिसके पास सभी प्रश्नों और जिज्ञासाओं के सटीक उत्तर होते हैं।जैसे कोरकू कथा में पड़ियार।

कोरकू सबसे प्राचीन जाति आस्ट्रिक जाति के माने जाते हैं। ये स्वयं को रावण का वंशज मानते हैं तथा महादेव को अपना इष्टदेव मानते हैं। मान्यता के अनुसार महादेव ने प्रथम पुरुष ‘मूला’ तथा प्रथम स्त्री ‘मुलई’ को बनाया। बैतूल जिले के सांवलीगढ़ एवं भंवरगढ़ को अपनी उत्पत्ति-स्थल मानते हैं। कोरकू के आदि पुरुषों ने विंध्य तथा सतपुडत्र के वनों में वृक्षों की जड़ें खोदने अथवा करोने का काम किया अतः वे कोरकू कहलाए। यह जनजाति मध्यप्रदेश सतपुड़ा के वनप्रांतों में छिंदवाड़ा, बैतूल जिले के भैंसदेही एवं चिचोली, होशंगरबाद जिले के हरदा, टिमरनी एव खिड़किया, पूर्व निमाड़ में हरसूद एवं बुरहानपुर में बसी हुई है। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में अकोला, मेलघाट तथा मोरशी क्षेत्र में भी कोरकू बसे हुए हैं। इनके चार जाति समूह हैं-रूमा, पोतड़या, ढुरलिया तथा बोवई अथवा बोन्डई। मृतक की स्मृति में ‘मण्डो’ अर्थात् मृतक स्तम्भ लगाने तथा वृद्धाओं द्वारा मृत्यु-गीत गाने की प्रथा है। इनमें तलाक एवं विधवा विवाह का चलन है। इनके प्रमुख देवी-देवता हैं- महादेव, रावण, मेघनाथ, खनेरादेव, किलार मुठवा, खेड़ा देव, सूर्य-चन्द्र तथा नर्मदा एवं ताप्ती नदियां। कोरकुओं में ‘मूठ’ नामक जादू-टोने पर विश्वास किया जाता है। झाड़-फूंक करने वाले पुरुष को ‘पड़ियार’ तथा स्त्री को ‘भगटो-डुकरी’ कहते हैं। कोरकू बोली आस्ट्रिक भाषा परिवार की है। इनकी अपनी लिपि नहीं है। 
कोरकुओं में एक कथा प्रचलित है - एक कोरकू युवक ने सपने में देखा कि एक गोरे रंग की लड़की ने उसका प्रेम-निवेदन ठुकरा दिया। उसने कहा कि तुम्हारे जैसे काले लड़के के साथ भला कौन-सी गोरी लड़की प्रेम करना चाहेगी? तभी कोरकू लड़के की नींद टूट गई। उसका मन उदास हो गया। वह स्वयं को बदसूरत मान बैठा और उसे अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। लड़का अपने गांव के पड़ियार के पास पहुंचा। उसे अपने सपने के बारे में बताया। लड़केे की समस्या सुन कर पड़ियार ने लड़के को समझाया कि अभागे तुम नहीं, अभागी तो वह लड़की है जो तुम्हारे जैसे अपने से श्रेष्ठ लड़के को ठुकरा कर चली गई। लड़के ने पूछा-भला मैं उससे श्रेष्ठ कैसे हुआ? वह गोरी और मैं काला।
इस पड़ियार ने उसे समझाया कि जो पहले जन्म ले वह बाद में पैदा होने वाले से बड़ा और श्रेष्ठ माना जाता है या नहीं? लड़के ने कहा- हंा, बिलकुल माना जाता है। इस पर पड़ियार ने कहा कि - तो सुनो! देवता ने जब मनुष्य बनाना शुरू किया तो उसने पहले हमारे गांव की मिट्टी से हमें बनाया। बाद में मिट्टी कम पड़ने पर दूसरे जगह की मिट्टी मिला कर दूसरे मनुष्यों को बनाया। जब उसने हमें बनाया तो उसे हमें गढ़ने के लिए बहुत मेहनत और लगन की जरूरत पड़ी क्यों कि उसे मनुष्य बनाने का अभ्यास नहीं था। लेकिन जब उसने हमारे बाद दूसरे मनुष्यों को बनाया तो एक तो मिलावटी मिट्टी का प्रयोग किया। फिर जैसे-तैसे दूसरे मनुष्यों को बना दिया यानी उन्हें बनाने के लिए उसे अभ्यास हो चुका था और अब उसे विशेष श्रम या लगन की जरूरत नहीं थी। इस लिए अब तुम्हीं बताओ कि जब हमें देवता ने पहले बनाया, पूरी लगन और मेहनत से बनाया  और शुद्ध मिट्टी से बनाया तो हम दूसरे मनूष्यों से श्रेष्ठ हुए या नहीं?
पड़ियार की बात उस लड़के की समझ में आ गई। वह खुश हो गया और उसका आत्मविश्वास लौट आया।  इस कहानी को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से परखा जाए तो यह एक श्रेष्ठ मनोचिकित्सा जैसी है। इसे यदि मातृभूमि के प्रति गौरव की भावना जगाने की कथा कही जाए तो यह उसकी बढ़िया मिसाल है। 

लोक कथाओं गूढ़ रहस्यों को बूझने का भी भरपूर प्रयास किया जाता है। इनमें पृथ्वी के जन्म की अनेक कथाएं मिलती हैं। यानी हर क्षेत्र की लोकभाषा या बोली में पृथ्वी के जन्म की एक अलग कथा। जैसे अंडमानी लोककथा में कहा गया है कि देवता पुलुगा ने जल, थल और आकाश के साथ पृथ्वी को बनाया। उरावं लोक कथा के अनंसार परमात्मा धरमेस ने मानव-संसार बसाने के लिए पृथ्वी बनाई।
अंडमानी शब्द चार अंडमानी जनजातीय समूहों के लिए प्रयुक्त होता है। ये चार समूह हैं- ग्रेट अंडमानी, ओंगी, जारवा तथा सेंटिनली। सर्वमान्य धारणा के अनुसार भौगोलिक परिवर्तन के कारण अंडमान द्वीप समूह आफ्रीका महाद्वीप से अलग हो गया जिसमें नेग्रिटोज़ बसे हुए थे। इसीलिए अंडमानियों की दैहिक संरचना नेग्रिटोज़ के समान है। इनका प्रमुख देवता ‘पुलुगा’ है। अंडमानियों में यह मान्यता है कि पुलुगा ने ही प्रथमपुरुष के रूप में तोमो को पैदा किया।  अंडमानी जनजाति में प्रमुख सात समुदाय हैं- अकाबोआ, अकाकोरा, अकाजेरू, अकावी आदि। वनोपज संग्रहण, जलाखेट एवं आखेट इनका पैतृक व्यवसाय है। ओंगी जड़ी-बूटी के अच्छे जानकार होते हैं। अंडमानियों की लोककथाओं में सूर्य, अग्नि, पृथ्वी, शहद, नारियल, कछुआ, सुअर, मछली, घनुष-बाण का प्रमुखता से उल्लेख मिलता है।

इसी प्रकार लखेर लोककथा में विश्वास किया गया है कि परमात्मा खंजागपा ने पृथ्वी का निर्माण किया। लखेर कुकी जनजाति के सदस्य हैं। ये मीजोरम पर्वतीय क्षेत्रा में निवास करते हैं। इनका एक बड़ा समुदाय कोलोडिन नदी के उत्तार तथा पूर्व में बसा हुआ है। ये ‘मारा-चिन’ बोली बोलते हैं जो साइनो-तिब्बती भाषा परिवार की है। इनके छः समुदाय हैं- त्लोंग्साई, हवथाई, झुचनानन्ग,सबेउ, लियालिया तथा हाइमा। लखेरों की सामाजिक व्यवस्था सुगठित है किन्तु युवक-युवतियों को विवाहपूर्व संबंध बनाने पर रोक नहीं है। वयस्क अवस्था में ही विवाह किए जाते हैं। लखेर खज़ांगपा देवता को मानते हैं तथा उनका मत है कि खज़ांगपा देव ने ही सृष्टि की रचना की है। वे मानते हैं कि देवता झेंग दुष्ट आत्माओं से रक्षा करते हैं।    
     एक वाक्य में कहा जाए तो लोक कथाएं हमें आत्म सम्मान, साहस और पारस्परिक सद्भावना के साथ जीवन जीने का तरीका सिखाती हैं।
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Tuesday, November 5, 2024

पुस्तक समीक्षा | लोक चिंतन एवं मिठास है बिहारी सागर के गीतों में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 05.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई बिहारी सागर  जी के काव्य संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
लोक चिंतन एवं मिठास है बिहारी सागर के गीतों में
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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गीत संग्रह  - बुंदेली गौरैया
कवि         - बिहारी सागर 
प्रकाशक  - हिमांशी कोरी, बिहार सागर, धर्मश्री पुल के आगे, अंबेडकर वार्ड, कांप्लेक्स रोड, सागर, (म.प्र.) - 470004
मूल्य        - 120/- 
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     लोक संस्कृति तथा लोक भाषा की अपनी मौलिकता होती है। लोक भाषा लोकसंस्कृति के संवाहक का कार्य करती है। वस्तुतः लोक भाषा की मिठास लोक संस्कृति से ही उपजती है। जो काव्य लोक परंपराओं, लोकाचार एवं लोक व्यवहार को मुखर करता है, उस काव्य में मानो माटी की सोंधी गंध होती है। सागर के कवि बिहारी सागर निरंतर सृजन कर्म से जुड़े हुए हैं। जहां तक मैं जानती हूं। उनका अधिकांश सृजन स्वांतःसुखाय है। वे जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं। वे बुन्देलखंडी हैं और बुन्देली लोक व्यवहार से भली-भांति परिचित हैं। उन्होंने जीवन की कठिनाइयों को भी बहुत निकट से देखा है। उनके व्यक्ति में वह जीवटता है जो बुंदेली जन में पाई जाती है। काव्य संग्रह  ‘‘बुुन्देली गौरैया’’ संग्रह के नाम ने ही मेरा ध्यान आकर्षित किया। मेरे मन में विचार कौंधा कि आज कहने को तो हम ‘‘ग्लोबल गांव’’ बन गए हैं किन्तु सच्चाई यह है कि हम अपनी ग्रामीण संस्कृति में बसी थाती को खोते जा रहे हैं। चाहे बुन्देली हो या कोई और लोक संस्कृति हो, सभी बाजारवाद की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। लोकाचार की परंपराएं आधुनिकता के अधकचरेपन के तले दबती जा रही हैं। गांव के बाहर बैठे पीपर देव की पूजा का चलन समाप्तप्राय है क्योंकि पीपल के वृक्षों के लिए ही स्थान हम नहीं छोड़ रहे हैं। विवाह संस्कारों की परंपरागत रस्में मात्र रस्म अदायगी बन गई हैं, उसकी जगह ‘‘थीम वेडिंग’’ ने ले ली है। यही हाल गौरैया का है। एक नन्हा पक्षी जो हमारे साथ हमारे घर में एक सदस्य की तरह रहता था। अपना परिवार बसाता था और हमें ढेर सारी खुशियां देता था, उस नन्हें पक्षी को हमने अपने घरों से निष्कासित कर दिया। दीवार पर तिरछी लगी तस्वीरों के पीछे गौरैया का घोंसला हुआ करता था। अब न दीवारों पर वैसी तस्वीरें होती हैं और घर की बैठक में गौरैयें। सीलिंग पंखों के ऊपरी हिस्से में वे अपने तिनके जोड़ती थीं। उनके इस कृत्य पर झुंझलाहट भी होती थी किन्तु आत्मीयता भी जागती थी। एक कोमल रिश्ता हुआ करता था हम इंसानों और गौरैया के बीच। 
आज बुंदेली संस्कृति और गौरैया दोनों को सहेजना, संरक्षित करना आवश्यक हो गया है। ऐसे जटिल, खुरदरे एवं संवेदनाओं में शुष्कता ढोते समय में ‘‘बुन्देली गौरैया’’ काव्य संग्रह अपने नाम से ही उस मधुरता का आभास कराता है जिसमें लोकधर्मिता समाई हुई है। यूं भी कवि बिहारी सागर की बुंदेली पर अच्छी पकड़ है। यद्यपि उनके इस संग्रह में आम बोलचाल की हिन्दी की काव्य रचनाएं भी हैं किन्तु उनमें भी ‘‘बुंदेली टच’’ स्पष्ट रूप से आस्वादित किया जा सकता है। इस संग्रह की कविताओं में कथ्य की विविधता है। शिव भजन, श्रीराम भजन, चेतावनी भजन, राधा भजन, संत गुलाब बाबा भजन आदि भजनों के साथ ही कार्तिक गीत, होरी गीत, सोहर गीत, झूला गीत आदि गीत हैं। इसमें कव्वालियां और गजलें भी हैं। इनमें कुछ गीत लोक धुनों पर हैं तो कुछ गीत फिल्मी धुनों पर भी हैं। वस्तुतः कवि बिहारी सागर ने अपनी काव्य रचनाओं की गेयता पर ध्यान केंद्रित रखा है। अतः ये रचनाएं सुगमता से गाई जा सकती हैं। 
बिहारी सागर जी ने लोकधुनों पर भक्ति के विविध आयाम प्रस्तुत किए हैं। जैसे उनका एक गीत कार्तिक भजन की धुन पर है किन्तु उसमें उन्होंने श्रीकृष्ण के जन्म का विवरण प्रस्तुत किया है-
हो गओ है बड़ो शोर, कन्हैया प्यारे 
हो गओ है बड़ो शोर..... कन्हैया प्यारे ।। 
मात याशोदा के भये ललना 
नंद के नंद किशोर ..... कन्हैया प्यारे ।।   
‘‘रामायण’’ के सीता-स्वयंवर प्रसंग की भांति ‘‘महाभारत’’ महाकाव्य में द्रौपदी के स्वयंवर का प्रसंग महत्वपूर्ण है। इस प्रसंग को लोक-प्रस्तुतियों में प्रायः सम्मिलित किया जाता है। कवि ने गारी की धुन पर द्रौपदी-स्वयंवर के प्रसंग को कुछ इस तरह पिरोया है-
जग में इनको नाम है छाये।
जिनके बलखों पार ना पाये।
बड़े-बड़े जोधा गये हैं हार।
कैसे हुइये मंगलाचार ।
इस प्रकार लोकधुनों पर लिखे गए गीतों का अपना एक मौलिक सौंदर्य है। इनमें छांदासिक व्याकरण गौण हो कर स्वरों की प्रधानता हो जाती है जो लयात्मकता का रूपहला संसार रचती हैं। ये भक्ति की धारा में बहते हुए झूमने और थिरकने को प्रेरित करती हैं।
कवि बिहारी सागर ने अपनी कव्वालियां भी इस संग्रह में रखी हैं। विशेषता यह है कि उन्होंने एक कव्वाली में रामभक्ति की अनुपम गंगा बहाई है जिसमें श्रीराम के द्वारा शबरी के जूठे बेर खाने का प्रसंग है -
आज शबरी की कुटिया में। प्रभु श्री राम आये हैं।। 
साथ में है अनुज लक्ष्मण। ये दोनों साथ आये हैं ।। 
ये आशा हो गई पूरी जो वर्षों से अधूरी थी । 
देखकर आज प्रभू को हम प्रेम के आंसू आये हैं ।। 
संग्रह में विभिन्न रसों में निबद्ध रचनाएं हैं जो यह बताती हैं कि कवि दर्शन और प्रहसन दोनों विषयों पर सुंदर काव्य सृजन करने में सक्षम है। बिहारी सागर जी ने ‘‘चेतावनी’’ के रूप में कई कविताएं इस संग्रह में रखी हैं जिनमें गहन जीवन दर्शन निहित है। एक ‘‘चेतावनी’’ देखिए-
भजन करले राम के, उमरिया रह गई थोड़ी । 
ये दुनियां है आनी जानी। क्यों करता है तू नादानी । 
पहुंचो शरण तुम राम के उमरिया रह गई 
थोड़ी चेत सको तो चेत ले प्यारे। 
हो जे हो तुम जग से न्यारे । 
महल अटारी नैयां काम के उमरिया रह गई थोड़ी।
जीवन की भंगुरता को पूरी गंभीरता से अपने गीत में समेटने वाले बिहारी सागर जब हास्य रस का गीत लिखते हैं तो उनका एक अलग ही भाव दिखता है। उनके हास्य गीतों को पढ़ते समय इस बात का भान नहीं होता है कि इसी कवि ने संसार की नश्वरता का स्मरण कराया है। अपनी हास्य कविताओं बिहारी सागर एक अलग ही छटा बिखेरते हैं। उदाहरण के लिए एक गीत की पंक्तियां देखिए जिसमें कवि ने एक ऐसी ग्रामीण युवती का वर्णन किया है जो आधुनिक ढंग से सज-धज कर बाजार करने घर से निकली है-
घड़ी बांधे धना जे हाटे चली। 
टेरालीन की साड़ी पैरी घेर कमर करधोनी घेरी 
मोड़ा मोड़ी खां डांटे चली..... घड़ी बांधे धना जे 
दोई पांव पैजनियां नैयां 
चटुआ से हाथों में नैयां चुड़ियां 
ऐसे लगत जैसे घाटे चली...... घड़ी बांधे धना जे 
ठेलम ठेला बीच बजरिया 
तिरछी हेरत उनकी नजरिया 
दांतों से होठन को काटें चली... घड़ी बांधे धना जे 
सोलह बरस की बारी उमरिया 
इनखों नैया अपनी खबरिया 
‘‘बिहारी’’ के दोंना चाटें चली.....
घड़ी बांधे धना जे
बस, एक बड़ी विसंगति मुखपृष्ठ पर छपे इस शब्द में दिखाई दी -‘‘लोकगीत’’। जब ये कवि के मौलिक गीत हैं तो इसके बारे में लिखा जना चाहिए था ‘‘गीत’’ अथवा ‘‘लोकधुन आधारित गीत’’। ये रचनाएं लोकगीत तो तब सिद्ध होंगी जब ये लोक अर्थात् जन-जन की जुबान पर चढ़ जाएंगी। बहरहाल, कवि बिहारी सागर मात्र काव्य सृजन नहीं कर रहे हैं वरन अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से लोक संस्कारों एवं भावनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे उनका यह संग्रह पाठकों को पसंद आएगा।
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Saturday, November 2, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | जे पब्लिक खों कुत्तन से को बचा रओ?| डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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जे पब्लिक खों कुत्तन से को बचा रओ?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    रोजीना दो-चार लोगन खों कुत्ता काट रये। जोन खों कुत्ता काटत आए, बा बिचारो ऊंसई आड़ो हो जात आए। औ ऊके घरवारे रेबीज़ की सुजी के लाने भैंराने से फिरत आएं। जौ लौं सुजी नईं लगत, त्यौं लौं कुत्ता से कटो वारो औ ऊके घरवारों खों एक धड़का सो लगो रैत आए के को जाने का हुइए? मनो अभईं दिवारी भई, जो होरी होती तो तनक खुल के पूछो जा सकत्तो के भैया हरों जे अपने सागर खों स्मार्ट सिटी बना रये के ‘कुत्ता सिटी’ बना रये? मनो अबे दिवारी, गोवर्धन, दूज में ऐसो बोलबो अच्छो नईं लगत। बाकी हमने कऊं पढ़ी रई के दिवारी से पैले नगरनिगम में एक मीटिंग भई रई औ ऊमें तै करो गओ के कुत्ता हरों खों पकर-पकर के उनकी नसबंदी करी जाहे। जे बिचार तो साजो आए, मनो कोनऊं जे सोई बताए के इत्ते बड़े सांड़ औ बैलवा हरों खों तो पकर नईं पा रये, सो जे कुत्ता कां से पकरहें? चलो, मान लओ के बे ‘कबड्डी-कबड्डी करत भये अपने निगम एरिया के कुत्ता पकर लैंहें, मनो बा एरिया के कुत्तन को का हुइए जोन नगरनिगम एरिया के बाहरे के आएं। जैसे- केण्ट, मकरोनिया, बड़तुमा, बहेरिया  घांई जो नगरनिगम में नईंया लेकन उते कुत्ता मुतके आएं। 
       आजकाल जे कुत्ता हरें बी सयाने ठैरे, बे झुंड बना के फिर रये। औ खूबई गर्रा रएं। जबे जे कोनऊं लोहरे बछड़ा खों घेर लेत आएं, तो ऊको चींथन लगत हैं। बाल-बच्चा के लाने बी जे कम डेंजरस नोंईं। सो, नगरनिगम, नगरपालिका औ केण्ट वारों को संगे योजना बनाओ चाइए। ने तो जे प्राब्लम ऐसे हल ने हुइए।
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Thursday, October 31, 2024

बतकाव बिन्ना की | ढिग धर आंगन लिपाओ, संगे माटी को दिया जलाओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ढिग धर आंगन लिपाओ, संगे माटी को दिया जलाओ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          दिवारी होय औ गूझा, पपड़ियां औ अंदरसे ने बने तो दिवारी, दिवारी घांई नईं लगत। सो भौजी ने सोची के कछू घरे बनाओ जाए। कोनऊं दिवारी मिलबे खों आहे सो खवाबे को लगहे, फेर पास-पड़ोस में देने-लेने खों लगहे। बजार में तो ऊंसई इत्तो मिलावटी सामान बिकन लगो के बा खरीदबे को जी नईं करत। भौजी खों पतो के मैं कछू ने बनाहों, सो उन्ने मोय अपने हाथ बंटाबे खों बुला लओ। जोन से मोरो जी लगो रए औ मोय अकेलो सो ने लगे।
मैं भौजी के घरे पौंची तो भैयाजी घरे ने हते। कोनऊं सामान बढ़ा गओ रओ, सो बे बोई लेबे के लाने बजार गए रए। भौजी ने मैदा माढ़ के रखो हतोे। मैं पौंची तो बे ऊ टेम पे खोबा और सुजी कढ़इया में भून रई हतीं। पूरे घर में ऐसी नोनी सुगंध भरी हती के ने पूछो।
‘‘जो लौं मैं जो भरबे को मसाला भून रई, तब लौं जे मैदा की पुड़ी बेल लेओ गूझा के लाने।’’ भौजी ने बेलन औ पटा मोरे आंगू सरकात भई कई।
‘‘हऔ! ईमें का धरो।’’ मैंने कई। फेर पैले मैदा की एक बरोबर मुतकी लोइयां बना लईं औ फेर ऊके बाद ऊं लोइयां बेलन लगी। संगे हम दोई की बतकाव चलन लगी। हम दोई पुरानी बाते करन लगे। मोए अपने बचपन के दिन याद आन लगे। ऊ टेम पे जबे कढ़इया चूला पे चढ़त्ती तो हम बच्चा हरों को चूला के लिंगे फटकबो बी मना रैत्तो। काय से के कोनऊं बच्चा कढाई में ने टपक परे। पर तनक सोचो के घरे बेसन के सेव तले जा रहे होंय औ चींखबे खों बी ने मिले सो ऐसो कैसे हो सकत्तो? कोनऊं ने कोनऊं बहाना से हम बच्चा पार्टी चैका में जा पौंचत्ते और मौका पातई मूंठा भर के सेव अपने खींसा में भर के उते से खसक लेत्ते। हमाई जान में तो बनाबे वारन खों पतो नई परत्तो। मनो, सई तो जा हती के बे हम ओरन खों देखतई ताड़ जात्तीं के हमाओ अगलो कदम का हुइए। बे ओरे देख के अनदेखी कर देत्तीं। उने जे सहूरी रैती के अब हम ओरें जल्दी दुबारा उते ने मंडराहें। गूझा की पुड़ी बेलत-बेलत मोए आंगन लीपबे की सुरता आन लगी। मैंने भौजी खों सुनाबो शुरू करो।  
‘‘जब मैं छोटी रई तो ऊ टेम पे एक खाना पकाबे वारी हमाए इते आत्तीं जिने हम सबई ‘बऊ’ कहत्ते। बाकी तो लिपाई हम ओरें बी कर लेत्ते मनो सामने वारे आंगन में बऊ लिपाई करत्ती औ बोई लिपाई के बाद ढिग धरत्ती। ढिग धरे जाबे के बाद बा आंगन ऐसो दिखत्तो मनो उते मैंगी दरी बिछी होय। ऊके बाद मोरी और मोरी दीदी की बारी आऊत्ती। हम दोई मिल के ऊ लिपे आंगन में सातिया काढ़त्ते। बाकी सई बात जो जे हती के असली सातिया तो दीदी काढ़त्तीं, मैं तो उनकी हेल्परी करत्ती। ऊ हेल्परी में मच्छर मारबे को काम सोई शामिल हतो। काय से के संझा की बिरियां सातिया काढ़ो जात्तो जोन से लछमी मैया की पूजा के टेम लौं सातिया सुदरो रए। औ बोई अेम मच्छरों को मंडराबे को रैत्तो। पैले छुई से एक बड़ो सातिया दीदी बनाऊत्तीं, फेर ऊमें रंग भरबे के टेम पे मैं सोई उनको हाथ बंटाऊत्ती। ऊ टेम पे जे सब करे में बड़ो अच्छो, नोनो लगत्तो।
सबसे मजो आऊत्तो लिपाई के बी पैले गोबर बीनबे में। वैसे बऊ गोबर को जुगाड़ कर लेत्ती। काय से के उनकी एक-दो दउआ हरों के इते सेंटिग रई के बे कोऊ और खों गोबर दें के ने दें, बाकी बऊ के लाने बे मना नईं कर सकत्ते। कभऊं-कभऊं हम ओरन को गोबर बीनबे जाने परत्तो। तब हम ओरें अपने हाथन में बांस की छोटी-छोटी टुकनिया ले लेत्ते औ गऊ माता के पांछे-पांछे घूमत्ते। इत्ती दूरी बना के, के बे हमें लत्ती ने मार सकें। बाकी हम ओरन की नन्ना जू मने हमाई मम्मी जू हमें डांट-डपट के वापस बुला लेत्तीं। ऊ टेम पे गऊ माता हरों खों इते-उते बी खाबे के लाने अच्छो घास-पतूला मिल जात्तो। ईसे उनको गोबर ऊ टाईप से बास नई मारत्तो, जोन टाईप से अब मारत आए। अब तो गोबर छूबे में घिनईं आऊत आए।’’ मैंने गूझा की लोई बेलत साथ अपने बचपने की किसां बताई।
‘‘सई में बिन्ना! पर गऊ माता हरें बी का करें? उने पनी लौं खाने परत आए। सई में खाबे की चीजें पनी में भर के कभऊं नईं मैको जानो चाइए। बिचारी गऊएं खाबे की चीज खों खाबे के चक्कर में पनी सोई खा लेत आएं और ईसे उनके मरबे-जीबे की होन लगत आए। अभईं दो दिनां पैले एक गइया इतई मैदान में ऐसी हली जा रई हती के हमें देख के अचरज भओ। फेर हमने तनक देर ठैर के ऊको देखो। बा उल्टी-सी कर रई हती। जबे ऊने बड़ी मुस्कल से उल्टी करी तो ऊके मों से पनी निकरी। हमें लगो के जो बा पनी ने निकर पाती औ ऊके फेफड़न में, ने तो आंतन में चपक जाती तो ऊको मरबो तो तै हतो।’’ भौजी ने कई।
फेर भौजी बतान लगीं के ‘‘हमाए इते सोई खीब लिपाई होत्ती। दो ठईया भौत बड़े आंगन रए। एक बाहरे और एक भीतरे। बाहर के आंगन में लुगाइयां आत्तीं लिपाई करबे के लाने। भीतर को आंगन अम्मा, फुआ औ हम ओरें लीपत्ते। हमाये इते चूना से ढिग धरी जात्ती। रात को एक घड़ा में चूना भिगा दओ जात्तो औ भुनसारे बा तपो धरो मिलत्तो। फेर ऊको ठंडो करो जात्तो। रामधई! का बे बी दिन हते। ऊ टेम पे ने तो टीवी हती औ ने मोबाईल। खूब टेम रैत्तो काम करबे के लाने। ज्यादा से ज्यादा रेडियो चला लेत्ते।’’ भौजी लम्बी संास भरत साथ बोलीं। मोय सोई अपने लड़कौरे के दिन याद आन लगे।
तब लौं गूझा भरबे को टेम आ गओ। मैं पुड़ी में मसालो भरन लगी औ भौजी उने तोप-तोप के अंगूठा-उंगरियन से डिजायन बनान लगीं। बे ई काम में बड़ी एक्सपर्ट ठैरीं।
अबे हम ओरन के गुझा तले जा रए हते के इत्ते में भैयाजी आ गए।
‘‘का हो रओ?’’उन्ने बोई पूछी, जो सब पूछत आएं। देखत बी जैहें औ पूछहें के ‘‘का हो रओ?’’
‘‘ताजो गूझा खाने?’’ भौजी ने भैयाजी से पूछी।
‘‘अबे नईं! तनक जुड़ान देओ। फेर पूरे घर में ईकी गमक भरी, सो घर में घुसत साथ ऊंसई मूंड़ चढ़न लगो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कई आपने, ऐसई होत आए। अभई भौजी ने मोसे बी कई रई के एकाध गूझा चींक के देखो, मैंेने बी मना करी। बाकी, आप का-का ले आए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अजवाइन बढ़ा गई रई। संगे तिली सोई लाने हती। सुफेद तीली ढूंढबे में ई तो टेम लग गओ। तुमाई भौजी बोली हतीं के जो चकली बनावाने होय तो अच्छी साफ-सुफेद तिली ले के आओ। तो अपन तो हुकम के गुलाम ठैरे।’’ कैत भए भैयाजी हंसन लगे।
‘‘हऔ, रैन तो देओ! आपकी गुलामी खीबईं देखी हमने।’’ भौजी सोई हंसत भई बोलीं।
‘‘औ का ले आए?’’ मैंने फेर पूछी।
‘‘दिया ल्याए औ झालरें। ई बेर तो पानी वारे दिया सोई मिल रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, हमने सोई उनके बारे में पढ़ी रई। बा तो लाइटें आएं दिया के डिजायन की।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! हमने तो तुमाए भैयाजी से कै दई रई के चाए झालरें लाओ, चाए पानी वारे दिया लाओ, मनो हमें तो माटी के दिया चाउनें, जीमें तेल डार के बाती लगा के जलाओ जा सके। बिना माटी के दिया के दिवारी कैसी?’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, आपको सोई बा गीत याद हुइए जोन में कओ गओ के-
      ढिग धर आंगन लिपाओ
      संगे माटी के दिया जलाओ...
      लछमी जी आहें, बिष्णु को लाहें
      उनके लाने हम  अनरसा बनाहें
      सातें पे पटा बिठाओ....
      संगे माटी के दिया जलाओ...
 मोरे संगे भौजी बी जा गानो गान लगीं। जेई के संगे बनन लगो दिवारी को सई माहौल। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। खूब दिवारी मनाओ! खूब दिया जलाओ! लछमी मैया सबकी भली करहें।
सबई जनन खों हैप्पी दिवारी!!!
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शून्यकाल | देवी लक्ष्मी प्रतीक हैं स्वस्थ पर्यावरण की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम शून्यकाल -     देवी लक्ष्मी प्रतीक हैं स्वस्थ पर्यावरण की
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

     धन की देवी लक्ष्मी कमल के फूल पर विराजमान हैं। क्या कभी सोचा है कि वे धन की देवी हैं, सोना, चांदी, हीरे आदि से परिपूर्ण हैं, फिर वे स्वर्ण सिंहासन पर क्यों नहीं विराजमान हैं? देवी लक्ष्मी किसी जलाशय में खिले कमल के फूल पर बैठी या खड़ी दिखाई देती हैं, यानी ऐसे पानी में जो बहता न हो। कमल के फूल पर विराजमान देवी लक्ष्मी के एक हाथ में भी स्वर्ण कमल नहीं, बल्कि प्राकृतिक कमल का फूल रहता है। क्या कभी सोचा है कि ऐसा क्यों? क्योंकि देवी लक्ष्मी स्वयं स्वस्थ पर्यावरण का प्रतीक हैं। कैसे? आइए देखें-
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद।
श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्मी नमः॥
     अर्थात देवी श्रीलक्ष्मी जो कमल पर विराजमान हैं और जिनके स्मरण से आशीर्वाद की प्राप्ति होती है, उन्हें नमन है। 
पद्‍मानने पद्‍मिनी पद्‍मपत्रे पद्‍मप्रिये
पद्‍मदलायताक्षि विश्वप्रिये विश्वमनोनुकूले।।
त्वत्पादपद्‍मं मयि सन्निधस्त्व।।
   - अर्थात हे लक्ष्मी देवी,आप कमलमुखी, कमलपुष्प पर विराजमान, कमल दल के समान नेत्रों वाली कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं,आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। आपके चरण सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
      जी हां, हम सभी  उन देवी लक्ष्मी को नमन करते हैं और उनसे समृद्धि की आकांक्षा रखते हैं जो स्वयं कमल के पुष्प पर विराजमान रहती हैं। हम दीपावली पर देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उनसे प्रार्थना करते हैं और उन्हें अपने घरों में आने और रहने के लिए आमंत्रित करते हैं। हम देवी लक्ष्मी से अपने और अपने परिवार के लिए धन और समृद्धि मांगते हैं। हम जानते हैं कि देवी लक्ष्मी धन की देवी हैं। लेकिन वास्तव में, वे घर आकर मांगने वाले के हाथों में सोने और चांदी के सिक्के नहीं रखती हैं, बल्कि मांगने वाले को धन कमाने में सक्षम बनने के लिए एक वातावरण प्रदान करती हैं। इसे समझने के लिए, इस प्रार्थना का भावार्थ देखें - “हे अग्नि, आप देवी लक्ष्मी का आह्वान करें, जो सोने की तरह चमकती हैं, पीले रंग की हैं, सोने और चांदी की माला पहनती हैं, चंद्रमा की तरह खिलती हैं, धन की अवतार हैं। हे अग्नि! मेरे लिए उस अमोघ लक्ष्मी का आह्वान करें, जिनकी कृपा से मैं धन, पशुधन, घोड़े और मनुष्यों को जीतूंगा। मैं श्री का आह्वान करता हूं, जिनके आगे घोड़ों की पंक्ति है, बीच में रथों की श्रृंखला है, जो हाथियों की तुरही से जागृत होती हैं, जो दिव्य तेजोमय हैं। वह दिव्य लक्ष्मी मुझे अनुग्रहित करें। मैं उस श्री का आह्वान करता हूं जो परम आनंद की अवतार हैं;  जिनके मुख पर मधुर मुस्कान है; जिनकी चमक चमकते हुए सोने के समान है; जो क्षीरसागर से भीगी हुई हैं, जो तेज से प्रज्वलित हैं और सभी कामनाओं की पूर्ति की स्वरूप हैं; जो अपने भक्तों की इच्छा को संतुष्ट करती हैं; जो कमल पर विराजमान हैं और कमल के समान सुन्दर हैं।

“मैं इस संसार में उस लक्ष्मी का आश्रय लेता हूँ, जो चन्द्रमा के समान सुन्दर हैं, जो तेज से चमकती हैं, जो यश से प्रकाशित हैं, जो देवताओं द्वारा पूजित हैं, जो अत्यन्त उदार हैं और कमल के समान भव्य हैं। मेरे दुर्भाग्य नष्ट हों। हे सूर्य के समान तेजस्वी देवी, मैं अपने आपको आपकी शरण में डालता हूँ। आपकी शक्ति और महिमा से बेल के समान पौधे उग आए हैं। आपकी कृपा से उनके फल अन्तःकरणों से उठने वाले समस्त अशुभता और बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले अज्ञान को नष्ट कर दें।

“हे लक्ष्मी! मैं इस देश में धन की विरासत लेकर पैदा हुआ हूँ।  भगवान शिव (धन के स्वामी कुबेर और यश के स्वामी किरीटी) के मित्र मेरे पास आएं। वे मुझे यश और समृद्धि प्रदान करें। मैं लक्ष्मी की बड़ी बहन को नष्ट कर दूंगा, जो अशुभता और भूख, प्यास आदि जैसी बुराईयों का प्रतीक है। हे लक्ष्मी! मेरे धाम से सभी दुर्भाग्य और दरिद्रता को दूर भगाओ। मैं श्री का आह्वान करता हूं, जिनकी अनुभूति का मार्ग गंध है, जो मुख्य रूप से गायों में निवास करते हैं; जो किसी से हार या खतरे से मुक्त हैं; जो सत्य जैसे सद्गुणों से सदैव स्वस्थ हैं; जिनकी कृपा गायों के गोबर में प्रचुर मात्रा में दिखाई देती है; और जो सभी सृजित प्राणियों में सर्वोच्च हैं। हे लक्ष्मी! हम अपनी इच्छाओं और इच्छाओं की पूर्ति, अपनी वाणी की सत्यता, पशुओं का धन, खाने के लिए विभिन्न प्रकार के भोजन की प्रचुरता प्राप्त करें और उनका आनंद लें! समृद्धि और यश मुझमें निवास करें!

"लक्ष्मी! आपकी संतान कर्दम में है। हे कर्दम, आप मुझमें निवास करें। माता श्री को कमल की माला पहनाकर मेरे वंश में निवास करने दें। जल मैत्री उत्पन्न करें। हे श्री की संतान चिक्लिता! मेरे घर में निवास करें; और दिव्य माता श्री को मेरे वंश में निवास करने की व्यवस्था करें!

"हे अग्नि, मेरे लिए लक्ष्मी का आह्वान करें जो सोने की तरह चमकती है, सूर्य की तरह चमकदार है, जो शक्तिशाली सुगंधित है, जो आधिपत्य की छड़ी को चलाती है, जो सर्वोच्च शासन का रूप है, जो आभूषणों से चमकती है और धन की देवी है।  हे अग्नि, मेरे लिए देवी लक्ष्मी का आह्वान करो जो सोने की तरह चमकती हैं, चंद्रमा की तरह खिलती हैं, जो सुगंधित सुगंध के अभिषेक से ताजा हैं, जो पूजा के कार्य में दिव्य हाथियों द्वारा उठाए गए कमलों से सुशोभित हैं, जो पोषण की अधिष्ठात्री देवी हैं, जो पीले रंग की हैं, और जो कमल की माला पहनती हैं।
“हे अग्नि, मेरे लिए उस देवी लक्ष्मी का आह्वान करो, जो हमेशा अचूक हैं, जिनके आशीर्वाद से मैं बहुत सारा धन, मवेशी, नौकर, घोड़े और आदमी जीतूंगा। हम महान देवी के साथ संवाद करते हैं, और विष्णु की पत्नी का ध्यान करते हैं; वह लक्ष्मी हमें मार्गदर्शन करें। ओम - शांति, शांति, शांति।” - यह ऋग्वेद का प्रसिद्ध श्री सूक्त है।
 यह अनंत काल, पवित्रता, दिव्यता का प्रतिनिधित्व करता है। पुराणों के अनुसार कमल का फूल भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुआ था और भगवान ब्रह्मा की उत्पत्ति कमल के फूल से हुई मानी जाती है। कमल के फूल ब्रह्मा, लक्ष्मी और सरस्वती का आसन हैं। पुराणों में कहा गया है कि ब्रह्मांड और इस ब्रह्मांड की रचना कमल के फूल की तरह हुई है और यह ब्रह्मांड इस फूल की तरह है। कमल के फूल को अच्छी जीवनशैली का प्रतीक माना जाता है। कमल का फूल पानी से उत्पन्न होता है और कीचड़ में खिलता है, लेकिन यह दोनों से अलग रहकर पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इसका मतलब है कि बुराई के बीच रहते हुए भी व्यक्ति अपनी मौलिकता और पवित्रता बनाए रखता है।

यह एक प्रार्थना ही देवी लक्ष्मी के स्वरूप और विशेषताओं को समझाने के लिए पर्याप्त है। इसमें अग्नि देव से देवी लक्ष्मी को आमंत्रित करने की प्रार्थना की गई है  वैसे तो आयुर्वेद के अनुसार इस वृक्ष का हर तत्व औषधीय गुणों से भरपूर है। मनुष्य को ऐसे स्वास्थ्यवर्धक वृक्ष और फल देने के पीछे देवी लक्ष्मी की यही इच्छा है कि सभी मनुष्य स्वस्थ रहें। जब मनुष्य स्वस्थ रहेंगे तो वे खूब धन कमा सकेंगे। 
      वेद और पुराण भी हमें बताते हैं कि देवी लक्ष्मी क्षीर सागर में निवास करती हैं जहां भगवान विष्णु भी उनके साथ रहते हैं। यूं भी देवी लक्ष्मी समुद्र मंथन से प्रकट हुई थीं। सृष्टि के आधारभूत पंचतत्वों में एकमात्र जल है, जिसे जीवन की संज्ञा दी गई है। जल है तो जीवन है। जल से ही जीवन की उत्पत्ति, पोषण और रक्षण होता है। इस अर्थ में लक्ष्मी जीवन की देवी हैं जो जगत का पोषण और रक्षण करती हैं। लक्ष्मी द्वारा विष्णु का वरण करने का कारण भी यही है। दोनों जगत के पालक दम्पति हैं और दोनों की सागर से संगति है। देवी सागर उद्भवा हैं तो विष्णु नारायण होकर क्षीरसागर रूपी नीर के निवासी हैं। इस प्रकार दोनों जल रूपी जीवन से जुड़कर प्राणी मात्र को जीवन-ज्योति से जगमग करते हैं। क्षीर सागर सभी महासागरों का प्रतिनिधि है, इसका अर्थ है दूध का सागर (क्षीर- दूध और सागर- महासागर)। वेदों में दूध को तरल पदार्थ का सबसे शुद्ध रूप माना जाता है, क्योंकि यह गाय से आता है, जिसे फिर से सबसे बड़ा धन माना जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इसमें सभी हिंदू देवता निवास करते हैं। 

इसलिए अगर हमें देवी लक्ष्मी को प्रसन्न रखना है तो हमें अपने जल स्रोतों जैसे समुद्र, तालाब, नदियाँ आदि को साफ और सुरक्षित रखना होगा। अगर हमें देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करनी है तो हमें पेड़-पौधों, पक्षियों और जानवरों को बचाना होगा। यानी पर्यावरण को संतुलित और सुरक्षित रखने पर ही देवी लक्ष्मी प्रसन्न होंगी।  तो, इस दिवाली, आइए हम पर्यावरण की रक्षा के रूप में देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने की शपथ लें। यह न भूलें कि स्वस्थ पर्यावरण ही समृद्धि का वास्तविक स्रोत होता है।
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Wednesday, October 30, 2024

चर्चा प्लस | आधुनिकता केसाथ परंपराओं को भी सहेजती है बुंदेली दीवाली | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
आधुनिकता केसाथ परंपराओं को भी सहेजती है बुंदेली दीवाली
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली से जुड़ी कई परंपराओं को आज भी सहेजे हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये परंपराएं अत्यंत रोचक हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।

       त्योहार पारंपरिक अनुष्ठान होते हैं इसलिए जब वे परंपराओं का पालन करते हुए मनाए जाते हैं तो उनकी बात ही कुछ और होती है। परंपरागत तरीके से मनाए जाने वाले त्योहर में उमंग, उत्साह और उल्लास रहता है, कृत्रिमता या बनावटीपन नहीं। जैसे चाहे जितने इलेक्ट्राॅनिक दिए जला लें या बिजली की ढेरों झालरें सजा लेकिन दिवाली तब तक दिवाली जैसी नहीं लगती है जब तक मिट्टी के दिए न जला लें।  

   भारत का सबसे जगमगाता त्योहार है दीपावली। इस एक त्योहार के मनाए जाने के कारणों की बात करें से इससे जुड़ी अनेक कथाएं सुनने को मिल जाती हैं। मान्यता अनुसार इसी दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था इसलिए दक्षिण भारत के लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन के ठीक एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था। इस खुशी के मौके पर दूसरे दिन दीप जलाए गए थे। कहते हैं कि दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली के काल से प्रारंभ हुआ था। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बली की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। यह भी माना जाता हैं कि दीपावली यक्ष नाम की जाति के लोगों का ही उत्सव था। उनके साथ गंधर्व भी यह उत्सव मनाते थे। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे। सभ्यता के विकास के साथ यह त्योहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है।
दीपावली दीपों का त्योहार है। यह ‘‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’’ को दर्शाता है। दीपावली का उत्सव 5 दिनों तक चलता है। पहले दिन को धनतेरस कहते हैं। दीपावली महोत्सव की शुरुआत धनतेरस से होती है। इसे धन त्रयोदशी भी कहते हैं। धनतेरस के दिन मृत्यु के देवता यमराज, धन के देवता कुबेर और आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि की पूजा का महत्व है। इसी दिन समुद्र मंथन में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे और उनके साथ आभूषण व बहुमूल्य रत्न भी समुद्र मंथन से प्राप्त हुए थे। दूसरे दिन को नरक चतुर्दशी, रूप चैदस और काली चैदस कहते हैं। इसी दिन नरकासुर का वध कर भगवान श्रीकृष्ण ने 16,100 कन्याओं को नरकासुर के बंदीगृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष्य में दीयों की बारात सजाई जाती है। तीसरे दिन दीपावली होती हैं। दीपावली का पर्व विशेष रूप से मां लक्ष्मी के पूजन का पर्व होता है। कार्तिक माह की अमावस्या को ही समुद्र मंथन से मां लक्ष्मी प्रकट हुई थीं जिन्हें धन, वैभव, ऐश्वर्य और सुख-समृद्धि की देवी माना जाता है। इसी दिन श्रीराम, सीता और  लक्ष्मण 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर घर लौटे थे। चौथे दिन अन्नकूट या गोवर्धन पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट उत्सव मनाना जाता है। इसे पड़वा या प्रतिपदा भी कहते हैं। पांचवां दिन इस दिन को भाई दूज और यम द्वितीया कहते हैं। भाई दूज, पांच दिवसीय दीपावली महापर्व का अंतिम दिन होता है। भाई दूज का पर्व भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने और भाई की लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है। 

    दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चैक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। एरसे त्यौहारों विशेषकर होली और दीपावली पर बनाये जाते हैं। ये मूसल से कूटे गए चावलों के आटे से बनते हैं। आटे में गुड़ मिला कर, माढ़ कर इन्हें पूड़ियों की तरह घी में पकाते हैं। घी के एरसे ही अधिक स्वादिष्ट होते है। इसी तरह अद्रैनी प्रायः त्यौहारों पर बनाई जाती है। आधा गेहूं का आटा एवं आधा बेसन मिलाकर बनाई गई पूड़ी अद्रैनी कहलाती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। इन सारी तैयारियों के साथ आगमन होता है बुंदेली-दिवाली का।

बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चैखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चैखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर जमीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती थी, आश्वस्त करती थी सुरक्षा को ले कर। 

       दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुरैती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुरैती (सुराती) बनाई जाती है। सुराती स्वस्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।

कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाजों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये रोचक परंपराएं हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़े रखती हैं और हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता को संजोए रखती हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले  चौक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
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