चर्चा प्लस
‘‘सेरोगेट’’ शिक्षकों का चलन और शिक्षा विभाग का पालना
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘सेरोगेसी’’ एक ऐसा पवित्र और जिम्मेदारी का काम है जिसमें एक निःसंतान दंपति को संतान सुख देने के लिए एक स्त्री अपनी कोख में उनके गर्भ को धारण करती है और शिशु को जन्म देते ही वह शिशु आधिकारिक माता-पिता को सौंप दिया जाता है। अपनी कोख को किराए में देने वाली मां ‘‘सेरोगेट मदर’’ कहलाती है। ऐसी मां चंद पैसों के लिए विवश होती है इसीलिए बच्चा जन कर भी मां नहीं बन पाती है। लेकिन क्या आपने कभी ‘‘सेरोगेट शिक्षक’’ के बारे में सुना है? नहीं न! क्योंकि यह नाम मैं दे रही हूं। मुझे यही नाम सूझा जब मैंने शिक्षा जगत के कारनामों के बारे में पढ़ा और सुना।
‘‘सेरोगेट मदर’’ बन कर एक स्त्री दूसरी स्त्री को अपनी कोख उधार देती है ताकि वह दूसरी स्त्री संतान का सुख प्राप्त कर सके। कुछ मामलों में दूसरी स्त्री के पति के साथ शारीरिक संबंध भी बनाना पड़ता है और कई बार कुशल चिकित्सक अण्डाणुओं और शुक्राणुओं को अलग निषेचित कर सेरोगेट स्त्री की कोख में स्थापित कर देते हैं ताकि एक स्त्री की कोख में गर्भ विकसित हो सके। जो स्त्री स्वेच्छा से सेरोगेट बनती दिखाई देती है, वस्तुतः उसके पीछे मौजूद होती है उसकी आर्थिक लाचारी जो उसे अपनी कोख किराए पर देने को विवश करती है। अन्यथा कौन मां होगी जो नौ महीने अपनी कोख में गर्भ धारण करके, उसे अपने रक्त से सींच कर विकसित करने के बाद उसकी मां कहलाने का अधिकार छोड़ दे। दूसरा पक्ष उसकी लाचारी का लाभ उठाते हुए उसे अपने लिए मातृत्व धारण करने के लिए राजी कर लेता है। सेरोगेट मदर ‘स्वेच्छा’ शब्द पर हस्ताक्षर करती है जबकि इस हस्ताक्षर के पीछे उसके परिवार के पेट भरने की जरूरतें जुड़ी होती हैं। इस मुद्दे को मैं यहां इस लिए बता रही हूं क्यों कि विगत दिनों सागर जिले में ही कई स्कूलों में वे चेहरे सामने आए जिनके कारनामें सेरोगेसी से कम नहीं थे।
राष्ट्रीय स्तर के कुछ समाचारपत्रों में बाकायदा नाम और छायाचित्र सहित उन शिक्षक-शिक्षिकाओं के के बारे में पूरी रिपोर्ट प्रकाशित की गई जो नियमित शिक्षकों के बदले कुछ हजार रुपयों में उनके स्थान पर पढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। वह रिपोर्ट पढ़ कर विश्वास करना कठिन था क्योंकि यह कोई निजी संस्था का मामला नहीं था अपितु सरकारी स्कूलों का मामला था जो ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। एक शिक्षिका सागर शहर में निवास करती है और वह अपने पदस्थ स्कूल में जाने की ज़हमत उठाने के बजाए अपने बदले किराए के शिक्षक को भेजती है। प्राचार्य भी ऐसे कि शिक्षिका द्वारा की गई व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हैं। प्राचार्य से ऊपर बैठे अधिकारी इस दुरावस्था पर कितना ध्यान देते हैं, यह तो इसी बात से पता चलता है कि कई स्कूलों में दो-दो, तीन-तीन साल से ‘‘सेरोगेट शिक्षक’’ शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे सेरोगेट शिक्षकों की मजबूरी है कि योग्य होते हुए भी उन्हें नौकरी नहीं मिली है और वे चालीस-पचास हजार मासिक वेतन पाने वाले शिक्षिकों के स्थानापन्न बन कर चार-पांच हजार रुपए में शिक्षण कार्य कर रहे हैं। जाहिर है कि ये वे शिक्षक नहीं हैं जिनका नाम सरकारी रिकाॅर्ड में है। ये वे शिक्षक हैं जो कोई काम न मिलने पर अपनी मेहनत की कोख में शिक्षकीय भ्रूण पालने और विकसित करने के लिए विवश हैं। जो शिक्षक अपने बदले गैरशिक्षकों को शिक्षक बना कर काम करवा रहे हैं उनको पालने का काम शिक्षा विभाग बखूबी कर रहा है। अन्यथा यह गोरखधंधा कई-कई वर्ष तक कैसे चलता?
पहले यही सुनने में, देखने में आता था कि ग्रामीण अंचल के सरकारी स्कूलों में कई शिक्षक अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाते हैं। वे कई दिन तक स्कूल नहीं जाते हैं। यदि स्कूल जाते हैं तो वहां वे बच्चों से निजी काम कराते हैं। एक ओर सरकार स्कूली शिक्षा को ले कर संवेदनशील है तो दूसरी ओर ग्रामीण स्कूलों में इस प्रकार की असंवेदनशीलता के उदाहरण सामने आ रहे हैं। अपने बदले शिक्षक रखने वाले शिक्षकों के पास बहाने हैं। कोई बीमारी का बहाना बताता है तो कोई पारिवारिक जिम्मेदारियों का। एक शिक्षिका ने कहा कि वे एक दिन छोड़ कर स्कूल पहुंचती हैं। क्या शिक्षाविभाग इसकी अनुमति देता है कि कोई भी शिक्षक अपनी मर्जी से एक दिन छोड़ कर स्कूल जाए? यदि ऐसा है तो फिर यह स्वतंत्रता सबको मिलनी चाहिए। संभागीय मुख्यालय में स्थित स्कूलों के शिक्षकों को भी यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे जब मन करें तब स्कूल जाएं और जब मन न करें या जितने दिन मन न करे अपने बदले औने-पौने किराए पर किसी भी युवा को शिक्षण कार्य के लिए भेज दें।
हम अभी व्यापम घोटाला भूले नहीं हैं। उस घोटाले की जड़ भी यही थी कि कुछ शक्तिसम्पन्न लोगों ने बेरोजगार युवाओं की विवशता से खेला। इसी तरह कुछ शक्ति सम्पन्न शिक्षक बेरोजगार युवाओं की लाचारी से खेल रहे हैं। यदि ये सेरोगेट शिक्षक शिक्षण कार्य करने में दक्ष हैं तो उन्हें कार्य न करने वालों के बदले नियमित अवसर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? खैर यह शिक्षा विभाग पर निर्भर है कि वह नियमित और सेरोगेट शिक्षकों के साथ क्या व्यवहार करता है।
बहरहाल, जब सेरोगेट शिक्षकों के बारे में समाचारपत्रों में सुर्खियां बनीं तो प्रशासन की नींद खुली। कलेक्टर ने बताया कि निलंबित शिक्षक खुद बच्चों को नहीं पढ़ाते थे बल्कि अपनी जगह किराए के टीचर्स को रखा था। कलेक्टर को इसे लेकर शिकायत मिली थी। जांच में आरोप सही मिले, जिसके बाद यह कार्रवाई की गई। एक्शन लेते हुए जिला कलेक्टर ने जिला शिक्षा अधिकारी, जिला परियोजना अधिकारी, विकासखंड शिक्षा अधिकारी और संकुल प्राचार्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया। इसके अलावा तीन जन शिक्षक और पांच शिक्षकों समेत कुल आठ शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया तथा पुलिस के पास प्राथमिकी भी दर्ज कराने की भी बात उठी। अब जो भी कार्यवाही की जाए वह शासन, प्रशासन और स्कूल अधिकारियों पर निर्भर है। बहरहाल, नाक के नीचे कई साल से चल रहे इस खेल की शिक्षाधिकारियों को भनक क्यों नहीं लगी, यह विचारणीय प्रश्न है। या फिर पूरा मामला संज्ञान में होते हुए भी मौन की चादर ओढ़ी गई? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर तभी मिल सकता है जब पूरे मामले की गहराई से पड़ताल की जाए।
इससे पहले यह मामला भी सामने आया था कि प्रदेश में बच्चे बड़ी संख्या में स्कूल छोड़ रहे हैं। कारण का पता लगाया गया तो सामने आया कि गंदगी, फर्नीचर की कमी और शिक्षकों की कमी इसके सबसे बड़े कारण थे। सुदूर ग्रामीण अंचलों में शिक्षकों की कमी का सीधा असर शिक्षण पर पड़ता है। जब स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं होंगे तो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे ही क्यों? उस दौरान आंकड़ों से पता चला था कि प्रदेश में शिक्षकों के लगभग 70000 पद खाली थे, 1200 स्कूलों में शिक्षक ही नहीं थे और 6000 स्कूल में एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे थे। इस ओर न तो शिक्षा विभाग का ध्यान गया और न प्रशासन का। इसी तरह स्कूल प्रशासन की लापरवाही के चलते एक अजीबोगरीब मामला भी घटित हुआ। सागर जिले के ही गिरवर ग्राम में एक सरकारी स्कूल के मैदान में कुछ लोग मृतक को दफनाने के लिए कब्र खोदते मिले। कुछ स्थानीय लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोका। मामला बढ़ा तो पता चला कि कुछ माह पहले वहां एक और कब्र खोद कर कफन दफन किया गया था। उसके बाद वहां बाकायदा कब्र का पत्थर भी लगाया गया था। क्या तब स्कूल प्रशासन को इस बात की ख़बर नहीं लगी? या फिर ख़बर होते हुए भी वह ख़ामोश रहा। स्कूल प्रशासन की इस तरह की ख़ामोशियां अनियमितताओं एवं अपराधों को पालने का काम कर रही है। यदि किसी भी अनियमितता की सूचना मिलते ही स्थानीय स्कूल प्रशासन अपने उच्चाधिकारियों को सूचित करे तथा उच्चाधिकारी मामले को जिला या संभाग प्रशासन के संज्ञान में लाएं तो कोई भी अपराध अपने पांव नहीं फैला सकता है। ‘‘सेरोगेट टीचर्स’’ के बारे में भी यह बात दावे से कही जा सकती है कि यदि ऐसे शिक्षकों को पहले ही चेतावनी दी जाती जो अपने बदले किराए के शिक्षक भेज रहे थे, तो यह अपराध आगे नहीं बढ़ पाता। बेरोजगारों को जब ऐसे किसी अवसर का पता चलता है तो वे डरते, झिझकते हुए भी अपनी मजबूरी के कारण ऐसे अपराध में लिप्त हो जाते हैं। एक मजबूर का फायदा उठाने वालों की कमी नहीं रहती है। लेकिन यह नौबत आए ही क्यों यदि कार्यप्रणाली में पारदर्शिता हो। स्कूल प्रशासन एवं शिक्षा विभाग के इस ताजा मामले को तो देखते हुए यही सोचा जा सकता है कि कहीं खाने के दांत और, दिखाने के दांत और तो नहीं हैं?
अब देखना यह है कि इस किराए के शिक्षकों यानी ‘‘सेरोगेट टीचर्स’’ के मामले की सारी पर्तें खुलेंगी या अभी किसी और बड़े घोटाले की प्रतीक्षा की जाएगी।
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