Thursday, August 20, 2020

चर्चा प्लस | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ शरद सिंह | सागर दिनकर में प्रकाशित

चर्चा प्लस ...
नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह         
     - डॉ शरद सिंह
      नई शिक्षा नीति-2020 को कैबिनेट की मंज़ूरी मिलने के बाद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने इसे प्रेसवार्ता में जारी किया। इससे पहले 1986 में शिक्षा नीति लागू की गई थी। इस नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं। इस नीति की सबसे बड़ी बात है कि नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। यद्यपि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या इस नीति के भाषाई प्रावधान में सरकारी स्कूलों के बच्चे उन बच्चों का मुकाबला कर सकेंगे जो प्राईवेट स्कूल में पहली कक्षा से अंग्रेजी भाषा सीखते हैं। देश में अंग्रेजी के प्रभाव के चलते कहीं सरकारी स्कूलों के बच्चे और पिछड़ तो नहीं जाएंगे? इस तरह की कई बातें अभी विचार करने योग्य हैं।

.      मुझे याद है भारत भवन में सन् 2004 में हुई एक साहित्यिक संगोष्ठी जिसमें देश-विदेश से हिन्दी के जानकार एकत्र हुए थे। कथासम्राट प्रेमचंद की पोती सारा राय भी उसमें आई थीं। विदेशों में हिन्दी साहित्य विषयक सत्र के बाद जब हम भोजनसत्र में गपशप कर रहे थे तभी किसी बात पर चर्चा चलते-चलते स्कूल शिक्षा पर पहुंची और सारा राय ने हंस कर कहा-‘‘हिन्दी स्कूलों में पढ़े हुए लोग कितनी भी अच्छी अंग्रेजी बोल लें लेकिन पकड़ में आ ही जाते हैं।’’ मैंने चकित हो कर पूछा-कैसे?’’ तो उन्होंने कहा-‘‘शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा कि अभी पिछले सत्र में जो सज्जन भाषण दे रहे थे वे बिना वज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘‘पोर्टुगल’’ को ‘‘पुर्तगाल’’ कहा, मैं ताड़ गई कि ये हिन्दी मीडियम के अंग्रेजी नवाब हैं।’’ उनका तंज इस बात पर था कि वे सज्जन हिन्दी के आयोजन में बेवज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। उस समय तो यह बात हंसी-हंसी में आई-गई हो गई लेकिन सारा राय की यह टिप्पणी फांस बन कर मेरे दिल-दिमाग़ में चुभी रही। यह बात किसी एक सज्जन की नहीं थी, बल्कि उन तमाम लोगों की थी जो हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और स्वश्रम से अंग्रेजी में पारंगत होने का प्रयास करते हैं। अब तो अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर भी खुल गए है। यद्यपि कोरोनाकाल ने उन पर भी तालाबंदी करा दी। बहरहाल, ऑनलाईन अंग्रेजी शिक्षा की साईट्स हैं लेकिन वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अंग्रेजी न जानने वाले अथवा कम जानने वाले को अंग्रेजी की पर्याप्त शिक्षा दे सकें। ऐसे में नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा शिक्षा को ले कर जो प्रावधान रखा गया है वह चिंता में डालने वाला है।

मैं भी हिन्दी माध्यम स्कूल-कॉलेज में पढ़ी हूं और मुझे अब तक अनेक ऐसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेने का अवसर मिला है जो हिन्दी भाषा पर केन्द्रित होते हुए भी अंग्रेजी के बोलबाले के साए में हुए। मुझे असुविधा नहीं हुई क्योंकि हिन्दी पर मेरी भाषाई पकड़ अच्छी है और कक्षा एक से ही घर पर मुझे अंग्रेजी पढ़ाई जाती रही। मेरी मां डॉ, विद्यावती ‘मालविका’ ने हिन्दी की व्याख्याता होते हुए भी मेरी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर ध्यान दिया तथा उच्चारण को लेकर हमेशा सजग रखा। लेकिन जब मैं उन युवाओं के बारे में सोचती हूं जो समाज के ऐसे तबके से आते हैं जहां माता-पिता दोनों ही भाषाई ज्ञान में कच्चे होते हैं, वे युवा हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हुए अंग्रेजी के आतंक का कैसे मुकाबला करते होंगे? क्या उनमें हीन भावना पनपने लगती है? क्या वे स्वयं को रोजगार की दौड़ में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा महसूस करते हैं?

कक्षा पांच तक मातृ भाषा में शिक्षा दिया जाना बड़ी सुखद बात लगती है। निश्चित रूप से इससे बच्चे को विषय को समझने और अपनी मातृभाषा से जुड़े रहने का अवसर मिलेगा। लेकिन क्या इस नीति को अंग्रेजी माध्यम के प्राईवेट स्कूल अपनाएंगे? यदि नहीं अपनाएंगे तो सरकारी और प्राईवेट स्कूलों के बीच की भाषाई खाई और गहरी हो जाएगी। हम दशकों से लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को ‘बाबू बनाने की शिक्षा नीति’’ कह कर कोसते आए हैं। लेकिन इस शिक्षा नीति के भाषा-माध्यम पक्ष को लेकर बच्चों के क्या बनने की उम्मींद कर सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी नीति है। इसमें स्किल डेव्हलपमेंट के अनेक प्रावधान हैं लेकिन इस दौर में जब यह महसूस होने लगा है कि बच्चों को पहली कक्षा से ही द्विभााषी शिक्षा दी जाए तब कक्षा पांच तक केवल मातृ भाषा में शिक्षा का प्रावधान कई चुनौतियां खड़ा करता है। नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। इसे लागू करने के साथ ही यह जरूरी होता कि देश में भाषाई एकरूपता पर भी नई नीति बनाई जाती और अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाए जाते। चीन, जापान, रूस, जर्मनी आदि देश एक राष्ट्र भाषा के आधार पर प्रगति कर रहे हैं तो हमारे देश में यह संभव क्यों नहीं हो पाता है? जबकि देश की आज़ादी के बाद से इस दिशा में कई बार ज़ोरदार मांग उठाई गई। यह विचारणीय है कि भाषा का मुद्दा इस नई शिक्षा नीति के व्यावहारिक उद्देश्यों को ठेस पहुंचा सकता है। 

यह अच्छी बात है कि समय के साथ शिक्षानीति में भी परिवर्तन होना चाहिए और अब देश की शिक्षा नीति में 34 साल बाद नए बदलाव किए जा रहे हैं। नई प्रणाली में प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। प्रायमरी में तीसरी, चौथी और पांचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल अर्थात् 6-8 कक्षा में विषय का परिचय कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पांचवी और आठवीं कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए ’एनईपी 2020’ में ’बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ की स्थापना की जाएगी। एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा।

पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है। यानी मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम की इस नई व्यवस्था में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को लाभ होगा जिनकी पढ़ाई बीच में छूट जाती है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाखिला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक खास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं। उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल की ज़रूरत नहीं होगी। नई शिक्षा नीति में अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर विस्तार से चर्चा अगले किसी ‘‘चर्चा प्लस’’ में करूंगी। फिलहाल भाषा तत्व जो किसी भी शिक्षा नीति की बुनियाद है, उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यानी पहले ‘‘पुर्तगाल और ‘‘पोर्टुगल’’ की दूरी को पाटना भी जरूरी है।
  
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(दैनिक सागर दिनकर में 20.08.2020 को प्रकाशित)
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