आज 22.04.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी ग़ज़लों का पठनीय संग्रह
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - हवा में आग
कवि - अमन मुसाफ़िर
प्रकाशक - नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्य सोसायटी, प्लाट-91आई.पी. एक्सटेंशन, दिल्ली-92
मूल्य - 200/-
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ग़ज़ल काव्य की एक ऐसी विधा है जो कहन में जितनी कठिन है, आकर्षण में उतनी ही अधिक लोकप्रिय है। ग़ज़ल के लिए कहा जाता है कि यह ‘कही जाती है’, लिखी नहीं जाती। अर्थात् ग़ज़ल संवेदनाओं से जन्म ले कर मानस में अवस्थित हो कर शब्दों में ढलती है और वाक्-ध्वनि के रूप में अथवा गान में ढल कर तुरंत अभिव्यक्त हो जाती है। यूं भी चाहे गद्य हो या पद्य, किसी भी विधा को साधना समय, श्रम और समर्पण की मांग करता है। निरंतर श्रम से ही विधा की प्रस्तुति में परिपक्वता आती है। युवा कवि अमन मुसाफिर के ग़ज़ल संग्रह ‘‘हवा में आग’’ की ग़ज़लें परिपक्वता की सीमा में दस्तक देती ग़ज़लों का संग्रह है।
20 जुलाई 1999 को बहरोली, बरेली, उत्तरप्रदेश जन्मे अमन मुसाफिर किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्व विद्यालय से भौतिकी में बी.एससी (ऑनर्स), एम.ए. हिन्दी (इग्नू)य डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (अंग्रेजी-हिंदी) हैं तथा फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में भी सक्रिय रहते हैं। “हवा में आग” अमन मुसाफिर का यह पहला ग़ज़ल संग्रह है।
अमन मुसाफिर की ग़ज़लों में नूतन अनुभवजन्य एक ताज़गी है, जीवन के यथार्थ की बारीकियां हैं, बदलते युग के प्रतिमान एवं विसंगतियां हैं साथ ही रूमानियत की सुकोमल अभिव्यक्ति भी है। उन्होंने छोटी और बड़ी दोनों बहर की ग़ज़लें लिखी हैं। उनकी छोटी बहर की ग़ज़लों में शिल्प की कसावट के साथ शब्दों की सटीकता भी है। युवा ग़ज़लकार अमन मुसाफिर के इस प्रथम ग़ज़ल संग्रह में कुल 104 ग़ज़लें हैं। अमन की ये ग़ज़लें प्रेम को आधार बनाती हुईं बहुआयामी हो उठती हैं। इन ग़ज़लों में समकालीन यथार्थ को गहराई से आत्मसात कर उसके आशय को शाब्दिक कैनवास पर खूबसूरती से चित्रित किया है। जैसे यह बानगी देखिए-
जाने किसने आग लगायी पानी में
हमने पूरी रात बितायी पानी में
सबने अपने सपने देखे और हमें
इक चेहरा बस दिया दिखाई पानी में
डूब समंदर के अंदर मुझ प्यासे ने
पानी की तस्वीर बनायी पानी में
अपने इर्दगिर्द के परिवेश से उपजी चुनौतियां कलमकार को जहां एक ओर अव्यवस्थाओं के विरुद्ध उठ खड़े होने को प्रेरित करती हैं, तो वहीं दूसरी ओर प्रेम के वैविध्य पूर्ण उद्गार उनके सृजन को एक विशेष रोचकता प्रदान करते हैं। अमन ने अपने संग्रह के आरंभिक पृष्ठ में ही लिखा है-‘‘मैं वह किताब हूँ जीवन की जिसकी कोई भूमिका नहीं।’’ जीवन का पाठ पढ़ते हुए, अनुभवों से सीखते हुए और व्यष्टि से समष्टि को ओर उन्मुख होते हुए अमन मुसाफिर ग़ज़ल की दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं। वे इस तथ्य को महसूस कर रहे हैं कि वर्तमान समाज में किस तरह संवेदनहीनता अपने पांव पसारती जा रही है। इसी से वे द्रवित हो कर यह ग़ज़ल कहते हैं-
यहां हर आदमी सबसे यही कहता है होने दो
किसी के साथ गर जो हादसा होता है होने दो
यहाँ सब लोग सोये हैं अकेला मैं नहीं सोया
शहर सारा अगर बारूद पर सोता है होने दो
किसी के देखकर आँसू तुम्हें रोना न पड़ जाये
तुम्हें क्या वो किसी भी बात पर रोता है होने दो
अमन मुसाफिर उन सारे बिन्दुओं पर भी दृष्टिपात करते हैं जिनके कारण संवेदनाओं क्षरण हुआ है और व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो गया है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण रोज़मर्रा के जीवन में देखने को मिल जाता है कि किसी भी कार्यक्रम के दौरान कुछ लोग ऐसे होते हैं जो वक्ता या कवि को सुनने के बजाए अपने मोबाईल में ऐसे व्यस्त रहते हैं मानो उनके मोबाईल न देखने से शेयर मार्केट धराशयी हो जाएगा और आर्थिक तबाही छा जाएगी। दमसरों की बातों को न सुनने की इस आदत को अपनी एक ग़ज़ल में समेटते हुए अमन मुसाफिर ने बड़ा सुंदर कटाक्ष किया है-
घर में लोगों को बिठाना बंद कर दो
सबसे रिश्तों को निभाना बंद कर दो
या तो गंगा साफ कर दो इक तरफ से
या तो गंगा में नहाना बंद कर दो
सीरियस हो जाओ सुन लो बात मेरी
फोन को अब तुम चलाना बंद कर दो
संग्रह में पर्यावरण एवं स्त्री के अस्तित्व के प्रति चिन्ता प्रकट करती ग़ज़लें भी हैं। जंगलों को बेतहाशा काटे जाने की व्यथा के साथ ही अमन प्रकृति की महत्ता का भी स्मरण कराते हैं कि यदि अभी भी बचे हुए जंगलों को यथास्थित छोड़ दिया जाए तो वे कटे-लुटे जंगल कुछ ही सालों में स्वयं को व्यवस्थित करने की क्षमता रखते हैं।
गये कहाँ वह सारे जंगल
कल के प्यारे-प्यारे जंगल
छोड़ धरो दस बीस साल को
खुद को आप निखारे जंगल
गहन चोटियों-चट्टानों उन
झरनों के वे धारे जंगल
जहां तक स्त्री के अस्तित्व का प्रश्न है तो मां के गर्भ में आते ही कन्या भ्रूण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाया करता था। वह तो लिंग जांच पर कड़ी पाबंदी लगा दिए जाने से स्थिति सुधरी, अन्यथा पुरुष और स्त्री की संख्या का आनुपातिक अंतर तेजी से बढ़ता जा रहा था। बावज़ूद इसके दुभाग्य है कि कन्या के जन्म के पहले से ही उसकी नियति समाज और परिवार द्वारा प्रायः निर्धारित कर दी जाती है। इस बात को गहन मार्मिकता के साथ अमन मुसाफिर ने कहा है-
घर का काम करेगी रेखा
सबका पेट भरेगी रेखा
जो भी उसका दुख समझेगा
उसकी बात सुनेगी रेखा
उसकी कोख की जाँच हुई है
जिंदा नहीं बचेगी रेखा
अमन मुसाफिर के प्रेम की ग़ज़लों की खूबसूरती प्रशंसनीय है। देखा जाए तो संग्रह की अधिकांश ग़ज़लों का मूल स्वर प्रेम ही है जो कोमल भावनाओं का सूक्ष्मता से प्रतिपादन करता है। चाहे संयोग श्रृंगार की बात हो या वियोग का संदर्भ दोनों में समान रूप से बेहतरीन ग़ज़ल कही है। उदाहरणार्थ संयोग श्रृंगार की एक बानगी जिसमें गरिमा भी है और लालित्य भी-
छुअन को फिर छिपाकर अनछुए हो लोगे, क्या होगा?
विकल हो वासना को प्यार से तोलोगे, क्या होगा?
किसी की याद में खोकर, किसी के सिर से जो
घूँघट, कड़े, कंगन, खनकती पायलें, खोलोगे, क्या होगा?
वहीं, वियोग की स्थिति को कुछ इस नास्टैल्जिक अंदाज़ में बयान किया है-
मिटाता ही रहा खुद को रुलाता ही रहा खुद को
जलाकर ख़त मुहब्बत के बुझाता ही रहा खुद को
चलाकर फोन में शब भर कहीं जगजीत की गजलें
लगाकर कश मैं सिगरेट के जलाता ही रहा खुद को
हुआ जो कत्ल ख़्वाबों का बहा आँसू का जो दरिया
तो फिर नमकीन पानी में डुबाता ही रहा खुद को
यूं तो अमन में ग़ज़ल कहने की कला है फिर भी कहीं-कहीं वे अपने ही शब्दों और भावनाओं में उलझ गए हैं। जैसे एक उदाहरण यहां रखा जा सकता है कि नवीन प्रयोग के उत्साह में पड़ कर ‘रैदास’ के साथ ‘राग’ के औचित्य का तारतम्य नहीं बिठा पाए हैं। इस अतिउत्साह से उन्हें बचना होगा-
ईंधन जुटा लिया गया है आग के लिए
घर में नमक बचा नहीं है साग के लिए
मीरा के पास कृष्ण तो आयेंगे ही जरूर
रैदास को बुलाओ किसी राग के लिए
वैसे इसमें कोई दो मत नहीं कि संग्रह की अमूमन ग़ज़लें बेहतरीन हैं और पूरा संग्रह पठनीय है। यदि वे अपनी ग़ज़लों के साथ इसी तरह गंभीरता से चलते रहे तो अमन मुसाफिर की यह रचनात्मक यात्रा उन्हें परिपक्वता और सफलता के मार्ग पर बहुत दूर तक ले जाएगी।
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