Wednesday, August 26, 2020

चर्चा प्लस | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम ट्रोलिंग ट्रेंड | डॉ शरद सिंह

चर्चा प्लस ...  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम ट्रोलिंग ट्रेंड              
- डॉ शरद सिंह
        अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट बनाम अदालत की अवमानना केस ने इन दिनों अभिव्यक्ति की आजादी को ले कर एक बहस छेड़ दी है। वहीं इंटरनेट पर ट्रोलिंग एक ऐसा ट्रेंड बन चुका है जिसका शिकार कई सेलिब्रेटी हो चुके है। हमारे लोकतंत्र ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है जो हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने वह प्लेटफॉर्म दिया जहां लोग अपने विचार रख सकते हैं लेकिन आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगों को गालियां देना, उन पर फिकरे कसना, उन का माखौल उड़ाना, ये सब आम हो गया है।

इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सबसे ताज़ा चर्चा अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट बनाम अदालत की अवमानना की है। प्रशांत भूषण के ट्वीट को अदालत की अवमानना मान कर उन्हें क्षमा मांगने को कहा गया। क्षमा नहीं मांगने पर सज़ा दिए जाने की बात से भी आगाह किया गया। वहीं प्रशांत भूषण ने अपनी स्टेटमेंट में माफी मांगने से इनकार कर दिया। प्रशांत भूषण ने कहा कि वह अदालत का बहुत सम्मान करते हैं लेकिन माफी मांगना उनकी अंतरात्मा की अवमानना होगी। 20 अगस्त को हुई सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में महात्मा गांधी के बयान का हवाला देते हुए कहा कि न मुझे दया चाहिए, न मैं इसकी मांग कर रहा हूं। मैं कोई उदारता भी नहीं चाह रहा हूं, कोर्ट जो भी सजा देगी मैं उसे सहर्ष लेने को तैयार हूं। प्रशांत भूषण के इस प्रकरण के साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गई है।

किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है। अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हमेशा कुछ न कुछ सीमा अवश्य होती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है। वहीं, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 संविधान के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, जिसमे यह कहा गया है कि भारत में कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया के आलावा कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता है। इसके तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार होता है।

प्रश्न उठता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आज के समय में क्या कोई सीमा सुनिश्चित की जा सकती है जब सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति का एक विस्तृत प्लेटफॉर्म दे रखा है। इस प्लेटफॉर्म के अच्छे और बूरे पहलू दोनों हैं। अच्छा पहलू यह है लिए इसने अनेक बार लोगों का जीवन बचाने और न्याय दिलाने में महती भूमिका निभाई है। किसी बच्चे के गुम हो जाने अथवा किसी गुमें हुए बच्चे के परिवार का पता लगाने में व्हाट्सएप्प जैसे माध्यमों ने सकारात्मक परिणाम दिए हैं। इसी तरह यदि किसी घायल या बीमार को रक्त की ज़रूरत हो तो सोशल मीडिया पर संदेश वायरल होते ही जल्दी से जल्दी रक्त उपलब्ध हुआ है। लेकिन सोशल मीडिया का दूसरा पहलू जो कभी-कभी एक पागलपन में ढलता दिखाई देता है, वह चिंताजनक है। यह पहलू है किसी व्यक्ति या मुद्दे को ट्रोल किए जाने का। जब बात किसी व्यक्ति की हो तो स्थिति मानहानि से भी बदतर होने लगती है। छद्मनामी ट्रोलर बेलगाम तरीके से किसी भी नामी व्यक्ति को ट्रोल करने में इस तरह जुट जाते हैं गोया इसके अलावा उन्हें अपने जीवन में और कोई काम ही न हो। इंटरनेट पर ट्रोलिंग एक ट्रेंड बन चुका है। इसका शिकार कई सेलिब्रेटी हो चुके है। हमारे लोकतंत्र ने हमें एक आज़ादी दी है वो है अभिव्यक्ति की। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट और सोशल मीडिया एक जरिया है जहां लोग अपने विचार रख सकते है, पर आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगो को गालियां देना, उन पर फिकरे कसना, उन का मखौल उड़ाना, ये सब आम हो गया है। जबकि अभिव्यक्ति की आज़ादी किसी का अपमान करने की आज़ादी नहीं देती है।

देखा जाए तो सोशल मीडिया उस आम नागरिक के लिए वरदान है जिसे अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुंचाने के लिए कोई मंच अथवा प्रकाशन नहीं मिल पाता था। इसने अनेक ऐसे अकेले बुजुर्गों के जीवन को समाज (भले ही आभासीय) से जोड़ दिया जो अपने अकेलेपन के कारण अवसादग्रस्त जीवन जीने को विवश रहते थे। लेकिन वहीं दूसरी ओर अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति ने सोशल मीडिया को क्षति पहुंचाना शुरू कर दिया है। दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि आजकल राजनीतिक दल वेतन के आधार पर ट्रोलर नौकरी पर रखते हैं जिनका काम दिन-रात ऐसे लोगों के खिलाफ आग उगलना होता है जो विरोधी दल के हों। ट्रोलर्स की भूमिका उस समय घातक हो जाती है जब वे जजमेंट करने पर उतारू हो जाते हैं। कौन दोषी है और कौन नहीं? इसका फैसला वे व्यक्ति कैसे कर सकते हैं जिन्हें न तो कानून का ज्ञान होता है और न मामले की गहराई से जानकारी होती है। ऐसे मामलों में अकसर पक्ष और विपक्ष की संख्या प्रभावी रहती है। जिसका पलड़ा भारी हो, बाकी कमेंट्स भी उसी हैसटैग पर नत्थी होते जाते हैं।
जैसे-जैसे सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का अमार्यादित चलन बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे सरकार ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया से जुड़ा हर संवेदनशील नागरिक सोशल मीडिया के नियमन की आवश्यकता को महसूस करने लगा है। सरकारें तो अभिव्यक्ति पर नियंत्रण रखने के अवसर ढूंढती ही रहती हैं लेकिन अब सोशल मीडिया के नियमन की मांगें नागरिक समाज और न्यायपालिका की ओर से भी आने लगी हैं। सोशल मीडिया का जिस व्यापक पैमाने पर सुनियोजित रूप से दुरुपयोग किया जा रहा है और उस पर जिस प्रकार का अमर्यादित एवं उच्छृंखल व्यवहार देखने में आ रहा है, वह किसी को भी चिंतित करने के लिए पर्याप्त है। जहां एक ओर सोशल मीडिया के कारण ऐसे व्यक्ति को भी अपने विचार प्रकट करने का मंच मिल गया है जिसे पहले कोई मंच उपलब्ध नहीं था, वहीं दूसरी ओर वह निर्बाध, अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति का मंच बन गया है। दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू आदि के भी फर्जी चित्र सोशल मीडिया पर प्रसारित किए जा चुके हैं जिनमें फोटोशॉप के इस्तेमाल द्वारा परिवर्तन करके उनका चरित्र हनन किया जाता है। व्यक्ति और समुदायविशेष के खिलाफ नफरत फैलाने और दंगों की भूमिका बनाने में भी सोशल मीडिया की सक्रियता देखी गई है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सोशल मीडिया के नियमन के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत बताई है और सरकार से इस बारे में कानून बनाने को कहा है।

सन् 2009 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा बनाए गए सूचना तकनीकी कानून के अनुच्छेद 66ए में पुलिस को कंप्यूटर या किसी भी अन्य प्रकार के साधन द्वारा भेजी गई किसी भी ऐसी चीज के लिये भेजने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था जो उसकी निगाह में आपत्तिजनक हो। पुलिस ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके अनेक प्रकार के मामलों में गिरफ्तारियां कीं। इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2015 में असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया। इसके बाद केंद्र सरकार ने इस मामले की तह तक जाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट ने भारतीय दंड संहिता, फौजदारी प्रक्रिया संहिता और सूचना तकनीकी कानून में संशोधन करके सख्त सजाओं का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की। इनमें एक सिफारिश यह भी है कि किसी भी किस्म की सामग्री द्वारा नफरत फैलाने के अपराध के लिए दो साल की कैद या पांच हजार रुपये जुर्माना या फिर दोनों की सजा निर्धारित की जाए। भय या आशंका फैलाने या हिंसा के लिए उकसाने के लिए भी एक साल की कैद या पांच हजार रुपये या फिर दोनों की सजा की सिफारिश की गई। जांच प्रक्रिया के बारे में भी कई किस्म के संशोधन सुझाए गए।
आज स्थिति यहां तक जा पहुंची है कि फाली नरीमन और हरीश साल्वे जैसे देश के चोटी के विधिवेत्ता भी ट्रोलिंग जजमेंट के कारण सोशल मीडिया को घातक मानने लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि जिस प्रकार व्हाट्सएप्प के मॉबलिंचिंग में दुरुपयोग के कारण मैसेजिंग की सीमा एक साथ पांच मैसेज तक घटा दी गई। कहीं ऐसा न हो कि व्हाट्सएप्प मैसेजिंग की भांति हमें ट्रोलर्स के कारण सोशल मीडिया के कई लाभों से वंचित होना पड़े़ और हम अपनी अभिव्यक्ति की आजादी को अपने ही हाथों कम करवा डालें। 
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(दैनिक सागर दिनकर में 26.08.2020 को प्रकाशित)
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