लोककवि ईसुरी पर समग्र चर्चा करती महत्वपूर्ण पुस्तक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - लोककवि ईसुरी
लेखक - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक - राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नेहरु भवन, 5 इंस्टीट्यूशनल एरिया, फ़ेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
मूल्य - 200/-
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श्यामसुंदर दुबे की पुस्तक ‘‘लोक कवि ईसुरी’’ लोक सीमाओं से बाहर निकल कर प्रेम परक भावनाओं के उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले कवि ईसुरी के समूचे व्यक्तित्व एवं कृतित्व का एक विशिष्ट सिंहावलोकन है। लोक कवि ईसुरी बुंदेलखंड अंचल में निवास करने वाले कवि रहे और उन्होंने बुंदेली में फाग रचनाएं लिखीं। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी अधिकांश रचनाएं अपनी प्रेमिका रजऊ को समर्पित करते हुए लिखी हैं। लोक संस्कृति के अध्येता तथा साहित्य मनीषी श्यामसुंदर दुबे ने ईसुरी की रचनाओं के लोक तत्व, सौंदर्य तत्व, अभिव्यक्ति और लोक भक्ति का सांगोपांग अध्ययन, विश्लेषण एवं विवरण प्रस्तुत करते हुए अपनी पुस्तक में अपने कुल आठ दीर्घ लेखों को पिरोया है। पहला लेख है व्यक्तित्व-अंतरीपों की अंतर यात्रा, दूसरा लेख है सौंदर्य पर प्रेम की प्रतीति, तीसरा- अपने समय समाज में, चैथा- लोक भक्ति की झलक, पांचवा- प्रकृति का लोक पक्ष, छठवां- लोक में मृत्यु-अभिप्राय, सातवां- रीतिकाल की लोक व्याप्ति और आठवां- अभिव्यक्ति प्रणाली का अंतर्विश्लेषण।
बुन्देलखण्ड में साहित्य की समृद्ध परम्परा पाई जाती है। इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं जनकवि ईसुरी। वे मूलतः लोककवि थे और आशु कविता के लिए सुविख्यात थे। रीति काव्य और ईसुरी के काव्य की तुलना की जाए तो यह बात उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु युग में लोककवि ईसुरी को बुन्देलखण्ड में जितनी ख्याति प्राप्त हुई उतनी अन्य किसी कवि को नहीं। ईसुरी की फागें और दूसरी रचनाएं आज भी बुंदेलखंड के जन-जन में लोकप्रिय हैं। ईसुरी की फागें लोक काव्य के रूप में जानी जाती हैं और लोकगीत के रूप में आज भी गाई जाती हैं। भारतेन्दु युग के लोककवि ईसुरी पं गंगाधर व्यास के समकालीन थे और आज भी बुंदेलखंड के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। ईसुरी की रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का वास्तविक चित्रण मिलता है। उनकी ख्याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए है। ईसुरी की रचनाओं के माध्यम से उनकी योग्यता, व्यावहारिक ज्ञान का बोध होता है। ईसुरी की रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता, सरलता और रागयुक्त संस्कृति की झलक मिलती है। ईसुरी की रचनाएं जीवन, श्रंृगार, सामाजिक परिवेश, राजनीति, भक्तियोग, संयोग, वियोग, लौकिकता आदि पर आधारित हैं। यह कहा जा सकता है कि ग्राम्य संस्कृति का पूरा इतिहास केवल ईसुरी की फागों में मिलता है। उनकी फागों में प्रेम, श्रृंगार, करुणा, सहानुभूति, हृदय की कसक एवं मार्मिक अनुभूतियों का सजीव चित्रण है। अपनी काल्पनिक प्रेमिका रजऊ को संबोधित करके लिखी गई रचनाओं के लिए ईसुरी को आलोचना और लोकनिंदा का सामना भी करना पड़ा।
मानव मन की बाह्य प्रवृत्ति-मूलक प्रेरणाओं से जो कुछ विकास हुआ है उसे सभ्यता कहा जाता है और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों से जो कुछ बना है, उसे संस्कृति कहा जाता है। लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है। इन सबकी मिलीजुली संस्कृति, लोक संस्कृति कहलाती है। किसी क्षेत्र विशेष में निवास करने वाले लोगों के पारस्परिक धर्म त्योहार, पर्व, रीति ,रिवाज, मान्यताओं, कला आदि को लोक संस्कृति का नाम दिया जाता है। लोक संस्कृति किसी क्षेत्र विशेष को अन्य क्षेत्रों से स्वतंत्र पहचान प्रदान करती है। किसी भी कवि का लोककवि हो जाना बड़े गर्व की बात हो सकती है। वह मूलतः ध्वजवाहक होता है अपने लोक की संस्कृति का। लेकिन इसमें जो सबसे बड़ा संकट है, वह है कवि का नाम विलोपित हो जाना। जब कोई रचना लोक में प्रचलित हो जाती है तो वह एक मुख से दूसरे मुख आते-जाते उन व्यक्तियों की प्रस्तुति बन जाती है। मूल कवि का नाम विस्मृत होने लगता है और एक लोक वचन की भांति वह रचना जन-जन में प्रवाहित होती रहती है। अपने पहले लेख ‘‘व्यक्तित्व: अंतरीपों की अंतर्यात्रा’’ में श्यामसुंदर दुबे लिखते हैं कि ‘‘लोक साहित्य में आत्मा व्यंजना की गुंजाइश खूब रहती है किंतु कवि-पहचान इसमें विलोपित हो जाती है। लोक साहित्य की अनेक विशेषताओं के साथ यह एक विशेषता जुड़ी है कि लोक साहित्य का रचयिता अनाम होता है, उसमें रचनाकार का नाम-धाम नहीं रहता है और इस आधार पर यह निश्चित कर लिया जाता है कि लोग कविता की रचना सामूहिक प्रतिभा का परिणाम है लेकिन यह सर्वथा सत्य नहीं है। रचना किसी एक के द्वारा ही की जाती है भले ही बाद में उसमें कुछ अन्य रचनाकारों का योगदान संभव होता रहा है। लोक में व्यक्ति केंद्रियता विगर्हणीय रही है। उसकी सामूहिकता ही उसकी पहचान रही है। लोक में ग्राम्य में धारणा का ही अर्थ है- समूह का जीवन’’
ईसुरी एक लोक कवि थे। फिर भी उनकी रचनाएं लोककाव्य की ख्याति पाते हुए भी अपने कवि के नाम से अलग नहीं हुईं। ईसुरी के काव्य और उसके देशकाल पर प्रकाश डालते हुए लेखक श्याम सुंदर दुबे ने लिखा है-‘‘ईसुरी की कविता लोक कविता के उस संधि स्थल की कविता थी, जहां कविता व्यक्ति केन्द्रित रचना के रूप में अपनी पहचान बनाने लगी थी। कविता में कविगणों के नाम की छाप का प्रयोग होने लगा था। एक तरह से यह लोककाव्य की वह उछाल थी जिसमें वह अपनी लोकधर्मिता से अलग होने की कोशिश में रत हो रहा था।’’ लेखक ने आगे लिखा हैं कि-‘‘ईसुरी के व्यक्तित्व की छाप उनकी कविता में स्पष्ट हो रही थी।’’
‘‘सौदर्यपरक प्रेम की प्रतीति’’-यह पुस्तक का दूसरा लेख है जिसमें लेखक श्याम सुंदर दुबे ने ईसुरी के काव्य के सौदर्यपरक पक्ष को रेखांकित किया है। वे लिखते हैं कि -‘‘ईसुरी की कविता क्रियाबिंबों की कविता है। वे बुंदेली व्यक्ति की सतत क्रिया विधि को अपनी कविता में ढालते हैं। उनकी कविता इसलिए स्थिर बिंबों के निर्माण में रुचि नहीं लेती है। एक चलित ऊर्जा काइनेटिक एनर्जी से परिचालित हो कर उनकी कविता बुंदेली चमक-दमक, बुंदेली ठस-मसक, बुंदेली लहक-चहक की धूप-छांही उजास फेंकती है। उनकी कविता केलेडिलक स्कोप जैसे दृश्यांकन निर्मित करती है। केलेडिलक स्कोप को ज़रा-सा घुमाया कि उसके आभ्यांतर की सौंदर्यसृष्टि परिवर्तित हो जाती है। ईसुरी की कविता का विलक्षण सौंदर्य चक्र इसी तरह के अपरूपों की रम्य रचना करता है।’’
ईसुरी के काव्यसौंदर्य का लेखक ने उदाहरण दिया है-
अंखियां जब काऊ से लगतीं, सब-सब रातन जगतीं
झपतीं नईं झीम न आवै, कां उस नींदी भगतीं
बिन देखे वे दरद दिमानी, पके खता-सी दगतीं
ऐसो हाल होत है ईसुर, पलक न पल तर दबतीं
ईसुरी के काव्य में प्रेम का एक ऐसा लोकाचारी रूप मिलता है जो सांस्कृतिक परम्पराओं का सुंदरता के साथ निर्वहन करता है किन्तु वर्जनाओं को तोड़ता भी चलता है। ‘‘अपने समय-समाज में’’ लेख में लेखक ने सामाजिक संदर्भ में ईसुरी की प्रेमाभिव्यक्ति का विश्लेषण किया है। लेखक ने लिखा है -‘‘ईसुरी का प्रेम-लोक अनुभूतियों के अनन्त विसतार वाला है। लोक की सीमित सामथ्र्य का दिगंतव्यापी प्रयोग ईसुरी अपनी इस प्रेम साधना के आधार पर करते हैं। ईसुरी का जीवन जिन घटनाओं का समुच्चय रहा है उनमें उनका प्रेमी व्यक्तित्व ही केन्द्र में है।’’ लेखक ने उदाहरण देते हुए आगे लिखा है-‘‘रजऊ की लगन ने उन्हें जिस विपरीत के समक्ष ला खड़ा किया, वह प्राणों की संासत का प्रामाणिक अनुभव है।’’
जा भई दशा लगन के मारें रजऊ तुमारे द्वारे
जिन तन फूल छड़ी न छूटी, तिनें चलीं तलवारें
हम तो टंगे नींम की डरियां, रजुआ करें बहारें
ठाड़ी हती टिकी चैखट से, अब भई ओट किवारें
कर का सकत अकेलो ईसुर सबरू गाज उतारें
लेखक श्यामसुंदर दुबे ने ईसुरी के काव्य में ‘‘लोकभक्ति की झलक’’ को भी निरूपित किया है। वस्तुतः लोक वह सर्वव्यापी सत्ता है जिसका निर्माण स्वयं मनुष्य ने किया है और जिसे वह अपने अस्तित्व के रूप में ढालने का सतत प्रयास करता रहता है। लोक में उपस्थित सारे मनुष्यों के सारे प्रयास लोक को विविधरंगी बना देते हैं और सौंदर्य की एक अलग परिभाषा गढ़ते हैं। इसमें भक्ति, व्रत-उपवास, पूजापाठ, तीर्थयात्रा से ले कर योग-आराधना तक शामिल होती है। जहां तक ईसुरी के काव्य में लोकभक्ति का प्रश्न है तो श्यामसुंदर दुबे मानते हैं कि -‘‘ईसुरी की भक्तिपरक कविताओं में शीर्ष स्थान राधा का है। वे राधा को ही जैसे अपना इष्ट मानते हैं।’’
पुस्तक ‘‘लोक कवि ईसुरी’’ में समाहित लेखक के सभी दीर्घ लेखों को पढ़ते हुए ईसुरी के व्यक्तित्व, कृतित्व, प्रेम, लोक और प्रकृति को जानना सुगम हो जाता है। लेखक श्यामसुंदर दुबे कि यह अपनी साहित्यिक विशिष्टता है कि वे संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग करते हुए सौंदर्यात्मक भाषा की एक ऐसी सरिता प्रवाहित करते हैं जिसकी छोटी-बड़ी लहरों का आनंद लेते हुए पाठक विषयवस्तु में नौकायन करते हुए अत्यंत सुख का अनुभव करता है। कवि ईसुरी के संदर्भ में इतनी विषद विश्लेष्णात्मक चर्चा करती हुई यह पुस्तक अद्वितीय है तथा ईसुरी के सम्रग को जानने के लिए नितान्त पठनीय है।
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