Wednesday, November 20, 2024

चर्चा प्लस | ‘‘सेरोगेट’’ शिक्षकों का चलन और शिक्षा विभाग का पालना | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
‘‘सेरोगेट’’ शिक्षकों का चलन और शिक्षा विभाग का पालना
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘सेरोगेसी’’ एक ऐसा पवित्र और जिम्मेदारी का काम है जिसमें एक निःसंतान दंपति  को संतान सुख देने के लिए एक स्त्री अपनी कोख में उनके गर्भ को धारण करती है और शिशु को जन्म देते ही वह शिशु आधिकारिक माता-पिता को सौंप दिया जाता है। अपनी कोख को किराए में देने वाली मां ‘‘सेरोगेट मदर’’ कहलाती है। ऐसी मां चंद पैसों के लिए विवश होती है इसीलिए बच्चा जन कर भी मां नहीं बन पाती है। लेकिन क्या आपने कभी ‘‘सेरोगेट शिक्षक’’ के बारे में सुना है? नहीं न! क्योंकि यह नाम मैं दे रही हूं। मुझे यही नाम सूझा जब मैंने शिक्षा जगत के कारनामों के बारे में पढ़ा और सुना।  
‘‘सेरोगेट मदर’’ बन कर एक स्त्री दूसरी स्त्री को अपनी कोख उधार देती है ताकि वह दूसरी स्त्री संतान का सुख प्राप्त कर सके। कुछ मामलों में दूसरी स्त्री के पति के साथ शारीरिक संबंध भी बनाना पड़ता है और कई बार कुशल चिकित्सक अण्डाणुओं और शुक्राणुओं को अलग निषेचित कर सेरोगेट स्त्री की कोख में स्थापित कर देते हैं ताकि एक स्त्री की कोख में गर्भ विकसित हो सके। जो स्त्री स्वेच्छा से सेरोगेट बनती दिखाई देती है, वस्तुतः उसके पीछे मौजूद होती है उसकी आर्थिक लाचारी जो उसे अपनी कोख किराए पर देने को विवश करती है। अन्यथा कौन मां होगी जो नौ महीने अपनी कोख में गर्भ धारण करके, उसे अपने रक्त से सींच कर विकसित करने के बाद उसकी मां कहलाने का अधिकार छोड़ दे। दूसरा पक्ष उसकी लाचारी का लाभ उठाते हुए उसे अपने लिए मातृत्व धारण करने के लिए राजी कर लेता है। सेरोगेट मदर ‘स्वेच्छा’ शब्द पर हस्ताक्षर करती है जबकि इस हस्ताक्षर के पीछे उसके परिवार के पेट भरने की जरूरतें जुड़ी होती हैं। इस मुद्दे को मैं यहां इस लिए बता रही हूं क्यों कि विगत दिनों सागर जिले में ही कई स्कूलों में वे चेहरे सामने आए जिनके कारनामें सेरोगेसी से कम नहीं थे।

राष्ट्रीय स्तर के कुछ समाचारपत्रों में बाकायदा नाम और छायाचित्र सहित उन शिक्षक-शिक्षिकाओं के के बारे में पूरी रिपोर्ट प्रकाशित की गई जो नियमित शिक्षकों के बदले कुछ हजार रुपयों में उनके स्थान पर पढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। वह रिपोर्ट पढ़ कर विश्वास करना कठिन था क्योंकि यह कोई निजी संस्था का मामला नहीं था अपितु सरकारी स्कूलों का मामला था जो ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। एक शिक्षिका सागर शहर में निवास करती है और वह अपने पदस्थ स्कूल में जाने की ज़हमत उठाने के बजाए अपने बदले किराए के शिक्षक को भेजती है। प्राचार्य भी ऐसे कि शिक्षिका द्वारा की गई व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हैं। प्राचार्य से ऊपर बैठे अधिकारी इस दुरावस्था पर कितना ध्यान देते हैं, यह तो इसी बात से पता चलता है कि कई स्कूलों में दो-दो, तीन-तीन साल से ‘‘सेरोगेट शिक्षक’’ शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे सेरोगेट शिक्षकों की मजबूरी है कि योग्य होते हुए भी उन्हें नौकरी नहीं मिली है और वे चालीस-पचास हजार मासिक वेतन पाने वाले शिक्षिकों के स्थानापन्न बन कर चार-पांच हजार रुपए में शिक्षण कार्य कर रहे हैं। जाहिर है कि ये वे शिक्षक नहीं हैं जिनका नाम सरकारी रिकाॅर्ड में है। ये वे शिक्षक हैं जो कोई काम न मिलने पर अपनी मेहनत की कोख में शिक्षकीय भ्रूण पालने और विकसित करने के लिए विवश हैं।  जो शिक्षक अपने बदले गैरशिक्षकों को शिक्षक बना कर काम करवा रहे हैं उनको पालने का काम शिक्षा विभाग बखूबी कर रहा है। अन्यथा यह गोरखधंधा कई-कई वर्ष तक कैसे चलता?

पहले यही सुनने में, देखने में आता था कि ग्रामीण अंचल के सरकारी स्कूलों में कई शिक्षक अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाते हैं। वे कई दिन तक स्कूल नहीं जाते हैं। यदि स्कूल जाते हैं तो वहां वे बच्चों से निजी काम कराते हैं। एक ओर सरकार स्कूली शिक्षा को ले कर संवेदनशील है तो दूसरी ओर ग्रामीण स्कूलों में इस प्रकार की असंवेदनशीलता के उदाहरण सामने आ रहे हैं। अपने बदले शिक्षक रखने वाले शिक्षकों के पास बहाने हैं। कोई बीमारी का बहाना बताता है तो कोई पारिवारिक जिम्मेदारियों का। एक शिक्षिका ने कहा कि वे एक दिन छोड़ कर स्कूल पहुंचती हैं। क्या शिक्षाविभाग इसकी अनुमति देता है कि कोई भी शिक्षक अपनी मर्जी से एक दिन छोड़ कर स्कूल जाए? यदि ऐसा है तो फिर यह स्वतंत्रता सबको मिलनी चाहिए। संभागीय मुख्यालय में स्थित स्कूलों के शिक्षकों को भी यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे जब मन करें तब स्कूल जाएं और जब मन न करें या जितने दिन मन न करे अपने बदले औने-पौने किराए पर किसी भी युवा को शिक्षण कार्य के लिए भेज दें।  

हम अभी व्यापम घोटाला भूले नहीं हैं। उस घोटाले की जड़ भी यही थी कि कुछ शक्तिसम्पन्न लोगों ने बेरोजगार युवाओं की विवशता से खेला। इसी तरह कुछ शक्ति सम्पन्न शिक्षक बेरोजगार युवाओं की लाचारी से खेल रहे हैं। यदि ये सेरोगेट शिक्षक शिक्षण कार्य करने में दक्ष हैं तो उन्हें कार्य न करने वालों के बदले नियमित अवसर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? खैर यह शिक्षा विभाग पर निर्भर है कि वह नियमित और सेरोगेट शिक्षकों के साथ क्या व्यवहार करता है।

 बहरहाल, जब सेरोगेट शिक्षकों के बारे में समाचारपत्रों में सुर्खियां बनीं तो प्रशासन की नींद खुली। कलेक्टर ने बताया कि निलंबित शिक्षक खुद बच्चों को नहीं पढ़ाते थे बल्कि अपनी जगह किराए के टीचर्स को रखा था। कलेक्टर को इसे लेकर शिकायत मिली थी। जांच में आरोप सही मिले, जिसके बाद यह कार्रवाई की गई। एक्शन लेते हुए जिला कलेक्टर ने जिला शिक्षा अधिकारी, जिला परियोजना अधिकारी, विकासखंड शिक्षा अधिकारी और संकुल प्राचार्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया। इसके अलावा तीन जन शिक्षक और पांच शिक्षकों समेत कुल आठ शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया तथा पुलिस के पास प्राथमिकी भी दर्ज कराने की भी बात उठी। अब जो भी कार्यवाही की जाए वह शासन, प्रशासन और स्कूल अधिकारियों पर निर्भर है। बहरहाल, नाक के नीचे कई साल से चल रहे इस खेल की शिक्षाधिकारियों को भनक क्यों नहीं लगी, यह विचारणीय प्रश्न है। या फिर पूरा मामला संज्ञान में होते हुए भी मौन की चादर ओढ़ी गई? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर तभी मिल सकता है जब पूरे मामले की गहराई से पड़ताल की जाए।  

इससे पहले यह मामला भी सामने आया था कि प्रदेश में बच्चे बड़ी संख्या में स्कूल छोड़ रहे हैं। कारण का पता लगाया गया तो सामने आया कि गंदगी, फर्नीचर की कमी और शिक्षकों की कमी इसके सबसे बड़े कारण थे। सुदूर ग्रामीण अंचलों में शिक्षकों की कमी का सीधा असर शिक्षण पर पड़ता है। जब स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं होंगे तो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे ही क्यों? उस दौरान आंकड़ों से पता चला था कि प्रदेश में शिक्षकों के लगभग 70000 पद खाली थे, 1200 स्कूलों में शिक्षक ही नहीं थे और 6000 स्कूल में एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे थे। इस ओर न तो शिक्षा विभाग का ध्यान गया और न प्रशासन का। इसी तरह स्कूल प्रशासन की लापरवाही के चलते एक अजीबोगरीब मामला भी घटित हुआ। सागर जिले के ही गिरवर ग्राम में एक सरकारी स्कूल के मैदान में कुछ लोग मृतक को दफनाने के लिए कब्र खोदते मिले। कुछ स्थानीय लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोका। मामला बढ़ा तो पता चला कि कुछ माह पहले वहां एक और कब्र खोद कर कफन दफन किया गया था। उसके बाद वहां बाकायदा कब्र का पत्थर भी लगाया गया था। क्या तब स्कूल प्रशासन को इस बात की ख़बर नहीं लगी? या फिर ख़बर होते हुए भी वह ख़ामोश रहा। स्कूल प्रशासन की इस तरह की ख़ामोशियां अनियमितताओं एवं अपराधों को पालने का काम कर रही है। यदि किसी भी अनियमितता की सूचना मिलते ही स्थानीय स्कूल प्रशासन अपने उच्चाधिकारियों को सूचित करे तथा उच्चाधिकारी मामले को जिला या संभाग प्रशासन के संज्ञान में लाएं तो कोई भी अपराध अपने पांव नहीं फैला सकता है। ‘‘सेरोगेट टीचर्स’’ के बारे में भी यह बात दावे से कही जा सकती है कि यदि ऐसे शिक्षकों को पहले ही चेतावनी दी जाती जो अपने बदले किराए के शिक्षक भेज रहे थे, तो यह अपराध आगे नहीं बढ़ पाता। बेरोजगारों को जब ऐसे किसी अवसर का पता चलता है तो वे डरते, झिझकते हुए भी अपनी मजबूरी के कारण ऐसे अपराध में लिप्त हो जाते हैं। एक मजबूर का फायदा उठाने वालों की कमी नहीं रहती है। लेकिन यह नौबत आए ही क्यों यदि कार्यप्रणाली में पारदर्शिता हो। स्कूल प्रशासन एवं शिक्षा विभाग के इस ताजा मामले को तो देखते हुए यही सोचा जा सकता है कि कहीं खाने के दांत और, दिखाने के दांत और तो नहीं हैं?
अब देखना यह है कि इस किराए के शिक्षकों यानी ‘‘सेरोगेट टीचर्स’’ के मामले की सारी पर्तें खुलेंगी या अभी किसी और बड़े घोटाले की प्रतीक्षा की जाएगी।
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Tuesday, November 19, 2024

पुस्तक समीक्षा | भजनों की भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 19.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्रीमती शशि दीक्षित (मृगांक)  जी के भजन संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा 
भजनों की भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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भजन संग्रह  - भावना
कवयित्री - श्रीमती शशि दीक्षित (मृगांक)
प्रकाशक  - जे.टी.एस. पब्लिकेशंस, वी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य        - 100/- 
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   दुख और सुख दोनों ही वे स्थितियां हैं जब मनुष्य ईश्वर का स्मरण करता है। दुख के समय ईश्वर से सहायता की पुकार करता है तो सुख के समय मांगलिक कार्यों में ईश्वर की उपस्थिति का आग्रह करता है- ‘‘निर्विघनं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा!’’ अर्थात् ईश्वर सभी कार्यों को बिना बाधा के पूर्ण करें। यदि बात साहित्य की हो तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक पूरा कालखण्ड ही भक्ति काल के नाम से जाना जाता है। अधिकांश विद्वान इसकी समयावधि 1375 वि.स.से 1700 वि.स. तक मानते हैं। इसे हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग भी कहा गया है। इस काल खण्ड को जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘‘स्वर्णकाल’’, श्यामसुन्दर दास ने ‘‘स्वर्णयुग’’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘‘भक्ति काल’’ एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘लोक जागरण’’ काल कहा। क्या विशेषता थी इस कालखण्ड की? सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि इस कालखण्ड में सर्वाधिक भक्ति रचनाएं लिखी गईं। इसी कालखण्ड में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएं समानांतर चलीं। निर्गुणमत के दो उपविभाग हुए - ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी। निर्गुण मत के प्रतिनिधि कवि कबीर और जायसी हुए। वहीं सगुणमत दो उपधाराओं में विकसित हुआ - रामभक्ति और कृष्णभक्ति। रारमभक्ति के कवियों में प्रथम नाम आता है तुलसीदास का तथा कृष्णभक्ति में प्रथम नाम सूरदास का लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सूफी, नाथ, सहज आदि अनेक संप्रदायों के अनुरूप भक्तिकाव्य का सृजन हुआ। यदि मोटेतौर पर देखा जाए तो वह मुगलों के शासन का काल था। पारंपरिक मूल्यों पर आक्रमणकारियों की कुचेष्टाएं प्रहार कर रही थीं। ऐसे वातावरण में ईश्वर का स्मरण ही आत्मबल दे सकता था। इसीलिए उस काल में सर्वाधिक भक्ति रचनाएं लिखी गईं। 

आज कोई सैन्य आक्रमणकारी नहीं है किन्तु वैश्विक होते वातावरण में सभ्यता, संस्कृति एवं विचारों के लिए संकट पैदा हो गया है। या तो भक्ति का आडंबर रूप है अथवा लोग भक्ति की परंपरा से विमुख हैं। ये दोनों ही स्थितियां पाश्चात्य के अंधानुकरण से उत्पन्न हुई हैं। ऐसे संक्रमणकाल में किसी भजन संग्रह का प्रकाशित होना बहुत मायने रखता है। मध्यप्रदेश के सागर शहर की साहित्य के लिए उर्वर भूमि में निवासरत शशि दीक्षित मृगांक का भजन संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है। मिर्जापुर (उ.प्र.) में जन्मीं शशि दीक्षित मृगांक डबल एम.ए., बी.एड, हैं तथा कुछ समय अध्यापन कार्य भी कर चुकी हैं। विवाह के बाद से सागर (म.प्र.) में निवासरत हैं। उन्होंने सुगम संगीत में डिप्लोमा किया है तथा भजन गायकी में रुचि रखती हैं। स्वाभाविक है कि उनकी इस अभिरुचि ने उन्हें भजन लिखने के लिए प्रेरित किया। ‘‘भावना’’ के नाम से प्रकाशित उनके भजन संग्रह में कुल 31 भजन हैं जिन्हें कवयित्री ने अलग-अलग अध्यायों में विभक्त किया है। यथा- गणपति वंदना, देवी गीत, राम भजन, कृष्ण भजन, शिव भजन तथा अन्य भजन।

संग्रह का पुरोवाक प्रो. डॉ सरोज गुप्ता ने लिखा है। उन्होंने शशि दीक्षित के भजनों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘‘इन भजन गीतों में हृदय से प्रवाहित सुख-दुख के स्वर नर्तन करते हुए जब झरते हैं तो हृदय वीणा स्पन्दित होने लगती है। भक्ति में तल्लीन लोग जिनके हृदय में भगवान पर अटूट विश्वास है। सरलता और भक्ति के स्वरों के भाव मन को मोह लेते हैं। इन भजनों में स्वाभाविकता, सरलता, स्वच्छंदता स्पष्ट दिखाई देती है।’’
इसी प्रकार सेवानिवृत व्याख्याता सुनीला चैरसिया ने भजनों एवं कवयित्री की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है कि ‘‘शब्दों में जब भाव आते हैं, तभी भजन लेखनी में उतरते हैं, इनके भजन सुर लयबद्ध और गेय हैं स्वयं भी बहुत अच्छी गायिका हैं, जिसका इनको बचपन से ही शौक रहा है। जैसे बीज से अंकुरण, पौधे से पुष्पन और पल्लवन, फूलों से महकन की प्रक्रिया होती है वैसे ही इनके अंतस में, गायन, लेखन वाकपटुता की आग है, जो अब दावानल बनने जा रही है। लेखनी के प्रति समर्पण संगीत के प्रति राग आध्यात्म में रुचि इनकी विशेषता है। विदुषी कवयित्री से मेरा परिचय पिछले 20 वर्षों से रहा है, इनकी लेखनी सशक्त, मौलिक और नई चेतना के प्रति दिनों दिन प्रगति की ओर उन्मुख है। इनका भजन संग्रह दिव्य है, उसमें आध्यात्मिक महक है और रागिनी से संबंध है और भावों से कूट-कूट कर भरी है।’’

निःसंदेह, किसी भी भजन की पहली शर्त होती है उसकी गेयता। यह गेयता तभी सहज हो पाती है जब उसमें सरल और आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया हो। भजन प्रायः गुनगुनाते हुए स्वरों के साथ स्वतः आकार लेते हैं। शशि दीक्षित मृगांक के भजन भी स्वतः जन्मे हैं जैसा कि उन भजनों की प्रकृति से पहचाना जा सकता है। सप्रयास गढ़े गए काव्य में वह मौलिकता एवं लालित्य नहीं रहता है जो स्वतः निर्मित काव्य में होता है। शशि दीक्षित मृगांक के भजनों में सरलता एवं स्वाभाविकता है। उन्होंने गोया ईश्वर से संवाद के रूप में भजन लिखे हैं। जैसीकि परंपरा है कि नूतनकार्यों का आरंभ श्रीगणेश के स्मरण तथा आह्वान से होती है, उसी प्रकार संग्रह के भजनों का प्रथम अध्याय श्रीगणेश की वंदना से आरम्भ हुआ है। बानगी देखिए जिसमें ‘‘हे! प्रथम पूज्य’’ शीर्षक से कवयित्री ने प्रथम पूज्य श्रीगणेश की वंदना की है-
हे! प्रथम पूज्य गणपति देवा 
हो विनती अब स्वीकार मेरी 
मैं जनम जनम से प्यासी हूँ 
प्रभु दर्शन देकर तार मुझे
हे! एकदंत गज बदन प्रभु 
तुम सब देवों में श्रेष्ठ हुए 
कोई काज तेरे बिन होता नहीं 
हम प्रथम नमन तुम्हें करते हैं
हे! रिद्धि सिद्धि के स्वामी 
शुभ लाभ का दो वरदान मुझे।

     कवयित्री ने श्रीगणेश के प्रथमपूज्य रूप को ही नहीं वरन देवी पार्वती के पुत्र अर्थात ‘‘गौरा के लाल’’ के रूप में भी स्मरण किया है। वे लिखती हैं-
हे! गौरा के लाल गजानन 
तेरी शरण में आया हूँ 
विघ्न हरण मंगल मूर्ति प्रभु 
मन की मुरादें लाया हूँ....
बिगड़े काज संवारो मेरे हे! 
शंकर सुत हृदयेश्वर
दूर करो सब बाधाएं प्रभु 
राह दिखा दो लंबोदर......

   संग्रह के दूसरे अध्याय में देवी गीत हैं। इन भजनों में कवयित्री शशि दीक्षित ने ‘‘शैलपुत्री’’, ‘‘भवानी’’, ब्रह्मचारिणी’’ आदि विविध नामों से देवी का स्मरण करते हुए विनती के रूप में भजन लिखे हैं। जैसे यह भजन देखिए-
मेरी विनती सुनो हे! भवानी हे! 
मैया जग कल्याणी 
तेरे चरणों का दास है ये सारा संसार 
तेरी माया किसी ने न जानी ....
तू ही शैलपुत्री मैया! तू ही ब्रह्मचारिणी ! 
देती धन्न-धान मैया कोटि फलदायिनी 
तेरी महिमा है जग से निराली 
हम भक्तों पे करो मेहरबानी
तेरे चरणों का दास ।

  कवयित्री ने देवी के एक स्वरूप राधा रानी का भी स्मरण किया है। राधा पर लिखे गए भजन में सुंदर गेयता है। ‘‘ओ! राधे रानी’’ भजन की शब्दावली देखिए-
ओ! राधे रानी 
हम पर कृपा कीजिए 
हमें भी अपने चरणों में रख लीजिए।
मोहन के मुरली की तान 
राधे-राधे
वृंदावन की गलियों में गूंज
राधे-राधे .......।

‘‘आ गए आ गए मेरे राम’’ भजन द्वारा श्रीराम की स्तुति मनभावन है-‘‘आ गए आ गए मेरे राम आ गए /आज खुशियां बहुत हैं नहीं कोई गम’’। वहीं, श्रीकृष्ण भक्ति में लिखे गए भजन में अपने रंग में रंग लेने का कृष्ण से आग्रह है- ‘‘कन्हैया अपने रंग में ही रंग ले मुझे’’।
‘‘शिव शंकर तेरा ही सहारा’’ में भगवान शिव को याद किया है तो अंतिम अध्याय के भजनों में जीवन की निस्सारिता एवं भजन की महत्ता को प्रतिपादित किया है।
जीवन के दिन चार हैं 
रीत रहा संसार है 
जप ले हरि का नाम, जप ले।
 जब आज लोग वैचारिक भ्रम की अवस्था में जीवन से जूझ रहे हैं, ऐसे समय में शशि दीक्षित मृगांक के भजन कड़ी धूप में शीतल छांह और कड़ाके की ठंड में अलाव की गर्माहट के समान सुखदायक हैं। इन भजनों में भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह है। जिन पाठकों को भजनों में रुचि है, उनके लिए इस संग्रह की उपादेयता सर्वाधिक है क्योंकि संग्रह के सभी भजन सहज स्मरण रह जाने योग्य एवं गेयता से भरपूर हैं। 
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Monday, November 18, 2024

"सांची कै रए सुनो, रामधई !" डॉ ( सुश्री) शरद सिंह के बुंदेली गजल संग्रह की समीक्षा पत्रिका समाचार पत्र में

🚩हार्दिक आभार आदरणीय भाई प्रवेन्द्र सिंह तोमर जी एवं प्रिय रेशू जैन जी #पत्रिका समाचारपत्र में मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा प्रकाशित करने हेतु 🌹🙏🌹
🚩हार्दिक आभार आदरणीया डॉ. बिन्दुमती त्रिपाठी जी मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह की इतनी सारगर्भित समीक्षा करने के लिए 🌹🙏🌹
      🌹आप दोनों द्वारा किया गया यह उत्साहवर्द्धन मेरे भावी लेखन के लिए पथ प्रदर्शक रहेगा 🚩 पुनः आभार 🙏😊🙏
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Sunday, November 17, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा "दैनिक भास्कर" में

🚩हार्दिक आभार आदरणीय राजेन्द्र दुबे जी  #दैनिकभास्कर में मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा प्रकाशित करने हेतु 🌹🙏🌹
🚩हार्दिक आभार आदरणीय Pro. Anand Prakash Tripathi जी मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह की इतनी सुंदर समीक्षा करने के लिए 🌹🙏🌹
      🌹 आप दोनों द्वारा किया गया यह उत्साहवर्द्धन मेरे भावी लेखन के लिए पथ प्रदर्शक रहेगा 🚩 पुनः आभार 🙏😊🙏
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Saturday, November 16, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | दुरुपयोग करबे की कोऊ इनसे सीखे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
दुरुपयोग करबे की कोऊ इनसे सीखे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        लोग बिजली विभाग खों कोसत रैंत आएं के कऊं मोहल्ला की लाईट गुल रई तो कऊं रोड पर की लाईटें हफ्ताखांड़ से बंद आएं। मनो जिते रोड लाईट जल रई हती उते का भऔ? उते जा भऔ के सड़क बत्ती के नैंचे भैया हरें जुआ खेल रये हते। पुलिस ने देखो तो उन ओरन खों पकर लओ। अब बिजली विभाग वारे चाएं सो कै सकत आएं के देख लेओ सड़क बत्ती को कैसो दुरुपयोग करो जा रओ, जेई से तो हम कंटीन्यू बिजली नई देत आएं। जेई टाईप से कारीडोर को दुरुपयोग होत रैत आए। चलो मान लओ बा पूरो को पूरो सेल्फी प्वाइंट औ रील प्वाइंट बन गओ आए। संझा होत साथ उते मोड़ा शूटिंग करन लगत आएं। चलो कोई नईं, इत्तो कर दओ अनदेखो। बाकी चकराघाट की तरफी को कारीडोर कार पार्किंग बन गओ आए। को देख रओ? कोऊ नईं। मनो सबसे बड़ो दुरुपयोग तो जे आए के कछू जनन ने ऊको सुसाइड प्वाइंट बना लओ। आपई कओ के जे बड़ो वारो दुरुपयोग भओ के नईं?
     अपने ई सहर में सयानों की कमी नोंई। कछू सयाने रोड को अपनई जागीर समझत आएं। रोड की तरफी पैले दो गमला धरे, फेर गमला को घेरत भये बल्लियां ठोंक के रस्सियां बांधी औ लेओ हो गओ अतिक्रमन सुरू। मनो रोडें चलबे के लाने नोईं घेरबे के लाने बनाई गई होंए। औ कटरा बजार होए चाए निगम मार्केट के इते, फुटपाथ सो दिखतई नईयां। उते तो ठिलियां औ दुकानेईं दिखात आएं। कछू जने तो इत्ते सयाने के ट्रांसफार्मर के खंबा से डोरी बांध के, ऊपे हुन्ना कपड़ा लटका के बेंचत रैत आएं। उने खुदई की जान की परवा नईं। जेई से हम कै रये के  दुरुपयोग करबे की कोऊ इनसे सीखे।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, November 15, 2024

शून्यकाल | जलवायु परिवर्तन तेज़ है लेकिन हम बहुत धीमे हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम शून्यकाल -                                                                                 जलवायु परिवर्तन तेज़ है लेकिन हम बहुत धीमे हैं  
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                     
      मौसम और जलवायु में बदलाव एक ऐसा विषय है जिस पर हम राजनीति, सिनेमा, फैशन और टीवी सीरियल जितना भी विचार नहीं करते। जबकि ये सभी चीजें जलवायु और मौसम जितनी बुनियादी नहीं हैं। हमारे जीवन का हर पल जलवायु और मौसम से प्रभावित होता है। अगर मौसम अनियमित है तो इसका सीधा असर कृषि उपज पर पड़ता है। हमारे घर का बजट कृषि उपज के दाम पर निर्भर करता है। गांवों से लोगों का पलायन भी इस बात पर निर्भर करता है कि अच्छी उपज है या नहीं। यहां तक ​​कि पीने का पानी भी मौसम पर निर्भर करता है। तो क्या हमें जलवायु परिवर्तन के कारणों को अपनी प्राथमिकता सूची में नहीं रखना चाहिए?
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दुनिया भर में पहले से ही महसूस किए जा रहे हैं - लगातार और गंभीर तूफान, बाढ़, सूखा और जंगल की आग से - हमारे शहरों, समुदायों, फसलों, पानी और वन्य जीवन को खतरा है। जलवायु परिवर्तन प्रकृति, प्रजातियों और लोगों के लिए एक बुनियादी खतरा है - लेकिन सामूहिक कार्रवाई करने में बहुत देर नहीं हुई है। दुर्भाग्य से जलवायु परिवर्तन तेज़ है लेकिन हम धीमे हैं। हम अब जलवायु परिवर्तन के खतरे को समझने लगे हैं, फिर भी इसे धीमा करने या रोकने के हमारे प्रयास बहुत धीमे हैं। जबकि जलवायु परिवर्तन किसी एक जाति, धर्म, समुदाय या देश के लिए नहीं बल्कि पूरी धरती के लिए खतरा है जिस पर न केवल मनुष्य बल्कि सभी जीवित प्राणी रहते हैं।

यह सही है कि मैं जलवायु परिवर्तन के खतरों से वाकिफ हूं। मैं लगातार इन खतरों और जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करने के प्रयासों के बारे में लेख लिखती हूं और अपने भाषणों के माध्यम से जागरूकता लाने की कोशिश करती हूं, लेकिन हाल ही में मैंने सकल प्रयासों की धीमी गति को गहराई से महसूस किया। जीवाश्म ईंधन के जलने और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका गया तो लाखों लोग भुखमरी, जल संकट और बाढ़ जैसी आपदाओं का शिकार हो जाएंगे। यह संकट पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा। हालांकि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर पड़ेगा। इसके साथ ही, वे देश इसका सबसे ज्यादा असर झेलेंगे जो जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। पिछड़े और विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का ज्यादा खतरा होगा। जलवायु परिवर्तन का असर आर्कटिक क्षेत्र, अफ्रीका और छोटे द्वीपों पर ज्यादा पड़ रहा है। उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक) दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में दोगुनी दर से गर्म हो रहा है। उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने कहा है कि भारतीय समुद्र सालाना 2.5 मिमी की दर से बढ़ रहा है।  एक अध्ययन से अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि भारतीय सीमा के निकट समुद्र स्तर बढ़ने का यह रुझान जारी रहा तो वर्ष 2050 तक समुद्र स्तर 15 से 36 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है।

मैं चाहती हूं कि हम अपनी अगली पीढ़ी को एक स्वस्थ और सुरक्षित पृथ्वी सौंपें, ताकि पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता बनी रहे। भारतीय संस्कृति "वसुधैव कुटुम्बकम" की विचारधारा पर आधारित है अर्थात पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है। मैं हमेशा अपने प्राचीन ग्रंथों से उन सांस्कृतिक मूल्यों को चुनकर याद दिलाने की कोशिश करती हूं जिनमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु संरक्षण का उल्लेख है। हमारी भारतीय संस्कृति दुनिया की अन्य सभ्यताओं की तुलना में प्रकृति के प्रति अधिक विचारशील रही है। आज भी भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से आगाह करने में दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। लेकिन "उत्सुक होने" और "तैयार होने" में फर्क है। दूसरे शब्दों में, हम सब कुछ सही करना चाहते हैं लेकिन सही तरीके से नहीं कर पाते। इसका एक उदाहरण मैं आपको अपने एक फैसले के रूप में देती हूं। यह फैसला लेते समय मुझे दुख हुआ लेकिन मैं मजबूर थी।

हुआ यूं कि मैंने स्कूटर खरीदने का फैसला किया। मैं इलेक्ट्रिक स्कूटर खरीदना चाहती था। इस तरह मैं जीवाश्म ईंधन की बर्बादी से बचा सकती थी और पर्यावरण को भी जीवाश्म ईंधन प्रदूषण से बचा सकती थी। जब मैंने इलेक्ट्रिक स्कूटी के बारे में पूछताछ शुरू की तो पता चला कि पेट्रोल से चलने वाली स्कूटी जहां एक लाख रुपये तक में मिल जाती है, वहीं इलेक्ट्रिक स्कूटी डेढ़ लाख रुपये से शुरू होती है। अगर किसी अच्छी कंपनी के इलेक्ट्रिक स्कूटर में इस्तेमाल की गई बैटरी को पांच साल बाद बदलना पड़े तो 25-30 हजार रुपये खर्च होंगे। अच्छी बात यह थी कि बिजली का खर्च पेट्रोल के खर्च से कम होने वाला था। लेकिन मेरे शहर में चार्जिंग स्टेशन नहीं हैं। अगर मैं घर पर स्कूटर चार्ज करना भूल गई और बीच रास्ते में चार्जिंग कम होने का सिग्नल मिला तो मैं कहां जाऊंगी और कैसे चार्ज करूंगी? क्या मुझे किसी के दरवाजे पर जाकर स्कूटर चार्ज करने के लिए कहना पड़ेगा? या फिर मुझे वहां से गाड़ी को दूसरे वाहन पर लादकर घर ले जाने का इंतजाम करना पड़ेगा। यह बहुत व्यावहारिक चिंता थी। ईवी विक्रेता इस बारे में बात करना कभी पसंद नहीं करते।  अगर आज भी हम उनसे इस बारे में बात करते हैं तो वो हंसते हुए कहते हैं कि ये छोटा शहर है, यहां दूरी ही कितनी है। ऐसी कोई दिक्कत कभी नहीं आएगी। अगर घर से निकलने से पहले गाड़ी को फुल चार्ज करके छोड़ा जाए तो बेशक ये दिक्कत नहीं आएगी। हर वक्त इतना अलर्ट नहीं रहा जा सकता है। यहां मैं किसी ईवी निर्माता, किसी ईवी एजेंसी या उसके सेल्सपर्सन को दोष नहीं देना चाहती। उनका कोई दोष नहीं है। वो भी ईवी के पक्ष में हैं ताकि प्रदूषण मुक्त गाड़ियां सड़कों पर दौड़ें। अगर कोई दोष है तो वो है हमारे सिस्टम की धीमी गति। जिस तेजी से ईवी गाड़ियां बाजार में उतारी गई हैं, उस तेजी से चार्जिंग स्टेशन नहीं बनाए गए हैं। मेरे शहर जैसे छोटे शहरों में चार्जिंग स्टेशन नहीं हैं। गांवों में चार्जिंग स्टेशन बनने में अभी काफी समय है।

मैंने व्यावहारिक रूप से सोचा और अपने लिए एक पेट्रोल से चलने वाला स्कूटर खरीदा। इसे खरीदते समय मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपने सिद्धांतों को तोड़ रही हूँ। जैसे मैं कोई अपराध कर रही हूँ। लेकिन मेरे पास कोई और विकल्प भी नहीं था। वाहन कोई भी हो, दिन हो या रात कभी भी उसकी जरूरत पड़ सकती है। जब कोई अकेली महिला या लड़की शाम के बाद किसी काम से घर से निकलती है और वह जल्दी में चेक नहीं कर पाई कि चार्जिंग कितनी है? फिर अगर रास्ते में उसका चार्ज चुक जाए तो वह क्या करेगी? अगर शहर में एक निश्चित दूरी पर चार्जिंग पॉइंट हों तो उसे कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन अगर चार्जिंग पॉइंट या चार्जिंग स्टेशन ही नहीं होंगे तो वह क्या करेगी? जब पेट्रोल वाहन में अचानक पेट्रोल खत्म हो जाता है, तो रास्ते से गुजरने वाला कोई वाहन चालक मानवता के नाते इतना पेट्रोल दे देता है कि मुसीबत में फंसा व्यक्ति पेट्रोल पंप तक पहुँच सकता है। लेकिन ईवी वाहन में रास्ते में कोई चाहकर भी मदद नहीं कर सकता।

इन सबका मतलब यह है कि जिस गति से जलवायु परिवर्तन हो रहा है और जिस उत्सुकता से हम जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करना चाहते हैं, उसके साथ हम अपने प्रयासों को जारी रखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। इसलिए, जलवायु परिवर्तन के जोखिमों को कम करने के लिए व्यावहारिक रूप से हमारे प्रयासों में तेजी लाने की आवश्यकता है। 
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Thursday, November 14, 2024

बतकाव बिन्ना की | स्कूल-काॅलेज के लिंगे गुटखा ने बिकहे, औे दारू...? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
स्कूल-काॅलेज के लिंगे गुटखा ने बिकहे, औे दारू...?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘जो बड़ो अच्छो करो के स्कूल- काॅलेज के लिंगे गुटखा घांई चीजें ने बिकहे।’’ भौजी खुस होत भईं बोलीं।
‘‘औ का, तनक-तनक से बच्चा गुटखा खाबे से होन वारे नुकसान तो जानत नइयां, बाकी बड़ों खो देख के उनको सोई गुटखा खाबे की लत लग जात आए। औ फेर होत जे आए के जेब खर्च के लाने दए गए पइसा से बे गुटखा खरीदन लगत आएं। अब स्कूल-कालेज के लिंगे गुटखा ने मिलहें सो बे ने खरीद पैहें।’’मैंने कई। मोए जा खबर भौतई नोनी लगी हती।
‘‘हऔ, उन ओरन खों देखो जो मजूरी करत आंए। उनको तो काम ई नईं चलत गुटखा खाए बिना। मनो बे गुटखा नोईं कोनऊं इनर्जी को चूरन फांक रए होंए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘जेई से तो सई करो के गुटखा स्कूल-कालेज के लिंगे ने बिकहे।’’ मैंने कई।
‘‘औ दारू के अहातन को का हुइए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘दारू के अहातन को? उनके लाने तो अबे कछू नई कहो गओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘जेई तो! गुटखा के लाने जा कदम उठाओ गओ, भली करी। मनो दारू के ठेका के लाने सोई कछू सोचो होतो। देखत नइयां के कऊं स्कूल के लिंगे, तो कऊं कालेज के लिंगे, तो कऊं मंदिर के लिंगे अहातो खुलो धरो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कई आपने! उते तो देखो के ऊके आंगू एक बैंक आए औ बाजू में खेल परिसर आए। का बा जांगा दारू के अहातो के लाने ठीक आए?’’ भौजी बोलीं।
‘‘अरे भौजी, जे कओ के उते के दारूखोर हरें ईमानदार आएं। जो बे अहातों की तरफी छोड़ औ कोनऊं तरफी नईं हेरत आएं।’’ मैंने हंस के कई।
मोरी बात सुन के भैयाजी औ भौजी सोई हंसन लगीं। 
‘‘ईमानदार दारूखोर!’’ भौजी को मोरी बात भौत पोसाई। बे दोहरात भईं हंसन लगीं।
‘‘औ का भौजी! बाकी मोय जे नईं पतो के उते बाजू में खेलबे खों जाबे वारे मोड़ा-मोड़ी कित्ते ईमानदार आएं? बे अहाते में ढूंकत आएं के नईं?’’ मैंने ऊंसई हंस के कई।
‘‘सई कई भूसा के ऐंगर लुघरिया धरी उते तो। अब भूसा उड़ के लुघरिया पे ने गिरे तो अच्छो! ने तो जै राम जी की!’’ भौजी बोलीं।
‘‘बिन्ना! मोय तो जे लगत आए के प्रसासन को जे सब नईं दिखात आए का?’’ भैयाजी बोले।
‘‘को जाने, बे ओरें धृतराष्ट्र घांईं अंधरा होंए? औ ने तो गांधारी घांई आंखन में पट्टी बांध रखी होए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! जो अपन सबई खों दिखात रैत आए, बस जे प्रसासन वारे काए नईं देख पात आएं?’’ मैंने सोई अचरज प्रकट करी।
‘‘अरे कछू नईं, दारू से अच्छो रेवेन्यू मिलत आए। जे ई से।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अपन ओरन पे टैक्स सो ऊंसई मुतके लगा रखे आएं, सो दारू को रेवेन्यू तनक छोड़ो नईं जा सकत का? चलो, नईं छोड़ो जा सकत, मान लओ! सो, का अहातो इत्ते दूर नईं करो जा सकत आए का के उते मोड़ा हरें ने पौंच सकें। औ ने उनसे कोऊ रैवासी डिस्टर्ब हो सके।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘डिस्टर्ब की ने कओ! एक दार की किसां हम तुमें सुना रए। जे कोनऊं पांचेक साल पैले की बात आए। का भओ रओ के हम ओरें कटरा से बजारे कर के लौट रए हते। जेई कोऊं रात के नौ बजे हुइएं। बा रास्ते में अहातो परत आए न, उते एक मानुस रोड के बाजू में डरो हतो। तुमाई भौजी ने देखो तो मोसे कैन लगीं के गाड़ी रोको। मैंने पूछी काए? तो कैन लगीं के उते कोनऊं घायल डरो। मैंने अपनी फटफटिया रोकी औ मुंडी घुमा के तनक गौर से देखो सो मोए हंसी आ गई। जै बिगर परीं के उते कोऊं मरो जा रओ औ तुमें हंसी आ रई? तब मैंने इने समझाओ के बा कोनऊं घायल नोईं, बा दारूखोर आए जो टुन्न हो के उते डरो। बा चलती-फिरती 302 आए। इन्ने सुनीं सो जे तुरतईं बोलीं के चलो इते से। काए के लाने ठाड़े हो? मने पैले जेई बोलीं के ठैरो और फेर खुदई ठेन करन लगीं के काए ठैरे हो? तुमाई भौजी बी गज़बई की आएं।’’ भैयाजी ने कई औ हंसन लगे।
‘‘सो, हमें का पतो रओ के बा टुन्न डरो, के कोनऊं घायल आएं?’’ भौजी सोई हंसत भई बोलीं। फेर खुदई तनक सीरियस होत भईं कैन लगीं के,‘‘अच्छो है बिन्ना के तुमाए भैयाजी खों जे लत नोंईं। तनक सोचो के जोन के घरे के लुगवा इत्तो पियत आएं उनके घरे का होत हुइए? उते घरवारी औ मोड़ा-मोड़ी बाट हेरत हुइएं औ जे इते पी-पा के सड़क पे लुढ़के डरे। औ कोऊ-कोऊ तो घरे पौंच के मार-पीट सोई करत आएं। कित्तो बुरौ लगत हुइए न उन ओरन को?’’
‘‘औ का भौजी! दारू-मारू कोनऊं अच्छी चीज थोड़े आए।’’ मैंने कई।
‘‘मनो जो हमें दारू की आदत होती तो तुम का कर लेतीं?’’ भैयाजी ने भौजी से पूछी। उने तनक ठिठोली सूझी।
‘‘हम आपके लाने अच्छो लट्ठ घुमा के देते। एकई दिनां में दारू-मारू सबई छूट जाती।’’ भौजी हाथ घुमा के एक्टिंग करत भई बोलीं।
उने देख के मोय तो हंसी फूट परी औ भैयाजी सोई हंसन लगे। 
‘‘जेई से तो हमने कभऊं दारू खों छियो नईं। हमें पतो रओ के तुम तो हमाए प्रानई ले लैहो।’’ कैत भए भैया डरबे की एक्टिंग करन लगे।
‘‘मनो, जे तो सई आए भैयाजी कि जोन टाईप से गुटखा के लाने कओ गओ आए के बा स्कूल-कालेज के लिंगे ने बिके, ऊसई दारू के लाने बी भओ चाइए के ऊको अहातो शहर से बाहरे होए। जोन खों लगे सो शहर के बाहरे जाए। सिटी में पी के ने डरो रए। अरे, लुगाइयां, मोड़ियां सबई निकरत आएं उते से। जे ठीक नोंई।’’ मैंने भैयाजी से कई।         
‘‘सई कई बिन्ना! मनो एक तो कोऊ विरोध नईं करत, औ जो कोनऊं बिरोध करे तो प्रसासन कांन में उंगरिया डार लेत आए। अपन ओरन के चिंचिंयाए से का हो रओ?’’ भैयाजी तनक निरास होत भए बोले।
‘‘अरे जी छोटो ने करो भैयाजी, हो सकत के कोनऊं दिनां ई तरफी सोई ध्यान दओ जाए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘हऔ, सई कई।’’ भौजी ने मोरी बात पे हामी भरी।
 बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के गुटखा के लाने जैसो नियम बनाओ ऊंसई कोऊ दिनां दारू के लाने सोई नियम बने। जै राम जी की! 
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