Tuesday, July 20, 2021

पुस्तक समीक्षा | छोटी कहानियों का जीवन्त रोचक संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


प्रस्तुत है आज 20.07. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका श्रीमती आशा मुखारया के कहानी संग्रह "ज़िंदगी के रंग अनेक" की  समीक्षा... 

आभार दैनिक "आचरण" 🙏


पुस्तक समीक्षा
छोटी कहानियों का जीवन्त रोचक संग्रह समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - ज़िंदगी के रंग अनेक
लेखिका     - आशा मुखारया
प्रकाशक    - पाथेय प्रकाशन, जबलपुर, मध्यप्रदेश
मूल्य       - 200/-
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कहानी साहित्य की एक रोचक विधा है। कहानी में एक ऐसा कथानक होता है जो पात्र और संवाद के संयोग से आकार पाता है और अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर मनांरंजन के साथ ही विचारों को एक गुच्छा छोड़ जाता है, तालों की चाबी के गुच्छे की तरह। कहानी को पढ़ कर मन में उठने वाले सवालों के ताले की चाबी उस कहानी में घटित घटनाओं से ही चुन कर अलग करनी होती है जिससे कि वह कहानी के प्रति निजी निष्कर्ष पर पहुंच सके। जब कोई कहानी पाठक को अपने जीवन से जुड़ी हुई अनुभव होती है तो वह उसे तेजी से आत्मसात करता है। समीक्ष्य कहानी संग्रह ऐसी कहानियों का संग्रह है जिसमें मध्यमवर्गीय परिवारों से जुड़े कथानक हैं। ये कथानक अपने घर-परिवार तथा अपने आसपास के घरों की अंतर्कथा हैं। कहानी संग्रह का नाम है-‘‘ज़िंदगी के रंग अनेक’’। इसकी कहानीकार हैं आशा मुखारया।
संग्रह की कहानियों पर दृष्टिपात करने से पहले लेखिका के भारतीय परिवेश और सामाजिक सरोकार को जान लेना आवश्यक है। लेखिका आशा मुखारया 5 जुलाई 1942 को जबलपुर (म.प्र.) में जन्मीं, वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई, किन्तु सागर (म.प्र.) से भी उनका गहरा नाता है। सागर में उनके अनेक परिवारजन निवासरत् हैं। उनके पति डाॅ. प्रताप सिंह मुखारया इतिहास के प्रोफेसर रहे। पति की सेवा निवृत्ति के बाद उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र विवेक मुखारया के पास अमेरिका के जैक्सनविल (फ्लोरिडा) में बसने का निर्णय लिया। वहीं आशा मुखारया को अपने पति का चिरविछोह सहना पड़ा किन्तु बेटे-बहू के अपनत्व से उन्हें सहारा दिया। अपनी इकलौती संतान अर्थात् पुत्र विवेक के साथ रहना उनका सही निर्णय था लेकिन भारत में मौज़ूद अपना गांव, घर, शहर हर प्रवासी भारतीय की तरह उनके दिल में भी बसा हुआ है। नागरिकता भले ही अमेरिका की हो लेकिन दिल है हिन्दुस्तानी। आशा मुखारया की प्रत्येक कहानी में इस तथ्य को शब्दशः अनुभव किया जा सकता है। समय-समय पर भारत में प्रवास के दौरान भारतीय समाज में तेजी से हो रहे परिवर्तन और स्मृतियों की तिजोरी में सुरक्षित पुराने अनुभव उनकी कहानियों में सजीव हो उठे हैं। सीधे-सरल शब्दों में, बिना किसी लाग-लपेट के लिखी गई ये कहानियां सहसा ही मन को छू जाती हैं।
‘‘ज़िंदगी के रंग अनेक’’ संग्रह की कहानियों का आकार बड़ा नहीं हैं। ये सभी कहानियां छोटी-छोटी हैं। कुल अट्ठाईस कहानियां भारतीय परिवारों के अटठाईस रंग (शेड्स) दिखाती हैं। ‘‘निर्णय’’ शीर्षक कहानी पारिवारिक संबंधों में आती जा रही संवेदनहीनता को सामने रखती है। यह कहानी एक ऐसी स्त्री के बारे में है जो परिवार में बुआ का दर्ज़ा रखती है। अपने आरम्भिक जीवन में सारी सुख-सुविधाओं का आनन्द उठाती है। किन्तु जैसे-जैसे उसकी वृद्धावस्था आती है वह पारिवारिक उपेक्षा की शिकार बनने लगती है। इस कहानी का अंत लेखिका ने एक नाटकीय मोड़ के साथ रोचक बना दिया है। जो सुखद भी लगता है। ‘‘चंदा’’ शीर्षक कहानी को पढ़ते हुए यह अनुभव करना अच्छा लगता है कि लेखिका अपनी ज़मीन से यानी बुंदेलखण्ड से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने कहानी में बुंदेली गीतों को पिरोया है। एक बानगी देखिए-
धुतिया ले दो बलम कलकतिया
जा में हरी-हरी पतियां
कांसरे को लोटा, फुहारे को पानी
धुतिया ले दो बलम कलकतिया

‘‘वरदान’’ कहानी एक ऐसे स्त्री पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है जिसे परिस्थितिवश एक शक्की और क्रोधी व्यक्ति के साथ विवाह करना पड़ा और अनेक वर्ष घुटन भरा जीवन जीना पड़ा। किन्तु लंदन में बसे उसके बेटे ने उसका जीवन बदलने में मदद की और उसके हिस्से की खुशियां उसकी झोली में डाल दीं। यह एक ऐसी कहानी है जो स्त्री के पारिवारिक जीवन को एक नई पहचान देती है। इसे एक ज़रूरी-सी कहानी कहा जा सकता है। इस कहानी में स्त्री जीवन का वह पक्ष भी है जिसमें उसे निराधार लांछित किया जाता है। कहानी की नायिका दीपा का परिचय देते हुए लेखिका ने लिखा है-‘‘ये वही दीपा थी जो बचपन में मेरे यहां रोज़ ही आया करती थी। मेरी छोटी बहन की सहेली थी। ज़रूरत से ज़्यादा स्मार्ट और ख़ूबसूरत। महाराष्ट्रीयन परिवार से थी। पिता चीफ इंजीनियर थे। उसे किसी से भी बात करने में हिचक नहीं होती थी। उसकी इसी आदत को ले कर लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे।जिन लोगों को लिफ्ट नहीं देती थी, वो उसके बारे में फ़ालतू बातें करते थे। पर वो एक बहुत अच्छे चरित्र वाली लड़की थी।’’
परिवारों में ज़ायदाद को ले कर होने वाले झगड़े और मनमुटाव आम बात है। मंा की मृत्यु पर बेटियों का उनके ज़ेवर को ले कर खींचातानी के सच्चे किस्से अकसर सुनने को मिल जाते हैं। यही मूल कथानक है, ‘‘मैं कहां हूं’’ कहानी का। इसी तरह ‘‘वापसी’’ कहानी उन माता-पिता की कहानी है जो विदेश में जा बसे अपने बच्चों के पास उत्साह से जाते हैं किन्तु वहां घोर उपेक्षा झेल कर अपने देश लौटने को विवश हो जाते हैं, जहां जीवन के नए अनुभव उनकी प्रतीक्षा में मुस्कुराते हुए खड़े हैं।
‘‘वी आर जस्ट फ्रेंड्स’’ एक दिलचस्प कहानी है। यह एक फ्र्लट करने वाले लड़के के प्रेम में पड़ जाने वाली लड़की की कहानी है। ‘‘ज़िन्दगी के रंग अनेक’’ संवेदनात्मक कहानी है। अपनों के होते हुए भी एकाकी जीवन जीने को विवश स्त्री की कहानी। इस कहानी में मन को भिगो देने वाला एक प्रसंग है-‘‘अपना बुढ़ापा उन्होंने अपनी किताबों के साहारे काट दिया। अपने कष्टों को छुपा कर वो अपना अकेलापन काटती रहीं। अपनी ज़िन्दगी से और अपनों से कभी शिकायत नहीं की और एक दिन चुपचाप मौत के आगोश में खो गईं।’’
संग्रह में एक कहानी है-‘‘ऐसी भी बहू’’। रोचक और सकारात्मक कहानी है जो ज़िदगी के एक ख़ास रंग को सामने रखती है। कहानी में एक ऐसी बहू का वर्णन है जो विखंडित होते आधुनिक परिवार की परिपाटी को अनदेखा कर के अपने परिवार के प्रति समर्पित रहने के लिए कृतसंकल्प है। ‘‘तीसरी पीढ़ी’’ उस पारिवारिक व्यवस्था को उजागर करती है जिसमें बेटियों को चाहे कितनी भी छूट दी जाए लेकिन जब विवाह की बात आती है तो माता-पिता पारम्परिक रुख अपना लेते हैं। लड़की चाहे विदेश में रह रही हो लेकिन उसके लिए विशुद्ध भारतीय दूल्हा और वह भी भारत में रह रहा हो तो और अच्छा है तथा दान-दहेज वाली शादी तय करने की मशक्कत शुरू हो जाती है। इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है कि एक अलग परिवेश में रह रही लड़की ठेठ परंपरावादी परिवार या पति के साथ कैसे सुखी रह पाएगी? ऐसी लड़की की स्थिति ठीक उस पतंग की भांति होती है जिसे खुले आकाश में ऊचे- बहुत ऊंचे तक उडज्ञने दिया जाता है तथा अपनी खुशी प्रकट कर के उसका उत्साह बढ़ाया जाता है। जब वह लड़की समझने लगती है कि वह अपने जीवन का निर्णय लेने का अधिकार पा चुकी है, ऐन उसी समय उसकी डोर तेजी से लपेटे जानी लगती है। उड़ान समाप्त, स्वतंत्रता समाप्त, बाहरी दुनिया समाप्त, उसके निर्णय लेने का अधिकार समाप्त। उस पर माता-पिता अपने निर्णय को थोपना शुरू कर देते हैं तथा बाध्य करते हैं कि वह लड़की उनके निर्णय को माने। इस ट्रेजडी को कहानी की इन पंक्तियों में देखिए-‘‘इस बीच रिया को भी अपने साथ काम करने वाले एक जर्मन लड़के से प्यार हो गया और फिर इतिहास अपने को दोहराने लगा। और तीसरी पीढ़ी की कहानी शुरू हो गई। भारत में रिया के मां-बाप उसके लिए लड़का ढूंढने लगे।’’
संग्रह की एक और कहानी है जो समाज के बदलते माहौल की ओर संकेत करती है। कहानी का शीर्षक है-‘‘यहां से वहां’’। मेहमानों के चरित्र पर बुनी गई यह कहानी एक अलग ही खाका रचती है। कहानी के आरम्भिक पैरा देखिए- ‘‘आज के जमाने में लोग मेहमान-नवाज़ी से घबराने लगे हैं। पहले कैसे लोग मेहमान को भगवान मानते थे। ‘अतिथि देवो भवः’। पअ अब तो रात को घंटी बजते ही लोग घबराने लगते हैं कि पता नहीं कौन आ गया।’’
इसी कहानी के अगले पैरा में मेहमानों के बारे में भी लेखिका ने दिलचस्प विवरण दिया है-‘‘पर मुझे लगता है कि आज के मेहमान भी आरामपरस्त होते जा रहे हैं। जिसके घर भी जाएंगे, पांव पसार कर बैठ जाएंगे। बच्चों पर हुकंम चलाएंगे-पानी ले आओ, पेपर ले आओ, सिगरेट ले आओ। ये नहीं सोचते कि जिसके घर जाते हैं तो उसके काम में हााि बंटाएं जिससे मेहमान का आना न अखरे।’’
अमेरिका में बसे भारतियों के परिवेश का लेखाजोखा है कहानी ‘‘सिद्धपुरुष’’ में। भारतीय संस्कृति और धर्म विदेश में भी भारतीयों को संबल प्रदान करता है। इस कहानी का एक अंश है-‘‘कई सालों से हम लोग अमेरिका के न्यूयार्क शहर में अपने बेटे के पास सेटिल हो गए थे। कई लोग हम लोगों से पहले वहां रहते थे। इसी से हमउम्र लोगों से काफी जान-पहचान हो गई थी। वहां पर बहुत बड़ा व सुंदर मंदिर है। हम सब सीनियर सिटीजन महीने में एक बार मिलते हैं और आपस में दुनिया-जहान की बातें करते हैं। उसमें धार्मिक बातों के अलावा जनरल, कुछ घरेलू समस्याओं पर भी बातें होती हैं।.... हम बुजुर्गों के पास समय काटने का बस यही एक तरीका था। सोमवार से शुक्रवार तक हमारे बच्चे अपनी नौकरी में काफी व्यस्त रहते हैं फिर भी उनकी कोशिश रहती है कि हम लोगों को भी समय दें। यहां पार्टियां बहुत होती हैं तो वो हम लोगों को पार्टियों में ले जाते हैं। वहां तरह-तरह के लोग मिलते हैं। बच्चों के सभी दोस्त बहुत अच्छे हैं।’’
विदेश में रहते हुए देश के अस्तित्व को अपने भीतर जगाए रखना और अपनत्व की तलाश में आपस में जुड़ते रहना हर प्रवासी भारतीय के जीवन का अभिन्न पक्ष होता है। अपने अतीत और अपने वर्तमान के बीच तुलना करना, अपने अतीत को याद रखना और पराए परिवेश में रच-बस जाना प्रवासी भारतीयों की खूबी होती है। यही विशेषता लेखिका आशा मुखारया की कहानियों देखा जा सकता है। उनकी कहानियां प्रत्येक पाठक से संवाद करने में सक्षम हैं। संग्रह का आमुख जबलपुर निवासी वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व संपादक डाॅ. राजकुमार ‘सुमित्र’ ने लिखा है। वे लिखते हैं कि ‘‘लेखिका ने मध्यमवर्गीय परिवारों की रचना, स्थिति और मनःस्थितियों का सटीक चित्रण किया है। बेटे से बेटी भली, परिवारों की टूटन, वृद्धों की उपेक्षा और परदेश में देश की याद को बड़ी मार्मिकता से उकेरा है।’’ अपने कहानी लेखन के बारे में लेखिका आशा मुखारया ने स्वयं लिखा है कि ‘‘कई बार कई घटनाएं और पात्र अपनी छाप छोड़ जाते हैं जो सालों तक मन को सालते रहते हैं और जो अंत में काग़ज़ पर उतर कर कहानियों का रूप ले लेते हैं। चाहते हुए भी और न चाहते हुए भी लिख जाते हैं। कई सालों से अपने मन के भावों को काग़ज़ पर उतारती रही और अंत में देखा कि इन कहानियों ने कहानी संग्रह का रूप धारण कर लिया है।’’
कुलमिला कर यह कहा जा सकता है कि यह छोटी कहानियों का जीवन्त रोचक संग्रह है जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।        
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